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पंजाब : शिरोमणि अकाली दल के चारों ओर क्यों मंडराने लगे संकट के 'बादल'?

सुखबीर सिंह बादल तब तक किसी राजनैतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं ले सकते जब तक कि वे तनखा (सजा) पूरी न कर लें

शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल 13 नवंबर को अमृतसर के अकाल तख्त में
शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल 13 नवंबर को अमृतसर के अकाल तख्त में
अपडेटेड 3 दिसंबर , 2024

आखिरकार, शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के प्रमुख सुखबीर बादल को इस्तीफा देना ही पड़ा. करीब 16 साल तक बतौर अध्यक्ष पार्टी की कमान संभाले रहे पंजाब के पूर्व उप-मुख्यमंत्री को पार्टी के भीतर गुटबाजी और सिख धर्मगुरुओं के बढ़ते दबाव के कारण पद छोड़ना पड़ा. एक दिन पहले यानी 16 नवंबर को ही उन्होंने तनखैया (धार्मिक कदाचार की सजा) घोषित किए जाने के मुद्दे पर चर्चा के लिए सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था अकाल तख्त के जत्थेदार रघुबीर सिंह से मुलाकात की थी.

यह सब 30 अगस्त को उस वक्त शुरू हुआ जब रघुबीर सिंह ने पार्टी के 2007-2017 के बीच सत्ता में रहने के दौरान कथित कदाचारों को लेकर सुखबीर को तनखैया घोषित करने के लिए सभी तख्तों के पांच प्रमुख सिंह साहिबान की एक बैठक की अध्यक्षता की. हालांकि, बतौर तनखैया उनकी सजा की घोषणा नहीं की गई. मामला अटकना सुखबीर की साख के लिए नुक्सानदायक साबित हुआ. इस्तीफे से अब नए पार्टी प्रमुख के चुनाव का रास्ता साफ हो गया है (पिछले तीन दशक में बादल परिवार के अलावा कोई और पार्टी प्रमुख नहीं रहा).

छह बार मुख्यमंत्री रहे दिवंगत प्रकाश सिंह बादल ने 13 साल अध्यक्ष रहने के बाद 2008 में बेटे सुखबीर को कमान सौंपी थी. अब दिसंबर में वार्षिक अधिवेशन होने के साथ ही शिरोमणि अकाली दल को नया पार्टी प्रधान मिलने की संभावना है. लेकिन बागी पहले ही चेता चुके हैं कि बादल को फिर से कमान सौंपने की किसी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. 10 नवंबर को सुखबीर बादल ने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के नए प्रमुख हरजिंदर सिंह धामी को तनखैया मुद्दा सुलझाने के लिए पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष बलविंदर सिंह भूंदड़ और जत्थेदार रघुबीर सिंह के बीच बैठक कराने का जिम्मा सौंपा था.

यह चुनौती दोहरी है क्योंकि धार्मिक और राजनैतिक सिख संस्थाएं साख के संकट से जूझ रही हैं. एक तरफ जहां सुखबीर बादल की अगुआई वाले अकाली दल ने पंजाब में पंथिक समुदाय का भरोसा गंवा दिया है—उसके पास 117 सदस्यीय विधानसभा में महज दो विधायक हैं—तो दूसरी तरफ सिख संस्थाओं की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठ रहे हैं. अकाली दल के साथ-साथ इस बात की भी आलोचना हो रही है कि कैसे सिर्फ बादल परिवार के वफादार ही तख्तों के जत्थेदार या एसजीपीसी प्रमुख बन रहे हैं.

इस धारणा ने सुखबीर बादल के लिए पूरे प्रकरण को और जटिल बना दिया है. तख्त के नियमों के मुताबिक, जत्थेदार सुखबीर से सार्वजनिक रूप से माफी मांगने या कोई खास प्रायश्चित करने के लिए कह सकते हैं. अकाली दल के पूर्व प्रमुखों और यहां तक कि देश के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (ऑपरेशन ब्लू स्टार में भूमिका के लिए) और पूर्व मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला (ऑपरेशन ब्लैक थंडर पर) को माफी मांगने के साथ प्रायश्चित भी करना पड़ा था.

सुखबीर प्रकरण में विवादों में घिरे गुरमीत राम रहीम के खिलाफ 2015 से अनसुलझे पड़े बेअदबी मामले, विवादास्पद नौकरशाहों की नियुक्तियां (जिन पर सिख उग्रवादियों की न्यायेतर हत्या के आरोप हैं), बहबल कलां पुलिस फायरिंग मामला ठीक से न संभालने जैसी घटनाएं शामिल हैं. हालांकि, सुखबीर ने बिना शर्त माफी मांगी थी लेकिन इसे पर्याप्त नहीं माना गया.

इस बीच, पूर्व वित्त मंत्री परमिंदर ढींढसा, पूर्व एसजीपीसी प्रमुख जागीर कौर और अन्य लोगों के नेतृत्व में बागी गुट—जो खुद को सुधार की लहर वाला करार देता है—तख्तों पर दबाव बढ़ा रहा है कि बतौर तनखैया सुखबीर की सजा घोषित करे, ताकि अन्य लोगों को भी सबक मिल सके. संयोग से परमिंदर खुद भी एक तनखैया हैं, जिन पर गुरमीत राम रहीम से चुनावी फायदा उठाने की कोशिश करने का आरोप है. शीर्ष अकाली नेताओं के साथ-साथ नरमपंथी चाहते हैं कि सजा की घोषणा जल्द हो ताकि सुखबीर जल्द से जल्द इस सबसे बाहर आ सकें. दरअसल सिख परंपरा के मुताबिक, तनखैया के तौर पर सजा पूरी न करने तक सुखबीर कोई सामाजिक या राजनैतिक गतिविधि शुरू नहीं कर सकते. उधर बागी गुट निश्चित तौर पर नहीं चाहता कि वे इस पूरे प्रकरण से बाहर आ पाएं.

सिख धार्मिक संस्थाओं पर 'न्याय करने' और विश्वसनीयता बहाल करने का दबाव है. अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में पंजाब, हिमाचल और चंडीगढ़ के सभी सिख गुरुद्वारों की सर्वोच्च संस्था एसजीपीसी के अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में बादल के वफादार धामी ने बागी उम्मीदवार जागीर कौर को हराकर चुनाव जीता था. इससे यह धारणा और मजबूत हुई कि 'बादल अपने मनमुताबिक कुछ भी कर सकते हैं.' अक्टूबर मध्य में एक और विवाद खड़ा हो गया जब जत्थेदार रघुबीर सिंह और हरप्रीत सिंह (दमदमी टकसाल के) ने आरोप लगाया कि यूके और कनाडा में बसे उनके बच्चों को 'निशाना' बनाया गया. उन्होंने आरोप लगाया कि अराजक तत्वों ने उनके कार्यस्थलों और घरों की रेकी की.

सुखबीर खेमे का दावा है कि यह वहां के कट्टरपंथी समूहों का काम है जो शीर्ष धर्मगुरुओं पर दबाव बनाने की कोशिश में जुटे हैं. बागी गुट हरप्रीत सिंह को नए शिअद प्रधान प्रमुख के तौर पर नामित करने की पैरवी कर रहा है. इस बीच, भारतीय सुरक्षा एजेंसियां घटनाक्रम पर कड़ी नजर बनाए हैं.

पिछले 30 वर्षों में अकाली दल ने राज्य में शांति बहाली में सबसे बड़ा योगदान दिया है. इस दौरान उदारवादियों को जगह मिली जबकि कट्टरपंथियों को हाशिए पर धकेल दिया गया. अकाली दल में किसी तरह की अस्थिरता या इसके नेतृत्व के प्रति कोई विमुखता कट्टरपंथियों के हावी होने की वजह बन सकती है. अंतरराष्ट्रीय स्थिति, खासकर एक बड़ी पंजाबी आबादी वाले कनाडा के साथ एक सिख चरमपंथी की हत्या को लेकर जारी तनाव ने चुनौतियों को और बढ़ा दिया है.

कट्टरपंथी समूह लगातार सिख संस्थानों पर काबिज होने का प्रयास कर रहे हैं, जो भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों के लिए चिंता का विषय है. पिछले साल अप्रैल में कट्टरपंथी सिख प्रचारक अमृतपाल सिंह—जो अब खडूर साहिब से सांसद हैं—ने हरप्रीत सिंह से बैसाखी के दिन सरबत खालसा (सिख खालसा के सभी गुटों की विचार-विमर्श सभा) बुलाने को कहा था. हालांकि, ऐसा नहीं हुआ और बाद में अमृतपाल को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर लिया गया.

कनाडा के अलावा यूके में भी सिख कट्टरपंथी समूह मजबूती से उभरे हैं, जिनमें कुछ अब वहां चुनाव जीतने के बाद सत्ता में भी हैं. सुखबीर और शिअद की विश्वसनीयता अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी है, इसलिए कट्टरपंथी एसजीपीसी चुनाव के लिए भी दबाव बना रहे हैं. 170 सदस्यीय इस निकाय के लिए आखिरी बार चुनाव 2011 में हुए थे. तबसे कानूनी अड़चनों की वजह से ये टलते रहे हैं.

सुखबीर के तनखैया घोषित होने का सबसे पहला नुक्सान तो यही हुआ है कि शिअद ने उनके साथ एकजुटता दिखाते हुए चार विधानसभा सीटों गिद्दड़बाहा, चब्बेवाल, बरनाला और डेरा बाबा नानक पर 20 नवंबर को होने वाले उपचुनाव से दूरी बना ली. इससे इन सीटों पर शिअद का मुख्य पंथक वोटबैंक कांग्रेस, आप और भाजपा में बंट गया. इन चुनावों में भाजपा ने अकाली पृष्ठभूमि वाले तीन उम्मीदवार उतारे—मनप्रीत बादल (गिद्दड़बाहा), रविकरण कहलों (डेरा बाबा नानक) और सोहन सिंह ठंडल (चब्बेवाल).

वहीं, आप ने गिद्दड़बाहा से शिअद में रहे हरदीप सिंह डिंपी ढिल्लों को चुना. फिर भी, मौजूदा समय में अकाली दल के लिए सबसे बड़ा खतरा यह है कि उसकी जगह सिख अलगाववादी न कब्जा लें. लोकसभा चुनाव में अमृतपाल सिंह और फरीदकोट में एक अन्य कट्टरपंथी सरबजीत खालसा ने बड़ी जीत हासिल भी की थी. पूर्व सांसद और खालिस्तान समर्थक नेता सिमरनजीत सिंह मान ने अपने पोते गोविंद सिंह संधू को बरनाला सीट से मैदान में उतारा है.

वहीं, एक अन्य घटनाक्रम में 12 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब में भगवंत मान की अगुआई वाली आम आदमी पार्टी सरकार को निर्देश दिया कि नई परिसीमन प्रक्रिया का इंतजार किए बिना 15 दिन के भीतर पांच नगर निगमों और 42 नगर परिषदों/नगर पंचायतों के चुनाव कार्यक्रम को अंतिम रूप दिया जाए. स्थानीय निकाय चुनाव से बाहर रहना अकाली दल के लिए नुक्सानदेह साबित हो सकता है.

लोकसभा चुनाव में अकाली दल का बेहद बुरा हाल रहा था. उसे गहरा राजनैतिक झटका लगा जब 13 में से 11 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई; केवल सुखबीर बादल की पत्नी हरसिमरत कौर ही बठिंडा से जीत पाईं. 117 सीट वाली विधानसभा में पार्टी के केवल तीन विधायक जीते थे, उनमें से सुखविंदर सुक्खी आप में शामिल हो गए हैं. मनप्रीत अयाली ने सुखबीर के कमान संभालने तक पार्टी गतिविधियों में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया जबकि गनीव कौर मजीठिया (हरसिमरत के भाई बिक्रमजीत की पत्नी) राजनीति में नई-नई ही आई हैं. ऐसे में इस बात में कोई दो-राय नहीं कि अकाली दल लगातार सियासी पतन की तरफ बढ़ रहा है. उसे खुद को फिर से प्रासंगिक बनाने के लिए किसी मजबूत दशा-दिशा के साथ नए जोश की भी जरूरत पड़ेगी.

शिअद की चुनौती

सुखबीर बादल शिरोमणि अकाली दल के शासनकाल के दौरान


> सुखबीर बादल शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के शासनकाल (2007-2017) के दौरान कथित कदाचारों के लिए तनखैया घोषित होना

> गुरमीत रहीम से जुड़े बेअदबी मामले, विवादास्पद नियुक्तियां, 2015 में बहबल कलां पुलिस फायरिंग (तस्वीरों में) के आरोप

> शिअद की हालत खराब. विधानसभा में केवल दो विधायक हैं और इस बार महज एक सांसद जीता; 11 लोकसभा उम्मीदवारों की जमानत जब्त

> शिअद ने बादल से एकजुटता दिखाते हुए विधानसभा उपचुनाव में भी हिस्सा नहीं लिया

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