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दार्जलिंग चुनाव बताएगा, गोरखाओं में किसका दबदबा सबसे ज्यादा

दांव पर यहां केवल एक लोकसभा सीट नहीं है, बल्कि नतीजों से यह भी पता चलेगा कि गुरुंग, थापा और एडवर्ड्स की जनमत पर कितनी पकड़ है

मौजूदा सांसद और भाजपा प्रत्याशी राजू बिस्ता
मौजूदा सांसद और भाजपा प्रत्याशी राजू बिस्ता
अपडेटेड 30 अप्रैल , 2024

पश्चिम बंगाल के बाकी हिस्से और देश जहां भीषण गर्मी के लिए तैयार है, वहीं दार्जिलिंग में पारा अधिकतम 20 डिग्री के सुखद तापमान पर चल रहा है. उत्तर बंगाल के इस लोकप्रिय पर्यटन स्थल को अक्सर ब्रिटिश राज का ग्रीष्मकालीन रिजॉर्ट कहा जाता था. हालांकि, दार्जिलिंग के सुहावने मौसम में आम चुनाव की तपिश बढ़ी हुई है. इस लोकसभा सीट पर कड़ी लड़ाई के लिए राजनैतिक पार्टियां और उम्मीदवार तैयार हैं. उत्तर दिनाजपुर, कलिम्पोंग और दार्जिलिंग जिलों के कुछ हिस्सों वाले इस निर्वाचन क्षेत्र में 26 अप्रैल को मतदान होगा. यहां के मुख्य खिलाड़ी गोरखालैंड आंदोलन (यह अब भी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है) का प्रमुख चेहरा रहे बिमल गुरुंग, उनके डिप्टी रह चुके अनित थापा और शहर में प्रतिष्ठित ग्लेनरीज बेकरी और रेस्तरां के मालिक और हाम्रो पार्टी के संस्थापक अजय एडवर्ड्स हैं जो चुनाव तो नहीं लड़ रहे हैं लेकिन पावर ब्रोकर हैं और उनका समर्थन किसी भी प्रत्याशी के लिए महत्वपूर्ण होता है. असल में, दांव पर यहां केवल एक लोकसभा सीट नहीं है, बल्कि नतीजों से यह भी पता चलेगा कि गुरुंग, थापा और एडवर्ड्स की जनमत पर कितनी पकड़ है.

2011 की जनगणना के मुताबिक, दार्जिलिंग जिले (तब कलिम्पोंग दार्जिलिंग का हिस्सा था) की कुल आबादी 18.43 लाख है जिसमें करीब 11.55 लाख नेपाली-भाषी गोरखा हैं. यह समुदाय दशकों से पश्चिम बंगाल से अलग होने की मांग कर रहा है. गोरखालैंड आंदोलन के दौरान दार्जिलिंग के प्रशासन के लिए 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) नामक अर्ध-स्वायत्त परिषद का गठन हुआ. 2012 में गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का गठन हुआ जिसमें दार्जिलिंग और पड़ोसी कलिम्पोंग जिले शामिल थे. 1980 और Ó90 के दशक में गोरखालैंड आंदोलन का चेहरा रहे सुभाष घीसिंग के साये से बाहर निकलकर गुरुंग ने 2007 में अपना गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) बनाया. वे 2012 में जीटीए के पहले प्रमुख बने. हालांकि, पश्चिम बंगाल में सत्तासीन तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद गुरुंग के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हुए और उसकी वजह से उन्हें 2017 में दार्जिलिंग से भागने को मजबूर होना पड़ा. साल 2020 में वे जब वापस लौटे तो उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रति वफादारी जताई.

इंडिया टुडे के साथ बातचीत में गुरुंग ने दावा किया कि 2020 में उन्हें बनर्जी को समर्थन देने के लिए मजबूर किया गया था, और बाद में 2021 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पहाड़ों पर अपनी और अपने समर्थकों की वापसी सुनिश्चित करने के लिए वैसा किया. 

आने वाले चुनावों के लिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिलाया है जिसका उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनावों में भी समर्थन किया था. राजू बिस्ता के लिए भाजपा का उम्मीदवार बनना ही अपने आप में एक उपलब्धि है क्योंकि पिछले तीन आम चुनाव में यह सीट जीतने वाली भाजपा ने पहली बार अपने किसी उम्मीदवार को दोहराया है. बिस्ता ने 2019 में चार लाख से अधिक वोटों के रिकॉर्ड अंतर से यह सीट जीती थी. सांसद बिस्ता ने भरोसा जताया है कि वे इस सीट से फिर जीत दर्ज करेंगे, वहीं गुरुंग का कहना है, "मैं 2019 में यहां मौजूद नहीं था और मैंने राजू बिस्ता के समर्थन में एक ऑडियो क्लिप जारी की थी. तब उन्होंने चार लाख से अधिक अंतर से जीत हासिल की थी. इस बार मैं जमीन पर काम कर रहा हूं और आपको उसका फर्क नजर आ जाएगा."

गुरुंग का काम इस बात से मुश्किल हो गया है कि पिछले चुनावों के संकल्प पत्रों के विपरीत, भाजपा ने अपने 2024 के घोषणापत्र में गोरखालैंड मसले का हल तलाशने का कोई जिक्र नहीं किया है. पूर्व जीटीए प्रमुख गुरुंग को शायद दार्जिलिंग की बदली हुई वास्तविकताओं का भी अंदाजा नहीं था. उनकी गैरमौजूदगी में उनके पूर्व सहयोगी थापा ने भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) का गठन किया और टीएमसी से हाथ मिलाया. थापा के मुताबिक, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मुख्यधारा की राजनीति की एकमात्र नेता हैं जो वास्तव में गोरखाओं से प्यार करती हैं (हालांकि गुरुंग इस बात का पुरजोर खंडन करते हैं).

बीजीपीएम वर्तमान में जीटीए और दार्जिलिंग नगर पालिका का संचालन करती है तथा पहाड़ी क्षेत्र में त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली में यह सबसे बड़ी पार्टी है. मगर गोरखाओं के बीच थापा की अभी भी वह पकड़ नहीं बनी है जैसी कि कभी गुरुंग को हासिल थी. टीएमसी के प्रति वोटरों के रुझान को लेकर भी पार्टी सशंकित नजर आ रही है. बीजीपीएम पूर्व नौकरशाह और टीएमसी के आधिकारिक उम्मीदवार गोपाल लामा का समर्थन कर रही है. हालांकि जमीनी स्तर पर उन्हें टीएमसी के सिंबल पर वोट मांगने वाले बीजीपीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जा रहा है. अन्य अधिकतर सीटों पर पोस्टरों में टीएमसी उम्मीदवारों के साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तस्वीर भी होती है, मगर वोट की अपील वाले लामा के पोस्टरों में बनर्जी का चेहरा नहीं है. थापा इस बात से इनकार करते हैं कि टीएमसी उनकी पार्टी के लिए बोझ सरीखी है. वे कहते हैं, "दीदी ने हमें पहाड़ों में अपनी स्वायत्तता बनाए रखने की अनुमति दी है."

उधर, कांग्रेस उम्मीदवार मुनीश तमांग का समर्थन कर रहे एडवर्ड्स के लिए यह लड़ाई ज्यादा आदर्शवादी है. एडवर्ड्स तब सुर्खियों में आए जब उनकी हाम्रो पार्टी (एचपी) ने अपने गठन के कुछ महीने बाद ही फरवरी 2022 में दार्जिलिंग नगरपालिका चुनाव में 32 में से 18 सीटें जीत ली थीं. हालांकि, उनके कई पार्षदों के बीजीपीएम में शामिल हो जाने की वजह से उन्हें नौ महीने बाद नगरपालिका में हार का सामना करना पड़ा. 2022 में एचपी ने 45 सीटों वाली ताकतवर जीटीए में आठ सीटें हासिल कर लीं, मगर दलबदल की वजह से उनके पास फिलहाल केवल छह सीटें बची हैं. एडवर्ड्स का कहना है कि उन्हें किसी गोरखा उम्मीदवार को 'ऊंचे स्थान' पर देखने की तमन्ना थी, इसलिए उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार के समर्थन का फैसला किया. वे कहते हैं, "हमें राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत गोरखा आवाज की जरूरत है."

प्रशासन के सूत्रों के मुताबिक, दार्जिलिंग में फिलहाल किसी भी नेता का एकाधिपत्य नहीं है. पुलिस के एक सूत्र का कहना है, "इस बार भाजपा को वॉकओवर की उम्मीद न करें, (जीजेएम के) 2017 के विरोध-प्रदर्शनों के दौरान पहाड़ों पर टीएमसी-विरोधी भावनाएं उबाल पर थीं, उसकी वजह से ठीक उसके बाद हुए 2019 के चुनाव में राजू को भारी समर्थन मिला." 4 जून को वोटों की गिनती न केवल दार्जिलिंग में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों की किस्मत का, बल्कि उनके पीछे खड़ी स्थानीय ताकतों का भी फैसला करेगी.

- अर्कमय दत्ता मजूमदार

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