झारखंड हाइकोर्ट ने 26 अगस्त को एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान राज्य के संथाल परगना के इलाकों में बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों की जानकारी मांगी, तो संथाल इलाके में आने वाले छह जिलों पाकुड़, साहिबगंज, दुमका, गोड्डा, देवघर और जामताड़ा के जिलाधिकारियों ने कहा कि एक भी घुसपैठिया नहीं है. कोर्ट ने पूछा कि तब आदिवासियों की जनसंख्या क्यों घट रही है, इसका जवाब दीजिए. अधिकारी जवाब तैयार कर रहे हैं. पर शायद जवाब है संथाल परगना में आदिवासियों को मिल रहा गंदा पानी.
राजधानी रांची से 410 किलोमीटर दूर पाकुड़ जिले के लिट्टीपाड़ा प्रखंड के बड़ा कोरिया गांव में डायरिया फैल गया है. दो लोगों की मौत हो चुकी है और 20 लोग बीमार थे. पूरा गांव पहाड़िया जनजाति का है. कुछ को अस्पताल, तो बाकियों को गांव में ही खाट पर लिटाकर सलाइन ड्रिप चढ़ाया गया. गांव से सड़क तक पहुंचने के लिए आठ किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है. उसके लिए भी तीन पहाड़ों पर चढ़ना और उतरना होता है. पूरे झारखंड में तीन पहाड़िया आदिम जनजाति है. पहला माल पहाड़िया-कुमारभाग पहाड़िया, जिसकी आबादी साल 2011 की जनगणना के मुताबिक 1,35,797 है और दूसरा सौरिया पहाड़िया, जिसकी आबादी 46,222 है. वहीं झारखंड में आठ और देशभर में 75 आदिम जनजाति हैं.
मृतक 26 वर्षीय बिंजामिन पहाड़िया की 24 वर्षीया पत्नी जाबरी पहाड़िन बीते रविवार को अपने पति की कब्र पर संबंधित रिवाजों को पूरा कर घर लौटी थीं. साथ में उनका छह साल का बेटा बमना पहाड़िया भी था. उन्होंने इंडिया टुडे को बताया, "27 अगस्त की रात को अचानक उनके पति को दस्त और उल्टी होने लगी. डॉक्टर ने सलाइन चढ़ाई लेकिन 28 की रात आते-आते वे मर चुके थे." इसी गांव की 39 वर्षीया अंदारी पहाड़िन की भी मौत हो चुकी है. उनकी तीन साल की बेटी भी डायरिया से ग्रस्त है. लगभग 45 बच्चों वाले इस गांव में सूरजा पहाड़िया एकमात्र ऐसा बच्चा है, जो स्कूल जाता है.
हालांकि जिला चिकित्सा पदाधिकारी मंटू टेकरीवाल इससे इनकार करते हैं कि दोनों की मौत डायरिया से हुई. वे कहते हैं, "दोनों केस का वर्बल ऑटॉप्सी (मौखिक पोस्टमार्टम) हुआ. अंदारी पहाड़िन को सांस से संबंधित समस्या थी. वहीं बेंजामिन को छह महीने पहले दिल्ली में कुत्ते ने काटा था. उसे काली खून की उल्टी हो रही थी, दस्त के लक्षण नहीं थे."
गांव के मसीह दास पहाड़िया को स्वास्थ्य विभाग ने यह जिम्मा दिया है कि सभी बीमार समय से दवाई लें, इसकी निगरानी करें और अगर कोई बीमार पड़ता है तो इसकी खबर स्वास्थ्य विभाग को दें. वे बताते हैं, "हम लोग वर्षों से पास के झरने का पानी ही पीते आ रहे हैं. बरसात के समय इसके गंदा होने और डायरिया, मलेरिया का खतरा बना रहता है." गांव के ही छोटा राबते पहाड़िया कहते हैं, "अगर कोई बीमार पड़ता है तो हम उसे खाट पर भी नहीं ले जा पाते, क्योंकि पगडंडी ऐसी नहीं है जिस पर एक साथ चार लोग चल सकें. इसके लिए हम दो बांस में साड़ी बांध देते हैं, और फिर मरीज को उसमें रखकर अस्पताल ले जाते हैं." उनका बेटा मारी पहाड़िया और पत्नी दुली पहाड़िन मलेरिया से ग्रस्त हैं.
लगभग 40 परिवार वाले गांव के सभी घर खपरैल हैं. कई टूटे-फूटे. दो लोगों के पास साइकिल है. गांव में बिजली आ गई है, सो कुछ लोगों के पास मोबाइल भी है.
हर साल डायरिया-मलेरिया की मार
इसी साल जून माह में लिट्टीपाड़ा के ही छोटा चटकम और बगल के अमरापाड़ा प्रखंड के बास्को गांव में 25 से अधिक लोग मलेरिया और डायरिया की चपेट में आए थे. बीते साल नवंबर माह में लिट्टीपाड़ा में ही चार बच्चों सहित कुल पांच लोगों की मौत मलेरिया से हो गई थी. उस वक्त की गई स्वास्थ्य विभाग की जांच में पूरे प्रखंड में कुल 972 लोग मलेरिया की चपेट में आए थे. संसद में गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक, उसी साल गोड्डा जिले के सुंदरपहाड़ी इलाके में पहाड़िया आदिम जनजाति के 30 लोगों की मौत हो गई थी.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया के डॉ. राजेश कुमार राव ने पाकुड़ जिले के सौरिया पहाड़िया आदिम जनजाति बहुल आठ गांवों में मलेरिया को लेकर रिसर्च किया था. 2021 में छपी इस रिपोर्ट के मुताबिक, इलाके में मलेरिया के 20 प्रकार के मच्छर और 92.2 फीसद लोगों में मलेरिया के एक टाइप प्लाज्मोडियम फाल्सीपैरम के लक्षण पाए गए थे.
पाकुड़ ही नहीं, साहिबगंज, दुमका के कई ऐसे आदिवासी बहुल गांव हैं, जहां लोग झरने और चुंआ (झरने का वह पानी जिसे ग्रामीण गड्ढे में जमा करते हैं) का पानी पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं. संथाल परगना के अलावा राजधानी रांची, खूंटी, सिमडेगा, चाईबासा, गुमला, लातेहार जिलों के आदिवासी बहुल इलाकों में लोग वर्षों से ऐसे ही पानी पी रहे हैं. 2013 में केंद्रीय स्वास्थ्य और आदिवासी मंत्रालय की ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया नाम की एक संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक देशभर की मात्र 10.7 प्रतिशत आदिवासी आबादी को पाइप से पानी पहुंच पाता है. इसी रिपोर्ट के मुताबिक, आदिवासियों की लाइफ एक्सपेंटेंसी 63.9 साल है, जबकि गैर आदिवासियों की 69 साल.
आखिर विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके इन आदिवासियों को साफ पानी मयस्सर क्यों नहीं हो पा रहा है? राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष अतर सिंह आर्य कहते हैं, "अभी मेरे पास इस मामले की जानकारी आई है. मैं राज्य सरकार से संपर्क करके साफ पानी पहुंचाने की व्यवस्था के संबंध में बात करता हूं."
यह इलाका लिट्टीपाड़ा विधानसभा क्षेत्र में आता है. लिट्टीपाड़ा में बीते 44 साल से झामुमो के नेता चुनाव जीतते आ रहे हैं. वर्तमान विधायक दिनेश विलियम मरांडी कहते हैं, "बीमारी बोलकर नहीं आती है. सांसद-विधायक को भी मलेरिया, डायरिया होता है." भाजपा की पूर्ववर्ती रघुवर दास सरकार के समय खास इस इलाके के लिए 217 करोड़ रुपए की लागत से लिट्टीपाड़ा बहु ग्रामीण जलापूर्ति योजना लाई गई थी, जिसे साल 2019 में पूरा होना था. लेकिन सरकार बदलते ही योजना खटाई में पड़ गई. विधायक मरांडी कहते हैं, "इस योजना के लिए गुरुग्राम की एक कंपनी को ठेका मिला था. सरकार बदलने के बाद उसने काम बंद कर दिया और फिर उसे ब्लैकलिस्ट कर दिया गया. हमने सीएम से अनुरोध किया था कि गंगा का पानी पाइप के जरिए इन इलाकों में पहुंचाया जाए."
सरकारी प्राथमिकता को देखें तो इन्हीं पहाड़ों के ऊपर सिंघारसी एयरफोर्स बेस कैंप 1967 में ही बना था, जहां से चीन, भूटान, नेपाल, बंग्लादेश और म्यांमार की विमानन गतिविधियों पर नजर रखी जाती है. ये हालात केवल झारखंड में ही नहीं हैं. अक्टूबर 2023 में ओडिशा की कुल नौ आदिम जनजातियों में से एक जुआंग जनजाति के 11 लोगों की मौत डायरिया से हुई थी. 2021 में छत्तीसगढ़ में कुपोषण से पांडो कोरवा और पहाड़ी कोरवा आदिम जनजाति के 29 लोगों की मौत हुई थी.
आनंद दत्त