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कहां गायब होते जा रहे हैं गुजरात के गधे?

पिछली पशुधन गणना के अनुसार, गुजरात में गधों की आबादी 2012 में 38,993 से 71 प्रतिशत कम होकर 2019 में 11,291 रह गई है

गुजरात में 2022 के वौठा लोक मेले के दौरान अपने गधे को सजाता एक व्यापारी
अपडेटेड 22 दिसंबर , 2023

अपने शेरों के लिए मशहूर गुजरात राज्य का नाम सुनते ही आपको किसी गधे की याद तो नहीं ही आएगी. इनसानी भाषा और संस्कृति में कभी बहुत ज्यादा इज्जत न कमा सकने वाले गधों की संख्या किस तरह गिर रही है, इस बारे में तो नहीं ही सोचेंगे.

लेकिन वौथा गांव की तरफ को जाने वाली धूल-धक्कड़ से भरी उस पुरानी सड़क पर आगे बढ़ते हुए, जहां अहमदाबाद और खेड़ा के बॉर्डर मिलते हैं, आप पाएंगे कि मानव सभ्यता में हर कदम पर उसका साथ देता आया यह पशु गुम हो रहा है.

गधों के इस तरह गायब होने के साथ ही पीछे छूटता जा रहा है एक पारिस्थितिक खालीपन. वौठा में हर साल एक मेला लगता है जिसे गधों का वार्षिक व्यापार मेला कहा जा सकता है. लेकिन वौठा के पूर्व सरपंच महेंद्रसिंह मंडोरा वौठा 'लोक मेलो' के भविष्य के बारे में अनिश्चितता व्यक्त करते हैं. उनका कहना है कि यह मेला छह दशक पहले शुरू हुआ था और इसमें पारंपरिक रूप से हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात के विभिन्न हिस्सों से 20,000 से अधिक गधे बिक्री के लिए लाए जाते रहे हैं. मगर वर्तमान में यह संख्या का केवल 4,000 रह गई है. यह गिरावट इस विनम्र भारवाहक पशु में व्यापारियों की कम होती दिलचस्पी को दर्शाता है.

अब जब वाहनों का बोलबाला हो गया है तो देशभर में पालतू जानवरों की आबादी में चिंताजनक गिरावट देखी गई है. पिछली पशुधन गणना के अनुसार, गुजरात में गधों की आबादी 2012 में 38,993 से 71 प्रतिशत कम होकर 2019 में 11,291 हो गई है. राष्ट्रीय स्तर पर, गिरावट 62 प्रतिशत है, जो 2012 में 3,20,000 से घटकर 2019 में 120,000 हो गई है.

अक्षय वंजारा और उनके भाई आशाजी को तब राहत मिली जब वार्षिक वौठा गधा व्यापार मेला नवंबर के अंत में खत्म हो गया. उन्होंने सौराष्ट्र के सुरेंद्रनगर से दो गधों के साथ 100 किमी से अधिक की यात्रा की थी, जिन्हें उन्होंने 20,000 रुपए की मामूली कीमत पर बेच दिया, ठीक पिछले साल की तरह. 30 साल की उम्र से कम के ये दोनों भाई निर्माण उद्योग के लिए सामग्री और मलबे के परिवहन में लगे अपने परिवार की चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं. हालांकि, अपने पूर्वजों के विपरीत, जो ऐसे कार्यों के लिए गधों पर निर्भर थे, अक्षय और आशाजी ट्रैक्टर चलाते हैं. वे गधों को रखने और मेले में भाग लेने की अब तक चल रही परंपरा से चकित हैं.

गांधीनगर के कलोल तालुका के जेठलाज गांव के धर्मेंद्र वंजारा का अब मेले से कोई सरोकार नहीं है. उसने अपने आखिरी गधों को 15 साल पहले जाने दिया और उसे इसका कोई अफसोस नहीं है. वे कहते हैं, ''हमने 2008 में उनका उपयोग बंद कर दिया. मेरे पास उनमें से 10 हुआ करते थे. अब मेरे पास 10 बड़े डंपर हैं जो 20 गुना कारोबार की सुविधा देते हैं.''

वौथा मेला ग्रामीण अर्थव्यवस्था और संस्कृति की बदलती गतिशीलता और पारिस्थितिकी पर इसके प्रभाव के लिए एक खिड़की के रूप में कार्य करता है. मनुष्यों के लिए गधों की आर्थिक उपयोगिता में गिरावट वैध चिंताओं को जन्म देती है क्योंकि लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में उनके शामिल होने की संभावना बहुत अधिक है. गुजरात में मुख्यत: दो नस्लें पाई जाती हैं—हलारी और कच्छी. हलारी नस्ल सौराष्ट्र के जामनगर से आती है जबकि कच्छी कच्छ के शुष्क रेगिस्तानी क्षेत्र से आती है. विशेष रूप से, दोनों नस्लों की विशेषता उनके कॉम्पैक्ट आकार से है, जो उन्हें सैन्य उद्देश्यों के लिए अनुपयुक्त बनाती है और ईंट भट्टों के लिए उनकी प्रभावशीलता को सीमित करती है. हालांकि गधे ग्रामीण क्षेत्रों में ईंट भट्टों और पावागढ़ और पलिताना जैसे चुनौतीपूर्ण इलाकों में माल परिवहन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. 

राज्य पशुपालन विभाग के उप निदेशक डॉ. धीरेंद्र कपाड़िया ने आगामी राज्य बजट में गधा पालने वालों के लिए प्रोत्साहन पेश करने की योजना का खुलासा किया. डेयरी के स्रोत के रूप में गधों के उपयोग से आशा की एक किरण उभरती है. नवंबर में गांधीनगर में एक कार्यक्रम में केंद्रीय पशुपालन मंत्री परषोत्तम रूपाला ने इस बात पर प्रकाश डाला कि गधी के दूध की बाजार कीमत 1,350 रुपए प्रति लीटर है, और चरवाहों से अपने जानवरों को न छोडऩे का आग्रह किया. ''गधी के दूध का उपयोग कॉस्मेटिक उत्पादों में किया जाता है,'' उन्होंने यह रेखांकित करते हुए कहा कि अमूल ने अपने सहकारी मॉडल में बकरी और ऊंटनी के दूध की खरीद शुरू कर दी है. इसके अतिरिक्त, एक ऐतिहासिक किस्सा बताता है कि रानी क्लियोपेट्रा युवा त्वचा बनाए रखने के लिए गधी के दूध से स्नान करती थी.

हालांकि दुधारू पशु के रूप में इनका उपयोग करना फिलहाल महत्वाकांक्षी लगता है. कपाड़िया का कहना है कि उन्होंने कई वर्षों तक पाटन जिले के चनास्मा में सरकारी फार्म पर गधों से दूध निकालने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. ''वह शर्मीली जानवर है और दूध देने के लिए तैयार नहीं है. अगर उसके बछड़े के अलावा कोई भी करीब आता है तो वह लात मार देती है,'' वे कहते हैं, आधा दर्जन अपवादों को छोड़कर, उन्होंने खेतों में गधों के बारे में नहीं सुना है.

गधों की अर्थव्यवस्था के एक अन्य पहलू पर प्रकाश डालते हुए, गुजरात में कामधेनु विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. प्रवीण वतालिया कहते हैं हाइ-एंड कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में गधों के शरीर के अंगों का निर्यात उच्च स्तर पर होता है. हाइ-एंड कॉस्मेटिक उद्योग भारत में एक विकसित क्षेत्र नहीं है और औपचारिक उद्योग की अनुपस्थिति के कारण गधों के अंगों का अवैध व्यापार बढ़ गया है जिससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गाजियाबाद स्थित एक स्वतंत्र गैर-लाभकारी संस्था, ब्रुक इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि मांस और शरीर के अन्य अंगों के लिए गधों की अवैध तस्करी, गधों की घटती आबादी के प्रमुख कारणों में से एक है. इनकी त्वचा का उपयोग 'एजियाओ' नामक जिलेटिन जैसा पदार्थ बनाने के लिए किया जाता है, जो चीन में लोगों की त्वचा को युवा बनाए रखने और कामेच्छा बढ़ाने में अपने कथित औषधीय गुणों के लिए मूल्यवान है.

भारत में खानाबदोश जातियां गधों को पालती थीं—गुजरात के वंजारा, प्रजापति और ओढ़ समुदाय इनमें शामिल थे. यही वजह है कि इन समुदायों के लोग आज भी गधों के कारोबार में शामिल दिखते हैं. समय के साथ, ये समुदाय सामाजिक सीढ़ी पर ऊपर चढ़े और गधे पीछे छूट गए. वौठा के विश्वसनीय सूत्रों का दावा है कि स्थानीय लोग और जिला प्रशासन जातिगत मूल्यों और गधे से जुड़ी 'मूर्खता' की सदियों पुरानी धारणाओं के कारण गधे के मेले का मजाक उड़ाते हैं. इससे बेचारे गधों का ही नुक्सान हो रहा है. गांव के एक कर्मचारी कहते हैं, ''गांव की 3,000 लोगों की आबादी को किसी भी तरह से मेले से लाभ नहीं हुआ है. वौठा में आज कोई गधे का व्यापारी नहीं है. इसके अलावा, इससे कोई राजनैतिक लाभ भी नहीं मिल सकता है.'' जैसे-जैसे गुजरात भविष्य की ओर बढ़ रहा है, इसकी धरती से गधों के कदमों के निशान मिटते जा रहे हैं.

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