स्वर्ण मंदिर परिसर के ऐतिहासिक तेजा सिंह समुंदरी हॉल के भीतर 12 अप्रैल को ''जो बोले सो निहाल...'' के धार्मिक जयकारों के बीच शिरोमणि अकाली दल ने सुखबीर सिंह बादल को फिर अपना अध्यक्ष चुन लिया. पंजाब के 467 प्रतिनिधियों समेत कुल 524 नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों के समर्थन से हासिल यह नतीजा सिख राजनीति के पर्यवेक्षकों के लिए हैरानी भरा नहीं था. फिर भी कइयों के लिए यह मायूसी का सबब था.
वजह यह कि उनके दोबारा चुने जाने और उससे पहले की घटनाओं ने इस सदी-पुरानी पार्टी के पुनरुद्धार की उम्मीदों को पलीता लगा दिया, जिसका असर पंजाब की राजनीति में नाटकीय ढंग से छीजता गया है. दिसंबर 2024 में उस वक्त के अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह और सिखी के चार अन्य तख्तों के प्रमुखों ने विरला हुकुमनामा जारी करके सुखबीर का इस्तीफा मांगा था.
बाद में अकाली दल के नेतृत्व को सिख मुद्दों को सुलझाने में 'असमर्थ' घोषित करते हुए उन्होंने नए सदस्यता अभियान और आंतरिक चुनावों की देखरेख के लिए धार्मिक विद्वानों की सात-सदस्यीय समिति बना दी. सिख परंपरा में हुकुमनामा दैवीय सत्ता की अभिव्यक्ति है, लिहाजा उसे न मानना धार्मिक अवज्ञा के बराबर है.
हुकुमनामे को अकाली दल के लिए पार्टी को चुस्त-दुरुस्त बनाने के मौके के तौर पर देखा गया. आपस में लड़ते-झगड़ते विरोधी गुटों में सुलह कायम करे, धर्मपरायण सिख मतदाताओं के बीच अपना छीजता समर्थन फिर हासिल करे, और इस धारणा से निजात पाए कि पार्टी बादल परिवार की जागीर बन गई है. मगर सुखबीर की वापसी ने उस छवि को और पुख्ता कर दिया. इसीलिए इसकी तीखी आलोचना हो रही है.
भाजपा नेता हरजीत सिंह ग्रेवाल ने उनकी तुलना उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन से की, तो कट्टरपंथी धड़ों ने नाखुश मतदाताओं को रिझाने के लिए यह मौका झपट लिया. अकाली दल के चुनाव के एक दिन बाद फरीदकोट के सांसद सरबजीत सिंह खालसा ने तख्त दमदमा साहिब में बैसाखी के उत्सवों के दौरान अकाली दल (वारिस पंजाब दे) बैनर के तले रैली का आयोजन किया. उसमें संगठन ने 2027 में होने वाला राज्य का चुनाव खडूर साहिब से सांसद और जेल में बंद खालिस्तानी अलगाववादी अमृतपाल सिंह की अगुआई में लड़ने के मंसूबों का ऐलान कर दिया.
अकाली दल का पतन बड़ी बेरहम किस्म की घटना रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव में उसके उम्मीदवार पंजाब की 13 में से 11 सीटों पर जमानतें गंवा बैठे और उसे महज 13.24 फीसद वोट मिले. 2022 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने 18 फीसद वोटों के साथ 117 में से मात्र तीन सीटें जीतीं. तभी से आंतरिक असंतोष बढ़ता गया. लोकसभा चुनाव में सफाए के बाद बंगा से विधायक सुखविंदर कुमार सुखी पाला बदलकर आम आदमी पार्टी में चले गए, तो दाखा के विधायक मनप्रीत सिंह अयाली ने सुखबीर के मातहत काम करने से इनकार कर दिया.
अब अकाली दल के भीतर सुखबीर के विरोधियों ने पार्टी के सदस्यता अभियान, प्रतिनिधियों के चयन और उनके अपने 'पुनर्निर्वाचन' की वैधता को चुनौती दे दी है. उन्होंने दावा किया कि सुखबीर शिरोमणि (यानी सर्वोच्च) अकाली दल के नहीं बल्कि महज एक गुट के प्रमुख हैं. वे अकाल तख्त के निर्देश के मुताबिक नया अभियान चलाने और उसके बाद नया नेता चुनने पर जोर दे रहे हैं. मगर सुखबीर के समर्थकों का कहना है कि पार्टी को कमजोर करने के लिए उन्हें निशाना बनाया जा रहा है.
पिछले साल दिसंबर में सुखबीर ने अकाल तख्त के सामने सिख मसलों पर अपनी नाकामियों को कुबूल किया और कदाचरण के लिए तनखा (धार्मिक दंड) स्वीकार किया था. मगर इस साल मार्च में उनके तीन करीबी सहयोगियों पर अकाल तख्त के जत्थेदार सहित सिखी के तीन बड़े धर्मगुरुओं को हटाने की साजिश रचने के आरोप लगे. उस भर्त्सना के लिए यही तीन धर्मगुरु निर्णायक थे. अब उन्हें फिर चुन लिए जाने के बाद संदेह के बादल गहरे हो गए हैं. सुखबीर के लिए चुनौती दोहरी है: उन्हें बिखरी पार्टी को फिर से एकजुट करना है और उसकी साख बहाल करना है. दोनों ही चुनौतियां आसान नहीं होंगी.
फिर से सुखबीर की ताजपोशी ने इस एक सदी पुरानी पार्टी में सुधार और उसकी वापसी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. राज्य में पार्टी का प्रभाव बहुत तेजी के साथ खत्म हुआ है.