
भोपाल विधानसभा सीट के अंतर्गत हुजूर क्षेत्र निवासी भाजपा कार्यकर्ता और 50 वर्षीय किसान कमल नाइक को 21 अप्रैल को फोन पर जानकारी मिली कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन दिन बाद राज्य की राजधानी में एक रोड शो करने वाले हैं. नाइक उस समय उपज बेचने के लिए गेहूं खरीद केंद्र में अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे थे.
यह बात उनकी समझ से परे थी कि आखिर भोपाल में ऐसे आयोजन की क्या जरूरत है, क्योंकि यह तो भाजपा का मजबूत गढ़ है और पार्टी 1989 से ही यहां शानदार जीत दर्ज करती आ रही है. बहरहाल, उन्होंने कुछ लोगों को जुटाया और निर्धारित समय पर कार्यक्रम स्थल पहुंच गए. आखिरकार, उन्हें इसके पीछे का तर्क समझ आ ही गया. चिलचिलाती धूप में प्रधानमंत्री मोदी के आगमन का इंतजार कर रहे नाइक की टिप्पणी थी, "भोपाल में जीत पहले से तय है फिर भी हमारे चुनाव लड़ने का तरीका यही है. हम आखिरी क्षण तक कोई मौका नहीं छोड़ते."
भाजपा यह लोकसभा चुनाव 2023 के विधानसभा चुनाव में अपनी व्यापक जीत के कुछ महीनों बाद ही होने के बावजूद कहीं कोई कसर नहीं छोड़ रही है क्योंकि वह मजबूत जनादेश हासिल करने की मंशा रखती है. अन्य राज्यों की तरह यहां भी पार्टी मुख्यत: अपने घोषणापत्र के आधार पर चुनाव लड़ रही है, जिसका शीर्षक 'मोदी की गारंटी’ है. मोदी सरकार के पिछले एक दशक के कामकाज को रेखांकित करने के साथ इसमें चार प्रमुख समूहों - गरीब, युवा, अन्नदाता और नारी - के विकास पर जोर दिया गया है. दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे में हर सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार का मुकाबला सीधे प्रधानमंत्री मोदी के साथ है, क्योंकि पार्टी अपने सबसे बड़े तुरुप के पत्ते यानी प्रधानमंत्री के सहारे एक और जोरदार जीत दर्ज करने की उम्मीद कर रही है.
वैसे, इन 'गारंटियों’ के अलावा, भाजपा के चुनावी तंत्र ने कांग्रेस के खिलाफ एक तरह की मनोवैज्ञानिक जंग भी छेड़ दी है. इस वजह से खासकर बूथ स्तर के पदाधिकारियों में भगदड़ मची, और कई नेताओं के कांग्रेस छोड़ने से मुख्य विपक्षी पार्टी का मनोबल धराशायी हो गया. मध्य प्रदेश की चुनावी जंग - जहां कुल 29 सीटों में से बाकी बची आठ पर 13 मई को मतदान होना है - के चारों चरणों में भाजपा के इसी तरह हावी रहने की रणनीति के साथ मैदान में उतरने से कांग्रेस की असली लड़ाई केवल तीन-चार सीटों तक ही सिमटकर रह गई.
असल में भाजपा ने प्रतिद्वंद्वी दलों के नेताओं को भगवा दल में शामिल कराने के लिए राज्य के पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र के नेतृत्व में एक 'जॉइनिंग सेल’ को फरवरी में ही सक्रिय कर दिया था. भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता आशीष अग्रवाल कहते हैं, "पिछले कुछ महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व से प्रेरित होकर प्रदेश में 7,00,000 से अधिक कांग्रेसी हमारी पार्टी में शामिल हुए हैं. पहले तो केवल पूर्व सांसद और विधायक ही शामिल होते थे लेकिन हाल में मौजूदा विधायक भी कांग्रेस छोड़कर हमारे साथ आ गए."

मिसाल के तौर पर, 7 मई को तीसरे चरण के मतदान से ठीक दो दिन पहले सागर लोकसभा सीट के तहत बीना विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे मुख्यमंत्री मोहन यादव के नेतृत्व में आयोजित एक रैली के दौरान भाजपा में शामिल हो गईं. मार्च के बाद से भाजपा में शामिल होने वाली वे तीसरी कांग्रेस विधायक हैं. इससे पहले, 30 अप्रैल को वरिष्ठ कांग्रेस नेता और श्योपुर जिले की विजयपुर सीट से मौजूदा विधायक रामनिवास रावत भगवा खेमे में आ गए थे. उससे एक माह पहले भाजपा तीन बार के कांग्रेस विधायक कमलेश शाह को साथ लाने में सफल रही, जो छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र की अमरवाड़ा विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं.
दलबदल कराने के पीछे उद्देश्य महज राजनैतिक वर्चस्व कायम करना ही नहीं है, बल्कि यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. 2019 में भाजपा एकमात्र छिंदवाड़ा को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर कब्जा करने में सफल रही थी. यह क्षेत्र पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का गढ़ है, जिसका प्रतिनिधित्व मौजूदा समय में उनके पुत्र नकुलनाथ कर रहे हैं. यही वजह है कि यह संसदीय सीट भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गई थी, जहां 19 अप्रैल को पहले चरण में मतदान हुआ.
इसलिए चुनाव से ऐन पहले कमलेश शाह के अलावा बड़ी संख्या में कांग्रेस के पार्षदों और ग्रामीण क्षेत्रों के ब्लॉक स्तर के नेताओं के पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होने में हैरान होने जैसा कुछ नहीं था. यहां तक, छिंदवाड़ा के महापौर विक्रम अहाके भी यू-टर्न लेकर कांग्रेस में लौटने से पहले भाजपा का दामन थाम चुके थे. भगवा पार्टी ने पार्टी नेताओं में सेंध लगाकर एक तरह से जमीनी स्तर पर कमलनाथ का जनाधार कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जो 2019 में उनके बेटे की जीत में एक अहम फैक्टर रहा था.
लेकिन कांग्रेस को सबसे ज्यादा शर्मिंदगी तब झेलनी पड़ी, जब 29 अप्रैल को इंदौर सीट से पार्टी उम्मीदवार अक्षय कांति बाम ने अंतिम क्षणों में अपना नामांकन वापस ले लिया. इस संसदीय क्षेत्र के चुनावी इतिहास में पहली बार इस तरह की घटना हुई, और इसकी वजह से कांग्रेस यहां मुकाबले से बाहर हो गई.
फिर बाद में, बाम भाजपा में शामिल हो गए और इस फैसले के लिए उन्होंने अपने चुनाव अभियान में संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस में 'सहयोग न मिलने’ को जिम्मेदार ठहराया. भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार एन.के. सिंह कहते हैं, "कांग्रेस ने कुछ अच्छे उम्मीदवार उतारे हैं, लेकिन वे मतदाताओं के बीच पकड़ बनाने में असमर्थ रहे हैं. पिछले आम चुनाव में मध्य प्रदेश में भाजपा की लोकप्रियता चरम पर थी. लेकिन बुरी तरह असंगठित कांग्रेस खुद को एक विकल्प के तौर पर पेश करने में नाकाम रही है."
दरअसल, अधिकांश क्षेत्रों में जनमानस पर भाजपा का दबदबा अब अपने चरम पर पहुंच चुका है. राम मंदिर निर्माण जैसे हिंदुत्व के मूल मुद्दे आदिवासी क्षेत्रों में मतदाताओं को बहुत ज्यादा लुभा नहीं पा रहे हैं. लेकिन कई इलाके हैं, जहां ज्यादा आक्रामकता से न उछाले जाने के बावजूद ऐसे मुद्दे भाजपा के लिए हमेशा लाभकारी साबित हुए हैं. खासकर मालवा और निमाड़ क्षेत्र में आने वाले इंदौर, उज्जैन, देवास, खंडवा, खरगौन और मंदसौर आदि क्षेत्रों में यह बात खास तौर पर लागू होती है. इसमें दो राय नहीं कि ऐसी सीटों पर भाजपा का पलड़ा भारी है.
हालांकि, चुनाव मैदान में खासी बढ़त हासिल होने के बावजूद भगवा पार्टी की कुछ कमजोरियां भी किसी से छिपी नहीं हैं. ऐसा लगता है कि कई सीटों पर उम्मीदवार चयन प्रक्रिया के दौरान पार्टी ने ट्रैक रिकॉर्ड और लोकप्रियता की अनदेखी की है. मिसाल के तौर पर, राजगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस उम्मीदवार दिग्विजय सिंह के खिलाफ मैदान में उतरे दो बार के सांसद रोडमल नागर को पार्टी के भीतर ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है. अपनी नैया पार लगाने के लिए वे पूरी तरह मोदी फैक्टर और हिंदुत्ववादी बयानबाजी पर निर्भर हैं. दूसरी तरफ, विधानसभा चुनाव में हार का स्वाद चखने वाले केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते के अलावा गणेश सिंह, आलोक शर्मा और भरत सिंह कुशवाह जैसे उम्मीदवारों को लोकसभा टिकट देने का निर्णय भी कम हैरान करने वाला नहीं है.
इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि भाजपा की संगठनात्मक शक्ति, जिसे आमतौर पर इसकी सबसे बड़ी ताकत माना जाता है, भी शुरुआती दो चरणों में कुछ लडख़ड़ाती नजर आई है. भाजपा ने अनुच्छेद 370 हटाने को आधार बनाकर इस लोकसभा चुनाव में 370 पार का नारा दिया है और इसी 'मिशन 370’ प्रोजेक्ट के तहत कैडर को मध्य प्रदेश के सभी 65,000 बूथों पर पार्टी को 370 वोट अधिक दिलाना सुनिश्चित करने का जिम्मा सौंपा गया था.
हालांकि, यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य नाकाम होता दिख रहा है, क्योंकि पहले दो चरणों के मतदान में 7-8 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है. राजनैतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, "जाहिर है, वोट बढ़ाने के संगठन के दावे कागजों तक ही सीमित हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि आलाकमान के निर्देशों के बावजूद कार्यकर्ता घर से नहीं निकल रहे." खासकर, महिला मतदाताओं के उत्साह में खासी कमी आई है, और कुछ अंदरूनी सूत्र इसे लाडली बहना जैसी महिला केंद्रित योजनाओं को साकार करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के 'दरकिनार’ किए जाने से जोड़कर देख रहे हैं.
चंद सीटों पर सफलता पाने की जुगत में भिड़ी कांग्रेस यही आस लगाए बैठी है कि काश सत्तारूढ़ दल कहीं 'कोई चूक’ कर दे. पिछले साल दिसंबर में विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद राज्य कांग्रेस की कमान संभालने वाले जितेंद्र 'जीतू’ पटवारी एक बुनियादी रणनीति के साथ मैदान में उतरे हैं. उन्होंने पार्टी मशीनरी को बहुत व्यापक दायरे में उलझाने के बजाए मुख्यत: करीब 15 लोकसभा सीटों पर ही ध्यान केंद्रित कर रखा है. ये वे सीटें हैं, जहां वास्तव में कांग्रेस के जीतने की कुछ संभावना नजर आती है, और बाकी सीटों पर पार्टी केवल सांकेतिक लड़ाई के मूड में है, जहां उसने पिछले पांच चुनाव में जीत हासिल नहीं की है.
पार्टी का फोकस मुख्यत: दो तरह की सीटों पर है - एक, छिंदवाड़ा और राजगढ़ जैसी हाइप्रोफाइल सीटें, और दूसरी राज्य के आदिवासी इलाकों में आने वाली सीटें, जहां उसने विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था. हालांकि अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षित 47 सीटों में कांग्रेस की संख्या 31 से घटकर 22 रह गई लेकिन राज्य विधानमंडल में पहुंचे पार्टी के 66 उम्मीदवारों में से एक-तिहाई आदिवासी समुदायों से ही हैं.
राज्य की आबादी में आदिवासियों की हिस्सेदारी 21 फीसद है, जिनके लिए धार, बैतूल, शहडोल, रतलाम, मंडला और खरगौन आदि छह लोकसभा सीटें आरक्षित हैं. इसके अलावा, छिंदवाड़ा, बालाघाट, सीधी और मुरैना में भी आदिवासी मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है, जो चुनाव नतीजे तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं. मंडला में कांग्रेस ने केंद्रीय मंत्री कुलस्ते के खिलाफ एक प्रमुख आदिवासी नेता ओमकार मरकाम को मैदान में उतारा है. वहीं, रतलाम में पार्टी ने राज्य के वन मंत्री नागर सिंह चौहान की पत्नी अनीता चौहान के खिलाफ पुराने खिलाड़ी कांतिलाल भूरिया पर दांव लगाया है.
कुल मिलाकर कांग्रेस संगठनात्मक स्तर पर कमजोर नजर आ रही है, और अपने उम्मीदवारों को शायद ही कोई ठोस मदद कर पा रही है. अब, अपने बलबूते मैदान फतह करने के लिए छोड़ दिए जाने की स्थिति में महज कुछ मजबूत राजनैतिक खिलाड़ी ही प्रतिद्वंद्वियों को टक्कर देने की स्थिति में बचे हैं.
विडंबना तो यह है कि कांग्रेस अपने घोषणापत्र में किए वादों को लेकर भी कोई सियासी माहौल बनाने में नाकाम रही है, जबकि सबसे गरीब परिवारों को सालाना एक लाख रुपए का नकद हस्तांतरण, न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानूनी गारंटी, स्नातकों को भुगतान के साथ प्रशिक्षण और शैक्षिक ऋण माफी जैसे वादे मतदाताओं को लुभाने के लिए काफी हैं.
चूंकि मोहन यादव सरकार ने 2,700 रुपए प्रति क्विंटल पर गेहूं और 3,100 रुपए पर धान खरीद का भाजपा का चुनावी वादा पूरा नहीं किया है, इसलिए पटवारी ने राज्य के किसानों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण इस मुद्दे को उठाने का प्रयास किया. हालांकि, जमीनी स्तर पर इसे बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं मिल पाई. कांग्रेस के लिए यह अवसर गंवा देना चुनाव में उसे काफी महंगा पड़ सकता है.