
महज दो महीने पहले कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में अपनी सहकर्मी के साथ दुष्कर्म और हत्या की वारदात को लेकर आंदोलनरत जूनियर डॉक्टरों के साथ गतिरोध खत्म न होता देख मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस्तीफे की पेशकश कर डाली थी.
मगर अब 23 नवंबर को आए विधानसभा उपचुनाव नतीजों में ममता की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने क्लीन स्वीप कर लिया. टीएमसी ने न सिर्फ अपनी पांच सीटों पर कब्जा बरकरार रखा बल्कि जीत के अंतर को भी बढ़ाया. वहीं, पहली बार मदारीहाट सीट पर भी जीत दर्ज की, जो पहले भाजपा के पास थी.
जनता के बीच जबरदस्त गुस्से के बावजूद यह जीत दर्शाती है कि बंगाल के ग्रामीण मतदाताओं में ममता के प्रति निष्ठा बरकरार है और इसका काफी श्रेय मुख्यमंत्री की कल्याणकारी योजनाओं को भी जाता है. उपचुनाव के नतीजों ने इंडिया ब्लॉक के भीतर भी तृणमूल की स्थिति को मजबूत किया है.
भाजपा के लिए ये उपचुनाव एक बड़ा झटका और उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराने वाले माने जा रहे हैं. बंगाल की बेहद प्रतिस्पर्धी सियासी जमीन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए उसे व्यापक स्तर पर पुनर्गठन का रास्ता अपनाना होगा.
—अर्कमय दत्त मजूमदार
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बिहार के उपचुनावों में क्यों हुई राजद की हार?

दरअसल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने बिहार विधानसभा उपचुनाव की चारों सीटें जीतकर 2025 में होने वाले राज्य के चुनाव से कुछ महीने पहले अपनी स्थिति मजबूत कर ली. चारों की चारों सीटें जीत लेना इसलिए और भी शानदार है क्योंकि इनमें से तीन—तरारी, रामगढ़ और बेलागंज—पहले विपक्ष के इंडिया गठबंधन के पास थीं.
तरारी और रामगढ़ में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने जीत का परचम फहराया तो बेलागंज सीट नीतीश के जनता दल (यूनाइटेड) ने अपनी झोली में डाल ली. हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) की दीपा कुमारी ने अपने ससुर और पार्टी के संस्थापक नेता जीतन राम मांझी के लोकसभा के लिए चुन लिए जाने से खाली हुई इमामगंज सीट से फतह हासिल करके इसे राजग के पाले में बनाए रखा.
यह तेजस्वी यादव की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की करारी हार भी है. उसने न सिर्फ अपने दो गढ़—रामगढ़ और बेलागंज—गंवा दिए बल्कि उसका कुछ वोट आधार भी खिसक गया. रामगढ़ की हार ज्यादा तकलीफदेह थी क्योंकि उसके उम्मीदवार अजित सिंह तीसरे स्थान पर आए.
बेलागंज सीट तीन दशकों से ज्यादा वक्त से राजद के पास थी और इसे बनाए रखने की उसकी बेताबी भी जाहिर थी, क्योंकि यहां से उसने अपने यादव उम्मीदवार विश्वनाथ कुमार सिंह के पक्ष में मुस्लिम वोटों को एकजुट करने की गरज से मरहूम बाहुबली शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा साहेब को मैदान में उतारा था. यहां तक कि अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव जनाधार को गोलबंद करने के लिए पार्टी के दिग्गज नेता लालू प्रसाद यादव ने भी इस क्षेत्र में चुनाव प्रचार किया. मगर उसकी ये तमाम कोशिशें बेकार गईं. आने वाले राज्य विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की तैयारियों पर सवालिया निशान लग गए, सो अलग.
एनडीए की कामयाबी का श्रेय उम्मीदवारों के रणनीतिक चयन और मूल समर्थन आधार की असरदार लामबंदी को दिया जा सकता है. उसने ऐसे उम्मीदवार उतारे जो उसके पारंपरिक समर्थकों और राजद से असंतुष्ट वोटरों दोनों को अपील कर सकें और इस तरह वह विभिन्न हलकों का समर्थन जुटाने में सफल रहा. मसलन, बेलागंज से यादव उम्मीदवार मनोरमा देवी को उतारने के जद (यू) के फैसले से समुदाय के वोट बंट गए. इसी तरह इमामगंज से दीपा मांझी को मैदान में उतारकर हिंदुस्तानी अवाम मोर्चे ने मुसहर समुदाय का एकजुट समर्थन हासिल किया.
प्रशांत किशोर की नई लॉन्च जन सुराज पार्टी के वोट-काटू असर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. इमामगंज और बेलागंज में उसने राजद के हिस्से में सेंध लगाकर अप्रत्याशित असर डाला, पर बाकी दो सीटों पर उसके उम्मीदवार जमानत गंवा बैठे. इन नतीजों के बाद, 243 सदस्यों की विधानसभा में एनडीए की 130 सीटें हैं. राजद के नेतृत्व वाले विपक्ष के लिए यह चेतावनी है, तो 2025 में कड़ी जंग का मंच भी सज गया है.
—अमिताभ श्रीवास्तव.