
खरमास के बाद कुछ न कुछ होगा, इन दिनों बिहार में हर जगह यही चर्चा है. खरमास, मतलब हिंदुओं के लिए वह महीना जिसमें सारे शुभ काम या बड़े फैसले टाल दिए जाते हैं. यह 15-16 दिसंबर से मकर संक्रांति तक चलता है. अब जैसी कि चर्चा है, इसके बाद बिहार में एक बड़ी राजनैतिक उठा-पटक हो सकती है. इसकी शुरुआत 29 दिसंबर, 2023 को नीतीश कुमार के जद (यू) का अध्यक्ष बनने के साथ हुई. हालांकि इसमें उनके पूर्ववर्ती ललन सिंह के अध्यक्ष पद से हटने की परिस्थितियों की भी अहम भूमिका बताई जा रही है.
क्यों हटाए गए ललन सिंह?
जद (यू) की तरफ से आधिकारिक रूप से कहा जा रहा है कि ललन सिंह की इस साल होने जा रहे लोकसभा चुनाव में व्यस्तता बढ़ जाएगी, इसलिए वे अध्यक्ष का पद छोड़ रहे हैं. खुद वे भी यही कह रहे हैं. मगर हर कोई यह मानकर चल रहा है कि बात कुछ और है.
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, ललन सिंह के अध्यक्ष पद छोड़ने से जद (यू) में राजद समर्थक धड़ा कमजोर हुआ है. कहा जाता है कि हाल के दिनों में पार्टी के दो नेता अशोक चौधरी और संजय झा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कुछ अधिक ही करीबी हो गए हैं. ललन सिंह जो नीतीश के काफी पुराने सहयोगी हैं और महागठबंधन सरकार बनने के वक्त नीतीश के काफी करीब थे, उनकी मुख्यमंत्री से दूरी तब शुरू हुई, जब उनका अशोक चौधरी से विवाद शुरू हुआ.
दोनों के बीच विवाद की जड़ बरबीघा विधानसभा है. अशोक चौधरी बरबीघा विधानसभा को अपनी पारिवारिक सीट मानते हैं. वहां से उनके पिता महावीर चौधरी चार बार और वे खुद दो बार विधायक रह चुके हैं. फिलहाल वहां बिहार के बड़े भूमिहार नेता राजो सिंह के पोते सुदर्शन विधायक हैं. अशोक चौधरी पिछले कुछ दिनों से लगातार बरबीघा जा रहे थे और विधायक के कामकाज पर नकारात्मक टिप्पणियां कर रहे थे. इस बात को लेकर जद (यू) की एक बैठक में तब के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह और अशोक चौधरी की भिड़ंत हुई थी और इसके बाद से उनके बीच तनातनी चल रही थी.
यह घटनाक्रम हालांकि ललन सिंह के खिलाफ पूरी तरह नहीं गया. कहा जाता है कि ललन सिंह की विदाई की तात्कालिक वजह जद (यू) के नाराज विधायकों की एक बैठक बनी. जद (यू) का राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलने से कुछ दिन पहले खबर आई कि पार्टी के एक वरिष्ठ मंत्री बिजेंद्र प्रसाद यादव के आवास पर पार्टी के ऐसे विधायकों की बैठक हुई है. इस बैठक में शामिल जद (यू) के 11 विधायकों में से कुछ के नाम भी सामने आए. इनमें बरबीघा के विधायक सुदर्शन का भी नाम था. इसके अलावा रुपौली की विधायक बीमा भारती का नाम था, जो अपनी विरोधी मंत्री लेसी सिंह से नाराज हैं. इनके अलावा केसरिया की विधायक शालिनी मिश्रा, बेलहर के विधायक मनोज यादव, रुन्नीसैदपुर के विधायक पंकज मिश्रा, हरलाखी के विधायक सुधांशु शेखर, बाबू बरही की विधायक मीना कामत आदि के नाम भी सामने आए. ये सभी अलग-अलग कारणों से असंतुष्ट बताए जाते हैं. इसके बाद कयास लगाए जाने लगे कि जद (यू) को तोड़ने की कोशिश की जा रही है.
इस खबर से परेशान मुख्यमंत्री बिजेंद्र यादव से मिलने उनके घर गए. उन्होंने इस बैठक में शामिल सभी विधायकों से एक-एक कर मुलाकात भी की. इसके बाद भी जब वे संतुष्ट नहीं हुए तो उन्होंने अध्यक्ष पद से ललन सिंह को हटाने का मन बना लिया. दरअसल पार्टी में ललन सिंह और बिजेंद्र यादव एक गुट के नेता हैं, जिनकी राजद से करीबी है.
कहा जाता है, पहले तो नीतीश ललन सिंह को हटाकर अशोक चौधरी को अध्यक्ष बनाना चाहते थे. मगर ललन सिंह इस शर्त पर इस्तीफा देने के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने शुरू से ही कहा था कि वे तभी हटेंगे, जब नीतीश कुमार खुद अध्यक्ष बनें.
नीतीश फिर भाजपा के साथ जाएंगे?
जब लोग यह कह रहे हैं कि मकर संक्रांति के बाद कुछ बड़ा होगा तो उनका सबसे अधिक जोर इसी बात पर है कि नीतीश फिर से पाला बदल सकते हैं. अगस्त, 2022 यानी जब नीतीश महागठबंधन सरकार के मुखिया बने, तब से उनकी एक ही कोशिश थी कि वे मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करें और इन दलों के नेता बनें. वे इसके लिए भी तैयार थे कि भले उन्हें विपक्षी दलों की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न माना जाए, मगर संयोजक तो बना दिया जाए. इधर इंडिया गठबंधन की अगुआ कांग्रेस इस पर लगातार फैसला टालती रही.
इंडिया गठबंधन की चार बैठकों के बाद भी संयोजक के पद पर उनके नाम पर मुहर नहीं लगी. इस बीच प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम भी आगे बढ़ाया गया. बताते हैं कि इससे उनकी नाराजगी चरम पर पहुंच गई. वे इसलिए भी राजद के करीबी माने जाने वाले ललन सिंह को हटाकर खुद अध्यक्ष बन गए ताकि अगर भाजपा के साथ जाने की बात हो तो पार्टी में किसी तरह की दिक्कत न हो.
कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने एक तरह से खरमास तक कांग्रेस और राजद को मौका दिया है. इसके बाद वे एनडीए के साथ जाने का फैसला कर सकते हैं. इधर राज्य के भाजपा नेताओं के सुर भी नीतीश के प्रति थोड़े नरम हुए हैं. नए साल में कोई बड़ा नेता यह नहीं कह रहा कि जदू (यू) अध्यक्ष के लिए अब एनडीए के दरवाजे बंद हैं.
नीतीश बनेंगे 'इंडिया' के संयोजक?
ऐसा लगता है कि नीतीश के जद (यू) का मुखिया बनने का कांग्रेस पर थोड़ा असर हुआ है. ऐसी खबर है कि 19 दिसंबर की इंडिया गठबंधन की चौथी बैठक के बाद राहुल गांधी दो बार उनसे फोन पर बात कर चुके हैं. यह खबर भी आई कि 3 जनवरी को संयोजक के पद पर नीतीश के नाम की घोषणा हो सकती है. इसके लिए एक जूम मीटिंग होने वाली है. 3 जनवरी को एक जूम मीटिंग की खबर भी आई, कहा गया कि इस बैठक में बिहार में लोकसभा चुनाव की सीट शेयरिंग पर ही चर्चा हुई. इस मीटिंग में कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे, राजद सुप्रीमो लालू यादव और नीतीश शामिल हुए. हालांकि जद (यू) और राजद, दोनों ने ऐसी किसी बैठक की बात से इनकार किया है.

कांग्रेस के सूत्र यह बताते हैं कि नीतीश को इंडिया गठबंधन का संयोजक बनाने के लिए पार्टी तैयार है. हालांकि इस बीच कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन को और इसके संयोजक के पद को इतना महत्वहीन बना दिया है कि इस पर नीतीश की सहमति होगी या नहीं, कहना मुश्किल है. दरअसल, कांग्रेस ने हाल के दिनों में यह साफ कर दिया है कि वह सिर्फ नौ राज्यों में इंडिया गठबंधन के विपक्षी दलों के साथ गठबंधन कर रही है. बाकी राज्यों में वह अकेले चुनाव लड़ेगी.
इसके अलावा अगर नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन का संयोजक बनाया जाता है तो खड़गे को इसका अध्यक्ष बनाया जाएगा.
तेजस्वी यादव पर कसा ईडी का शिकंजा?
इधर इस बात की भी लगातार चर्चा है कि राजद नेता तेजस्वी यादव पर हाल के दिनों में ईडी कोई बड़ी कार्रवाई कर सकता है. जिस तरह ईडी ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की घेराबंदी की है. वैसी ही घेराबंदी तेजस्वी यादव की भी की जा सकती है. 5 जनवरी को ईडी ने तेजस्वी यादव को पूछताछ के लिए बुलाया है.
राजद के मुख्य प्रवक्ता मनोज झा ने 2 जनवरी को पटना में मीडिया से बातचीत करते हुए इस बात की आशंका जताई है कि 22 जनवरी से पहले देश के विपक्षी नेताओं पर ईडी के हमले बढ़ सकते हैं. उन्होंने दावा किया कि ईडी के सूत्रों से ही उन्हें यह जानकारी मिली है.
कहा यह भी जा रहा है कि तेजस्वी पर ईडी की कार्रवाई के लिए भी नीतीश के कदम का इंतजार किया जा रहा है. अगर नीतीश एनडीए की तरफ कदम बढ़ाते हैं तो तेजस्वी के खिलाफ कार्रवाई कर उन्हें एक अवसर दिया जाएगा, ताकि वे अपने फैसले का इस बहाने बचाव कर सकें. अगर नीतीश भाजपा की तरफ नहीं जाते तब तेजस्वी पर हमला कर उन्हें कमजोर करने की कोशिश की जाएगी.
क्या बिहार विधानसभा भंग होगी?
इस बीच चर्चा इस बात पर भी है कि खरमास के बाद नीतीश विधानसभा भंग कर नए चुनाव की घोषणा कर सकते हैं. कहा जा रहा है कि 2024 में जीत के बाद भाजपा की ताकत बढ़ सकती है, ऐसे में नीतीश के लिए 2025 में विधानसभा चुनाव जीतना मुश्किल होगा. सरकार से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, नीतीश की इस रणनीति से तेजस्वी यादव सहमत हैं, हालांकि लालू यादव फिलहाल इसके पक्ष में नहीं हैं.
वहीं एक और बात यह भी कही जा रही है कि भाजपा अब चुनाव से पहले सरकार का हिस्सा नहीं बनना चाहती. पार्टी नेताओं के मुताबिक, विपक्ष में रहने से बिहार में उनकी स्वीकार्यता तेजी से बढ़ी है. भाजपा नेताओं के मुताबिक, ऐसे में नीतीश अगर राजद से अलग होना चाहते हैं तो विधानसभा भंग कर एनडीए में आएं और राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा बनें.
बहरहाल, इन तमाम स्थितियों का अनुमान सिर्फ इस बात पर निर्भर है कि नीतीश को इंडिया गठबंधन में संयोजक की भूमिका नहीं मिलती. अगर इंडिया गठबंधन में नीतीश को संयोजक की भूमिका और राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहने लायक जिम्मेदारी मिल जाती है तो इस बात की संभावना कम ही है कि फिर बिहार में कुछ उठापटक मचेगी.