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बिहार: क्या नीतीश को मुसलमानों की जरूरत नहीं; वक्फ संशोधन कानून के बाद कैसे बिगड़े संबंध?

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार NDA में रहते हुए भी अल्पसंख्यकों से अब तक बेहतर रिश्ते साधते आए थे, लेकिन वक्फ संशोधन कानून पर पक्ष में आने के बाद ये संबंध रसातल में पहुंच गए.

कितना सम्मान? पटना में हाल ही में ईद के दिन मुसलमानों के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
अपडेटेड 20 मई , 2025

संसद में वक्फ संशोधन विधेयक पेश होने के तीन दिन बाद 5 अप्रैल को जनता दल-यूनाइटेड (जद-यू) दफ्तर में पार्टी के कई बड़े मुसलमान नेता जुटे थे. उन्हें मीडिया को यह बताने की जिम्मेदारी दी गई थी कि इस मसले पर पार्टी में कोई अंदरूनी विवाद नहीं है. मगर पत्रकारों के पहले सवाल पर ही ये नेता प्रेस कॉन्फ्रेंस को बीच में छोड़कर चले गए. उनसे सिर्फ इतना पूछा गया था कि आप लोग वक्फ कमेटी में हिंदू सदस्यों के होने की शर्त से सहमत हैं?

दरअसल, बिहार के मीडिया में वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर जो सवाल और आपत्तियां तैर रही हैं, उनमें से ज्यादातर जद-यू के मुसलमान नेताओं ने ही उठाई हैं. विधान परिषद सदस्य गुलाम गौस ने एक रोज पहले राष्ट्रपति और केंद्र सरकार से इस बिल को वापस लेने की मांग की थी और बिना नाम लिए नीतीश के लिए यह शेर पढ़ा था, ''मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है/क्या मेरे हक में फैसला देगा?''

एक और विधान परिषद सदस्य खालिद अनवर मीडिया से बोले, ''मुसलमान समाज इस बिल की वजह से डरा हुआ है.'' शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन सैयद अफजल अब्बास ने 2 अप्रैल के दिन इंडिया टुडे से कहा, ''इन हालात में हम राज्य के मुसलमानों के सवालों का सामना कैसे करेंगे, कुछ समझ नहीं आता.''

इस बीच जद-यू के कम से कम तीन बड़े मुस्लिम नेता इस्तीफा दे चुके हैं. पूर्व सांसद गुलाम रसूल बलियावी ने तो सोशल मीडिया पर कहा कि उनका संगठन इदारा-ए-शरीया इस बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगा.

हालांकि इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में पार्टी प्रवक्ता अंजुम आरा ने सधे हुए स्वर में बताया कि इस विधेयक को लेकर बनी संयुक्त संसदीय समिति ने जद-यू के पांच जरूरी सुझावों को मान लिया है. इसके बाद अब नए कानून में दिक्कत की कोई बात नहीं है. हालांकि तब तक काफी देर हो चुकी थी.

राज्य के मुसलमानों का गुस्सा कम होता नजर नहीं आ रहा. पार्टी के मुसलमान नेताओं के बीच सबसे ज्यादा नाराजगी लोकसभा में जद-यू सांसद ललन सिंह के संबोधन को लेकर है. पूर्वी चंपारण के जद-यू नेता कासिम अंसारी अपने इस्तीफे में लिखते हैं, ''वक्फ बिल संशोधन अधिनियम 2024 पर जद-यू के स्टैंड से हम जैसे पार्टी के कार्यकर्ताओं को गहरा आघात लगा है. लोकसभा में ललन सिंह ने जिस अंदाज से इस बिल का समर्थन किया, उससे भी हम मर्माहत हैं.'' जद-यू के सेक्युलर मिजाज के दूसरे कई नेता भी ललन सिंह के भाषण को दिक्कत की सबसे बड़ी वजह मानते हैं. एक बड़े मुसलमान नेता नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताते हैं कि अब भाजपा और जद-यू में फर्क ही क्या रहा? जो वोटर पहले हमें वोट दे दिया करते थे, वे अब क्यों वोट देंगे?

उनकी फिक्र जायज लगती है. एनडीए के साथ रहने के बावजूद नीतीश कुमार के सेक्युलर रवैये की वजह से राज्य के मुसलमान उनकी सरकार में अब तक सुरक्षित महसूस करते रहे हैं और कई इलाकों में उनकी पार्टी को इस तबके का वोट मिलता रहा है.

पूर्व सांसद अली अनवर का कहना है, ''दरअसल, हम नीतीश कुमार के साथ आए ही इस वजह से थे क्योंकि उनका मिजाज सेक्युलर था. उन्होंने हमसे कहा था, 'हम कम्युनल आदमी नहीं हैं. भाजपा तो बैसाखी है. आप लोग साथ दीजिए, हम इस बैसाखी को छोड़ देना चाहते हैं.' मगर नीतीश उस बैसाखी को छोड़ नहीं पाए, बल्कि उस पर और आश्रित हो गए, मजबूरन हमें ही उनका साथ छोड़ना पड़ा.'' पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर को नीतीश कुमार और बिहार के मुसलमानों के बीच के रिश्ते की कड़ी की तरह देखा जाता है.

वे बताते हैं, ''2005 में जब नीतीश कुमार ने लोकसभा में पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा उठाया तो भाजपा नेता विजय कुमार मलहोत्रा ने उन्हें कहा था कि अब आप भी तुष्टीकरण करने लगे. बाद में इसी इल्जाम के साथ पांचजन्य पत्रिका ने भी नीतीश जी के खिलाफ आलेख छापा था. मगर वे हमारे साथ खड़े रहे. इसलिए हम भी उनके साथ आ गए.''

अक्तूबर, 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में अगर एनडीए को बहुमत मिला तो उसकी वजह नीतीश की खास तरह की सोशल इंजीनियरिंग को माना जाता है. उन्होंने पिछड़ों के बीच वंचित अति पिछड़ा वर्ग, दलितों के बीच हाशिए पर खड़े महादलित वर्ग और मुसलमानों के बीच पिछड़े पसमांदा समूह को टारगेट किया. उस वक्त अपने चुनाव प्रचार में वे अति पिछड़ा नेता उदय कुमार चौधरी, महादलित नेता बबन रावत और पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर को अपने साथ रखते थे. पसमांदा नेता के मुताबिक, उन्हें इसका फायदा मिला.

सीएसडीएस के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद कहते हैं, ''नीतीश कुमार की सफलता की एक बड़ी वजह यह रही कि उन्होंने मुसलमानों के बीच बरसों से दबे जाति के सवाल को आवाज दी; पसमांदा आंदोलन को वैधता प्रदान की; रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर आयोग के सुझावों को मान्यता दी; अली अनवर अंसारी जैसे नेता को राज्यसभा भेजा, जिनके भाषणों से संसद की बहसों में मुसलमानों की विविधता का पक्ष दर्ज हुआ.''

उस चुनाव में जद-यू के चार मुसलमान विधायक चुने गए. उत्साहित नीतीश ने अपने पहले कार्यकाल में चारों को बारी-बारी से मंत्री बनाया. इसका नतीजा 2010 के अगले विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. पार्टी के सात मुसलमान प्रत्याशियों ने जीत हासिल की और छह दूसरे स्थान पर रहे. सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वेक्षण में 28 फीसद मुसलमानों ने बताया कि बिहार के लिए जद-यू ही सबसे अच्छी पार्टी है, जबकि राजद के बारे में ऐसा सिर्फ 26.4 फीसद मुसलमानों ने कहा. उस चुनाव में जद-यू और नीतीश कुमार का मुसलमानों पर ऐसा असर था कि पहली बार कोई मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा के टिकट से चुनाव जीत गया. वे सबा जफर थे, जो अमौर से चुनाव जीते थे. बाद में वे जद-यू में शामिल हो गए.

इस जीत की वजहें भी थीं. अली अनवर कहते हैं, ''नीतीश ने अपना वादा पूरा किया. स्थानीय निकाय के चुनाव में पसमांदा जातियों को अति पिछड़ा श्रेणी में शामिल किया. उन्होंने भागलपुर दंगों के मामले में स्पीडी ट्रायल कराया. गरीब मुसलमानों के लिए कई योजनाएं शुरू कीं.''

स्थानीय निकाय और सरकारी नौकरियों में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने का बड़ा लाभ हुआ. बड़ी संख्या में मुसलमान मुखिया बने. शिक्षकों की नौकरी में भी मुसलमान बड़ी संख्या में आए.

इसके अलावा, नीतीश ने पांच मुसलमानों को राज्यसभा भेजा और 16 को विधान परिषद में जगह दी. आठ मुसलमानों को अपने मंत्रालय में जगह दी. इनमें बड़ी संख्या पसमांदा मुसलमानों की थी. नीतीश ने इस बात का ख्याल रखा कि राज्य में किसी तरह का सांप्रदायिक तनाव न हो. अगर हो भी तो उस पर कार्रवाई करते हुए पुलिस और प्रशासन तटस्थ रहे.

2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनाव के वक्त उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी बिहार आना चाहते थे. मगर उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि ''हमारे पास हमारे अपने मोदी (उनके उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी) हैं ही.'' इन सबकी वजह से एनडीए के साथ रहने के बावजूद बिहार के मुसलमानों के रिश्ते नीतीश के साथ काफी बेहतर हो गए. मगर 2010 नीतीश की राजनीति का भी शीर्ष था और उनके मुसलमानों के साथ रिश्तों का भी. उसके बाद एक नेता के तौर पर नीतीश पिछड़ते चले गए और मुसलमानों के साथ उनके रिश्ते भी कमजोर होते चले गए. अली अनवर के मुताबिक, ''वे जिस बैसाखी को छोड़ने की बात कहते थे, उसे छोड़ नहीं पाए. इसलिए 2017 में जब वे मोदी के साथ चले गए, मुझे उनका साथ छोड़ना पड़ा.''

हालांकि नरेंद्र मोदी के हाथों भाजपा की बागडोर आने के बाद से नीतीश लगातार इस बैसाखी को छोड़ने की कोशिश करते रहे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अकेले चुनाव लड़ने का प्रयोग किया, जिसमें वे विफल रहे. उनकी पार्टी महज दो सीटों पर चुनाव जीत पाई. ऐसे में 2015 में वे राजद के साथ आए, इस प्रयोग में उन्हें सफलता मिली, मगर राजद के साथ उनका संबंध लंबा नहीं चला. आखिरकार 2017 में उन्होंने मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को स्वीकार कर लिया. 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव आया, जिसमें उन्हें मिलने वाले मुसलमानों के समर्थन में भारी गिरावट आई. उन्होंने 11 मुसलमानों को टिकट दिया था, उनमें से एक भी नहीं जीत पाया. मजबूरन बसपा विधायक जमा खान को पार्टी में शामिल कराकर उन्हें मंत्री बनाना पड़ा. सीएसडीएस-लोकनीति सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में जद-यू को मुसलमानों का सिर्फ पांच फीसद वोट मिला.

जानकारों के मुताबिक, 2014 के बाद देश के मुसलमानों का वोटिंग पैटर्न ही बदल गया. देश के साथ-साथ बिहार में भी वोटों का ध्रुवीकरण तेज हुआ. ऐसे में हिलाल अहमद मुसलमान वोटों की जिस विविधता की बात करते हैं, उसकी लकीर धुंधली होने लगी. इस बात को और साफ करते हुए वे कहते हैं, ''2014 के बाद जो नया एनडीए अस्तित्व में आया, वह वाजपेयी के दौर का गठबंधन नहीं है. इसमें भाजपा का पूरा वर्चस्व है, एजेंडा भाजपा तय करती है. इस बीच भारतीय राजनीति का विमर्श बदल गया है. गैर भाजपाई पार्टियां, चाहे वे एनडीए के अंदर की हों या बाहर की, अब डरने लगी हैं कि अगर हमने मुसलमान शब्द बोला तो कहीं हिंदू वोटर नाराज न हो जाए. नीतीश कुमार की राजनीति भी इन दिनों उस बड़ी प्रक्रिया से गुजर रही है. साथ ही पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में एम-वाइ समीकरण भी राजद के पक्ष में मजबूत हुआ है. इन सबका फर्क पड़ रहा है.''

ऐसे में कई जानकार कहते हैं कि अब जद-यू को मुसलमानों का वोट नहीं मिलता. जद-यू के अंदर से भी रह-रह कर इस तरह की आवाज उठती है. 25 नवंबर, 2024 को जद-यू नेता ललन सिंह ने कहा, ''अल्पसंख्यक समुदाय के लोग नीतीश कुमार को वोट नहीं देते, फिर भी नीतीश कुमार सबकी भलाई का काम करते हैं.'' वहीं लोकसभा चुनाव के बाद सीतामढ़ी सीट से जीते जद-यू नेता देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि इस चुनाव में यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं किया. इसलिए वे उनका काम नहीं करेंगे.

सीएसडीएस के पूर्व निदेशक संजय कुमार जिन्होंने बिहार की चुनावी राजनीति पर किताब लिखी है, भी इस बात से सहमत नजर आते हैं. वे कहते हैं, ''मुझे लगता है कि यह भ्रम है कि नीतीश कुमार को मुस्लिम मतदाताओं का वोट मिलता रहा है. जद-यू को मुसलमानों का वोट तभी मिला जब उसने राजद के साथ चुनाव लड़ा. यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच नीतीश कुमार को लेकर वैसी नाराजगी नहीं है, जैसी भाजपा को लेकर है. मगर वोट देते वक्त वे जद-यू से भी परहेज करते हैं.''

इस आधार पर कई जानकार यह भी कहते हैं कि नीतीश कुमार और जद-यू अब यह मानकर चल रहे हैं कि अगर मुसलमान उन्हें वोट नहीं देते तो वे उनकी परवाह क्यों करें? मगर जद-यू और नीतीश कुमार के ऐक्शन में ऐसी बात नजर नहीं आती. वे अभी भी मुसलमानों को अपने साथ जोड़े रखने की कोशिश कर रहे हैं.

नीतीश और उनकी पार्टी जद-यू ने काफी पहले भांप लिया था कि वक्फ का मसला उनके लिए दिक्कत भरा हो सकता है. इसी वजह से 24 फरवरी, 2025 को जब पीएम मोदी एक कार्यक्रम में भाग लेने भागलपुर आए थे, तभी मंच से नीतीश ने कहा था, ''पहले की सरकारें मुसलमानों से वोट लेती रहीं मगर दंगों को रोक नहीं पाईं. जबकि उनके शासन काल में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ.'' उन्होंने इसके बाद लगातार कब्रिस्तानों की घेराबंदी की अपनी सरकार की योजनाओं का जिक्र किया, ताकि वे यह बता सकें कि वक्फ की संपत्तियों की देखरेख उनकी प्राथमिकता में रही है.

जद-यू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार कहते हैं, ''यह कहना गलत है कि अब मुसलमान हमें वोट नहीं देते. बेलागंज उपचुनाव से जाहिर है कि मुसलमान भाइयों का समर्थन आज भी हम लोगों को मिल रहा है. नीतीश कुमार ने समाज के हर तबके के लिए काम किया है, खास तौर पर मुसलमानों के लिए. वक्फ बिल तो आज आया है, उससे पहले नीतीश कुमार ने वक्फ बोर्ड बना दिया था. दरअसल, राजद यह प्रचारित करता है कि मुसलमान जद-यू को वोट नहीं करता. मुसलमान आज भी हमें खूब वोट देते हैं और वे हमारी टॉप प्रायोरिटी में हैं.''

वहीं हिलाल अहमद कहते हैं, ''नीतीश को अब मुसलमानों ने वोट देना छोड़ दिया है, इस बात की पुष्टि सर्वेक्षणों के आंकड़ों से नहीं होती. भाजपा के मजबूत होने के बाद भी जद-यू को मुसलमानों के वोट की जरूरत है. इसलिए यह कहना कि बिहार में मुस्लिम वोट अप्रासंगिक हो गया है, गलत होगा.''

हिलाल अहमद के इस तर्क के पीछे यह तथ्य मौजूं है कि बिहार में कम से कम 50 ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां राज्य की 17 फीसद मुसलमान आबादी निर्णायक भूमिका में है. इनमें सीमांचल की 16 सीटें तो हैं ही, जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं. पूरे राज्य में बिखरी 34 और सीटें हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 15 से 25 फीसद के बीच है और मुसलमान वहां से जीतते रहे हैं. ऐसे में जद-यू मुसलमान वोटरों की उपेक्षा करने का रिस्क नहीं ले सकता.

हिलाल अहमद कहते हैं, ''फिलहाल, नीतीश कुमार के सामने दो समस्याएं हैं. एक, उन्हें भाजपा की जरूरत पहले से ज्यादा है. दूसरा, उनका अपना कोर वोटर खिसक रहा है, उसको बचाना है. पसमांदा का बड़ा तबका जिसने कभी राजद के एम-वाइ समीकरण को हिलाया था, उसको उन्हें बचाना होगा. उनके सामने चुनौती है कि भाजपा को नाराज किए बगैर इस वोटर को अपने साथ जोड़े रखें. वे यह सब कितना कर पाएंगे, कहना मुश्किल है.''

बताते हैं कि जद-यू नेता एक बार फिर राज्य के मुस्लिम बहुल इलाकों में जाकर अपनी बात रखेंगे, मुसलमानों को बताएंगे कि उनकी पार्टी ने वक्फ बिल में अपनी तरफ से पांच संशोधन पेश किए, जिन्हें मान लिया गया. साथ ही यह भी बताएंगे कि नीतीश सरकार ने पिछले 19 वर्षों में मुसलमानों के लिए क्या-क्या काम किए हैं. इस बीच कुछ पुराने मुसलमान चेहरों को भी पार्टी से जोड़ने की चर्चा चल रही है.

बहरहाल, मुसलमानों की जद-यू से कथित नाराजगी के चलते राज्य में ध्रुवीकरण और तेज हो जाएगा. इससे अंतत: किसे फायदा होगा, यह कोई कयास की बात नहीं है.

अल्पसंख्यकों के हित में नीतीश सरकार की योजनाएं

> पिछड़े अल्पसंख्यकों को स्थानीय निकाय चुनाव में आरक्षण दिया, जिससे बड़ी संख्या में मुसलमान पंचायतों में चुनकर आए.

> मुख्यमंत्री अल्पसंख्यक रोजगार ऋण योजना के तहत मुसलमानों को और खास कर तलाकशुदा और परित्यक्ता महिलाओं को रोजगार के लिए सहायता दी गई.

> अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के लिए प्री-मैट्रिक और पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना चलाई.

> बिहार राज्य वक्फ विकास योजना- वक्फ की जमीन पर मार्केट, कम्युनिटी हॉल आदि का निर्माण कराया. वक्फ संपत्ति की सुरक्षा के लिए फंड जारी किया. वक्फ संपत्तियों का कंप्यूटरीकरण किया.

> राज्य के 8,000 से ज्यादा कब्रिस्तानों की घेराबंदी कराई, जो एक तरह से वक्फ बोर्ड की जिम्मेदारी थी. उनमें पौधे लगवाए.

> अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले, मदरसों का सुदृढ़ीकरण किया.

> अल्पसंख्यक छात्रों के लिए विशेष कोचिंग की व्यवस्था की.

> हजरत फातिमा स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम चलाया, जिसमें लड़कियों के लिए नर्सिंग, फिजियोथेरेपी, एयर होस्टेस, कंप्यूटर प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था की.

> तकनीकी पढ़ाई करने वाले अल्पसंख्यक छात्रों के लिए स्टाइपेंड की व्यवस्था की.

जद-यू को कब कितने मुसलमानों के वोट मिले

नहीं बनी बात जद-यू नेताओं की प्रेस कॉन्फ्रेंस

> सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे के मुताबिक 2010 में 16.5 फीसद सामान्य और 14.4 फीसद ओबीसी मुसलमानों ने जद-यू को वोट दिया. 28 फीसद मुसलमानों ने बताया कि उनके लिए सबसे अच्छी पार्टी जद-यू है, जबकि 26.4 फीसद राजद के पक्ष में थे.

> इस चुनाव में जहां राजद और जद-यू मुकाबले में था, मुस्लिम मतदाता बंट गए. जहां 37 फीसद वोट राजद को मिले, वहीं 29 फीसद मुसलमानों ने जद-यू को वोट किया. जद-यू की वजह से भाजपा को भी मुसलमानों के वोट मिले.

> 2014 लोकसभा चुनाव में भले ही जद-यू सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई, मगर 21 फीसद मुसलमानों ने पार्टी को वोट किया. सीएसडीएस लोकनीति सर्वे को कोट करते हुए हिलाल अहमद कहते हैं, इसमें पिछड़े मुसलमान 29.8 फीसद थे.

> 2020 विधानसभा चुनाव में जद-यू को मुसलमानों के सिर्फ पांच फीसद वोट मिले. एक भी विधायक जीत नहीं पाया. इसके बाद कई नेता कहने लगे कि मुसलमान जद-यू को वोट नहीं करते.

विवादित मुद्दों पर जद-यू का स्टैंड

सीएए कानून: समर्थन किया, जिसके बाद प्रशांत किशोर पार्टी छोड़कर चले गए.

अनुच्छेद 370: पार्टी ने विरोध किया, मगर मतदान से गैरहाजिर रहे, जिससे सरकार को मदद मिली

तीन तलाक बिल: विरोध किया मगर फिर मतदान से गैरहाजिर रहे.

राम मंदिर निर्माण: पार्टी ने उत्सव तो नहीं मनाया लेकिन किसी तरह का विरोध भी नहीं किया.

सीएसडीएस के पूर्व निदेशक संजय कुमार के मुताबिक यह भ्रम है कि मुसलमान नीतीश कुमार को वोट देते रहे हैं. वहीं सीएसडीएस के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद का कहना है कि नीतीश को मुसलमानों ने वोट देना छोड़ दिया है, इस बात की पुष्टि सर्वेक्षण के आंकड़ों से नहीं होती.

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