द्रविड़ मुनेत्र कलगम (डीएमके) 18वीं लोकसभा में भाजपा और कांग्रेस के बाद क्या फिर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी होगी? 19 अप्रैल को आम चुनाव के पहले दौर के लिए कमर कस रहे तमिलनाडु में इस सवाल पर जबरदस्त चर्चा छिड़ी है. सत्तारूढ़ डीएमके इस बार अलग चुनौती से दो-चार है. उसकी विरोधी पार्टियों ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कलगम (एआईएडीएमके) और भाजपा ने अलग-अलग गठबंधनों के साथ चुनाव में उतरकर मुकाबले को तिकोना बना दिया है.
तमिल राष्ट्रवादी पार्टी नाम तमिलार काच्चि (एनटीके) कागज पर ही सही, मुकाबले को चौतरफा बना रही है. 2021 के विधानसभा चुनाव में एनटीके ने करीब 7 फीसद वोट जुटाए और युवा वोटरों का खासा समर्थन उसे मिला था. उसने कोई सीट तो नहीं जीती पर साबित किया कि करीबी मुकाबले में वह नतीजे पर असर डाल सकती है.
डीएमके और सेक्युलर प्रोग्रेसिव अलायंस (एसपीए) का पलड़ा इस बार भी भारी है और लोकसभा की सभी 39 सीटें जीतने के लिए वह पूरी ताकत झोंक रहा है (2019 में उसने 38 जीती थीं). एसपीए के अन्य घटकों में कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) और छोटे-छोटे तमिल दल शामिल हैं. इनमें दलित पार्टी विदुतलाई चिरुतैगल काच्चि (वीसीके), मुखर मिजाज के वाइको की मरुमलार्ची डीएमके (एमडीएमके) और पश्चिमी जिलों खासकर कोयंबत्तूर में असर रखने वाली कोंगुनाडु मक्कल देसीय काच्चि (केएमडीके) भी हैं.
डीएमके सुप्रीमो एम.के. स्टालिन से समझौते के बाद अभिनेता कमल हासन की मक्कल नीति मय्यम (एमएनएम) भी साथ आ गई है. हासन ने धूमधाम से ऐलान किया, "मैंने वहां हाथ मिलाया है, जहां मुझे पद की खातिर नहीं बल्कि देश की खातिर हाथ मिलाना चाहिए." एमएनएम चुनाव नहीं लड़ रही पर 2025 के द्विवार्षिक चुनावों में हासन को तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद बनाया जाएगा.
एसपीए के सहयोगी दलों के अलावा तेजतर्रार टी. वेलमुरुगन की अगुआई वाली तमिलगा वझवुरिमै काच्चि (टीवीके) और मुस्लिम संगठनों मनितनेय मक्कल काच्चि (एमएमके) और मनितनेय जननायक मक्कल काच्चि (एमजेएमके) सरीखे खास खिलाड़ियों ने उसे समर्थन दिया है. वोट हिस्सेदारी पर आधारित चुनावी गणित बताता है कि डीएमके को निर्णायक बढ़त हासिल है. 2021 के विधानसभा चुनाव में एसपीए ने 45.4 फीसद वोट हासिल किए थे जो एआईएडीएमके-भाजपा के गठबंधन को मिले वोटों से 5.8 फीसद ज्यादा थे.
कड़वी जमीनी सचाइयां
एक दशक तक सरकार में रहने के बाद एआईएडीएमके सत्ताविहीन राजनीति की कठोर हकीकतों से रू-ब-रू हो रही है. मई 2021 की चुनावी हार के बाद उसे एहसास हुआ कि भाजपा गठबंधन से उसकी द्रविड़ पहचान खतरे में आ गई है. उधर, पार्टी में चली उठापटक के तहत पूर्व उप-मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेल्वम (ओपीएस) को निकाल दिया गया और पूर्व मुख्यमंत्री एडप्पडी के. पलानीस्वामी (ईपीएस) ने महासचिव के तौर पर पार्टी पर कब्जा कर लिया. सितंबर, 2023 में एआईएडीएमके ने विधिवत भाजपा से रिश्ता तोड़ लिया.
पट्टालि मक्कल काच्चि (पीएमके) के भाजपा के साथ जाने के फैसले से पार्टी का वजूद का संकट और गहरा गया. ओपीएस धड़े ने भी तीसरे मोर्चे को समर्थन देने का वादा किया है पर उसके पास कहने को भी अपनी कोई पार्टी नहीं. ओपीएस खुद भाजपा समर्थित निर्दलीय के तौर पर रामनाथपुरम से लड़ रहे हैं. एआईएडीएमके के साथ अब छोटे सहयोगी दल—दिवंगत अभिनेता विजयकांत का देसीय मुरपोक्कू द्रविड़ कलगम (डीएमडीके) और पुतिय तमिलगम (पीटी) ही बचे हैं. 2016 में जे. जयललिता के निधन के बाद 2019 के आम चुनाव में एआइएडीएमके 20 फीसद से कम वोट शेयर के साथ एक सीट पर सिमट गई.
ईपीएस को अधिक सीटें जीतकर 2026 के विधानसभा चुनाव के लिए प्रासंगिक बने रहने की बड़ी चुनौती है. पूर्व मंत्री बी.वी. रमण कहते हैं, "हमारी ताकत यह है कि जोश पैदा करने के लिए हमारे पास पूरे राज्य के आखिरी बूथ तक जनशक्ति (पोलिंग एजेंट) है." एक फायदा तो यह है कि एआईएडीएमके के कई उम्मीदवार 'साधन संपन्न' हैं. 583 करोड़ रुपए की घोषित संपत्ति के साथ इरोड के पार्टी प्रत्याशी अशोक कुमार राज्य के सबसे अमीर उम्मीदवारों में शामिल हैं.
भाजपा आहिस्ता-आहिस्ता अधिक से अधिक हासिल करने की जुगत में है, जबकि पार्टी को ऊपर उठाने का ज्यादातर काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं (बीते 6-7 महीनों में उन्होंने कम-से-कम दस बार राज्य का दौरा किया है). नए संसद भवन के उद्घाटन पर तमिल गौरव के प्रतीक के तौर पर सेंगोल का प्रदर्शन, राज्य के लिए 30,000 करोड़ रुपए से ज्यादा की परियोजनाओं का ऐलान (अधिकतर का शिलान्यास मोदी ने ही किया है), वाराणसी में नियमित काशी-तमिल संगम कार्यक्रमों का आयोजन, सभी 234 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरने वाली राज्य भाजपा प्रमुख के. अन्नामलै की 'एन मन, एन मक्कल' (मेरी मिट्टी, मेरे लोग) यात्रा, इन सभी ने पार्टी के कद को बढ़ाने में मदद की. मोदी की ताजातरीन पहल यह है कि वे कच्चातिवु द्वीप का मुद्दा उठा रहे हैं जिसे 50 साल पहले तत्कालीन डीएमके सरकार ने केंद्र से मिलकर हाथ से जाने दिया. इस मुद्दे को लेकर खासकर, दक्षिणी तमिलनाडु के तटीय इलाकों में भावनात्मक असर है.
भाजपा का गेमप्लान 2026 के विधानसभा चुनाव में बड़ी द्रविड़ पार्टियों के 57 साल पुराने दो-दलीय वर्चस्व को तोड़ना है. मोदी अपने भाषणों में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा पर उतना जोर नहीं देते. इसके बजाय वे डीएमके पर बीते तीन साल के 'कुशासन', वंशवादी राजनीति और हिंदू-विरोधी रुझानों का आरोप लगाते हैं. अभी के लिए लक्ष्य 1-2 सीटें और दहाई अंकों की वोट हिस्सेदारी पाना है (2022 के स्थानीय चुनाव में उसे करीब 6 फीसद वोट मिले थे). उसका जोर कोयंबत्तूर, नीलगिरि, रामनाथपुरम, कन्याकुमारी, तिरुनेल्वेली और चेन्नै तथा उसके आसपास की सीटों पर है.
युवाओं पर जोर
राज्य में 80 फीसद मतदाता 50 से कम उम्र के हैं, और सभी पार्टियों ने इसको ध्यान में रखकर उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं—डीएमके, एआईएडीएमके, कांग्रेस, भाजपा, पीएमके, डीएमडीके और एनटीके ने कुल 78 ऐसे उम्मीदवार उतारे हैं जो 50 से कम उम्र के हैं. डीएमके ने अपने 21 उम्मीदवारों में 11 नए नामों के साथ नए चेहरों और सियासी दिग्गजों का मेल चुना है. भाजपा ने अपनी 19 सीटों पर 12 नए चेहरे उतारे, वहीं एआईएडीएमके के तो 32 में से 30 उम्मीदवार नए-नवेले हैं.
डीएमके ने क्षेत्र विशेष में दबदबा रखने वाले समुदायों के उम्मीदवारों को उतारकर जाति समीकरणों का खासा ख्याल रखा है. इसीलिए उसने उत्तर में वन्नियार समुदाय, डेल्टा और दक्षिणी जिलों में मुकुल्लातोर को चुना है, तो पश्चिमी तमिलनाडु में कोंगु वेल्लालर या गौंडर के साथ गई है.
वन्नियार समुदाय की पार्टी पीएमके भाजपा गठबंधन में है और उसने उत्तर तमिलनाडु की ज्यादातर सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं. ऐसे में डीएमके ने उनकी संभावनाएं भोथरी करने के कदम उठाए. उसने उत्तर की अराक्कोनम, वेल्लोर, धर्मपुरी, आरणी और सेलम सीटों पर अपने वन्नियार उम्मीदवार उतारे हैं. एआईएडीएमके के ज्यादातर बड़े नेता गौंडर समुदाय से हैं, सो डीएमके पश्चिम की जिन तीन सीटों—कोयंबतूर, पोल्लाची और इरोड—पर चुनाव लड़ रही है, वहां उसने भी इसी समुदाय के उम्मीदवार चुने हैं. डेल्टा इलाके में पार्टी ने मुकुल्लातोर को चुनाव में खड़ा किया है. इस समुदाय के कम ही उम्मीदवार पार्टी के पास हैं क्योंकि दक्षिण की ज्यादातर सीटें, जहां उनकी तादाद अच्छी-खासी है, सहयोगी दलों के खाते में चली गई हैं.
स्टालिन इस लड़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ रहे जिसे वे "फासीवाद के खिलाफ आखिरी लड़ाई" कहते हैं. सियासी विश्लेषक रामू मणिवन्नन कहते हैं, "विचारधारा की मूल शक्ति और स्टालिन का मजबूत नेतृत्व डीएमके में नई जान फूंकने में बेहद अहम रहा है. एसपीए की कामयाबी में अहम कारक सहयोगी दलों की जीत पक्की करने के लिए वोटों के हस्तांतरण करवाने की क्षमता में भरोसा है." राजनैतिक टिप्पणीकार एन. सत्यमूर्ति इतना और जोड़ते हैं, "निर्वाचन क्षेत्रों की पसंद, सहयोगी दलों और पार्टी की आकांक्षाओं दोनों के साथ स्टालिन समान रूप से जिस दृढ़ता से पेश आए, वह अनदेखा नहीं गया है...इसने पहले से उत्साह से भरे अभियान में नई ऊर्जा का संचार किया है."
डीएमके ने भाजपा की वजह से भारत में संघीय राजनीति और लोकतंत्र, द्रविड़ पहचान, सांस्कृतिक अधिकार और भाषा को 'खतरा' होने के अलावा वित्तीय चिंताओं और केंद्र-राज्य के कमजोर संबंधों जैसे मुद्दे उठाए हैं. इसकी काट के तौर पर एआईएडीएमके और भाजपा ने इंडिया गठबंधन की दूसरी पार्टियों की तरह डीएमके के परिवारवादी पार्टी होने का नैरेटिव गढ़ा है.
तमिलनाडु में डीएमके मई में सत्ता में तीन वर्ष पूरे करने जा रही है, ऐसे में सत्ता विरोधी लहर एक कारक होगी. मणिवन्नन कमियों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "डीएमके, खासकर स्टालिन के आसपास मौजूद दागी और पुराने नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप ठीक उसी तरह लगे हैं, जैसे लोहे के कण चुंबक से चिपक जाते हैं."
इस बीच, एआईएडीएमके कोई कद्दावर नेता न होने के बावजूद अपने विशाल कॉडर और मतदाताओं के बीच 'दो पत्ती' चुनाव चिह्न वाली पार्टी की पहचान के कारण एक प्रभावशाली ताकत बनी हुई है. ईपीएस भले ही अब एक नेता के तौर पर काफी लोकप्रिय और स्वीकार्य हैं, लेकिन उनमें जयललिता जैसा करिश्मा नहीं हैं. मूर्ति कहते हैं, "ईपीएस राजनीति में भले ही पार्टी के संस्थापक एम.जी. रामचंद्रन या उनकी उत्तराधिकारी जयललिता जैसा कद नहीं रखते लेकिन उन्होंने एनडीए से बाहर निकलने का साहस दिखाया, जिससे यह तो सुनिश्चित हो गया कि एआईएडीएमके इस साल चुनाव में एक बड़ा फैक्टर साबित होने वाली है. बहुत सारे लोग जो डीएमके में चले गए थे, लौट आए हैं."
चुनाव मैदान में भाजपा की मौजूदगी से जहां कई निर्वाचन क्षेत्रों में त्रिकोणीय मुकाबला तय माना जा रहा है, वहीं कन्याकुमारी और नीलगिरि सहित कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में भगवा पार्टी और डीएमके के बीच सीधी टक्कर हो सकती है. पार्टी सीटें जीते या न जीते, लेकिन उसका लक्ष्य जहां संभव हो, एआईएडीएमके को तीसरे स्थान पर धकेलना है. इस तरह के नतीजे से भगवा पार्टी को 2026 के विधानसभा चुनाव से पहले खुद को द्रविड़ तमिलनाडु में एक विश्वसनीय विकल्प के तौर पर पेश करने में मदद मिल सकती है.
बहरहाल, विश्लेषकों का कहना है कि कई फैक्टर होने के बावजूद डीएमके को तमिलनाडु में एकदम अजेय पार्टी नहीं माना जा सकता. मणिवन्नन कहते हैं, "डीएमके को फिलहाल स्पष्ट बढ़त हासिल है. भाजपा के प्रति पार्टी/सरकार के वैचारिक प्रतिरोध ने राज्य में सामाजिक न्याय और द्रविड़ आंदोलन की भावना को फिर से मजबूत कर दिया है." फिर भी, डीएमके और उसके सहयोगियों को 2019 जैसी बड़ी जीत दिलाने के लिए स्टालिन को अपने तरकश के हर तीर को आजमाना होगा.