
यूपी ने कमाल कर दिया..." कांग्रेस नेता राहुल गांधी से जब उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने यही कहा. दरअसल, 'यूपी के लड़के' 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में ऐसा कमाल कर गए जिसकी कल्पना कम से कम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने तो नहीं ही की थी.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव को यूपी में प्यार से यूपी के लड़के बुलाया जाता है. इस जोड़ी ने राम, राशन और शासन के भगवा नारे की पूरी रंगत उतारकर चुनावी जंग में सपा और कांग्रेस के मेल वाले इंडिया गठबंधन को अगड़ा बना दिया है.
इस गठबंधन ने प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 43 सीटें जीतीं (सपा ने 37 और कांग्रेस ने 6). इससे भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए राज्य में सिर्फ 36 सीटों पर सिमट गया. यूपी में यह दो लड़कों की जोड़ी का ही कमाल था जिसने पिछले दो चुनाव 2014 और 2019 में केंद्र में अपने बूते बहुमत लाने वाली भाजपा को इस बार जादुई आंकड़े से काफी दूर रोक लिया. भाजपा नेता अखिलेश और राहुल की जोड़ी को दो लड़कों की फ्लॉप फिल्म करार देते आ रहे थे. पर इस जोड़ी ने अपने कारनामे को 'हिट फिल्म' में तब्दील कर दिया.
बीते दस वर्ष में यह दूसरी बार था जब सपा और कांग्रेस गठबंधन करके चुनाव में कूदी थीं. इससे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में भी यह जोड़ी साथ थी लेकिन तब कमाल नहीं कर पाई. इस बार राहुल और अखिलेश की जोड़ी ने कैसे सबको चौंका दिया? इसका जवाब लखनऊ में डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर अजय कुमार देते हैं. उनके मुताबिक, "एक महत्वपूर्ण कारक सपा और कांग्रेस के बीच ऊपर से नीचे तक जमीनी गठबंधन का प्रभावी समन्वय था, जिसने सभी जातियों के वोटों को आकर्षित किया. इससे इंडिया गठबंधन को न केवल वे ओबीसी वोट मिले जो पिछले कुछ चुनावों में भाजपा के साथ थे, बल्कि यह गठबंधन मुसलमानों के साथ दलित वोटों को भी एकजुट करने में सफल रहा."
सपा के दलित नेता और मोहनलालगंज लोकसभा सीट पर साइकिल को दौड़ाने में बड़ी भूमिका निभाने वाले मनोज पासवान कहते हैं, "संविधान और आरक्षण बचाने के संदेश के इर्द-गिर्द बुने गए इंडिया गठबंधन के अभियान ने जमीन पर भी काम किया. दलितों को विशेष रूप से आशंका थी कि उनके लिए आरक्षण ऐसे किसी भी बदलाव का शिकार हो जाएगा. बसपा के दुविधा भरे चुनावी अभियान के कारण दलितों ने इंडिया गठबंधन को ही अपना सबसे व्यावहारिक विकल्प माना. इस तरह ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक पर आधारित इंडिया गठबंधन की सोशल इंजीनियरिंग ने धमाका कर दिया."
पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक पर आधारित पीडीए की रणनीति वास्तव में अखिलेश यादव के दिमाग की उपज है. इस लोकसभा चुनाव में उन्होंने यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि उनकी पार्टी केवल यादव और मुसलमानों की ही पार्टी नहीं है जैसा कि उनके प्रतिद्वंद्वी आरोप लगाते हैं. इस बार सपा ने बंटवारे में अपने हिस्से में आई 62 लोकसभा सीटों में से यादव समुदाय से केवल पांच उम्मीदवार उतारे. वे सभी उम्मीदवार पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव के परिवार से थे. मुसलमान प्रत्याशी सिर्फ चार थे.
इस लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने पार्टी के इतिहास में मुसलमानों और यादवों को सबसे कम टिकट देकर सपा की 'एम-वाई' पार्टी होने की छवि को तोड़ दिया. इन दोनों समुदायों के नेताओं को समझाया गया कि कैसे बड़ी संख्या में मुसलमान और यादव उम्मीदवार भाजपा के प्रति-ध्रुवीकरण के प्रयास में मदद करते हैं.
अखिलेश ने इस बार अपने वोट आधार के लिए एक नया नारा गढ़ा, जो 'एम-वाई' या मुस्लिम-यादव से 'पीडीए' या 'पिछड़े (ओबीसी), दलित और अल्पसंख्यक' तक फैल गया. यह नारा था - 'अबकी बार पीडीए सरकार' और 'एनडीए को हराएगा पीडीए'. राजनैतिक विश्लेषक और मेरठ यूनिवर्सिटी से संबद्ध कॉलेज में राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रमुख स्नेहवीर पुंडीर बताते हैं, "पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक पर अखिलेश के शुरुआती जोर को किसानों के मुद्दों, बेरोजगारी, पेपर लीक और बढ़ती कीमतों पर तीखे फोकस के साथ जोड़ा गया. यह उनकी सबसे अच्छी चुनावी रणनीतियों में से एक साबित हुई, जिसमें जमीनी समीकरणों के हिसाब से उम्मीदवारों का चयन भी शामिल है."
सपा ने यूपी में 62 में से 37 सीटें जीतकर प्रभावशाली ढंग से इंडिया गठबंधन का नेतृत्व किया है, जो आम चुनाव में राज्य में उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. इस नई 'सोशल इंजीनियरिंग' का मुख्य आकर्षण यह था कि पार्टी दलितों और विशेष रूप से जाटवों तथा पासी समुदाय के एक हिस्से को अपने पक्ष में करने में सफल रही, जिन्हें अब तक क्रमश: बसपा और किसी हद तक भाजपा का पारंपरिक मतदाता माना जाता था.
2019 के लोकसभा चुनाव में भी, जब सपा और बसपा ने यूपी में गठबंधन किया था, तब भी सपा उम्मीदवार दलित वोटों के बहुमत का समर्थन हासिल करने में कामयाब नहीं हुए थे. वास्तव में, भाजपा ने यूपी की 17 एससी-आरक्षित सीटों में से 15 पर जीत हासिल की थी. दो बसपा के खाते में गई थीं. इस बार दलित वोटों में शिफ्ट का संकेत देते हुए सपा ने इन 17 सीटों में से सात पर जीत हासिल की. कांग्रेस को एक और भाजपा को आठ सीटें मिलीं. एक आरक्षित सीट नगीना, जो 2019 में बसपा ने जीती थी, इस बार आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद के खाते में गई.
इस तरह 2024 के लोकसभा चुनाव ने उस मिथक को भी तोड़ दिया है कि दलित और यादव यूपी में कभी एकजुट नहीं हो सकते. हालांकि इस धारणा को बदलने में कांग्रेस के साथ सपा के गठबंधन को ही श्रेय दिया जा रहा है.
राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच की केमिस्ट्री को भी फीका कर दिया. इस लोकसभा चुनाव में दोनों भाजपा नेताओं ने साझा रूप से यूपी में 15 जनसभाओं और पांच रोड शो में हिस्सा लिया. मेरठ से लेकर मिर्जापुर तक मोदी-योगी की जोड़ी ने एक साथ 21 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. उनकी केमिस्ट्री को उजागर करने के लिए ही भाजपा ने 'मोदी है तो मुमकिन है' और 'योगी है तो यकीन है' जैसे नारे लगाए. पर इतना ही काफी नहीं था. नतीजा: 2019 के लोकसभा चुनाव में 62 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 33 सीटों पर सिमट गई.
संजीव बालियान, महेंद्र नाथ पांडे, स्मृति ईरानी, कौशल किशोर, भानु प्रताप सिंह वर्मा, अजय मिश्र टेनी और साध्वी निरंजन ज्योति सहित सात केंद्रीय मंत्री अपनी सीटें हार गए. पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल को अमेठी से हराने वालीं ईरानी को इस बार गांधी परिवार के वफादार के.एल. शर्मा ने पटखनी दे दी. इंडिया गठबंधन की सोशल इंजीनियरिंग के चलते फैजाबाद (अयोध्या इसी के तहत आता है) लोकसभा सीट पर भाजपा 50,000 से ज्यादा वोटों से हार गई. इस सामान्य सीट से सपा ने दलित जाति के अवधेश पासी को उतारा था.
इसी तरह सपा ने मेरठ सीट पर भी दलित जाति के उम्मीदवार को उतारा था जहां से रामायण धारावाहिक में राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल भाजपा उम्मीदवार थे. गोविल सपा उम्मीदवार सुनीता वर्मा से बमुश्किल 11,000 वोटों से ही जीत पाए. इसी तरह केंद्र सरकार के पहले दो मंत्री यानी प्रधानमंत्री मोदी को वाराणसी और राजनाथ सिंह को लखनऊ से मिली जीत का जो मार्जिन है, वह उनके कद और पिछले अंतर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता.
महज दो साल पहले यूपी विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से सरकार बनाने वाली भाजपा अचानक इतनी कमजोर कैसे हो गई? इस पर पार्टी के एक पूर्व पदाधिकारी कहते हैं, "पार्टी संगठन की अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट में कई उम्मीदवारों के लिए नकारात्मक प्रतिक्रिया दी गई थी. इसके बावजूद इनमें से कई को इस आधार पर दोहराने का फैसला किया गया कि चुनाव उम्मीदवारों के आधार पर नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर है."
उम्मीदवारों के नामों की घोषणा के बाद भी कई जिला इकाइयों ने नाराजगी व्यक्त की लेकिन उन्हें शांत करने या उनके मुद्दों को हल करने के लिए उपाय नहीं किए गए. संगठन के इस रवैये से नाराज नेता घर बैठ गए.

कई मामलों में आरएसएस के स्वयंसेवक भी इस बार दृश्य से गायब थे. पुराने और अनुभवी नेताओं को तवज्जो न देना भी भाजपा की रणनीतिक चूक थी. भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी और पूर्व उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा जैसे अनुभवी नेताओं को इस बार भाजपा ने अपने स्टार प्रचारकों की सूची में भी जगह नहीं दी थी. पार्टी ने जनता के बीच पनपे असंतोष को भी नजरंदाज किया. मिसाल के तौर पर, राजपूत विरोध को ही लें.
कई चेतावनियों के बावजूद कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है, इससे निबटने के लिए भाजपा संगठन ने कोई बहुत ठोस प्रयास नहीं किए, जैसा कि 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान किया गया था, जब मतदान से कुछ दिन पहले जाट समुदाय को खुश करने के लिए सुलह के कदम उठाए गए थे. नतीजा: चुनावी राजनीति में भगवा खेमे को ऐसी गिरावट मिली है जिससे उबरना आसान न होगा.