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छत्तीसगढ़ : भाजपा ने इस बार भी कांग्रेस को कैसे किया चारों खाने चित्त?

कांग्रेस से कड़ी टक्कर की उम्मीद के बावजूद भाजपा को दबदबा बरकरार रखने में कैसे मदद मिली

अमित शाह सीएम विष्णु देव साय के साथ अप्रैल में खैरागढ़ क्षेत्र में
अमित शाह सीएम विष्णु देव साय के साथ अप्रैल में खैरागढ़ क्षेत्र में
अपडेटेड 21 जून , 2024

जो छत्तीसगढ़ का नहीं है, वह पिछले तीन लोकसभा चुनाव के नतीजों से राज्य में राजनैतिक स्थिरता की बात कहेगा, जहां उत्तर प्रदेश जैसी उथल-पुथल नहीं देखी गई. उत्तर प्रदेश में जहां 2019 में 80 में से 64 सीटें (50.76 की वोट हिस्सेदारी के साथ) जीतने वाली सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की 2024 में 33 सीटें (वोट प्रतिशत 41.37) रह गईं और वह 37 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी से पिछड़ गई. 

इसकी तुलना में छत्तीसगढ़ में भाजपा ने 2014 में 11 में से 10 सीट जीती थीं और एक कांग्रेस से हारी थी. 2019 में उसने (कांग्रेस की दो सीटों की तुलना में) 9 सीटें हासिल कीं और इस साल भी उसने कांग्रेस की 1 सीट के मुकाबले अपना आंकड़ा फिर से 10 का कर लिया. पिछले एक दशक में दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों के बीच वोट हिस्सेदारी में अंतर एक जैसी करीब 10 फीसद रहा है. हालांकि जमीनी स्तर पर राजनैतिक पर्यवेक्षकों को हाल में हुआ चुनाव एक अलग ही स्वरूप दिखाता है. 

छत्तीसगढ़ उन तीन राज्यों में एक था जहां पिछले साल नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जीत हासिल की थी. फिर भी कांग्रेस लोकसभा चुनाव में सकारात्मक इरादे के साथ उतरी. कारण? 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 68 पर विजय प्राप्त की थी और उसने करीब 15 साल बाद छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था.

लेकिन इसके बाद हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा लोकसभा की 11 में से 9 सीट जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. इस बार राज्य में बहुत नजदीकी मुकाबले की उम्मीद थी, खास तौर पर बस्तर, कांकेर, राजनांदगांव, जांजगीर-चांपा और कोरबा में. राजनैतिक पर्यवेक्षक मान रहे थे कि कांग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकती है. तो फिर किन कारणों से भाजपा, कांग्रेस को मात देने में सफल रही?

राजनैतिक विश्लेषक सुदीप श्रीवास्तव ने कहा, "विष्णु देव साय को राज्य का पहला आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने के बाद भाजपा ने आदिवासी इलाकों (बस्तर, रायगढ़ और कांकेर) में बढ़त हासिल की." 

जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भाजपा के पक्ष में काम करती रही, वहीं साय के नेतृत्व में राज्य सरकार ने विधानसभा चुनाव के पहले किए वादों पर अमल किया, जैसे महतारी वंदन योजना के तहत पात्र महिलाओं को वित्तीय सहायता और किसानों से 3,100 रु. प्रति क्विंटल पर धान की खरीद. तीसरा कारण: भाजपा के आसार बहुत बढ़े, चुनाव लड़ने वाले कई कांग्रेसी उम्मीदवारों पर बाहरी होने का 'ठप्पा'.

पूर्व सीएम भूपेश बघेल जिस सीट राजनांदगांव से लड़े, वे वहां के नहीं हैं. राज्य के पूर्व गृह मंत्री साहू भी अपनी महासमुंद सीट से नहीं थे और न ही विधायक देवेंद्र यादव बिलासपुर के रहने वाले थे. ये सभी लोग भाजपा के स्थानीय उम्मीदवारों से हार गए. लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं मानती. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज का कहना है कि भाजपा ने ताकत के बल पर कार्यकर्ताओं को धमकाया और हार के कारणों की समीक्षा की जाएगी. 

दिलचस्प यह है कि इसी फैक्टर ने कांग्रेस को कोरबा की एकमात्र सीट जीतने में मदद की. कांग्रेस की मौजूदा सांसद ज्योत्सना महंत के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान माना जा रहा था लेकिन न केवल वे अपनी सीट बरकरार रखने में सफल रहीं बल्कि जीत का मार्जिन भी बढ़ाकर 43,283 कर लिया जो 2019 में 26,200 था. भाजपा के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "चरण दास महंत (छत्तीसगढ़ में विपक्ष के नेता और ज्योत्सना के पति) ने अभियान को बाहरी (भाजपा की उम्मीदवार सरोज पांडे न सिर्फ कोरबा की नहीं थीं बल्कि छत्तीसगढ़ की भी नहीं हैं) बनाम स्थानीय कर दिया."

—साथ में देवेश तिवारी

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