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बिहार का लैंड सीलिंग एक्ट : भूमिहीनों को जमीन के कागजात तो मिले, पर कब्जे के लिए अब भी क्यों भटक रहे दर-ब-दर?

पचपन साल पहले लागू हुए लैंड सीलिंग ऐक्ट से जुड़े पश्चिमी चंपारण के 93 मामले आज भी बिहार की सात अदालतों में चक्कर खा रहे और भूमिहीन लोग सरकारी पट्टे के कागजात लेकर जमीन पर कब्जे की बाट जोह रहे

पश्चिमी चंपारण में कई जगहों पर भूमिहीनों को जमीन का पट्टा तो मिल गया पर कब्जा आज तक नहीं मिला
पश्चिमी चंपारण में कई जगहों पर भूमिहीनों को जमीन का पट्टा तो मिल गया पर कब्जा आज तक नहीं मिला
अपडेटेड 30 मई , 2025

पश्चिमी चंपारण के पटेरवा गांव की संभा देवी भावुक होकर कहती हैं, ''इस बात को लेकर दो दफे यहां गोलियां चल चुकी हैं. सरकार तो हम लोगों को फंसा कर रखी है. मरने के लिए छोड़ दी है, गोली चलवा रही है. अगर (जमीन) देनी हो तो बांटकर दे दे, जिससे गरीब खा-पी सके. नहीं देना था तो परचा काट कर क्यों दे दिया?"

संभा देवी दिसंबर, 2022 में पटेरवा गांव में हुए गोलीकांड का जिक्र कर रही थीं, जिसमें पांच महिलाएं हताहत हो गई थीं. ये महिला भू-धारी शिशिर दुबे को उन खेतों को जोतने से रोकने गई थीं, जो उनके पुरखों को 1985 में बिहार सरकार से मिले थे. दुबे के पूर्वज भूमिदत्त दुबे से बिहार सरकार ने 555.18 एकड़ जमीन लैंड सीलिंग ऐक्ट के तहत ले ली थी.

इसी जमीन में से 37 एकड़ पटेरवा के 40 भूमिहीन परिवारों को बांटी गई, मगर इन परिवारों को कब्जा नहीं मिला. भू-धारी इस मामले को लेकर एक अदालत से दूसरी अदालत तक जाते रहे और पर्चाधारी जमीन पर कब्जे की लगातार कोशिश करते रहे. इसी बीच यह घटना हो गई.

संभा देवी के मुताबिक, महिलाओं ने सिर्फ इतना कहा था कि अदालत ने जब स्टेटस-को लगा रखा है तो फैसला आने से पहले खेत न जोतें. उनके पास बैठे अशर्फी महतो कहते हैं, ''दूसरी बार उन लोगों ने हम पर गोली चलवाई. एक बार हमारे बुजुर्गों पर भी गोली चली थी, 1992 में. तब तीन लोगों को गोली लगी थी. झगड़ा इसी जमीन का था."

गांव के युवक अनिल कुमार मंडल ने अब कमान अपने हाथ में थाम ली है. वे बताते हैं, ''1985 में पर्चा तो मिला लेकिन जमीन पर कब्जा नहीं. जमीन के मालिक इसके खिलाफ हाई कोर्ट चले गए थे और कोर्ट ने डीएम से कहा कि जांच करके मामले का निष्पादन करें. मगर डीएम जांच में लेट-लतीफी करने लगे, आखिरकार थक-हार कर 1992 में लोगों ने सोचा, क्यों न खुद जाकर जमीन पर कब्जा कर लिया जाए. कागज तो हमारे पास है ही. तभी गोली चली. हालांकि तब भी गांव के लोगों ने कोशिश करना छोड़ा नहीं. 2002 में उस वक्त के डीएम साहब ने हमें जमीन पर कब्जा दिलवा दिया."

गांव के लोगों ने अपनी जमीन पर खेती शुरू कर दी. मगर भू-धारी भूमिदत्त दुबे के पुत्र रेवतीकांत दुबे पटना हाई कोर्ट चले गए. वहां अदालत ने स्टेटस-को लागू कर दिया. इसके बाद भूमिहीनों से फिर जमीन वापस ले ली गई. हाई कोर्ट ने इस केस को बिहार सरकार के बोर्ड ऑफ रेवेन्यू को ट्रांसफर कर दिया.

वहां से 2016 में फैसला पर्चाधारियों के पक्ष में आया. मगर भू-धारी के अनुरोध पर हाई कोर्ट ने फिर से स्टेटस-को लगाकर मामले को बिहार लैंड ट्रिब्यूनल के पास भेज दिया. 2022 में बिहार लैंड ट्रिब्यूनल ने भी पर्चाधारियों के पक्ष में फैसला सुनाया. मगर हाई कोर्ट ने फिर से इस फैसले पर स्टेटस-को लगा दिया है.

यह पटेरवा गांव के 40 भूमिहीन परिवारों की कहानी है. इस बीच ज्यादातर पर्चाधारियों की मौत हो गई है, अब उनकी लड़ाई उनके बेटे और पोते लड़ रहे हैं.

यह तकलीफ सिर्फ पटेरवा गांव की नहीं है. पश्चिमी चंपारण जिले में सीलिंग एक्ट से जुड़े ऐसे 92 मुकदमें हैं, जो पिछले चालीस और पचास वर्षों से अलग-अलग अदालतों में चल रहे हैं. इन सभी मामलों में कम से कम बीस हजार पर्चाधारी दशकों से जमीन मिलने का इंतजार कर रहे हैं. इन सभी मामलों को मिला दें तो 20,000 एकड़ जमीन जो लैंड सीलिंग ऐक्ट की वजह से दशकों पहले अधिशेष घोषित कर दी गई थी, उनका बंटवारा नहीं हुआ है.

चंपारण में गांधीवादी तरीके से भूमिहीनों की लड़ाई लड़ने वाले जेपी के शिष्य पंकज ऐसे तमाम मामलों में त्वरित न्याय को लेकर 16 अप्रैल को पटना हाई कोर्ट पहुंचे थे. उनके साथ पूर्वी चंपारण के 200 से ज्यादा पर्चाधारी थे. आंबेडकर की मूर्ति के नीचे पर्चाधारियों ने हाई कोर्ट के मुख्य द्वार पर प्रदर्शन किया.

पंकज ने पर्चाधारियों को फौरन जमीन दिलाने के लिए पटना हाइकोर्ट से सारे मुकदमों को झटपट निबटाने की मांग की

एक बातचीत में 75 साल के बुजुर्ग पंकज बताते हैं, ''आजादी के बाद जमींदारी खत्म हुई तो भूमिहीन रैयतों के बीच जमीन के बंटवारे के लिए 1961 में 'बिहार भूमिसुधार अधिकतम सीमा निर्धारण एवं अधिशेष भूमि अर्जन अधिनियम' लाया गया. बोलचाल की भाषा में इसी को लैंड सीलिंग ऐक्ट कहते हैं. यह कानून 9 सितंबर, 1970 को लागू हुआ. इसके तहत एक किसान अधिकतम 15 एकड़ सिंचित और एक फसल देने वाली 25 एकड़, जहां राम भरोसे खेती होती है, वैसी 30 एकड़ और रेत वाली और बंजर 40 एकड़ जमीन ही रख सकता है. इससे अतिरिक्त जमीन जिसके पास होगी, सरकार उसका अधिग्रहण करके भूमिहीनों को बांट देगी."

वे कहते हैं, ''कई जगह जमींदारों से जमीन छुड़वाकर भूमिहीनों में पट्टा बांटा गया. मगर उनमें से कई जगह उन पट्टों वाली जमीन पर गरीब भूमिहीनों को कब्जा नहीं दिलाया जा सका क्योंकि इस फैसले के खिलाफ भू-स्वामी अदालत चले गए. पिछले 50 साल से ये मामले इन अदालतों में यहां से वहां घूम रहे हैं. जमीन के इंतजार में एक पीढ़ी गुजर गई, दूसरी बुढ़ापे के कगार पर है और तीसरी लड़ाई लड़ रही है.’’ 

पंकज कहते हैं, ''इन 92 मुकदमों में से 83 जिले की पांच राजस्व अदालतों में चल रहे हैं, जिनमें एक कलेक्टर की कोर्ट है, एक एडीएम की अदालत है और तीन अनुमंडल अधिकारियों की अदालतों में चल रहे हैं. शेष चार मुकदमे बिहार लैंड ट्रिब्यूनल में चल रहे हैं और पांच पटना हाई कोर्ट में. इनमें से अधिकांश भूमि का पट्टा बंट गया है. बिहार में जमीन संबंधी मामलों की सुनवाई के लिए सात तरह की अदालतें हैं और सुप्रीम कोर्ट आखिरी अदालत है. इसका फायदा उठाकर भू-धारी मामले को एक अदालत से दूसरे अदालत तक लेकर जाते रहते हैं."

पंकज जिन सात अदालतों की बात करते हैं, उनमें से तीन एसडीएम कोर्ट, एडीएम कोर्ट और डीएम कोर्ट जिले की अदालतें हैं. इनमें फैसला होने पर मामला कमिशनर की अदालत में जाता है. वहां से बोर्ड ऑफ रेवेन्यू में फिर बिहार लैंड ट्रिब्यूनल में और फिर हाई कोर्ट में. दिलचस्प है कि इस वक्त बोर्ड ऑफ रेवेन्यू में लैंड सीलिंग से जुड़ा कोई भी मुकदमा लंबित नहीं.

पंकज बताते हैं, ''वहां के तेजतर्रार अधिकारी के.के. पाठक ने अपनी एक सहयोगी के साथ मिलकर 15 दिनों में 42 मुकदमों का फैसला पर्चाधारियों के पक्ष में सुना दिया था. 3 जनवरी, 2025 को सुनाए गए इस फैसले में उन्होंने जिलाधिकारी को निर्देश दिया था कि 15 दिनों के भीतर जमीन का बंटवारा भूमिहीनों के बीच कर दिया जाए. जिला प्रशासन की तरफ से देरी की गई और भू-धारी हाई कोर्ट चले गए. फिर से इन मामलों पर स्टेटस-को लगाकर उन्हें बिहार लैंड ट्रिब्यूनल के पास भेज दिया गया."

इन 42 मामलों में से एक मामला रामनगर प्रखंड के बरगजवा गांव का है. वहां के 90 भूमिहीनों को 2002 में 60 डिसमिल से एक एकड़ के बीच जमीन का पर्चा और कब्जा मिला था. मगर भू-धारियों ने जबरदस्ती कब्जा हटवा लिया और पटना हाइकोर्ट चले गए. 2007 में हाइकोर्ट ने पश्चिमी चंपारण के डीएम से इस मामले की जांच कर फैसला सुनाने के लिए कहा, मगर डीएम ने 2019 तक फैसला नहीं सुनाया.

2019 में डीएम ने भू-धारी शाही परिवार की 2,803 एकड़ जमीन सीलिंग ऐक्ट के तहत अधिशेष घोषित कर दी. फिर भू-धारी तिरहुत कमिशनर की अदालत में चले गए और स्टेटस-को लागू करवा लिया. कमिशनर की अदालत से जब उनका केस खारिज हो गया तो वे बोर्ड ऑफ रेवेन्यू में चले गए. वहां भी उनका केस 3 जनवरी, 2025 को खारिज हो गया और 15 दिन के अंदर जमीन पर कब्जा दिलवाने का निर्देश दिया गया.

इस फैसले के बाद 15 दिन तक पर्चाधारी यहां से वहां भागते रहे कि प्रशासन कब्जा दिला दे. मगर वे सफल नहीं हुए. इस बीच शाही परिवार इस मामले को लेकर बिहार लैंड ट्रिब्यूनल चला गया और मामला फिर अदालती फेर में फंस गया है.

गांव के पर्चाधारी ब्रजेश पासवान कहते हैं, ''हम लोग दौड़ते रह गए, 15 दिन का मौका मिला है, हम लोगों को कब्जा दिला दीजिए, मगर कोई सक्रिय नहीं हुआ." लगभग हाथ में आ चुकी जमीन के फिसल जाने से इस गांव के पर्चाधारी उदास हैं. हालांकि इस गांव में एक अच्छी बात यह जरूर हो गई है कि भू-धारी ने 67 पर्चाधारियों को अस्थायी तौर पर चार-चार कट्ठा जमीन जोतने के लिए दे दी है.

ऐसा भी नहीं कि इस जिले में सिर्फ जमींदार और भू-धारियों ने ही सीलिंग ऐक्ट का उल्लंघन कर नियम से ज्यादा जमीन पर कब्जा किया हुआ है. इस खेल में यहां के चीनी मिल मालिक भी शामिल हैं. हरिनगर चीनी मिल के पास भी 4,293 एकड़ जमीन अधिशेष है. इसका मामला अभी पटना हाई कोर्ट में चल रहा है.

सीलिंग ऐक्ट के मुताबिक, एक चीनी मिल भी अधिकतम अपने कब्जे में सौ एकड़ जमीन ही रख सकती है. वह भी अपने कैंपस में उन्नत बीजों के विकास के लिए. मगर हरिनगर चीनी मिल की जमीन रामनगर और आसपास के कई गांवों में 150 से 250 एकड़ के अलग-अलग टुकड़ों में है. जहां उनके कारिंदे रहकर आसपास के भूमिहीन मजदूरों से खेती करवाते हैं.

चंपारण में चीनी मिलों की जमींदारी आजादी से पहले से चली आ रही है. चंपारण सत्याग्रह के बाद जब इस इलाके से नील की खेती खत्म हुई तो नील प्लांटरों ने अपनी जमीन औने-पौने दर पर चीनी मिल मालिकों को बेच दी. तब किसानों ने नारा दिया था, निलहे गए-मिलहे आए. मतलब एक शोषक गया तो दूसरा आ गया. आजादी से ठीक पहले समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया और रामनंदन मिश्र ने इस इलाके में सर्वेक्षण कराया तो पता चला कि यहां नौ चीनी मिलों के पास 40,000 एकड़ से ज्यादा जमीन है.

पंकज बताते हैं, ''2017 में जब चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुझसे कहा था, अगर इस मौके पर भूमिहीनों के बीच जमीन नहीं बंटी तो यह आयोजन महज आइटम बनकर रह जाएगा. उन्होंने उस वक्त राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री से कहकर इसके लिए पहल भी करवाई थी. मगर तभी चीनी मिल मालिक हाइकोर्ट चले गए. वहां से स्टेटस-को लगवा लाए और मामला फिर अटक गया. मतलब सीएम चाहकर भी जमीन बंटवा नहीं सके."

लेकिन इन सबके बीच एक मामला थोड़ा अजीब है. पश्चिमी चंपारण के पूर्वी तुरहापट्टी गांव में 31 महादलित भूमिहीनों को सीलिंग ऐक्ट के तहत 1985 में पर्चा मिला. कुल पांच बीघा जमीन का वितरण हुआ था. 2010 में इन लोगों को केस मुकदमे से मुक्ति मिल गई. मगर पिछले 15 वर्षों में इनके बीच जमीन का वितरण नहीं हुआ है.

पंकज कहते हैं, यहां की जमीन पर भूमिहीनों को कब्जा दिलाने के लिए डीएम के कार्यालय से चनपटिया के सीओ को कई बार चिट्ठी भेजी गई है. सीओ कमलकांत सिंह इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं, ''यहां के मामले में कुछ कन्फ्यूजन है. सीलिंग है या खत्म हो गई, यह पता लगाने के लिए डीएम ऑफिस को हमने पत्र भेजा है.

इस पूरे मामले को समझने के लिए इंडिया टुडे ने बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के अध्यक्ष के.के. पाठक और बिहार के राजस्व और भूमि सुधार मंत्री संजय सरावगी से संपर्क किया. पाठक ने बात करने से इनकार कर दिया और सरावगी से बातचीत नहीं हो पाई.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के रिटायर्ड प्रोफेसर पुष्पेंद्र कहते हैं, ''यह सच है कि बिहार में सीलिंग से जुड़े मामले बड़ी संख्या में अदालत में अटके हैं. ऐसा इसलिए है कि इनकी सुनवाई से जुड़े ज्यादातर जज भू-धारी परिवारों से आते हैं. इसके अलावा, अदालतों की संख्या एक बड़ा मुद्दा है. अगर सरकार अभी भी इस मसले का समाधान चाहती है तो इसके लिए विशेष अदालत बनाकर और सभी मामलों की उस अदालत में त्वरित और अंतिम सुनवाई करानी चाहिए. यह भी तय होना चाहिए कि ये फैसले अंतिम होंगे."

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