आप मौजूदा वक्त के असल पहलुओं को तभी समझ सकते हैं जब उन्हें अतीत के आईने में रखकर आंकें. पश्चिम बंगाल विधानसभा के स्पीकर बिमान बनर्जी पिछले राज्यपाल के कार्यकाल को लगभग निराशा भाव से देखते हैं. जुलाई 2022 में भारत का उपराष्ट्रपति बनाए जाने से पहले जगदीप धनखड़ ने कोलकाता के राजभवन में तनातनी भरे तीन साल बिताए. राज्य सरकार के साथ उनके रिश्ते इस हद तक बिगड़ गए कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें ट्विटर पर ब्लॉक कर दिया.
मगर मौजूदा स्थितियों से तुलना करें तो स्पीकर बनर्जी को वह दौर 'फिर भी स्वीकार्य' लगता है. दरअसल, 18 नवंबर, 2022 से राज्यपाल के पद पर मौजूदा सी.वी. आनंद बोस तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की हुकूमत के साथ तीखी जंग में उलझे हैं. विधेयकों को मंजूरी रोक लेने से जुड़े सामान्य टकरावों से कहीं आगे चली गई है यह जंग. शत्रुताओं ने अलग ही पैमाना हासिल कर लिया है. राज्यपाल का दफ्तर मुकदमेबाजी के अभूतपूर्व जाल में फंसा है. बोस के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप का नतीजा यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट अब राज्यपालों को दी गई कानूनी छूट की जांच कर रहा है. इस उबलते कड़ाहे में मुख्यमंत्री ममता के खिलाफ मानहानि का एक मुकदमा और जोड़ दें, तो यह आला संवैधानिक तमाशे का आदर्श नुस्खा बन जाता है.
दोनों तरफ कड़वाहट कितनी ज्यादा है, यह उस वक्त दिखाई दिया जब प्रोटोकॉल के तहत होने वाला एक सीधा-सादा आयोजन—टीएमसी के दो विधायकों की शपथ—फूहड़ रस्साकशी में बदल गया. यह कुछ इस तरह हुआ: 21 जून को हुए उपचुनावों में बारानगर से अभिनेत्री सायंतिका बनर्जी और भगवानगोला से रैयत हुसैन सरकार चुने गए. 21 जून को सायंतिका को राजभवन से 26 जून को शपथ लेने का निमंत्रण मिला. रैयत को ऐसा ही पत्र 25 जून को मिला. दोनों ने राज्यपाल को लिखा कि वे चाहते हैं उन्हें राजभवन में नहीं बल्कि विधानसभा में स्पीकर से शपथ दिलाई जाए.
एक साथ कई पक्षों में तनाव पैदा हो गया. दोनों विधायक 26 जून को विधानसभा में धरने पर बैठ गए. यह एक हफ्ते से ज्यादा चला. 27 जून को स्पीकर बनर्जी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को चिट्ठी लिखकर दखल देने की मांग की. उसी दिन ममता ने यह कहकर सरगर्मी बढ़ा दी कि "महिलाओं ने मुझे बताया कि हाल में ही हुई घटनाओं के कारण वे राजभवन जाने में सुरक्षित नहीं महसूस करतीं."
रिश्तों को गर्त में पहुंचा देने वाले मई के एक मामले की याद दिलाते हुए 28 जून को बोस की ओर से मानहानि का मुकदमा दायर कराया गया. नतीजतन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हाइकोर्ट से तीखी आलोचना सुननी पड़ी. असल में, कलकत्ता हाइकोर्ट टीएमसी शासन में न्यायिक सक्रियता से परे नहीं रहा है. उसने 16 जुलाई को मानहानि वाले बयानों पर रोक लगाते हुए कहा कि टिप्पणियां 'लापरवाह' ढंग से की गई थीं.
संकट अलबत्ता बढ़ता ही गया. राज्यपाल ने 4 जुलाई को डिप्टी स्पीकर आशीष बनर्जी को शपथ दिलाने की जिम्मेदारी सौंपी. मगर 5 जुलाई को स्पीकर बिमान बनर्जी ने खुद शपथग्रहण की अध्यक्षता की और दावा किया कि कार्यविधि के नियम उन्हें ऐसा करने की इजाजत देते हैं. इस बार बोस ने राष्ट्रपति मुर्मू को चिट्ठी लिखी और स्पीकर पर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगाया.
राजभवन का कहना है कि कानून विधायकों को "राज्यपाल, या उनकी ओर से नियुक्त किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस उद्देश्य के लिए निर्धारित प्रपत्र के अनुसार शपथ या प्रतिज्ञा लेने" का आदेश देता है. वह पिछले उदाहरणों की तरफ इशारा करता है, जिनमें निर्वाचित सदस्यों को राजभवन में राज्यपाल के समक्ष शपथ दिलवाई गई. मसलन, वह कहता है कि खुद ममता, जाकिर हुसैन और अमीरुल इस्लाम 2021 के उपचुनाव जीतकर आए थे और धनखड़ ने उन्हें शपथ दिलाई थी.
राज्य सरकार ने 12 जुलाई को बोस के खिलाफ एक और गोला दागा. विधानसभा से पारित आठ विधेयकों को अटकाने के लिए उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई. इनमें से छह विधेयकों को धनखड़ ने राज्यपाल रहते मंजूरी दी थी. सात उस मुद्दे से जुड़े हैं जो बंगाल में लंबे वक्त से टकराव का विषय रहा है: वाइस चांसलरों (वीसी) की नियुक्ति. इसमें मुख्यमंत्री और राज्य के शिक्षा मंत्री को क्रमश: सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह चांसलर और विजिटर बनाने का प्रावधान भी शामिल है.
सरकार की तब बांछें खिल गईं जब 8 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल के सरकारी विश्वविद्यालयों में वीसी की नियुक्ति के लिए पूर्व सीजेआई यू.यू. ललित की अध्यक्षता में संयुक्त खोज चयन समिति बनाने का आदेश दे दिया. राजभवन 'राज्यपाल की ओर से किसी चूक' की वजह से किसी भी विधेयक के लंबित होने से इनकार करता है. उलटे, जवाब में उसका कहना है कि पश्चिम बंगाल (लिंचिंग की रोकथाम) विधेयक 2019 पर मांगे गए स्पष्टीकरण राज्य सरकार से अभी तक नहीं मिले हैं.
इस बीच वह विवाद भी, जिसने दोनों पक्षों के बीच रिश्तों के समूचे परिदृश्य को इस तरह काला कर दिया है कि उसकी भरपाई नहीं हो सकती, उस वक्त और भी ऊंचाई पर पहुंच गया जब सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. राजभवन की एक महिला संविदा कर्मचारी ने 2 मई को राज्यपाल के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई. शिकायत के मुताबिक, बोस ने उन्हें बेहतर नौकरी देने के बहाने बुलाया और 24 अप्रैल तथा 2 मई को दो मौकों पर उनके साथ छेड़छाड की. दावों की तस्दीक के लिए उन्होंने सीसीटीवी के फुटेज की जांच करने की मांग की. बाद में महिला को शिकायत दर्ज करवाने से रोकने की कोशिश करने के लिए राजभवन के कर्मचारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. हाइकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी.
सुप्रीम कोर्ट की सीजेआई डी.वाइ. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने 19 जुलाई को शिकायतकर्ता की तरफ से दायर रिट याचिका में उठाए गए सवालों पर सहमति जाहिर की: संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपालों को आपराधिक आरोपों से छूट हासिल है, जिसने आरोपों की पुलिस जांच को अब तक नाकाम कर दिया. याचिका में कहा गया है कि ऐसी शिकायतों के साथ समय की संवेदनशीलता जुड़ी होती है और इसलिए छूट के प्रावधानों के तहत बोस के पद छोड़ने तक जांच को रोकना नहीं चाहिए. शिकायतकर्ता के वकील उदयादित्य बनर्जी कहते हैं, "पुलिस को जांच करनी चाहिए और राज्यपाल के बयान दर्ज करने चाहिए. यौन उत्पीड़न का शिकार हुई महिला संविदा कर्मचारी असहाय महसूस कर रही है."
राज्यपाल ने शुरुआत से ही आरोपों को बकवास बताया और उन्हें राजनैतिक रूप से 'गढ़े गए नैरेटिव' का हिस्सा करार दिया. राजभवन ने 19 जुलाई को अपने एक्स हैंडल पर लिखा: "2 मई, 2024 को आरोपों के सामने आने के फौरन बाद पूर्व जज के हाथों इन-हाउस न्यायिक जांच की गई." शिकायतकर्ता की याचिका पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से सहमति जताए जाने के एक दिन बाद 11 मई को इस हैंडल पर पुदुच्चेरी न्यायिक सेवा के पूर्व जिला जज डी. रामबथिरन की रिपोर्ट रखी गई, जिसने 'अनुचित व्यवहार और छेड़छाड़ की कथित घटना' को 'पूरी तरह दुर्भावना से' लगाया गया 'झूठा और दुष्प्रेरित' आरोप बताया. टीएमसी ने समय गंवाए बिना रिपोर्ट को 'कूड़ा' और 'न्यायपालिका को प्रभावित करने की खुल्लमखुल्ला कोशिश' करार दिया.
रिपोर्ट अन्य बातों के अलावा यह भी कहती है कि आरोप 'झूठ पर आधारित' थे. बोस ने यही बात 5 जून और 20 जून को केंद्रीय गृह मंत्रालय को लिखी गई दो चिटिठयों में भी कही और मुख्य सचिव बी.पी. गोपालिका, कोलकाता के पुलिस कमिशनर विनीत कुमार और डिप्टी पुलिस कमिशनर (सेंट्रल) इंदिरा मुखर्जी के खिलाफ कार्रवाई की मांग की. उन्होंने उन पर छेड़छाड़ के आरोपों को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने सेवा नियमों का उल्लंघन किया है. उन्होंने कोलकाता पुलिस पर मना किए जाने के बावजूद राजभवन के पहचान पत्र जारी करने का आरोप भी लगाया. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दोनों आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू कर दी है.
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल बोस का कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रति साफ खुशमिजाजी के साथ शुरू हुआ था. मगर, बताया जाता है कि यह राज्य बीजेपी और केंद्र को रास नहीं आया. फिर, उसके फौरन बाद चीजें बिगड़ने लगीं और राज्यपाल बोस राज्य प्रशासन की ठीक उसी तरह ही सार्वजनिक आलोचना करने लगे जैसे कभी धनखड़ किया करते थे. यहां तक कि बोस ने हिंसा से प्रभावित ज्वलंत इलाकों के जांचकर्ता सरीखे दौरे करने शुरू कर दिए.
मगर राज्य बीजेपी को अब भी लगता है कि बोस ने ममता बनर्जी पर लगाम कसने के लिए पर्याप्त काम नहीं किया है. और, राज्य बीजेपी के इस असंतोष से जाहिरा तौर पर केंद्रीय गृह मंत्रालय को परिचित करा दिया गया है. यह देखना बाकी है कि क्या केंद्र उन आशंकाओं पर कोई कार्रवाई करता है, खासकर उस वक्त जब दांव इतने ऊंचे हो गए हैं.
पेचीदा झगड़े का कोई अंत नहीं
> मई में बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस पर राजभवन की एक कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया
> बोस ने ममता बनर्जी पर मानहानि का मुकदमा कराया; कलकत्ता हाइकोर्ट ने ममता की टिप्पणियों की भर्त्सना की
> राजभवन का कहना है कि आंतरिक न्यायिक जांच में आरोप 'झूठे और दुष्प्रेरित' पाए गए
> राज्य सरकार ने कथित रूप से विधेयकों को अटकाने के लिए बोस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की
> राजभवन दावा करता है कि राज्यपाल की किसी चूक की वजह से कोई विधेयक लंबित नहीं है
> सुप्रीम कोर्ट अब अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपालों को आपराधिक जांच से दी गई कानूनी छूट की जांच कर रहा है
- अर्कमय दत्ता मजूमदार

