यही कोई 11 बजे का वक्त होगा. इसी फरवरी की नौ तारीख. अजमेर जिले के नसीराबाद कस्बे के पास के बांदनवाड़ा गांव में पुलिस चौकी के सामने पुलिया के नीचे 100-150 लोगों की भीड़ जमा थी. पूरा माहौल उत्तेजना का. झगड़े जैसे हालात देखकर पूछताछ की गई तो पता चला कि एक सामाजिक पंचायत चल रही है.
30 गांवों के पंचों की यह पंचायत एक विवाह के बाद दुल्हन के पिता से सौदे की रकम वसूलने के लिए बुलाई गई थी. नाता प्रथा के नाम से राजस्थान में चारों ओर फैली इस भयंकर कुरीति के तहत इसे झगड़ा राशि कहते हैं.
दरअसल, पास के ही खनोत गांव के मसरिया बागरिया की शादी दो साल पहले बांदनवाड़ा गांव के उगमा की बेटी गंगा से हुई थी. हाल में गंगा ने मसरिया को छोड़कर एक दूसरे युवक के साथ नाता (आपसी सहमति से एक साथ रहना) कर लिया. मसरिया के परिवार ने उगमा से झगड़ा राशि वसूलने के लिए यह पंचायत बुलाई थी.
दो दिन से चल रही इस पंचायत में अलग-अलग गांवों के 30 पंचों के आने के बावजूद आखिरी रकम पर एकराय नहीं बन पा रही थी. पंचों ने उगमा को मसरिया के पिता को डेढ़ लाख रुपए चुकाने का हुक्म दिया लेकिन उगमा का परिवार इसके लिए राजी न था. अंत में मसरिया की मां लगभग धमकाते हुए उगमा से बोल पड़ी, "कल तक झगड़ा राशि न चुकाई तो पूरे परिवार को समाज से बहिष्कृत किया जाएगा और हुक्का-पानी बंद कर दिया जाएगा." पंचों ने भी हामी भरी और अगले ही दिन फैसला लागू.
अब बांदनवाड़ा से करीब 45 किलोमीटर दूर केरोट गांव के लक्ष्मण कामड़ को मिली यातना देखिए जरा. अजमेर जिले की ही भिनाय तहसील के इस 35 वर्षीय युवक के खिलाफ आया जातीय पंचायत का तुगलकी फरमान और भी झकझोर देने वाला था.
एक विधवा से नाता विवाह करने की जो कीमत लक्ष्मण ने चुकाई है, उसे वे ताउम्र न भूल पाएंगे. जुर्माने यानी झगड़े की रकम चुकाने के बावजूद वे समाज बाहर हैं. पिछले दो साल से उनका और उनके भाई रामदेव का परिवार अजमेर के अलावा भीलवाड़ा, केकड़ी और टोंक जिलों की आठ तहसीलों में बहिष्कार झेल रहा है.
वे न तो किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में हिस्सा ले सकते हैं और न ही अपने समाज के आयोजनों में शिरकत कर सकते हैं. पंच-पटेलों ने उनके खिलाफ बाकायदा पर्चे छपवाकर सख्त चेतावनी दे रखी है कि किसी भी परिवार ने अगर उन्हें किसी आयोजन में न्योता दिया तो उसका भी हुक्का-पानी बंद कर दिया जाएगा.
बहिष्कार समाप्त करने को पंचों ने उनसे दो लाख रुपए लिए. रामदेव को इसकी रसीद तक दी गई जिसमें साफ लिखा है कि उसे समाज में शामिल करने के बदले यह रकम ली जा रही है. लेकिन दो लाख रुपए मिल जाने के बाद उनसे पांच लाख रुपए की नई मांग शुरू कर दी गई. न चुका पाए तो लक्ष्मण और रामदेव के परिवार पर जैसे कहर बरपा. वे न हैंडपंप और कुओं से पानी भर सकते थे, न दुकान से सामान खरीद सकते थे, न गांव से चलने वाले किसी टैंपो में बैठ सकते थे.
दोनों का भयाक्रांत परिवार पिछले दो साल से गांव से बाहर नहीं निकला है. खेत पर भी परिवार के लोग डरते-डरते साथ-साथ जाते हैं. दिलचस्प यह है कि जिस विधवा से लक्ष्मण का नाता हुआ था, खाप पंचायत के डर से वह भी उसे छोड़कर जा चुकी है. नाता करने से पहले उन्होंने विधवा के परिजनों को भी दो लाख रुपए झगड़े की रकम के रूप में चुकाए थे. लक्ष्मण और रामदेव ने खाप पंचायत में मौजूद 16 पंच-पटेलों के खिलाफ पुलिस में मुकदमा भी दर्ज कराया था पर मजाल है कि किसी का बाल भी बांका हुआ हो!
अजमेर और आसपास ही नहीं, पूरे राजस्थान में जातीय या खाप पंचायतों के फैसले इसी तरह बेखौफ लिए जा रहे और कहर बरपा रहे हैं. कानून-व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियों का लगता है, इन पर कोई जोर ही नहीं. स्वयंसेवी संगठन बाल और महिला चेतना समिति की ओर से अखबारों की खबरों और पुलिस थानों में दर्ज मुकदमों के आधार पर किए एक अध्ययन में इसकी चिंताजनक तस्वीर सामने आई हैं.
उसके मुताबिक, राजस्थान में पिछले पांच साल में जातीय पंचायतों की ओर से लोगों का हुक्का-पानी बंद करने और सामाजिक बहिष्कार के 8,600 से ज्यादा मामले सामने आए हैं. समिति की अध्यक्ष तारा अहलूवालिया स्पष्ट करती हैं, "ये तो वे मामले हैं जो सरकार, प्रशासन या मीडिया के सामने आ गए. राजस्थान में बहुत बड़ी तादाद ऐसे मामलों की भी है जिसमें लोग डर या शर्म के मारे पुलिस या मीडिया तक नहीं पहुंच पाए. ऐसे मामलों की संख्या 20,000 से भी ज्यादा हो सकती है."
नागौर जिले के एक दलित सरपंच श्रवण कुमार का वाकया तो किसी प्रहसन से कम नहीं लगता. वही नागौर जिसने पूरे देश को पंचायतीराज व्यवस्था दी. वे 20 मार्च, 2020 को खींवसर तहसील की दांतीणा पंचायत के पहले दलित सरपंच चुने गए. श्रवण को लगा कि अब उन्हें भी बराबरी का हक मिल गया है. पर जल्द ही उनका यह भ्रम दूर हो गया.
उन्होंने पंचायत के फैसले खुद लेने शुरू किए तो वर्षों से सरपंची करते आ रहे दबंगों को यह कहां बर्दाश्त होने वाला था! श्रवण को काम करते दो साल पूरे होते ही कुछ पंचों को साथ मिलाकर उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ले आया गया. पंचायतीराज व्यवस्था के किसी भी चुने हुए पदाधिकारी को पद से हटाने के लिए दो साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है. 14 जुलाई, 2022 को अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग में श्रवण ही जीते. तिलमिलाए दबंग 17 माह बाद फिर उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए, तब भी श्रवण पंचों का विश्वास जीतने में सफल रहे.
उन्हें हटाने का और कोई रास्ता निकलता न देख दबंगों ने खाप पंचायत का जाना-पहचाना दांव खेला. 9 दिसंबर, 2023 को पंचायत भवन में बुलाई गई खाप पंचायत में श्रवण पर पांच लाख रुपए का जुर्माना चुकाने या सरपंची छोड़ने को कहा गया. आरोप? यह कि हत्या के एक मामले में पकड़े गए भाई के साथ उनकी बोलचाल क्यों है. श्रवण ने भाई से किसी भी तरह का संबंध होने से इनकार कर दिया. पर उनकी कौन सुनने वाला था!
श्रवण के शब्दों में, "पंचायत भवन में मुझे बुलाया गया तो पहले से ही सैकड़ों की भीड़ जमा थी. वहीं मौजूद शेराराम, भगवत सिंह, रामूराम, उमाराम, जोराराम, लूणाराम, किशनाराम, श्रवणराम, प्रतापराम और प्रहलाद राम वगैरह ने मुझसे कहा कि हम लोग ही यहां के पंच हैं. हम जो फैसला करेंगे, तुम्हें मानना पड़ेगा. जुर्माना चुकाओ या सरपंची छोड़ो."
"अपने भाई से किसी भी तरह का संबंध होने से मेरे इनकार करने पर उन्होंने मुझसे हाथ जोड़कर एक पैर पर खड़े होने को कहा. मैंने वैसा ही किया. फिर भी उन्होंने उसी दिन से मुझे समाज से बहिष्कृत किए जाने का फैसला सुना दिया. गांव का कोई दुकानदार हमारे परिवार को सामान नहीं देगा, न किसी सामाजिक-धार्मिक आयोजन में हमें बुलाया जाएगा. हमारे घर कोई आएगा-जाएगा भी नहीं. जो ऐसा करेगा उसे भी समाज से बहिष्कृत होना पड़ेगा."
खाप पंचायत के फरमान का ही असर है कि पिछले दो महीने से श्रवण न किसी के घर गए हैं, न ही गांव का कोई दूसरा उनके घर आया है. टैंकर वाले ने उनके घर पानी पहुंचाने से मना कर दिया. चारा मशीन मालिक ने भी उनके यहां आकर चारा काटने से मना कर दिया. घर की जरूरत का सामान भी उन्हें मीलों दूर दूसरे गांव से लाना पड़ता है.
राजस्थान में सामाजिक बहिष्कार के मामलों पर रोक लगाने के लिए चार साल पहले एक कानून बनाया गया था. पर वह इस भयंकर सामाजिक बीमारी की रोकथाम करने में नाकाफी साबित हुआ है. राजस्थान में ऑनर किलिंग की घटनाओं को रोकने के लिए 8 अगस्त, 2019 को विधानसभा में एक कानून पारित हुआ.
कानून का नाम था राजस्थान सम्मान और परंपरा के नाम पर वैवाहिक संबंधों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप का प्रतिषेध अधिनियम 2019. इसमें प्यार करने वालों को नुकसान पहुंचाने पर 10 साल तक की जेल या एक लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है. दो कुटुंबों, जातियों, समुदायों या धर्मों के लोगों के बीच संबंधों को लेकर किसी तरह की प्रताड़ना पर यह कानून लागू होता है.
राजस्थान में खाप शब्द का प्रयोग पहली बार राजस्थान की जोधपुर रियासत की 1890-91 की जनगणना रिपोर्ट में देखने को मिलता है. इस रिपोर्ट के अनुसार, धर्म और जाति पर आधारित समूह को खाप कहा गया था. खाप शब्द खतप से बना है जिसका अर्थ एक खास कबीला या समुदाय होता है. एक और व्याख्या के अनुसार, खाप दो शब्दों ख और आप से मिलकर बना है. ख का अर्थ आकाश और आप का अर्थ जल. अर्थात् ऐसा संगठन जो आसमान की तरह दूर-दूर तक फैला हो और जो पानी की तरह निर्मल तथा न्यायकारी हो.
विडंबना देखिए कि ये पंचायतें अपनी परिभाषा को ही धता बताते हुए अपनी जड़ों में ही मट्ठा डाल रही हैं. हरियाणा और उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी लगभग नहीं के बराबर रहती है, जबकि राजस्थान में बागरिया, सांसी, कालबेलिया और दूसरे घुमंतू समुदायों की जातीय पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी भी बड़ी तादाद में होती है.
विशेषज्ञों की मानें तो राजस्थान में इनके फलने-फूलने की एक बड़ी वजह यहां के समाज का सामंती ढांचा रहा है. राजस्थान विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे डॉ. राजीव गुप्ता कहते हैं, "सामाजिक बहिष्कार अस्पृश्यता का ही एक स्वरूप है. इसे शक्तिशाली लोग अपने से नीचे के तबके पर दबदबा बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. राजस्थान में सामाजिक बहिष्कार की घटनाएं इसलिए ज्यादा हैं क्योंकि यहां का समुदाय मूलतः सामंती और ग्राम्य जीवन पर आधारित है. हुक्का और पानी गांव के जीवन में सामुदायिक भागादारी का साधन रहे हैं. इन्हें बंद करने का मतलब होता है किसी व्यक्ति को उसके पूरे समुदाय से अलग-थलग कर देना."
"सामाजिक बहिष्कार समाज के स्तर पर ही नहीं, राजनैतिक स्तर पर भी साफ नजर आता है. लोगों को संविधान के मूल्यों की पालना से ही रोका जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्यवश मौजूदा समय में हमने संविधान की जगह सामाजिक बहिष्कार के अनौपचारिक ढांचे को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है."
सुनी होंगी आपने पौराणिक ग्रंथों में गंगा, लक्ष्मण और श्रवण कुमार के जीवन से जुड़ी त्याग-तपस्या की प्रेरक कहानियां. इक्कीसवीं सदी में तो इन नाम वाले कई लोगों का तो हुक्का-पानी बंद हो गया है. इस धरती का कोई तर्क यह नहीं बता पा रहा कि आखिर उनका कुसूर क्या है? यही कि वे अपने ही समाज के दबंगों की आंखों में खटक गए हैं, बस! पारित होते रहें विधेयक, बनते रहें कानून. वे तो बिना अपराध के नारकीय जीवन जीने को रहेंगे सदा अभिशप्त.

