
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने जून 2022 में शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाकर और अपने नेता देवेंद्र फडणवीस, जिनके मंत्रिमंडल मंर शिंदे 2014-19 तक मंत्री रहे थे, को उपमुख्यमंत्री बनाकर चौंका दिया था. तब अटकलें लगाई जा रही थीं कि फडणवीस कुछ हद तक पीछे से सरकार चलाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. राजनीति और नीति के मामले में शिंदे जल्द ही अपने दम पर अपनी पहचान बनाने लगे, जिससे सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर तनाव तारी हो गया. दोनों के लिए ही समय का पहिया अब पूरा घूम चुका है. फडणवीस की तरफ से सरकार के मुखिया के रूप में उनका नाम प्रस्तावित करने के ढाई साल बाद 288 सीटों की राज्य विधानसभा में 230 सीटों के साथ सत्तारूढ़ महायुति की रोमांचकारी जीत की अगुआई करने वाले शिंदे ने 4 दिसंबर को मुख्यमंत्री के रूप में फडणवीस को मनोनीत करके वही सम्मान उन्हें दिया (या शायद देने के लिए उन्हें मजबूर किया गया).
तीसरी बार महाराष्ट्र की अगुआई करने वाले फडणवीस अपने कुछ रिकॉर्ड पहले ही बना चुके हैं: वसंतराव नाइक (1967-72) के बाद पांच साल का कार्यकाल (2014-19) पूरा करने वाले—और सबसे छोटे कार्यकाल (नवंबर 2019 में पांच दिन) वाले भी—वे पहले मुख्यमंत्री हैं. 132 सीटों के साथ महाराष्ट्र में बीजेपी के अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन करने और विपक्ष को तकरीबन धूल-धूसरित कर देने (विरोधी महा विकास अघाड़ी या एमवीए की तीनों में से किसी भी पार्टी के पास इतना संख्याबल भी नहीं कि विपक्ष के नेता के पद का दावा कर सके) के बावजूद फडणवीस को राजनैतिक और प्रशासनिक मोर्चे की कठिन डगर पर चलना पड़ सकता है. बहरहाल, 5 दिसंबर की शाम को फडणवीस ने मुख्यमंत्री और शिंदे तथा अजित पवार ने उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली.
हालांकि, अंदरूनी खींचतान और दबावों की वजह से महायुति गठबंधन को 23 नवंबर को नतीजे आने के बाद सरकार बनाने के लिए अपना दावा पेश करने में 11 दिन लगे. शिंदे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक और मौका मिलने की उम्मीद कर रहे थे, खासकर जब उनके समर्थक मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिन (गरीब परिवारों की महिलाओं के लिए 1,500 रुपए की खैरात) सरीखी योजनाएं लाकर गठबंधन को जीत दिलाने का श्रेय उन्हें देते हैं. जैसा कि बीजेपी के एक बड़े नेता ने कहा, अगर भगवा पार्टी को 100 से कम सीटें मिली होतीं तो तुरुप के इक्के शिंदे के हाथ में होते. मगर पार्टी के मजबूत संख्याबल और फडणवीस के पक्ष में उपमुख्यमंत्री अजित पवार और उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के समर्थन ने पलड़ा शिंदे के खिलाफ झुका दिया.
यह राय मिलने के बाद कि फडणवीस के हक में पीछे हटने में ही भलाई है, कहा जाता है कि शिंदे ने गृह विभाग हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. बताते हैं कि उपमुख्यमंत्री पद को लेकर उनको ऐतराज था. शिंदे की मुश्किल यह है कि उनकी पार्टी को विधायकों और स्थानीय नेताओं के ढीले-ढाले पचमेल जमावड़े की शक्ल में देखा जाता है, जो दरअसल संगठन के बजाए उनके हाथों में निहित शक्ति के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गया है. इसे दबाव की तरकीब के रूप में ही देखा गया कि उनके बेटे और कल्याण से तीन बार के लोकसभा सांसद श्रीकांत शिंदे ने एक्स (पहले ट्विटर) पर ट्वीट किया कि महाराष्ट्र के लोग उनके पिता को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं, लेकिन फौरन यह पोस्ट हटा दी.
गतिरोध टूटा जब बीजेपी की राज्य इकाई के अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले ने 30 नवंबर को ट्वीट किया कि नई सरकार मुंबई में 5 दिसंबर को शपथ लेगी. विडंबना यह कि जब यह कहा गया तब गठबंधन ने न तो राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन के साथ औपचारिक मुलाकात की थी और न ही सरकार बनाने का दावा पेश किया था. शिवसेना के नेता और निवर्तमान उद्योग मंत्री उदय सामंत ने खुलकर स्वीकार किया कि बावनकुले के ट्वीट के बाद ही उन्हें शपथ ग्रहण के बारे में पता चला.
यह एहसास होते ही कि पत्ते उनके पक्ष में नहीं हैं, शिंदे रास्ते पर आ गए. हालांकि बीजेपी भी एक पसोपेश से दो-चार थी. 288 सदस्यों के सदन में उसे अपने 132 विधायक और कुछ छोटी-छोटी पार्टियों तथा निर्दलीयों का समर्थन हासिल है. शिंदे को छोड़कर और एनसीपी के साथ सरकार बनाकर वह इस दावे को ही पुख्ता करती कि क्षेत्रीय पार्टियों के मामले में वह 'इस्तेमाल करो और फेंक दो' की नीति पर चलती है. बीजेपी के एक वरिष्ठ विधायक के मुताबिक इसी वजह से पार्टी ने 'शिंदे को स्थान देने' का फैसला किया.
4 दिसंबर की दोपहर को भी शिंदे ने सरकार में शामिल होने की प्रतिबद्धता नहीं जताई, फडणवीस के यह कहने के बावजूद कि उन्होंने महायुति के विधायकों और खुद उनके पार्टीजनों की इच्छा का सम्मान करते हुए उनसे सरकार में शामिल होने की गुजारिश की थी. हालांकि विभाग अभी बंटने हैं पर संकेत यह है कि शिवसेना को शहरी विकास विभाग मिल सकता है, जबकि गृह विभाग फडणवीस अपने ही पास रखेंगे.
राजनैतिक चुनौती
बतौर मुख्यमंत्री फडणवीस के लिए शिंदे और उनकी शिवसेना को साधना किसी चुनौती से कम न होगा, जो खुद को दोयम भूमिका में ढालने को तैयार नहीं. इसमें काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि बीजेपी और फडणवीस संतुलन साधने के लिए शिंदे के खिलाफ अजित और उनकी राकांपा का या फिर उनके खिलाफ शिंदे का कितना इस्तेमाल कर पाते हैं. चुनाव नतीजों ने अजित की सियासी प्रासंगिकता में नई जान फूंक दी है, जिन्हें चुनाव से पहले लगभग खत्म मान लिया गया था. बीजेपी की तरह शिवसेना का आधार भी हिंदुत्व समर्थक वोटबैंक है. ऐसे में चुनावी प्रतिस्पर्धा में ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे की कीमत पर ही आगे बढ़ सकती हैं.
लेकिन बीजेपी को ज्यादा सजगता के साथ कदम उठाने की जरूरत है. शिंदे सेना के सात लोकसभा सांसद बीजेपी के लिए तब और भी ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होंगे, जब उसे संसद में कोई अहम विधेयक पारित कराना होगा. वहीं शिंदे को किसी राजनैतिक झटके का मतलब होगा बीजेपी का 'प्रोजेक्ट शिवसेना' बैक सीट पर चले जाना, जिसके तहत वह शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) को राजनैतिक तौर पर खत्म करना चाहती है.
जैसा अपेक्षित ही था, शिंदे को सीएम पद से किनारे करना उनकी पार्टी के लोगों को रास नहीं आया. शिवसेना के एक विधायक का दावा है, "यह गठबंधन और पार्टी दोनों के लिए ही खराब है." शिवसेना के एक अन्य सूत्र ने कहा, "यह स्थानीय निकाय चुनावों में भी शिवसेना के लिए बड़ा झटका होगा क्योंकि इससे शिवसेना (यूबीटी) को खुद को फिर खड़ा करने का मौका मिल जाएगा."
वे इस बात से खासे आहत हैं कि 'बदलाव लाने वाले व्यक्ति' को उनका अपेक्षित हक नहीं मिला, क्या उन्होंने लोकसभा चुनाव में हार के बाद महायुति को सफलता नहीं दिलाई? उनके मुताबिक, "शिंदे कुर्सी के भूखे नहीं हैं...मुद्दा जनादेश के सम्मान और सम्मानजनक पेशकश का है." अब डर यह है कि बीजेपी शिंदे की पसंद पर भी कैंची चला सकती है क्योंकि बताया जा रहा है कि पार्टी को पिछले मंत्रिमंडल में शामिल शिवसेना के कुछ मंत्रियों को लेकर आपत्ति थी. इस बीच, एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या सरकार गठन से पहले शिंदे की आक्रामकता इसलिए भी थी क्योंकि फडणवीस की तुलना में शिंदे को बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व में कुछ लोगों का अधिक समर्थन हासिल था.
लेकिन पश्चिमी महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ विधायक का दावा है कि शिंदे के अधिकांश कृत्य 'अपने समर्थकों पर केंद्रित' थे. दरअसल, शिंदे ने फिर सत्ता में आने की पूरी संभावनाओं के आधार पर कई पार्टीजनों को मंत्री पद और अन्य फायदे दिलाने का वादा किया था और अब उनका यह रुख दर्शाता है कि उन्हें उनका हक दिलाने के लिए शिंदे ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. एक बीजेपी विधायक ने कहा, "शिंदे अगर उद्धव ठाकरे के साथ रहते तो कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाते. लेकिन बीजेपी ने उन्हें मौका दिया."
फिर, राज्य में खासा वर्चस्व रखने वाले मराठों के लिए कोटे का मुद्दा भी काफी अहम है. लोकसभा चुनाव में महायुति ने मराठवाड़ा क्षेत्र की आठ में से सात सीटें गंवा दी थीं, जिसका मुख्य कारण मराठा समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणी में शामिल करने के खिलाफ प्रदर्शनों के बीच मराठों का एकजुट होना था. सत्ताधारी गठबंधन के वादों, राज्य की कल्याणकारी योजनाओं, मराठा वोटों में बिखराव और ओबीसी वर्ग के महायुति के पक्ष में एकजुट होने के कारण विधानसभा चुनाव में तस्वीर एकदम बदल गई.
फडणवीस के लिए मुश्किलों का सबब बने रहे मराठा कार्यकर्ता मनोज जरांगे-पाटील ने अब अपनी मांगों को लेकर एक नया आंदोलन शुरू करने की धमकी दी है. राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसका 10 फीसद मराठा कोटा अदालत की कसौटी पर खरा उतरे. बीजेपी पर अनुसूचित जनजाति (एसटी) सूची में शामिल करने की ओबीसी धनगरों की मांग को समायोजित करने का दबाव भी होगा. इसका आदिवासियों की तरफ से कड़ा विरोध किया जा रहा है.
बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फडणवीस और बीजेपी मंत्री पद के मुद्दे पर पार्टी लाइन से परे जाकर विधायकों की आकांक्षाओं को पूरा करें. क्योंकि ऐसा न होने की स्थिति में सहयोगी दलों के कुछ नाजुक मिजाज लोगों के अहंकार को ठेस लगना स्वाभाविक है. बीजेपी के समर्पित नेता और संघ की पृष्ठभूमि वाले लोग पार्टी में नए लोगों को ज्यादा तरजीह मिलने पर पहले से ही नाराज हैं. बीजेपी के लिए जमीनी स्तर पर लामबंदी में आरएसएस की भूमिका काफी अहम रही है, इसलिए पुराने लोग इसका इनाम भी चाहेंगे.

नई सरकार को आर्थिक मोर्चे पर भी कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा. चुनाव अभियान के दौरान महायुति ने लाडकी बहिन भत्ते को बढ़ाकर 2,100 रुपए प्रति माह करने का वादा किया था. इसका सीधा मतलब है कि 2.5 करोड़ लाभार्थियों के लिए योजना पर होने वाला वार्षिक परिव्यय 46,000 करोड़ रुपए से बढ़कर 63,000 करोड़ रुपए हो जाएगा. महिलाओं से लेकर युवाओं, किसानों और बुजुर्गों तक राज्य सरकार की लोकलुभावनी योजनाओं पर सालाना 90,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे. ऐसे में यह सवाल भी उठने लगे हैं कि सामाजिक क्षेत्र और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का वित्त पोषण सरकार कहां से करेगी.
फडणवीस के सामने चुनौतियां
राजनैतिक
> पार्टी और इसके अपेक्षाकृत दो छोटे सहयोगी दलों के बीच संतुलन कायम करना
> शिवसेना और एनसीपी का इस्तेमाल एक-दूसरे को दायरे में रखने के लिए करना
> मराठा विरोध प्रदर्शन को उभरने से रोकना
> कुछ समूहों जैसे ओबीसी धनगर को आदिवासियों में शामिल करने की मांग को आदिवासियों को नाराज किए बगैर मानना

आर्थिक
> 1 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए ग्रोथ को बढ़ाना
> लाडकी बहिन जैसी खर्चीली लोकलुभावन योजनाओं के लिए धन का प्रबंधन
> मराठवाड़ा सरीखे पिछड़े इलाकों का विकास करना
> किसानों की दुश्वारियों से निबटना
> शहरीकरण और पर्यावरण की चुनौतियों का समाधान करना