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आरक्षण पर फिर लगा बिहार में दांव, 2025 के चुनाव के लिए राजद और जदयू क्या बिठा रहे समीकरण?

तेजस्वी यादव ने बिहार में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण सीमा को बढ़ाकर 85 फीसद करने के लिए एक नया विधेयक लाने की मांग उठाई

पटना में 27 नवंबर को बिहार विधानसभा के बाहर मीडिया को संबोधित करते तेजस्वी यादव
पटना में 27 नवंबर को बिहार विधानसभा के बाहर मीडिया को संबोधित करते तेजस्वी यादव
अपडेटेड 16 दिसंबर , 2024

राजनीति में किसी मुद्दे को सही समय पर भुनाना ही सबसे ज्यादा मायने रखता है. 26 नवंबर को जब देश अपना 75वां संविधान दिवस मना रहा था तब बिहार में नेता विपक्ष तेजस्वी यादव ने विधानसभा में काफी आक्रामक तेवर अपनाते हुए सियासी तौर पर एक बेहद संवेदनशील मुद्दे को उठाने का फैसला किया. उन्होंने बिहार में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण सीमा को बढ़ाकर 85 फीसद करने के लिए एक नया विधेयक लाने की मांग उठाई. जाहिरा तौर पर उनकी यह मांग नीतिगत मुद्दे से कहीं ज्यादा सियासी रणनीति का हिस्सा नजर आती है. खासकर ऐसे समय में जब तीन दिन पहले ही आए अहम उपचुनाव नतीजों में तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को तीन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. यही नहीं, भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन (इंडिया)—जिसमें राजद एक प्रमुख घटक है—राज्य में चार में से एक भी सीट पर सफलता हासिल नहीं कर पाया.

अपने पिता और राजद के संरक्षक लालू प्रसाद यादव की राजनैतिक विरासत का हिस्सा रहे इस मुद्दे के बहाने तेजस्वी बिहार में संख्याबल के लिहाज से बेहद अहम माने जाने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) समूहों तक पैठ बढ़ाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं. उपमुख्यमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल का जिक्र करते हुए उन्होंने विधानसभा को याद दिलाया, "आपको याद होगा 9 नवंबर, 2023 को मेरे जन्मदिन के मौके पर इस विधानसभा ने आरक्षण को बढ़ाकर 65 फीसद करने का प्रस्ताव पारित किया था." वह प्रस्ताव जाति गणना के आधार पर आया था, जिसमें यह बात सामने आई थी कि राज्य की कुल आबादी में ओबीसी की हिस्सेदारी 63 फीसद है. हालांकि, राजद की भागीदारी वाली नीतीश कुमार सरकार ने 2023 में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और ओबीसी के लिए संयुक्त कोटा बढ़ाकर 65 फीसद कर दिया.

लेकिन 2023 के उस कानून को जून 2024 में पटना हाइकोर्ट ने रद्द कर दिया और उसके महीने भर बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी उस फैसले को पलटने से इनकार कर दिया. अब कोटा सीमा और बढ़ाने की मांग के साथ तेजस्वी ने एक विवादास्पद मुद्दे को फिर हवा दे दी है जिसकी गूंज पिछले कुछ दशकों से घटती दिख रही थी.

विधानसभा उपचुनाव के नतीजे दर्शाते हैं कि राजद अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव (एम-वाइ) वोट बैंक पर पकड़ गंवाता जा रहा है. बेलागंज की हार पार्टी के लिए सबसे बड़ा झटका है क्योंकि यह सीट पिछले 34 साल से उसके पास थी. नीतीश की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) ने राजद के मूल जनाधार में सेंध लगाने की रणनीति के तहत ही यहां एक यादव उम्मीदवार को मैदान में उतारा था. राजद के एक अन्य गढ़ रामगढ़ में पार्टी के वरिष्ठ नेता जगदानंद सिंह के बेटे तीसरे स्थान पर रहे. मुश्किल यहीं खत्म नहीं हुईं. बाहुबली शहाबुद्दीन की विधवा हिना शहाब और उनके बेटे ओसामा के नेतृत्व में हाइ-प्रोफाइल चुनाव प्रचार भी पार्टी की किस्मत नहीं बदल पाया. झारखंड विधानसभा चुनाव में जरूर राजद ने चार सीटें हासिल कीं. पर वह जीत तेजस्वी की अपील से कहीं ज्यादा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की लोकप्रियता का नतीजा मानी जा रही है.

नतीजों ने न केवल राजद का जनाधार खिसकने की बात उजागर की बल्कि इंडिया ब्लॉक के भीतर भी चिंताएं बढ़ा दी हैं. खासकर इसलिए कि ये नतीजे ऐसे समय आए हैं, जब 2025 के प्रस्तावित बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ ही माह बचे हैं. विश्लेषकों का मानना है कि 2024 के मध्य में हुए लोकसभा चुनाव के पहले से ही राज्य में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 177 पर आगे चल रहा है. इसने विपक्ष की राह मुश्किल कर दी है.

हालांकि, लालू यादव की जीवनी लिखने वाले और नई दिल्ली स्थित जामिया हमदर्द (स्वायत्तता प्राप्त विश्वविद्यालय) के संकाय सदस्य नलिन वर्मा इससे इत्तेफाक नहीं रखते. उनका कहना है कि राज्य के रुझान अक्सर राष्ट्रीय पैटर्न के विपरीत होते हैं, जैसा महाराष्ट्र और झारखंड में देखा गया. उन्होंने कहा, "उपचुनाव नतीजों को सही मायने में देखें तो तेजस्वी और उनकी पार्टी राजद के लिए एक चेतावनी के साथ-साथ अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों के लिहाज से एक तरह का वरदान ही है."

इसी संदर्भ में तेजस्वी की मांग को खासकर बिहार के हाशिए पर पड़े समुदायों के बीच पैठ मजबूत करने की रणनीतिक कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि, उनका प्रस्ताव एक साहसिक पहल है लेकिन इसकी कानूनी व्यवहार्यता बेहद संदिग्ध है. दरअसल, 65 फीसद का कोटा खत्म करने का हाइकोर्ट का फैसला संवैधानिक सीमाओं पर आधारित था, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले से ही आरक्षण के लिए 50 फीसद की सीमा तय कर रखी है.

इसके अलावा, आरक्षण को लेकर बहस की सियासी प्रासंगिकता दो वजहों से भी खत्म होती जा रही है. 1990 के दशक में ऐसे मुद्दों ने बिहार के पिछड़े वर्ग को एक समूह के तौर पर काफी लुभाया और आंदोलित किया. उस एकजुट आधार से लालू प्रसाद यादव की सत्ता को काफी मजबूती मिली थी. मगर उस एकजुट आधार को झटका लगा जब नीतीश कुमार ने उसमें से ईबीसी हिस्से को तोड़कर अपने पाले में कर लिया. वहीं आज मतदाताओं की युवा पीढ़ी रोजगार के अवसरों, आर्थिक विकास और शिक्षा जैसे व्यापक मुद्दों पर अधिक ध्यान देती है, और इन क्षेत्रों में बिहार पिछड़ भी रहा है.

आलोचक तेजस्वी यादव की मांग को वास्तविक से ज्यादा प्रतीकात्मक मानकर खास तवज्जो नहीं दे रहे. उनका मानना है कि इसका मकसद राजद को फिर से सामाजिक न्याय के अगुआ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश है. मगर बिहार के मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताओं का मुकाबला करने या लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लॉक के 35.63 फीसद वोट शेयर और एनडीए के 45.51 फीसद वोट शेयर के बीच एक बड़ा अंतर पाटने के लिए केवल प्रतीकात्मकता वाली राजनीति से काम नहीं चलने वाला.

निश्चित तौर पर तेजस्वी के लिए आगे की राह चुनौतियों से भरी है. बकौल वर्मा, बतौर उपमुख्यमंत्री तेजस्वी के कार्यकाल ने ओबीसी और ईबीसी समुदायों के बीच पार्टी की अपील बढ़ाने में मदद की. लेकिन राजद नेता को संख्या के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण अति-पिछड़ा मतदाता आधार के बीच मजबूत पैठ बनाना बाकी है. इस वर्ग की निष्ठा अभी भी नीतीश के प्रति बरकरार है.

चुनाव रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) सरीखे नए खिलाड़ियों के मैदान में आने से मामला और भी जटिल हो गया है. इससे वोट बैंक और भी ज्यादा खिसकने का खतरा बना हुआ है. यह बेलागंज के नतीजों से साफ नजर आता है, जहां राजद के पारंपरिक मुस्लिम जनाधार में सेंध लगाकर जेएसपी प्रत्याशी मोहम्मद अमजद ने 17,000 से ज्यादा वोट हासिल किए. पहले से कमजोर एम-वाइ समीकरण में कोई और सेंधमारी पार्टी के अस्तित्व के लिए ही खतरा बनकर उभर सकती है.

तेजस्वी यादव की इन सियासी चुनौतियों से लड़ने की क्षमता न केवल उनकी राजनैतिक दशा-दिशा तय करेगी बल्कि अस्थिर राजनीति के लिए ख्यात राज्य में राजद का भविष्य तय करने में भी निर्णायक साबित होगी. अब इससे ज्यादा और क्या दांव पर हो सकता है. विधानसभा चुनाव करीब आने के साथ तेजस्वी के सामने एक अहम सवाल है: क्या वे बिहार के विविध मतदाता वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप दूरदर्शी दृष्टिकोण सामने रखकर राजद की विरासत पुनर्जीवित कर पाएंगे? या फिर उनके प्रयास आरक्षण की उनकी बात की तरह अतीत की सुनहरी यादों से आगे नहीं बढ़ पाएंगे? बहरहाल एक बात तय है: बिहार के भविष्य की यह लड़ाई न केवल विचारों और नेतृत्व पर निर्भर करेगी बल्कि संख्या बल और गठबंधन भी इसमें अहम भूमिका निभाएंगे.

चुनौतियों से दो-चार

नाकाम कवायद बेलागंज में 11 नवंबर को चुनाव प्रचार के दौरान लालू यादव

> विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ओबीसी और ईबीसी का समर्थन हासिल करने की जुगत में हैं. सो उन्होंने राज्य में आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 85 फीसद करने का प्रस्ताव दिया है.

> राजद के संरक्षक लालू यादव ने मुस्लिम-यादव वोट बैंक तैयार किया था. मगर उपचुनाव में राजद की हार ने इस पारंपरिक वोट बैंक में दरार उजागर कर दी. प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी सरीखे नए खिलाड़ियों से दरपेश चुनौतियां भी रेखांकित हुईं.

> नीतीश सरकार तेजस्वी के प्रस्ताव का समर्थन कर भी दे तो भी उसे कानूनी बाधाओं का सामना करना होगा.

> तेजस्वी के सामने पारंपरिक सियासत के साथ-साथ युवाओं की प्राथमिकता के साथ तालमेल बिठाने की भी एक बड़ी चुनौती.

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