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क्या प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की तर्ज पर बना यह आधुनिक विश्वविद्यालय हासिल कर सकेगा पुराना गौरव?

लगातार राजनैतिक विवादों से जूझता नालंदा विश्वविद्यालय फिलहाल न छात्रों को आकर्षित कर पा रहा है, न ही यहां विश्व स्तर के शिक्षक हैं

नए नालंदा विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन
नए नालंदा विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन
अपडेटेड 15 अगस्त , 2024

नालंदा विश्वविद्यालय के नवनिर्मित कैंपस के उद्घाटन के मौके पर 19 जून, 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मंत्री ने अपने संबोधन में कहा, "हम डेवलप्ड कंट्रीज को देखें तो ये पाएंगे, वे इकोनॉमिक और कल्चरल लीडर तब बने, जब वे एजुकेशनल लीडर बने. आज दुनिया भर के स्टूडेंट्स और स्टेट्समेन उन देशों में जाकर वहां पढ़ना चाहते हैं. कभी ऐसी स्थिति हमारे यहां नालंदा और विक्रमशिला जैसे संस्थानों में हुआ करती थी. इसलिए यह केवल संयोग नहीं है कि जब भारत शिक्षा में आगे था, तब उसका आर्थिक सामर्थ्य भी नई ऊंचाई पर था. यह किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए एक बेसिक रोडमैप है. इसलिए 2047 तक विकसित होने के लक्ष्य पर काम कर रहा भारत अपने एजुकेशन सेक्टर का कायाकल्प कर रहा है." उनकी बातों से जाहिर था कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की तर्ज पर बने इस आधुनिक विश्वविद्यालय को लेकर उनका सपना किस तरह का है.

इस सपने का जिक्र करते हुए लेखक और विचारक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "प्राचीन नालंदा के खंडहरों तक पहुंचकर कभी पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी ऐसा ही सपना देखा था. उनका सपना उनकी बेटी इंदिरा ने जेएनयू की स्थापना करके पूरा किया जो स्थापना के दस साल के भीतर ही दुनिया भर में चर्चित हो गया. लेकिन कोई पंद्रह साल गुजर जाने के बाद आज नालंदा के नवीन केंद्र का क्या हाल है, यह किसी से छुपा नहीं है. दुनिया की तो बात ही छोड़ दीजिए, बिहार के चौबीस विश्वविद्यालयों में भी यह 19वें नंबर पर है. विश्वविद्यालय का महत्व उसके भवन और परिसर से नहीं, ज्ञान और उसकी गुणवत्ता से होता है. इस मामले में यह संस्था कहीं से भी उल्लेखनीय नहीं है."

मणि दरअसल दुनिया भर के 14,131 विश्वविद्यालयों के साइंटिफिक पेपर और साइटेशन का अध्ययन कर, उसके कैंपस और पूर्व छात्रों के बारे में पता कर उन्हें रैंकिंग देने वाली संस्था इडुरैंक के आंकड़ों का जिक्र कर रहे थे. उसके मुताबिक, नालंदा विवि दुनिया भर में 9,706 और भारत में 575वें नंबर पर है. 

नालंदा विवि के नए परिसर के उद्घाशटन के बाद यहां के अंतरिम कुलपति रह चुके पंकज मोहन और पूर्व शिक्षक मुरारी झा ने यहां की शिक्षा व्यवस्था को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए. नालंदा के ही प्राचीन विवि के बारे में 640 ईस्वी के करीब यहां पहुंचे चीनी यात्रा ह्वेनसांग ने अपने संस्मरण में लिखा था, "बहुत खूबसूरती से सजाई गई मीनारें और नुकीली पहाड़ी चोटियों की तरह परी जैसे बुर्ज, एक समूह जैसे नजर आते हैं. यहां की वेधशालाएं सुबह की भाप में खो जाती हैं और ऊपरी कमरे बादलों से ऊपर उठते नजर आते हैं. यहां की खिड़कियों से झांक कर कोई समझ सकता है कि बादल और हवाएं कैसे नए-नए आकार लेती हैं और ऊंची उठती हुई गुफाएं सूरज और चांद का संयोजन करती नजर आती हैं." अपने बेहतरीन समय में उस विवि में दुनिया भर के 2,000 शिक्षक और 10,000 से ज्यादा छात्र थे.

ह्वेनसांग वाला विवरण नए विवि पर किस कदर हावी है, यह परिसर के मुख्य द्वार में घुसने के साथ ही पता चल जाता है. इसके वास्तुविद् पद्मविभूषण वी.वी. जोशी ने इसे काफी हद तक वैसा ही बनाने की कोशिश की है, जैसा ह्वेनसांग ने लिखा था या जैसा इस परिसर से 20 किमी दूर नालंदा विवि के खंडहर दिखते हैं. हां, अगर कुछ नजर नहीं आया तो छात्रों और शिक्षकों की गहमागहमी. प्रशासन के लोगों का तर्क था, "अभी सेमेस्टर ब्रेक है. पीएम मोदी के आयोजन में भी शॉर्ट नोटिस में जैसे-तैसे छात्रों को जुटाया गया." हालांकि छात्रावास में कुछ विदेशी छात्र थे, जिनसे विवि के प्रशासनिक अधिकारी की मौजूदगी में इस संवाददाता की मुलाकात कराई गई. जाहिर है, ऐसे में उन्होंने व्यवस्था और सुविधाओं की तारीफ ही की.

पर अभी शिक्षक और छात्र कितने हैं भला यहां पर? अंतरिम वीसी अभय कुमार सिंह बताते हैं: "35-40 शिक्षक और पीजी-पीएचडी कार्यक्रम में 266 छात्र." हालांकि विश्वविद्यालय के वेब पोर्टल पर यहां संचालित हो रहे पांच स्कूल में अंतरिम वीसी समेत सिर्फ 21 शिक्षकों और पांच टीचिंग फेलो का जिक्र था. इनमें भी सिर्फ दो विदेशी शिक्षक. छात्रों के बारे में बताया गया कि 251 छात्र पीजी के हैं और 15 ग्लोबल पीएचडी के. इनमें 190 विदेशी छात्र 25 देशों से आए हैं. सिर्फ 76 भारतीय हैं.

इतने कम छात्र क्यों हैं? सिंह स्पष्ट करते हैं, "अभी हमारे यहां सिर्फ छह प्रोग्राम चल रहे हैं. एक प्रोग्राम में अधिकतम 40 छात्रों को ही ले सकते हैं. इसलिए ऐसा है. जैसे-जैसे स्कूल बढ़ेंगे, छात्रों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ेगी." मगर एक प्रोग्राम के दो सत्रों के हिसाब से भी देखें तो विवि में 480 सीटें सिर्फ पीजी के पाठ्यक्रम में होती हैं. इस लिहाज से तकरीबन आधी सीटें खाली रह गई हैं. पीएचडी का हाल तो और बुरा है. प्रोग्राम के हिसाब से नामांकन की सूची उपलब्ध है? "ना. संबंधित व्यक्ति अवकाश पर हैं, सो यह अभी नहीं दे सकते."

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष

इस बारे में इसी विवि में 2016-17 के बीच अंतरिम कुलपति रहे पंकज मोहन से पूछे जाने पर उनका जवाब था: "विवि को अपनी सुविधा से नियम बनाने का अधिकार है. हमने यहां अध्यापन शुरू किया था, तब हम किराए के कैंपस में थे. वहां बच्चों को बिठाने की अधिक जगह नहीं थी. सो हर पाठ्यक्रम में 40 सीटें तय की थीं. अब तो विवि के पास 455 एकड़ का विस्तृत कैंपस है. 45 क्लास रूम हैं, वे अपनी सुविधा से नियम बदल ही सकते हैं. पर दिक्कत यह है कि छात्र आते कहां हैं?"

दिलचस्प है कि कैंपस न होने पर 2014 में विवि के पहले सत्र के लिए एक हजार से ज्यादा छात्रों ने आवेदन किया था, जिनमें से सिर्फ 15 को चुना गया था. उसके बाद से विवि के पाठ्यक्रमों की सीटें कभी नहीं भरीं. 2015-16 में दो विभागों में सिर्फ 50 छात्र थे. 2019-20 में पीजी के पांच प्रोग्राम में 52 छात्र थे. उसके बाद अभियान के तहत विदेशों में इसका प्रचार शुरू हुआ तो विदेशी छात्र आने लगे. 2021-23 बैच में 184 छात्रों को पीजी की डिग्री मिली. इनमें बड़ी संख्या विदेशी छात्रों की थी. सितंबर, 2023 में विवि में पांच विभागों में पीजी कर रहे 263 छात्रों में से सिर्फ 75 भारतीय थे. सर्वाधिक छात्र वियतनाम, बांग्लादेश और भूटान जैसे देशों से आ रहे हैं. ये तमाम जानकारियां विवि की अलग-अलग वर्षों की वार्षिक रिपोर्ट में दर्ज हैं.

विवि में 400 सीटों के एक छात्रावास की आधी के करीब सीटें खाली हैं. 500 सीटों का एक अन्य छात्रावास पूरी तरह खाली पड़ा है.

आरोप हैं कि संख्या बढ़ाने के लिए विवि ने सर्टिफिकेट और डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू कर दिए हैं. ऐसे पाठ्यक्रमों में 575 छात्र पढ़ रहे बताते हैं जबकि विवि की रूपरेखा तय करने के लिए 2007 में बने नालंदा मेंटर ग्रुप ने तय किया था कि इसमें मुख्यत: पीजी की पढ़ाई हो. पीजी और शोध की डिग्री. बाद में स्नातक की पढ़ाई भी शुरू की जा सकती है.

अब यह गंभीर सवाल है कि 1,800 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च करके इतना खूबसूरत कैंपस—जहां 2022 से कक्षाएं चल रही हैं—बनाने के बावजूद यहां छात्र क्यों नहीं आना चाहते? सिंह जवाब देते हैं, "अभी हमने दो नए पाठ्यक्रमों की शुरुआत की है. आने वाले वर्षों में हम गणित, भूगोल, मनोविज्ञान और भविष्यत विज्ञान जैसे पाठ्यक्रम शुरू करेंगे. फिर छात्रों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी."

क्या सचमुच? इन दिनों कैनबरा की ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे पंकज मोहन इस मामले में मणि से सहमत दिखते हैं: "देखिए, विवि में छात्र इमारत देखकर नहीं आते. वे यहां के शिक्षकों की कीर्ति सुनकर आते हैं. प्राचीन नालंदा विवि में भी दुनिया भर से छात्र इसलिए आते थे क्योंकि यहां नागार्जुन, असंग, धर्मपाल और धर्मकीर्ति जैसे शिक्षक थे. जिनकी किताबें दुनिया भर में पढ़ी जाती थीं."

यहां भी शुरू में अच्छे शिक्षकों को ढूंढ-ढूंढकर लाया गया. कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और स्विट्जरलैंड जैसे देशों से शिक्षक आए इस संकल्प के साथ कि विवि को प्रतिष्ठा दिलाने में जीवन लगा देंगे. मगर तीन साल की नौकरी के बाद भी किसी को स्थायी नहीं किया गया. कइयों को हटा दिया गया. बकौल मोहन, "ऐसे में ज्यादातर अच्छे शिक्षक बेहतर भविष्य की तलाश में दूसरी जगह चले गए. जो हैं भी, उनका अकादमिक जगत में वैसा सम्मान नहीं है जैसा विश्वस्तर के संस्थानों में हुआ करता है. फिर छात्र क्यों आएंगे?"

मोहन का आरोप है कि उनके हटने के बाद शिक्षकों की चयन समिति में और नतीजतन पढ़ाने वालों के रूप में ऐसे लोगों को चुना गया, जो सत्तारूढ़ दल की लाइन लेकर चल सकते हों. ऐसे में शैक्षणिक माहौल को संकुचित होना ही था. तभी तो 2007 से ही विवि के लिए जान लगा देने वाले संस्थापक कुलाधिपति अमर्त्य सेन जैसे विद्वान ने पहले पद छोड़ा, फिर गवर्निंग बॉडी से भी अलग हो गए, यह कहते हुए कि अगर ऐसे ही लोग आते रहे तो नालंदा विवि कभी आगे नहीं बढ़ सकता. उनके बाद कुलाधिपति बने, सिंगापुर के विदेश मंत्री रहे जॉर्ज यो ने भी नवंबर, 2016 में यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि सरकार गवर्निंग बॉडी के पुनर्गठन जैसे महत्वपूर्ण फैसले लेते वक्त भी उन्हें लूप में नहीं रखती. ऐसे में उसकी स्वायत्ता प्रभावित हो रही है.

हैरत की बात है कि विवि की वेबसाइट या पूरे परिसर में कहीं भी उन अमर्त्य सेन के नाम का जिक्र तक नहीं है जो 2007-2010 तक नालंदा मेंटर ग्रुप के प्रमुख और फिर 2015 तक विवि के संस्थापक कुलाधिपति रहे. ऐसा माना जाता है कि 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने उनके खिलाफ जो सार्वजनिक टिप्पणियां कीं, इसकी वजह से ऐसा किया गया.

नए परिसर की स्थापना के वक्त भी उन्हें याद नहीं किया गया. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी नहीं, जिन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सुझाव पर इस विवि की स्थापना के लिए प्रयास शुरू किए थे और इसके लिए अमर्त्य सेन जैसे विद्वान को जोड़ा था. हां, कलाम को उन्होंने खूब याद किया.

पर विवि की शुरुआती वार्षिक रिपोर्टों में यह दर्ज है कि अमर्त्य सेन ही थे जिनकी वजह से नालंदा मेंटर ग्रुप और बाद में बनी विवि की गवर्निंग बॉडी में जॉर्ज यो, पूर्व नौकरशाह एनके सिंह, ब्रिटेन के हाउस ऑफ लाड्स के सदस्य लॉर्ड मेघनाद देसाई, जापान के इकुओ हिरायामा, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो. सुगत बोस, पेकिंग यूनिवर्सिटी के वांग बांग्वेई, द सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के प्रो. तानसेन सेन जैसे लोग जुड़े. मगर 2016 में विदेश मंत्रालय ने गवर्निंग बॉडी को पूरी तरह बदल दिया. चीन और थाइलैंड को छोड़ बाकी सभी देशों के प्रतिनिधियों को हटा दिया गया.

जॉर्ज यो ने कुलाधिपति पद से इस्तीफा दे दिया. ऐसे में विवि की अंतरराष्ट्रीय छवि को धक्का लगना शुरू हो गया जबकि पूर्वी एशियाई मुल्कों की दो समिट में इसकी स्थापना का जिक्र हुआ था और स्वीकृति मिली थी. अंतरिम कुलपति सिंह अतीत में जाने से थोड़ा परहेज करते हैं. पर इतना जरूर बताते हैं कि "चंदा देने वाले देशों के प्रतिनिधियों को ही विवि की गवर्निंग बॉडी में जगह दी जाती है. सिंगापुर ने चंदे का वादा किया था, जो पूरा नहीं हुआ. चंदा मिलने के हिसाब से नाम जुड़ते जाएंगे." वे यही भी रेखांकित करते हैं कि परिसर के उदघास टन समारोह में 17 देशों के राजदूत सपत्नीक आए ना!

शिक्षकों की नियुक्ति संबंधी गुत्थी रजिस्ट्रार रमेश प्रताप सिंह परिहार खोल देते हैं, "नई शिक्षा नीति में निर्देश है कि विवि स्थायी शिक्षकों के बदले अस्थायी शिक्षकों और विजिटिंग प्रोफेसरों पर निर्भरता बढ़ाए. तभी तो यहां विजिटिंग प्रोफेसर ज्यादा हैं." वैसे विवि की वार्षिक रिपोर्ट और वेबसाइट पर दर्ज सूचनाओं के मुताबिक सिर्फ मैनेजमेंट प्रोग्राम में विजिटिंग प्रोफेसरों की संख्या ज्यादा दिखती है, दूसरे विभागों में वे नहीं के बराबर हैं.

सच है कि विवि अपना विकास स्वायत्त तरीके से कर ही नहीं पाया. इसमें सियासी दखल होते रहे. पहली कुलपति गोपा सबरवाल की नियुक्ति भी उनकी योग्यता की वजह से विवादों में रहीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री उपिंदर सिंह की नियुक्ति पर भी सवाल उठे. सरकारी दखल का सिलसिला कभी रुका नहीं.

नए परिसर के उदघाा टन के मौके पर भी आयोजन स्थल से सुषमा स्वराज ऑडिटोरियम के नाम की तख्ती हटा दी गई. प्रशासनिक अधिकारी एस.के. पटनायक ने कहा, "इसके नए नाम पर विचार चल रहा है.’’ हालांकि अंतरिम वीसी सिंह कहते हैं, ''सफाई के दौरान तख्ती झूल जाने की वजह से एसपीजी वालों ने हटाई थी, जल्द फिर लगेगी." मुमकिन है, वह लग जाए पर इस विवि की आकांक्षाओं को पंख कब लग पाएंगे, किसी को नहीं पता.


नालंदा विवि: पुराने को भला वह तवज्जो कहां

इस आधुनिक नालंदा विवि से 20 किमी दूरी पर प्राचीन नालंदा के खंडहरों के ठीक पास एक और विश्वविद्यालय है, जो प्राचीन नालंदा की परंपरा के पुनर्जीवन के नाम पर 1951 में स्थापित हुआ था. नव नालंदा महाविहार नाम के इस डीम्ड विवि की नींव तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने रखी थी और कहा था, "अंधकार भरी रातें बीतने के बाद इस शिला से नालंदा का सूरज फिर से उगेगा और यह लोकभाषा पालि को उज्ज्वल करेगा." पहले इसका नाम मगध इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट स्टडीज ऐंड रिसर्च इन पालि ऐंड अलाइड लैंग्वेजेज ऐंड बुद्धिस्ट स्टडीज, संक्षेप में पालि इंस्टीट्यूट रखा गया.

बाद में इसका नाम नालंदा महाविहार की तर्ज पर इसकी स्थापना के लिए जीवन अर्पित करने वाले भिक्षु जगदीश कश्यप ने नव नालंदा महाविहार रखा. इसकी स्थापना में राहुल सांकृत्यायन की भी भूमिका बताई जाती है. वहां आठ विभागों में पांच सौ से ज्यादा छात्र आज भी पढ़ते हैं और इनमें करीब 80 विदेशी छात्र हैं. ये म्यांमार, बांग्लादेश, थाइलैंड, कंबोडिया. वियतनाम, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों से आते हैं. 2006 में डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा पाने वाले इस विवि का जिम्मा भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के पास है. हालांकि अब इसकी चर्चा बहुत कम होती है.

प्राचीन विवि की बगल बने नव नालंदा महाविहार का प्रशासनिक भवन


यहां तिब्बती अध्ययन विभाग के प्रभारी दीपांकर लामा विवि के संस्थापक शिक्षक रिगजिंग लुंडुप लामा के पुत्र हैं और शुरू से संस्थान परिसर में रहे हैं. वे कहते हैं, "लगता है, महाविहार शब्द हमारे लिए नुक्सान की वजह बन गया. नालंदा यूनिवर्सिटी के नाम की वजह से नए विवि को नालंदा का उत्तराधिकारी माना गया, इसकी दुनिया भर में चर्चा हुई. हालांकि बिहार के सीएम नीतीश कुमार नए विवि की घोषणा करने से पहले हमारे संस्थान में आए थे. उन्हें इस विवि के बारे में पता ही न था. यहां उनका भाषण हुआ था मगर उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने के बदले नया विवि खोलना उचित समझा."

आज भी इस विवि परिसर में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों लगे शिलापट्ट को सहेजकर रखा गया है. यहां आज भी छात्रों की गहमागहमी है और शिक्षकों के कमरे में शोधग्रंथों के ढेर लगे दिखते हैं. मगर सरकारों की नजर इस पर वैसी नहीं है, जैसी नई नालंदा यूनिवर्सिटी पर.

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