ताला नगरी के रूप में विख्यात अलीगढ़ के जिला मुख्यालय से दो किलोमीटर उत्तर में आलीशान बाब-ए-सैयद यानी सर सैयद गेट है. मुगल शैली में बने 60 फुट ऊंचे इस दरवाजे के भीतर प्रवेश करते ही करीब 450 हेक्टेयर में फैले उस संसार के दर्शन होते हैं जो छात्रों के बीच तालीम का मक्का कहलाता है. यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) है. सर सैयद गेट से अंदर आने पर मुगल और ब्रिटिश स्थापत्य में ढली इमारतें विश्वविद्यालय को अलग रंगत देती हैं.
इन्हीं इमारतों के बीच कैनेडी ऑडिटोरियम है. इसके पीछे सर सैयद हॉल है, जो एएमयू में तालीम लेने वाले छात्रों के छात्रावासों का समूह है. हॉल के सामने वाली सड़क पर शुक्रवार 8 नवंबर की दोपहर करीब एक बजे ईद जैसा माहौल था. छात्र-छात्राएं एक दूसरे के गले लगकर बधाई देने लगे. आतिशबाजी भी शुरू हो गई. मिठाइयां खाने-खिलाने का सिलसिला तो देर शाम तक चलता रहा.
ऐसा इसलिए था कि फैसला सुरक्षित रखने के नौ महीने बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 4-3 के संकीर्ण बहुमत से 1968 के अपने उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. 8 नवंबर को कार्यकाल के अंतिम दिन भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) डी.वाइ. चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले में कहा गया, "अजीज बाशा मामले में लिया गया दृष्टिकोण... कि यदि कोई शैक्षणिक संस्थान किसी कानून के जरिए अपना कानूनी चरित्र प्राप्त करता है, तो वह अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित नहीं है... इसे खारिज किया जाता है."
सीजेआइ के साथ, जस्टिस संजीव खन्ना, जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्र ने बहुमत बनाया, जबकि जस्टिस दीपांकर दत्ता, सूर्यकांत और सतीश चंद्र शर्मा ने अलग-अलग असहमतिपूर्ण राय लिखी. सर्वोच्च अदालत ने फैसले में किसी संस्थान को अल्पसंख्यक संस्थान मानने के आधार और मानक तय कर दिए लेकिन एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर कोई व्यवस्था नहीं दी.
कोर्ट ने कहा, "एएमयू मामला नियमित पीठ के पास जाएगा, जो इस निर्णय में दी गई व्यवस्था के आधार पर तय करेगी कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान है कि नहीं." हालांकि एएमयू के लिए राहत की खबर यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं मानने वाले 1968 के अजीज बाशा के फैसले को खारिज कर दिया है. यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे में यही फैसला सबसे बड़ी बाधा था.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एएमयू पर सियासत गरम हो गई. अगले दिन 9 नवंबर को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अलीगढ़ की खैर विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में रैली करने पहुंचे थे. उन्होंने राधा रानी और बांके बिहारी के जयकारे के साथ संबोधन की शुरुआत तो की लेकिन एएमयू पर निशाना साधने में कोई कोताही नहीं बरती. उन्होंने एएमयू में एससी, एसटी, ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण लागू करने की वकालत की.
जाट बहुल खैर सीट में वोट बैंक को साधते हुए योगी ने राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर अलीगढ़ में स्थापित विश्वविद्यालय की तुलना कई बार एएमयू से की. उन्होंने कहा, "सरकार ने राजा महेंद्र प्रताप की स्मृति में विश्वविद्यालय की स्थापना की है. वहीं एएमयू में मुसलमानों को 50 फीसद आरक्षण की योजना है. ऐसे में जनता को तय करना है कि आपको राजा महेंद्र प्रताप विवि को आगे बढ़ाना है कि एएमयू को." भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं का तर्क है कि जाट बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले मुरसान रियासत के राजा महेंद्र प्रताप ने अपनी जमीन एएमयू को दान दी थी.
एएमयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और उर्दू एकेडमी के पूर्व निदेशक राहत अबरार बताते हैं, "1877 में जब एमएयू की स्थापना हुई थी तब राजा महेंद्र प्रताप का जन्म ही नहीं हुआ था, ऐसे में उनके द्वारा जमीन दिए जाने की बात गलत है." अबरार के मुताबिक, एएमयू में आरक्षण का मुद्दा उठाकर भाजपा नेता एक तीर से दो निशाने साधने की चाल चल रहे हैं.
पहला हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण और दूसरा दलित, ओबीसी के आरक्षण की मांग करके समाजवादी पार्टी (सपा) के पीडीए नारे का काउंटर करना. सुप्रीम कोर्ट में एएमयू की तरफ से पैरोकार और डिपार्टमेंट ऑफ स्ट्रैटेजिक ऐंड सिक्युरिटी स्टडीज के चेयरमैन प्रो. आफताब आलम कहते हैं, "एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से यहां पर नेशनल रिजर्वेशन पॉलिसी नहीं लागू होती है. ऐसे में एएमयू में मुसलमानों को 50 फीसद आरक्षण मिलने की बात आधारहीन है."
एएमयू लगातार भाजपा नेताओं के निशाने पर है, कभी जिन्ना की फोटो को लेकर तो कभी आतंकी कनेक्शन के आरोपों पर. अलीगढ़ से तीसरी बार सांसद चुने गए सतीश गौतम ने 2 अगस्त को संसद में यहां के पंडित दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल को मिनी एम्स के रूप में विकसित करने की मांग की. गौतम का तर्क था कि एएमयू के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज (जेएनएमसी) में अधिकांश डॉक्टर एक विशिष्ट (मुस्लिम) समुदाय से हैं, इसलिए हिंदू मरीज एएमयू के मेडिकल कॉलेज में जाने से बचते हैं.
एएमयू मेडिकल कॉलेज पर सांसद गौतम के आरोप को गैरजिम्मेदार बताते हुए परिसर में बड़ी संख्या में डॉक्टर और शिक्षक इसके विरोध में उतर आए. अगले ही दिन आरोपों का खंडन करते हुए जेएनएमसी और एएमयू जनसंपर्क कार्यालय ने प्रेस नोट जारी किया, जिसमें कहा गया कि हाल ही में मेडिकल कॉलेज के खिलाफ सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का गलत और भ्रामक आरोप लगाया गया है.
गौतम के आरोप पर एएमयू का माहौल गरम ही था कि दो दिन बाद 4 अगस्त को अलीगढ़ निवासी और यूपी भाजपा के विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) मानवेंद्र प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को पत्र लिखकर एएमयू के इतिहास विभाग में धार्मिक इतिहास पढ़ाने की शिकायत की. मानवेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि एएमयू के इतिहास विभाग में बीए के चार वर्षीय कोर्स के प्रथम वर्ष के दोनों सेमेस्टर में ऐसे दो विषय शामिल हैं.
इनमें प्रथम सेमेस्टर में प्री-इस्लामिक अरेबिया से पायस खलीफा और द्वितीय सेमेस्टर में उमैया का इतिहास (661 ईस्वी) से अब्बासी के इतिहास (833 ईस्वी) तक शामिल हैं. यह अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है. पत्र में मानवेंद्र प्रताप सिंह ने कहा, "इससे भारत सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को भी धक्का लगेगा क्योंकि, भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है. एएमयू केंद्र सरकार की ओर से संचालित विश्वविद्यालय हैं. सिख, जैन, हिंदू धर्म का इतिहास किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ाया जा रहा है."
पत्र में मांग की गई है कि धार्मिक प्रारूप के स्थान पर भारत का गौरवशाली इतिहास राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पढ़ाए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. इस्लामिक इतिहास पर रोक लगाई जाए. वहीं एएमयू के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर हसन इमाम के अनुसार, हिस्ट्री ऑफ इस्लाम विषय 1980 से पढ़ाया जा रहा है. उन्होंने कहा कि यह कोई नया विषय नहीं है. इस्लामी इतिहास पढ़ना अनिवार्य नहीं है. छात्र स्वेच्छा से यह विषय पढ़ सकते हैं. एएमयू में 50 से अधिक कोर्स हैं, जिन्हें छात्र अपनी पसंद के अनुसार पढ़ते हैं.
यह पहला मौका नहीं है जब एएमयू भाजपा नेताओं के निशाने पर आया हो. वर्ष 2018 में भाजपा सांसद व एएमयू कोर्ट मेंटर सतीश गौतम ने तत्कालीन एएमयू वीसी प्रोफेसर तारिक मंजूर को पत्र लिखकर छात्रसंघ भवन में लगी जिन्ना की तस्वीर हटाने की मांग की थी. इसके बाद से अलीगढ़ में जिन्ना विवाद सुर्खियों में आ गया था. हालांकि जिन्ना की तस्वीर के मुद्दे पर सांसद गौतम को मुंह की खानी पड़ी थी.
आज तक एएमयू के यूनियन हॉल से जिन्ना की तस्वीर नहीं हटी है. एएमयू के पूर्व मीडिया सलाहकार प्रोफेसर जासिम मोहम्मद कहते हैं, "अलीगढ़ सांसद और दूसरे कई भाजपा नेता सस्ती लोकप्रियता के लिए अनर्गल आरोप लगा रहे हैं. एएमयू में पकड़ बनाने और दाखिले व नियुक्ति में प्रभाव बढ़ाने के लिए ही ऐसे बेबुनियाद आरोपों को हवा दी जा रही है. प्रधानमंत्री मोदी स्वयं एएमयू को मिनी इंडिया कह चुके हैं. ऐसे में दुनिया भर में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को विवादों में खींचना शिक्षा का भी अपमान है."
एएमयू सिर्फ अलीगढ़ के लिए ही नहीं, देश भर में चुनावी बिसात पर बाजी खेलने वालों के लिए अहम रहा है. इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने पिछले वर्ष पसमांदा मुसलमानों को रहनुमाई के लिए पूर्व कुलपति तारिक मंसूर को यूपी विधान परिषद में जगह दी थी. उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बनाया था.
यूपी में लोकसभा चुनाव में बुरे प्रदर्शन के बाद जिस तरह एएमयू भाजपा नेताओं के निशाने पर है, वह पार्टी की हालिया नीति से उलट ही है. एएमयू के तराने की पहली लाइनें हैं: "सर शारे निगाहे नरगिस हूं...ये मेरा चमन है मेरा चमन मैं अपने चमन का बुलबुल हूं." इस खींचतान में यह ध्यान रखना होगा कि कहीं यह चमन न उजड़ जाए.
मुसीबत बना था अजीज बाशा केस
1877: सैयद अहमद खान ने मुसलमानों के उत्थान के लिए 74 एकड़ फौजी छावनी में मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल (एमएओ) कॉलेज की स्थापना की
1920: ब्रिटिश संसद में बिल पास कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की स्थापना हुई, 1 दिसंबर को अधिसूचना जारी की गई. एएमयू ऐक्ट में इसका प्रबंधन मुसलमानों को दिया गया. तय किया गया कि मुस्लिम ही इसके कोर्ट यानी सर्वोच्च संस्था के सदस्य होंगे. राजा महमूदाबाद पहले कुलपति बने. 17 दिसंबर को यूनिवर्सिटी का विधिवत उद्घाटन स्ट्रेची हॉल में हुआ. शुरुआत में 15 विभाग, 20 शिक्षक और 265 छात्रों के साथ पढ़ाई शुरू हुई
1951: एएमयू अधिनियम में संशोधन किया गया, जिससे गैर-मुसलमानों को एएमयू कोर्ट का सदस्य बनने की अनुमति मिली, जो उस समय इसका सर्वोच्च शासी निकाय था. राष्ट्रपति को विजिटर बनाया गया. संसद ने एएमयू को राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया
1965: एएमयू के अल्पसंख्यक स्वरूप को लेकर विवाद की शुरुआत हुई. तत्कालीन केंद्र सरकार की ओर से संसद में पेश किए गए एएमयू ऐक्ट में यूनिवर्सिसटी की स्वायत्तता को कमजोर कर दिया गया. इस ऐन्न्ट ने यूनिवॢसटी कोर्ट के सदस्यों की संक्चया कम कर दी. कोर्ट अब सर्वोच्च शासी निकाय नहीं बल्कि परामर्श समिति की तरह है. इस तरह एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप समाप्त कर दिया गया
1968: एएमयू ऐक्ट में संशोधन के खिलाफ मद्रास के अजीज बाशा ने सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया. खास बात यह थी कि एएमयू को इसमें पार्टी नहीं बनाया गया. पांच जजों की बेंच ने फैसला दिया कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता. एएमयू को मुसलमानों ने नहीं बल्कि संसद ने ऐक्ट से स्थापित किया है. यही केस एएमयू के लिए मुसीबत बन गया
1972: अजीज बाशा केस में आए फैसले के बाद संसद में एएमयू ऐक्ट में भी बदलाव हुआ. तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना. इस संशोधन के बाद एएमयू में विरोध शुरू हो गया
1981: विरोध को देखते हुए इंदिरा गांधी सरकार ने एएमयू ऐक्ट में संशोधन किया, जिसमें एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान माना. घोषणा की गई कि एएमयू की स्थापना मुसलमानों की शैक्षिक, सांस्कृतिक उन्नति के लिए की गई थी. एएमयू कोर्ट को 'सुप्रीम बॉडी’ माना गया
2005: कुलपति नसीम अहमद और रजिस्ट्रार नाजिम अली के कार्यकाल में एएमयू के जेएन मेडिकल कॉलेज में एमडी, एमएस की 50 फीसद सीट मुसलमानों के लिए आरक्षित करने का निर्णय लिया गया. इससे पहले 50 फीसद सीटें विवि के आंतरिक छात्रों के लिए और 50 फीसद बाहरी छात्रों के लिए थीं. फैसले के विरोध में छात्र इलाहाबाद हाइकोर्ट पहुंच गए
2006: इलाहाबाद हाइकोर्ट की सिंगल जज की बेंच ने फैसले में कहा कि एएमयू संसद की ओर से गठित है, इसलिए अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकती. फैसले के खिलाफ एएमयू ने हाइकोर्ट की डबल बेंच में अपील की, वहां भी यही फैसला आया. यूपीए सरकार और एएमयू ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया
2016: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर अपील वापस ले ली. केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान के मानकों को पूरा नहीं करता है. सरकार ने कहा कि एएमयू ने अपना धार्मिक स्वरूप उसी समय छोड़ दिया था, जब 1920 में इसकी स्थापना केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी. सरकार ने कहा कि पूर्व यूपीए सरकार का रुख केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लागू एससी/एसटी/ ओबीसी/ईडब्ल्यूएस आरक्षण की सार्वजनिक नीति के खिलाफ था
2019: प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने मामले को सात सदस्यीय पीठ के पास भेजा क्योंकि अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने फैसला सुनाया था. पीठ को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर उठे कानूनी सवालों को सुलझाना था
ऐसी है आरक्षण की व्यवस्था
अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त होने के कारण अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दाखिलों में नेशनल रिजर्वेशन पॉलिसी लागू नहीं होती. ऐसे में एएमयू में प्रवेश लेने वालों को किसी भी प्रकार का आरक्षण नहीं मिलता
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिसटी में स्कूल, स्नातक और परास्नातक में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के विद्यार्थियों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. इनका नॉमिनेशन कोटे से दाखिला होता है. विवि में 10 वर्गों में नॉमिनेशन प्रक्रिया से प्रवेश दिए जाते हैं
मेरिट के आधार पर ही नॉमिनेशन कोटे के तहत एससी, एसटी, ओबीसी के अलावा यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों के बच्चे, पूर्व छात्रों के बच्चे, केंद्रीय कर्मचारी, जिनका तबादला शैक्षिक सत्र शुरू होने से पहले हुआ है, उनके बच्चे, यूपी से सीमा न बनाने वाले राज्यों के अभ्यर्थी, दिव्यांग, एनसीसी सर्टिफिकेट धारक और प्रवीण वक्ता और खिलाड़ी को प्रवेश दिया जाता है. प्रोफेशनल कोर्सों में मनोनयन नहीं होता
कुल सीटों में 50 फीसद आंतरिक अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित होती हैं. ये वे अभ्यर्थी हैं जो एएमयू संचालित कॉलेजों या स्कूल से पढ़कर आते हैं
एएमयू की नियुक्तियों में केवल 3 फीसद आरक्षण दिव्यांग अभ्यर्थियों के लिए निर्धारित है.