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यूपी पॉवर कॉर्पोरेशन के खिलाफ क्यों बिजली कर्मचारी उतर आए सड़कों पर?

यूपी के बिजली विभाग में पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण कंपनियों के खिलाफ फैला असंतोष. विरोध में पावर कॉर्पोरेशन प्रबंधन और बिजली कर्मचारी आमने-सामने

उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारी दो विद्युत वितरण निगमों के प्रस्तावित निजीकरण का विरोध करते हुए
उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारी दो विद्युत वितरण निगमों के प्रस्तावित निजीकरण का विरोध करते हुए
अपडेटेड 21 मई , 2025

राजधानी लखनऊ में यूपी पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (यूपीपीसीएल) के दफ्तर शक्ति भवन से करीब आधा किलोमीटर दूर राणा प्रताप मार्ग पर 17 नंबर के भवन हाइडिल फील्ड हॉस्टल में सरगर्मी बीते चार महीनों से बढ़ गई है. पिछले वर्ष नंवबर में जैसे ही यूपीपीसीएल ने पूर्वांचल और दक्षिणांचल की अपनी दो वितरण कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने की प्रक्रिया शुरू की, कर्मचारी उबल पड़े.

विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति के झंडे तले 29 नवंबर, 2024 को फील्ड हॉस्टल के प्रांगण में पहली बड़ी सभा का आयोजन हुआ. उपभोक्ताओं को निजीकरण के खतरे बताए गए और सरकार से तुरंत निजीकरण की प्रक्रिया रोकने की अपील की गई. निजीकरण की दिशा में यूपीपीसीएल जैसे ही कुछ आगे बढ़ा, कर्मचारी-उपभोक्ताओं के संयुक्त आंदोलन ने भी धार पकड़ी.

वाराणसी, आगरा, प्रयागराज और गोरखपुर में बिजली पंचायत और लखनऊ, वाराणसी और मेरठ में महापंचायत हुई. अब 9 अप्रैल को हाइडिल फील्ड हॉस्टल, लखनऊ में निजीकरण के खिलाफ आंदोलन ने एक राष्ट्रीय रूप ले लिया. इसमें न केवल देश भर के कर्मचारी संगठन शामिल हुए बल्कि बड़ी संख्या में बिजली कर्मचारी भी छुट्टी लेकर मौजूद थे. रैली में नेताओं ने निजीकरण का प्रस्ताव वापस लेने की अपील की और ऐसा न करने पर एक बड़े आंदोलन की चेतावनी भी दी.

करीब चार माह पहले लखनऊ के शक्ति भवन में यूपीपीसीएल के चेयरमैन आशीष गोयल और सभी बिजली वितरण कंपनियों के प्रबंध निदेशकों ने पिछले साल 25 नवंबर को बिजली कंपनियों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा की थी. इसमें सहमति जताई गई थी कि ऐसे क्षेत्र जहां घाटा ज्यादा है, वहां सहभागिता के आधार पर निजी क्षेत्र को जोड़कर सुधार किया जाए. समीक्षा में यह भी बताया गया कि जितनी बिजली खरीदी जा रही है, उतनी वसूली नहीं हो रही और पावर कॉर्पोरेशन और कंपनियों का घाटा 1.10 लाख करोड़ रुपए के पार हो गया है.

समीक्षा में यह भी सामने आया कि कुल व्यय के सापेक्ष वसूली में सबसे खराब प्रदर्शन यूपीपीसीएल की पांच कंपनियों में से पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड का था. इसी के चलते यूपीपीसीएल ने इन दोनों कंपनियों के निजीकरण का निर्णय लिया.

यूपीपीसीएल के एक अधिकारी बताते हैं, ''देश में सामान्यत: शहरी क्षेत्र में निजी सहभागिता से विद्युत वितरण के कार्य किए गए हैं, जैसे कि आगरा, दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद. ओडिशा के अतिरिक्त यह पहला ऐसा प्रयास होगा जिसमें ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों के वितरण निगमों के लिए निजी सहभागिता की खातिर प्रस्ताव किया जा रहा है.''

यूपीपीसीएल के अधिकारियों के मुताबिक, इस बार रणनीति में एक और महत्वपूर्ण बदलाव निजीकरण के लिए केवल घाटे में चल रहे क्षेत्रों को लक्षित करना है. हालांकि जानकार बताते हैं कि यूपीपीसीएल में घाटे का मुख्य कारण बिजली खरीद की ऊंची लागत है. उत्तर प्रदेश अपनी 30,000 मेगावाट की मांग में से केवल 5,000 मेगावाट बिजली पैदा करता है; बाकी बिजली निजी संस्थाओं से ऊंची कीमतों पर खरीदी जाती है. डिलीवरी लागत 7.85 रुपए प्रति यूनिट है, फिर भी घरेलू टैरिफ 6.50 रुपए प्रति यूनिट पर सीमित है. इसी कुप्रबंधन ने घाटे को और बढ़ा दिया है.

बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण को संदेह की नजर से देखते हुए कई संगठन इसका विरोध कर रहे हैं. 25 मार्च को यूपी में योगी सरकार के आठ साल पूरे होने पर ऊर्जा मंत्री ए.के. शर्मा ने सोशल मीडिया पर पोस्ट के जरिए ऊर्जा विभाग में एग्रीगेटेड टेक्निकल ऐंड कमर्शियल (एटीऐंडसी) हानि में गिरावट की जानकारी दी थी. इसके मुताबिक, 2016-17 में एटीऐंडसी हानि 40 फीसद थी वह 2023-24 में घटकर 16.5 फीसद हो गई.

मार्च के अंतिम हफ्ते में यूपीपीसीएल ने विद्युत नियामक आयोग को सौंपी एनुअल रेवेन्यू रिक्वायरमेंट रिपोर्ट में बताया है कि 2025-26 में एटीऐंडसी हानि 13.82 फीसद होगी. ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्यक्ष और 16 ट्रेड यूनियनों के गठबंधन यूपी संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक शैलेंद्र दुबे कहते हैं, ''अगर हानि कम हो रही है और यह 15 फीसद के नीचे पहुंच रही है तो फिर निजीकरण क्यों किया जा रहा है.''

केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने स्टैंडर्ड बिडिंग डॉक्युमेंट का ड्राफ्ट सितंबर, 2020 में सभी राज्यों को भेजा था, जिसके जरिए विद्युत वितरण कंपनियों का निजीकरण किया जाना था. दुबे कहते हैं कि केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय अपने स्टैंडर्ड बिडिंग डॉक्युमेंट को महज एक प्रारूप मान रहा है, वह मंत्रालय का पॉलिसी डॉक्युमेंट नहीं है तो इसके आधार पर निजीकरण क्यों किया जा रहा है? वे बताते हैं, ''स्टैंडर्ड बिडिंग डॉक्युमेंट में यह भी लिखा है कि अगर एटीऐंडसी हानि 15 फीसद से कम है तो वितरण कंपनियों का निजीकरण नहीं किया जाएगा. इस तरह, यूपीपीसीएल की निजीकरण के लिए कवायद स्वयं में विरोधाभासी है.''

ए.के. शर्मा, ऊर्जा मंत्री, यूपी

कर्मचारी संगठनों के विरोध के चलते यूपीपीसीएल ने पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड के तहत आने वाली पांच निजी कंपनियों का चयन सीधे टेंडर के जरिए न करके सलाहकार के जरिए करने का निर्णय लिया. इसके लिए दिसंबर में टेंडर निकाला गया, लेकिन आवेदक न मिलने से तारीख आगे बढ़ी. 42 जिलों की बिजली व्यवस्था को पीपीपी मोड पर संचालित करने की यह कवायद सलाहकार के चयन में ही फंसती दिखी. इसके बाद सलाहकार चयन के लिए शर्तें आसान की गईं.

कंपनियों के सालाना टर्नओवर को घटाकर 500 करोड़ रुपए से 200 करोड़ रुपए किया गया. हितों के टकराव से जुड़े नियमों को शिथिल किया गया. एनर्जी टास्क फोर्स से मिली इस राहत के बाद टेंडर की प्रक्रिया आगे बढ़ाई गई और मेसर्स ग्रांट थॉर्टन को ट्रांजैक्शन एडवाइजर (टीए) की जिम्मेदारी दी गई जो निजीकरण में यूपीपीसीएल का सहयोग करेगी. ग्रांट थॉर्टन की नियुक्ति पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. दुबे का आरोप है कि मेसर्स ग्रांट थॉर्टन मध्यांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड में स्मार्ट मीटर का सरकारी काम कर रही है और इसे ही अब निजीकरण करने का जिम्मा सौंप दिया गया है. यह हितों का टकराव है जो कि बड़े भ्रष्टाचार की ओर इशारा कर रहा है.

पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम की कुल बकाया राशि को लेकर कई तरह की आशंकाएं जन्म ले रही हें. जैसा कि दुबे बताते हैं, ''1 अप्रैल, 2010 को आगरा शहर की बिजली व्यवस्था टोरंट कंपनी को सौंपी गई थी. तब वहां का बिजली बकाया 2,200 करोड़ रुपए था. समझौते के अनुसार, टोरंट कंपनी को आगरा शहर से 2,200 करोड़ रुपए का बकाया वसूल कर यूपीपीसीएल को देना था. वसूल की गई राशि का 5 फीसद टोरंट कंपनी को प्रोत्साहन राशि के रूप में मिलना था. टोरंट कंपनी ने यूपीपीसीएल को 15 साल में एक पैसा नहीं दिया है. इसी तरह अब निजी कंपनियों की नजर 66,000 करोड़ रुपए पर है.''

निजीकरण की तैयारी को लेकर बिजली विभाग के कर्मचारी अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं. राज्य विद्युत उपभोक्ता परिषद के अध्यक्ष अवधेश वर्मा कहते हैं, ''निजीकरण से न केवल बड़ी संख्या में कर्मचारियों की छंटनी होगी बल्कि निजी घराने वंचित, पिछडे वर्ग तथा आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के आरक्षण को छीन लेंगे.'' उधर, 19 फरवरी को बजट सत्र के दौरान ऊर्जा मंत्री शर्मा विधानसभा में वितरण कंपनियों के निजीकरण में कर्मचारियों के हितों को सुरक्षित रखने का वादा कर चुके हैं.

एक दशक में निजीकरण के कई असफल प्रयासों के बाद इस बार ऐसा माना जा रहा है कि योजना के सफल होने की संभावना ज्यादा है. हड़तालों के खिलाफ न्यायालय की चेतावनी और मुकदमे के अनसुलझे रहने के कारण निजीकरण का प्रभावी विरोध काफी हद तक कम हो गया है, जिससे सरकार और यूपीपीसीएल प्रबंधन के लिए अवसर की एक दुर्लभ खिड़की खुल गई है.

यूं जाएगी निजी हाथों में बिजली

> यूपीपीसीएल राज्य सरकार का एक उपक्रम है. यह एक होल्डिंग कंपनी है और विद्युत वितरण क्षेत्र में इसके पांच विद्युत वितरण निगम हैं: पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड, मध्यांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड, दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड, पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड और कानपुर विद्युत आपूर्ति कंपनी लिमिटेड (केस्को). 

> यूपीपीसीएल ने पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम को तीन और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम को दो कंपनियों में बांटने का फैसला किया है. इन नई कंपनियों में प्रत्येक के पास करीब 30 से 35 लाख उपभोक्ता होंगे.

> पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम को तीन क्लस्टर्स काशी विद्युत वितरण निगम लि. ( वाराणसी एवं आजमगढ मंडल), गोरखपुर विद्युत वितरण निगम लि. (गोरखपुर एवं बस्ती मंडल) और प्रयागराज विद्युत वितरण निगम लि. (प्रयागराज एवं मिर्जापुर मंडल) में विभाजित किया जाएगा.

> दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम को दो क्लस्टर—आगरा-मथुरा विद्युत वितरण निगम लि. (आगरा एवं अलीगढ़ मंडल, आगरा में टोरंट के कार्यक्षेत्र को छोड़कर) और झांसी-कानपुर विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (कानपुर, झांसी एवं चित्रकूट मंडल कानपुर में केस्को के कार्यक्षेत्र को छोड़कर)—में विभाजित किया जाएगा.

> पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम में करीब 107 लाख और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम में लगभग 64 लाख उपभोक्ता हैं. निजी सहभागिता में क्लस्टर को इस प्रकार बांटा गया है कि प्रत्येक में एक बड़ा शहर मौजूद हो ताकि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के मध्य संतुलन बना रहे. 

> यूपीपीसीएल अलग-अलग पांच कंपनियां 'स्पेशल परपज व्हीकल' (एसपीवी) का गठन करेगा. एसपीवी का प्रबंधकीय नियंत्रण तय प्रकिया से चयनित निजी कंपनी के हाथ में होगा. एसपीवी के अध्यक्ष के पद पर राज्य के मुख्य सचिव को नियुक्त किया जाएगा.

> एसपीवी में यूपीपीसीएल की 100 फीसद इक्विटी है. इसमें से 51 फीसद इक्विटी को निविदा की प्रक्रिया के माध्यम से निजी सहभागिता के लिए चयनित कंपनी को दिया जाएगा. इस तरह, इक्विटी में उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड का अंश 49 फीसद और निजी सहभागिता का अंश 51 फीसद रहेगा.

पहले भी हुई हैं कोशिशें

वर्ष 1993 आरपीजी ग्रुप की नोएडा पावर कंपनी लिमिटेड (एनपीसीएल) को नोएडा में बिजली वितरण की जिम्मेदारी दी गई. कर्मचारियों और अभियंताओं के भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन सरकार अपने निर्णय पर कायम रही.

वर्ष 2006 लखनऊ इलेक्ट्रिक सप्लाइ अथॉरिटी (लेसा) के ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली देने की जिम्मेदारी एक फ्रेंचाइजी को देने का फैसला कैबिनेट से हुआ था. राज्य विद्युत उपभोक्ता परिषद ने नियामक आयोग में इसके खिलाफ याचिका दायर की. आयोग ने इस फैसले पर रोक लगाई और यह रोक अभी तक कायम है.

वर्ष 2010 टोरंट पावर को आगरा शहर में बिजली वितरण की जिम्मेदारी दी गई. कई स्तर पर विरोध हुआ. उपभोक्ता परिषद ने विद्युत नियामक आयोग में अपील की. आयोग ने सीधे इस मामले में रोक लगाने की बजाए मामला प्रदेश सरकार के पास भेज दिया. बीते 15 साल से टोरेंट पावर आगरा में काम कर रही. 

वर्ष 2013 गाजियाबाद, वाराणसी, मेरठ और कानपुर में पीपीपी मॉडल पर बिजली वितरण का फैसला लिया गया था. 2014 से यह व्यवस्था लागू होनी थी. विरोध में आंदोलन हुआ. मामले को बढ़ता देख यूपीपीसीएल ने अपने हाथ पीछे खींच लिए.

वर्ष 2018 पांच शहरों (गाजियाबाद, मेरठ, लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर) और सात जिलों को निजीकरण के लिए निर्धारित किया गया था, जिसके लिए निविदाएं जारी की गई थीं. हालांकि, विरोध के कारण इसे वापस लेना पड़ा.

वर्ष 2020 पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम का निजीकरण करने का प्रयास हुआ जिसका भारी विरोध भी हुआ. नियामक आयोग में भी यह मामला पहुंचा. बाद में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री और कर्मचारी संगठनों के बीच लिखित समझौता हुआ कि भविष्य में निजीकरण या फ्रेंचाइजीकरण का फैसला बिना उनकी सहमति के नहीं होगा.

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