scorecardresearch

अब अनुच्छेद 370 से आगे अब क्या है कश्मीर का भविष्य

आखिरकार, विशेष राज्य के तौर पर जम्मू-कश्मीर की तुलना में आज तमिलनाडु या पश्चिम बंगाल अपनी सांस्कृतिक पहचान, राजनैतिक अहमियत और आर्थिक स्थिति को कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से सुरक्षित रख पाने में सक्षम नजर आते हैं

शहर के बीचोबीच श्रीनगर के लाल चौक पर लोगों की चहल-पहल
अपडेटेड 25 दिसंबर , 2023

अमिताभ मट्टू 

सत्तर साल से ज्यादा समय तक भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर के एक तबके के लिए पत्थर की लकीर बना रहा. भारी-भरकम संविधान का यह छोटा-सा हिस्सा इस कदर सामूहिक मानस में बस गया था कि लोग उससे इतर सोच नहीं पाते थे. हालांकि, बीतते हर दशक के साथ अनुच्छेद 370 और इसके तहत कश्मीर को हासिल विशेष दर्जे ने अपनी प्रासंगिकता खो दी थी. अब 11 दिसंबर के सुप्रीम कोर्ट के फैसले (जिसमें अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने को बरकरार रखा गया) ने इस मसले को हमेशा के लिए खत्म कर दिया है.

अब असल चुनौती यह है कि टिकाऊ और सामूहिक शांति के जरिए सभी हितधारकों को इस मसले के राजनैतिक समाधान पर राजी किया जाए. अब अनुच्छेद 370 लगभग स्थायी तौर पर इतिहास के पन्नों में दफन हो जाने के बाद पांच ऐसे कदम हैं जो उठाए जा सकते हैं और उठाए भी जाने चाहिए ताकि सही मायने में नए जम्मू-कश्मीर की नींव रखी जा सके.

सबसे पहला और अहम कदम तो यही कि राज्य में लोकतंत्र की जल्द से जल्द वापसी हो. जम्मू-कश्मीर में पिछला चुनाव करीब एक दशक पहले हुआ था. पिछले पांच साल से वहां कोई निर्वाचित सरकार नहीं है. हालांकि, स्थानीय निकाय चुनाव जरूर हुए पर वे विधिवत गठित विधानसभा का विकल्प नहीं हैं और न हो सकते हैं. वैसे तो मुख्यधारा के सियासी दल पूरी शिद्दत से बहिष्कार पर अड़े हैं लेकिन इसमें दो-राय नहीं कि एक बार मामला पूरी तरह शांत होने के बाद लगभग सभी चुनाव का हिस्सा बनने को तैयार हो जाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चुनाव हर हाल में सितंबर 2024 के अंत तक करा लिए जाएं; यह पक्का किया जाए कि वे पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष हों. जरा गौर कीजिए, अतीत में खासकर 1987 की चुनावी गड़बड़ियों ने अलगाववाद को भड़काने में अहम भूमिका निभाई थी; ऐसे में जरूरी है कि केंद्र सरकार सभी पक्षों से एक निश्चित दूरी बनाकर रखे. जम्मू-कश्मीर को निष्पक्ष राजनीति की राह पर लाना बहुत जरूरी है. ऐसे में चुनावी लोकतंत्र के हर पहलू को यहां भरपूर मौका मिलना चाहिए, वैसे भी घोषणापत्र, चुनावी लामबंदी, सार्वजनिक रैलियां और मतदाताओं को लुभाने की स्पर्धा ही बहुदलीय लोकतंत्र का स्वाभाविक स्वरूप है.

सर्वोच्च अदालत ने उम्मीद जताई है कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा जल्द बहाल किया जाएगा; केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी पूर्व में उचित समय पर राज्य का दर्जा बहाल करने की प्रतिबद्धता जता चुके हैं. तो यही उपयुक्त समय है क्योंकि राज्य का दर्जा बहाल होने से अनुच्छेद 370 पर हारी लड़ाई को लेकर कायम गुस्सा काफी हद तक काफूर हो जाएगा. मुख्यधारा के राजनेता जम्मू-कश्मीर का खास दर्जा खत्म होने से आहत हैं और राज्य का दर्जा बहाल करके उन्हें चुनाव में सशक्त भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा.

जस्टिस संजय कौल ने अपने फैसले के अंतिम हिस्से में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी अभियान में सत्य और सुलह आयोग की तरफ से निभाई भूमिका से प्रेरित होकर ऐसे ही एक आयोग के गठन पर जोर दिया है. उनकी राय है कि आयोग 1980 के दशक से जम्मू-कश्मीर में सरकारी और गैर-सरकारी तत्वों की तरफ से किए गए मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच करेगा और उनके बारे में रिपोर्ट करेगा, साथ ही सुलह के उपायों की सिफारिश करेगा.

नेल्सन मंडेला, डेसमंड टूटू और रंगभेद से बाहर आए दक्षिण अफ्रीका से खासे प्रभावित कौल का तर्क है कि 'उबुंटू' यानी मानवता और समावेशिता के सिद्धांत को इस प्रक्रिया के केंद्र में रखा जाना चाहिए. हम सबको जम्मू-कश्मीर में सबसे पहले पूरी उदारता के साथ मानवीय गरिमा को सम्मान देने और पुराने जख्म भरने की पहल करनी चाहिए, आयोग 'सच्चाई सामने लाकर' भावनात्मक आवेग को शांत करने का एक अहम मंच बनेगा.

यह विचार भले बहुतों को पसंद न आए पर समय आ गया है कि पाकिस्तान के साथ बातचीत का एक सुलझा और सतर्क चैनल खोला जाए. 2016 से 2020 के बीच एलओसी पर अपेक्षाकृत शांति का एक कारण राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और तत्कालीन पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर बाजवा और उनके आइएसआइ प्रमुख फैज हमीद के बीच संपर्क कायम रहना भी था.

संभव है, बातचीत का यह चैनल पूरी तरह बंद न हुआ हो, बाधित हो गया हो. इसे फिर स्थापित करना सार्थक हो सकता है. नवाज शरीफ पाकिस्तान में सबसे मजबूत शख्सियत के तौर पर उभर रहे हैं, डील-मेकर होने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति और देश के भीतर कायम अशांत माहौल के कारण फौज पर दबाव के मद्देनजर बेहद सावधानी के साथ अपने फायदे के एजेंडे को आगे बढ़ाना उपयोगी हो सकता है. यह पक्का करेगा कि पाकिस्तान अतीत की गलतियां समझे.

जन्नत का नजारा श्रीनगर की डल झील पर उतरती शाम

समय आ गया है कि पूरा विमर्श अब 'खास होने के जज्बे' से निकलकर 'समानता' की ओर बढ़े. राज्य के अधिकांश निवासी और नेता इस बात को नकार नहीं पाएंगे कि देश के संघीय ढांचे के एक समान सदस्य के तौर पर उन्हें एक विशेष राज्य की तुलना में अधिक स्वतंत्रता और अधिकार हासिल हो सकते हैं. आखिरकार, विशेष राज्य के तौर पर जम्मू-कश्मीर की तुलना में आज तमिलनाडु या पश्चिम बंगाल अपनी सांस्कृतिक पहचान, राजनैतिक अहमियत और आर्थिक स्थिति को कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से सुरक्षित रख पाने में सक्षम नजर आते हैं.

अमिताभ मट्टू  (ये जेएनयू में प्रोफेसर हैं और जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री के सलाहकार रहे हैं)

 

Advertisement
Advertisement