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झारखंड : बीजेपी की जीत के लिए क्यों अहम हैं आदिवासियों के वो 28 'अभेद्य' किले?

झारखंड में आदिवासी वोटर के पास सत्ता की चाबी है. 81 सदस्यों वाली राज्य विधानसभा में 28 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं, जिन पर जीत हासिल करने वाली पार्टी सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाएगी. आदिवासियों के बीच झामुमो की स्वाभाविक बढ़त को तोड़ने के लिए बीजेपी को कड़ी मेहनत करनी होगी

हेमंत और कल्पना सोरेन करम पूजा के दौरान पारंपरिक ढोल पर हाथ आजमाते हुए
हेमंत और कल्पना सोरेन करम पूजा के दौरान पारंपरिक ढोल पर हाथ आजमाते हुए
अपडेटेड 11 नवंबर , 2024

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने 19 अक्तूबर को राजधानी रांची में पत्रकारों के सामने एक अहम जानकारी साझा की कि उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस राज्य की कुल 81 विधानसभा सीटों में 70 पर चुनाव लड़ेंगी जबकि सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और वामपंथी पार्टियां बाकी 11 सीटों पर लड़ेंगी. उम्मीदवारों के बारे में मुख्यमंत्री ने इतना ही कहा कि "अभी इन चीजों का खुलासा नहीं किया जा सकता."

इसके विपरीत एनडीए ने सीटों के बंटवारे या उम्मीदवारों की घोषणा करते हुए ऐसी कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई. भाजपा 68 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि सुदेश महतो की अगुआई वाली ऑल झारखंड स्टुडेंट्स यूनियन (आजसू) 10, जनता दल (यूनाइटेड) या जद (यू) दो, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी या लोजपा (रामविलास) एक सीट पर उम्मीदवार उतारेंगी. भाजपा ने तो 66 उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची भी जारी कर दी है.

राज्य में मतदान 13 और 20 नवंबर को दो चरणों में होना है और नतीजे 23 नवंबर को घोषित होंगे. झारखंड के 24 साल के इतिहास में यह छठा विधानसभा चुनाव है. इन 24 साल में राज्य 13 अलग-अलग मौकों पर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सात चेहरे और राष्ट्रपति शासन के तीन दौर देख चुका है. भाजपा के रघुबर दास अकेले मुख्यमंत्री थे जो 2014 से शुरू अपना कार्यकाल पूरा कर पाए.

2005 की विधानसभा के पांच साल ने तीन मुख्यमंत्री देखे. कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आ पाई है. यह बात हेमंत सोरेन के दिमाग में भी बेशक बहुत ज्यादा तारी होगी क्योंकि गठबंधन के बहुमत हासिल करने के बावजूद उथल-पुथल भरे पांच साल के बाद वे फिर से चुनाव जीतने के लिए मैदान में उतर रहे हैं. कथित सेंध लगाने की कोशिशों को नाकाम करने के लिए सोरेन को दो बार अपने विधायकों को छत्तीसगढ़ ले जाना पड़ा.

फिर 2022 में कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में भारी नकदी के साथ पकड़े जाने के बाद अपने तीन विधायकों को निलंबित करना पड़ा. आखिर में दूसरे गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तरह सोरेन ने भी पाया कि केंद्रीय जांच एजेंसियां उनके पीछे पड़ी हैं. इससे रांची के बड़गई इलाके में 8.86 एकड़ जमीन के कथित जाली दस्तावेजों के मामले में उन्हें पांच महीने जेल में बिताने पड़े.

इससे सोरेन के पक्ष में सहानुभूति भले पैदा हुई हो, पर उनकी पार्टी से जुड़े गठबंधन की खटपट खेल बिगाड़ सकती है. यह हकीकत किसी की नजर से नहीं चूकी कि जब मीडिया के साथ बातचीत में सोरेन सीटों के बंटवारे के बारे में जानकारी साझा कर रहे थे, वे कांग्रेस के नेताओं से तो घिरे थे, पर राजद या वाम दलों से कोई उनके साथ नहीं था. जो चीज रणनीतिक गोपनीयता मालूम देती थी, वह शायद इंडिया ब्लॉक के भीतर आम सहमति का अभाव हो सकता है.

तब तो और भी जब राजद के तेजस्वी यादव और कांग्रेस के नेता राहुल गांधी 19 अक्तूबर को रांची में ही थे, पर उनकी मुलाकात की कोई तस्वीर नहीं थी. उसी दिन तेजस्वी ने एक्स पर लिखा कि सीटों के आवंटन पर आखिरी फैसला पार्टी की "मजबूत स्थिति और सामाजिक समर्थन आधार" को ध्यान में रखकर राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद लेंगे. तेजस्वी दो दिन बाद रांची मे सोरेन से जरूर मिले, और यह संकेत दिया कि सब कुछ ठीक-ठाक है.

सच्चाई यही है कि राजद ने 2019 में सात सीटों पर चुनाव लड़कर उनमें से महज एक सीट जीती थी और यही वजह है कि बातचीत के मौजूदा दौर में कांग्रेस और झामुमो उन्हें ज्यादा सीटें देने से कतरा रही हैं.

अलबत्ता इंडिया ब्लॉक और एनडीए दोनों ही पक्ष यह समझ चुके हैं कि गठबंधन में वे बेहतर प्रदर्शन करते हैं. 2014 में झामुमो और कांग्रेस कुल मिलाकर महज 25 सीटें जीत सकी थीं, जबकि 2019 में उनकी सीटों की संख्या बढ़कर 47 पर पहुंच गईं. इसी तरह गठबंधन के साथी दलों के बिना चुनाव लड़कर 2019 में भाजपा ने महज 25 सीटें जीतीं, जबकि 2014 में आजसू के साथ गठबंधन में चुनाव लड़कर उसने 42 सीटें जीती थीं.

जद (यू) और लोजपा ने तो 2019 में और भी खराब प्रदर्शन किया, ये दोनों पार्टियां उन सभी सीटों पर जमानत गंवा बैठीं जहां से चुनाव लड़ी थीं, और महज दो फीसद वोट हिस्सेदारी हासिल कर पाईं. अगर चुनावों में कामयाबी हासिल करनी है तो दोनों ही गठबंधनों को पूरी दमदारी और तालमेल से मैदान में उतरना होगा.

भाजपा की चुनौतियां

इस बार एनडीए का तालमेल इंडिया ब्लॉक के मुकाबले बेहतर लग रहा है. झारखंड लंबे समय से भाजपा का गढ़ रहा है और राज्य के गठन के 24 साल में 13 साल तक वहां उसकी सरकार रही है. इस साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी के दबदबे की फिर पुष्टि हुई. एनडीए ने राज्य की कुल 14 संसदीय सीटों में नौ पर जीत हासिल की. पूर्व मुख्यमंत्री मरांडी कहते हैं, "हमने लोकसभा चुनाव में 51 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की. अब हमारा जोर विधानसभा में और भी बड़ा बहुमत हासिल करना है."

असल में भाजपा की दिक्कत अनुसूचित जनजातियों (एसटी) या आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 निर्वाचन क्षेत्रों में है. राज्य में आदिवासी आबादी 28 फीसद है. 2019 से ही आदिवासी क्षेत्रों में पार्टी के वोट में लगातार गिरावट दिख रही है. तब वह 28 आरक्षित सीटों में सिर्फ दो जीत पाई थी.

लिहाजा, सोरेन की अगुआई में झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने उसे सत्ता से बेदखल कर दिया. यही रुझान 2024 के लोकसभा चुनाव में भी जारी रहा, खास तौर पर चार महीने पहले सोरेन की गिरफ्तारी के बाद. भाजपा एसटी आरक्षित सभी पांच लोकसभा सीटें हार गई. दरअसल भाजपा को आदिवासी वोटों की अहमियत देर से समझ आई थी और जुलाई 2023 में सोरेन की तरह संथाल समुदाय के मरांडी को राज्य भाजपा अध्यक्ष नियुक्त किया गया था.

हालांकि, झारखंड के आदिवासी वोटरों में परंपरा से झामुमो की पकड़ मजबूत रही है.  हेमंत के पिता शिबू सोरेन झारखंड के दिग्गज आदिवासी नेता हैं. हेमंत ने सरकारी नौकरी की योग्यता के लिए 1932 के भूमि खतियान के आधार पर अधिवास नीति की वकालत और सरना धर्म को मान्यता पर जोर देकर इस विरासत को मजबूत किया है, जो प्रकृति की पूजा करने वाले आदिवासियों के लिए एक अलग पहचान चाहता है. इन कदमों ने आदिवासी समूहों को व्यापक हिंदू पहचान के तहत समेटने की भाजपा की रणनीति को पटरी से उतार दिया है.

भाजपा की रणनीति

झारखंड में आदिवासियों की आहत भावनाओं पर मरहम रखने की जरूरत के एहसास से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दो महीने में राज्य की दो यात्राएं कर चुके हैं. दूसरी यात्रा में 2 अक्तूबर को उन्होंने धरती आबा जनता ग्राम उत्कर्ष अभियान की घोषणा की, जो देश के 5 करोड़ आदिवासियों के लिए 79,150 करोड़ रुपए की पहल है. भाजपा के सूत्रों के मुताबिक, प्रधानमंत्री की कम से कम सात चुनावी सभाओं की योजना है.

(बाएं से) चंपाई सोरेन, अमित शाह और बाबूलाल मरांडी 20 सितंबर को साहिबगंज में परिवर्तन रैली के दौरान

इसके अलावा, पार्टी सभी आदिवासी सीटों के अलग-अलग इलाकों में अपने प्रदर्शन की समीक्षा कर रही है. मसलन, कोल्हान क्षेत्र में 2019 में भाजपा का पूरी तरह से सफाया हो गया था. पार्टी एसटी के लिए आरक्षित सभी 14 सीटें हार गई थी. सो, वहां पार्टी अपनी किस्मत बदलने के लिए तीन पूर्व आदिवासी मुख्यमंत्रियों—चंपाई सोरेन, अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा पर भरोसा कर रही है. अगस्त में झामुमो छोड़कर भाजपा में शामिल हुए चंपाई सोरेन और उनके बेटे बाबूलाल क्रमश: सरायकेला और घाटशिला से चुनाव लड़ रहे हैं.

मधु कोड़ा 2006 में अर्जुन मुंडा की सरकार गिराकर मुख्यमंत्री बने थे. अब वे अर्जुन मुंडा के साथ भाजपा खेमे में हैं. कोड़ा हो जनजाति के प्रमुख नेता हैं और कोल्हान क्षेत्र में भाजपा की पकड़ मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. उनकी पत्नी गीता और अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा क्रमश: जगन्नाथपुर और पोटका से चुनाव लड़ेंगी, और उनसे कोल्हान में भाजपा की संभावनाओं को मजबूत होने की उम्मीद है.

भाजपा के लिए अंधियारे का दूसरा क्षेत्र संथाल परगना है. वहां की 18 एसटी सीटों में से 2019 में झामुमो ने नौ और कांग्रेस ने चार सीटें जीती थीं, जो आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की मजबूत गोलबंदी के बल पर मिली थीं. उसे तोड़ने के लिए, भाजपा अब 'रोटी, बेटी और माटी' का नारा उछाल रही है, जिसका इशारा यह है कि "बांग्लादेशी घुसपैठिए" (यानी मुसलमान) आदिवासियों की बेटियों से शादी कर रहे हैं और उनकी जमीन और नौकरियों पर कब्जा कर रहे हैं.

हालांकि, 2014 में सोरेन को हराने वाली लुइस मरांडी को मैदान में उतारने की भाजपा की उम्मीदें 21 अक्तूबर को झामुमो में शामिल होने के बाद खत्म हो गईं.

कांग्रेस की जवाबी रणनीति

जेल से रिहा होने और मुख्यमंत्री पद पर वापसी के बाद से सोरेन ने कई कल्याणकारी पहलों की जोरदार शुरुआत की है. अगस्त में, उनकी सरकार ने मैय्या सम्मान योजना शुरू की, जिसके तहत 18 से 50 वर्ष की महिलाओं को हर महीने 1,000 रुपए नकद हस्तांतरित किए जाते हैं. चुनाव की तारीखों की घोषणा से ठीक एक दिन पहले सोरेन कैबिनेट ने दिसंबर से भत्ता बढ़ाकर 2,500 रुपए प्रति माह करने का वादा किया.

दूसरी योजनाओं में लगभग 40 लाख घरों के 3,584 करोड़ रुपए के बकाया बिजली बिलों को माफ करना, वंचित परिवारों को 200 यूनिट बिजली मुफ्त प्रदान करना और 1,76,977 किसानों के 400.66 करोड़ रुपए का कृषि ऋण माफ करना शामिल है.

लाभार्थियों की संख्या काफी बड़ी है. मैय्या सम्मान के लाभार्थियों की संख्या 53 लाख है, जो 2019 के राज्य चुनाव में पड़े 1.5 करोड़ वोटों का लगभग एक-तिहाई है और झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन को मिले वोटों के बराबर है.

झारखंड के मुख्यमंत्री के पूर्व सलाहकार तथा एक निजी विश्वविद्यालय में गेस्ट फैकल्टी सुमन के. श्रीवास्तव कहते हैं, "लगता है कि भाजपा ने सहज तालमेल वाला गठबंधन बना लिया है, लेकिन उसकी बड़ी चुनौती सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों के बीच सोरेन के पक्ष में रुझान से मुकाबले की है." भाजपा ने इसकी तोड़ में अपने 'पांच प्रण' या पांच संकल्पों का ऐलान किया है. मसलन, सभी महिलाओं को बुनियादी आमदनी, खाना पकाने का ईंधन, नौकरी, बेरोजगारी भत्ता और आवास प्रदान करना, वगैरह.

प्रचार में स्थानीय भाजपा नेताओं की मजबूत कतार है, जो शीर्ष केंद्रीय नेताओं के साथ मंच साझा करेंगे. इस मामले में सोरेन को अपनी पत्नी कल्पना से काफी ताकत मिलेगी, जो उनके जेल में रहने के दौरान झामुमो में एक प्रमुख नेता के रूप में उभरी हैं. महिला मतदाताओं के साथ उनका सहज जुड़ाव उन्हें झामुमो के पीछे लामबंद करने में मदद करेगा, जिनके साथ उन्हें अक्सर भोजन करते देखा जा सकता है. उन्होंने कहा है, "उनके इस सफर का मकसद आधी आबादी को सम्मान और गरिमा प्रदान करना है."

मुख्य लड़ाई के इतर, इस मुकाबले में कई सियासी विरासत की लड़ाइयां भी लड़ी जानी हैं. फिर, ऐसी लड़ाइयां भी हैं जो नेताओं की सियासी तकदीर का फैसला करेंगी. इन नेताओं में एक तो मरांडी ही हैं. वे राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने और 2003 में पद छोड़ दिया था. तब से राजनीति में उनकी कोई खास अहमियत नहीं दिखी है. भाजपा अगर अच्छा प्रदर्शन करती है, तो उनके पास बड़ी कुर्सी हासिल करने का मौका है.

इसी तरह हाल के लोकसभा चुनाव में अपनी सीट हारने के बाद, तीन बार के मुख्यमंत्री तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए इस बार मजबूत प्रदर्शन की आवश्यकता होगी. विरासत की जंग में, सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई सोरेन की रूठी हुई भाभी सीता ने छेड़ी है, जो भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार गई थीं, लेकिन अपने दिवंगत पति दुर्गा सोरेन, शिबू सोरेन के सबसे बड़े बेटे के नाम पर वोट मांग रही हैं. यकीनन, लड़ाई आदिवसी नेता की है, देखना यह है, कौन सुखर्रू रहता है.

इंडिया की रणनीति

● जनवरी में सोरेन की गिरफ्तारी के बाद उपजी सहानुभूति लहर पर सवार होकर भाजपा को आदिवासी विरोधी के रूप में पेश करना

● पति की अनुपस्थिति में कल्पना सोरेन ने महिलाओं में जो पकड़ बनाई, उसे और मजबूत करना

● कल्याणकारी योजनाओं, खासकर मैय्या सम्मान योजना का प्रचार-प्रसार करना, जिससे 53 लाख महिलाओं को लाभ मिलने की उम्मीद है

● कोयला रॉयल्टी सहित झारखंड के अधिकारों को नकारने जैसे केंद्र के कथित अन्याय को उछालना
एनडीए की रणनीति

● प्रधानमंत्री मोदी की छवि का लाभ उठाकर मतदाताओं को लुभाना

●चार पूर्व मुख्यमंत्रियों—बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, चंपाई सोरेन और मधु कोड़ा की आदिवासिओं में पकड़ के जरिए आदिवासी मतदाताओं को अपने पक्ष में करना

● बांग्लादेशी घुसपैठियों (पढ़ें मुसलमानों) के हाथों संथालों की जमीन और बेटियों को छीनने के कथित नैरेटिव का जोर-शोर से प्रचार

● सोरेन की कल्याणकारी योजनाओं का मुकाबला करने के लिए 'पांच प्रण’ (पांच संकल्प) का प्रचार. इनमें महिलाओं को यूनिवर्सल बेसिक इनकम, खाना पकाने का ईंधन, नौकरी, बेरोजगारी भत्ता और आवास उपलब्ध कराना शामिल है

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