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राजस्थान चुनाव: अपने गढ़ में ही घिरे ये सियासी दिग्गज, जीत की उम्मीद से ज्यादा हार का डर

राजस्थान विधानसभा चुनाव के नतीजे 3 दिसंबर 2023 को आने वाले हैं. हालांकि राज्य की कुछ सीटें ऐसी भी हैं जहां पर अपना ही गढ़ होने के बाद भी दिग्गजों का हार का डर सता रहा है

राजस्थान के बाड़मेर में एक प्रत्याशी के समर्थन में जमा महिलाएं
अपडेटेड 1 दिसंबर , 2023

विधानसभा चुनाव 2023
राजस्थान

राजधानी जयपुर से 235 किलोमीटर दूर नागौर में 18 नवंबर की सुबह 10 बजे मौसम थोड़ा सर्द था, लेकिन वहां की सड़कों पर सियासी गर्मी साफ झलक रही थी. उस दिन नागौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के चलते सड़कों पर भाजपा कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ पड़ा था. रैली वहां के स्टेडियम में दोपहर बाद शुरू होने वाली थी, लेकिन सुबह से ही रैली की जगह के बाहर काफी भीड़ जमा थी. स्टेडियम के बाहर सड़क के दूसरी तरफ दर्जनों बुजुर्ग सड़क पर बैठे सियासी जोड़-भाग करने में व्यस्त थे. सफेद धोती-कुर्ता, काली जैकेट और लाल साफा बांधे बैठे उन्हीं में से एक बुजुर्ग हनुमान राम बोले, ''म्हैं तो बाबा री पोती नै देखबा आया हां (हम तो बाबा (नाथूराम मिर्धा) की पोती (ज्योति मिर्धा) को देखने आए हैं).''

इन बुजुर्गों के इस सियासी क्रेज को इस बात से समझा जा सकता है कि 39 साल बाद नागौर की सियासत में एक बार फिर वैसा ही मुकाम आया है जैसा 1984 में नागौर से दिग्गज नेता नाथूराम मिर्धा और उनके भतीजे रामनिवास मिर्धा के आमने-सामने चुनाव लड़ने पर आया था. देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के पक्ष में उठी सियासी लहर में भतीजे रामनिवास मिर्धा ने चाचा नाथूराम को 48,535 मतों से पछाड़ दिया था, लेकिन साल 1989 में हुए अगले ही चुनाव में नाथूराम मिर्धा ने भतीजे रामनिवास को एक लाख 90 हजार से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त देकर अपनी हार का बदला ले लिया. अब रामनिवास मिर्धा के बेटे हरेंद्र मिर्धा और नाथूराम मिर्धा की पोती ज्योति मिर्धा चुनावी मैदान में आमने-सामने हैं और उनका रिश्ता भी चाचा-भतीजी का है. 

वहीं, हरेंद्र मिर्धा और ज्योति मिर्धा के लिए यहां से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हबीबुर्रहमान चुनौती बने हुए हैं. हबीबुर्रहमान यहां से दो बार भाजपा से विधायक रह चुके हैं. साल 2018 में टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया था, लेकिन भाजपा के मोहनाराम चौधरी के सामने चुनाव नहीं जीत पाए. इस बार कांग्रेस ने उनकी जगह हरेंद्र मिर्धा पर दांव खेला तो हबीबुर्रहमान ने निर्दलीय मोर्चा खोल दिया है. हरेंद्र मिर्धा 1998 के बाद से चार चुनाव हार चुके हैं, तो ज्योति मिर्धा भी साल 2014 और 2019 में हार का स्वाद चख चुकी हैं. 

नागौर की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले गोवर्धन चौधरी का कहना है, ''अब न तो किसी पार्टी के पक्ष में साल 1984 जैसी लहर है और न ही मिर्धा परिवार के प्रति लोगों का वैसा आकर्षण. 34 साल बाद नागौर की धरती पर मिर्धा परिवार के दो नेताओं का आमना-सामना हो रहा है तो लोगों में दिलचस्पी होना लाजिमी है. हालांकि, अब मतदाता राजनैतिक घरानों से ज्यादा नेताओं की उनकी बीच सक्रियता को तवज्जो देता है.'' 

नागौर की सियासी प्रतिद्वंद्विता की मिसाल पूरे राजस्थान में दी जाती है. ऐसी ही प्रतिद्वंद्विता यहां के मिर्धा और बेनीवाल परिवारों के बीच भी रही है. साल 1980 में अपने सियासी जीवन के शुरुआती दौर में हरेंद्र मिर्धा ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) सुप्रीमो हनुमान बेनीवाल के पिता रामदेव चौधरी को मूंडवा से चुनाव में हराया था. पांच साल बाद 1989 में लोकदल के प्रत्याशी रामदेव चौधरी ने हरेंद्र मिर्धा को 3,855 वोटों से हराकर अपनी हार का बदला लिया. उसके बाद हरेंद्र मिर्धा ने कभी मूंडवा से चुनाव नहीं लड़ा. हालांकि, 1993 और 1998 में वे नागौर से विधायक चुने गए थे. 30 साल बाद 2019 में इन दोनों परिवारों का फिर से आमना-सामना हुआ, लेकिन चुनावी दंगल का नया क्षेत्र खींवसर था. विधानसभा के इस उपचुनाव में आरएलपी-भाजपा गठबंधन से हनुमान बेनीवाल के भाई नारायण बेनीवाल ने कांग्रेस के हरेंद्र मिर्धा को 4,570 वोटों से शिकस्त दी. वहीं पांच माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में आरएलपी-भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार हनुमान बेनीवाल के सामने ज्योति मिर्धा चुनाव हार गई थीं. साल 2014 में ज्योति मिर्धा भाजपा के सी.आर. चौधरी के सामने चुनाव हार गई थीं. ज्योति अब भाजपा के रथ पर सवार हो चुकी हैं. 

वहीं, नागौर से 51 किलोमीटर दूर, राजस्थान की सियासत का केंद्र बने खींवसर कस्बे में 18 नवंबर को दोपहर 2 बजे सदर बाजार में भारी चहल-पहल थी. यहां से गुजरने वाली गाड़ियों पर आरएलपी के झंडे नजर आ रहे थे, लेकिन आरएलपी के बागी रेवंताराम डांगा के समर्थक भी यहां बड़ी तादाद में मौजूद थे. जसनाथ संप्रदाय के आसन के लिए मशहूर पंचाला सिद्धा गांव के भूराराम कहते हैं, ''थली क्षेत्र में हनुमान बेनीवाल भारी हैं तो चांदा में रेवंतराम का प्रभाव है. सालक क्षेत्र में दोनों की कड़ी टक्कर है तो कुचेरा में तेजपाल मिर्धा मुकाबले को त्रिकोणीय बनाए हुए हैं.'' हनुमान बेनीवाल पिछले दिनों आजाद समाज पार्टी से गठबंधन कर चुके हैं, तो ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि इस बार दलित वोट कांग्रेस की जगह उन्हें मिलेगा. आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर पिछले कई दिनों से हनुमान बेनीवाल के साथ हवाई उड़ान भर रहे हैं. खींवसर में दलित समाज के समाजसेवी रामलाल मेघवंशी कहते हैं, ''अगर हनुमान बेनीवाल को इस बार दलित समुदाय के वोट नहीं मिले तो यहां से उनकी जीत की राह मुश्किल होने वाली है.''      

खींवसर से ओसियां की दूरी 68 किलोमीटर है, लेकिन सियासी गरमाहट वहां भी जबरदस्त है. यहां राजस्थान की राजनीति के कद्दावर नेता रहे दिवंगत परसराम मदेरणा की पोती और कांग्रेस की युवा उम्मीदवार दिव्या मदेरणा तथा भाजपा के भैराराम सियोल के बीच कांटे की टक्कर है. हनुमान बेनीवाल ने अपनी पार्टी आरएलपी का समर्थन भैराराम को देकर दिव्या मदेरणा के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है. वैसे भी दिव्या और हनुमान बेनीवाल की सियासी अदावत किसी से छिपी नहीं है. दोनों एक-दूसरे पर सियासी हमला बोलने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे. तापु गांव के युवक मुकेश कहते हैं, ''लोहावट, खींवसर, मेड़ता और भोपालगढ़ में आरएलपी चुनाव लड़ रही है. ऐसे में वहां उसका असर दिख सकता है, लेकिन ओसियां में आरएलपी का कोई उम्मीदवार नहीं है, इसलिए यहां आरएलपी के समर्थन का चुनाव पर ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला.''  

राज्य में इस समय सबसे ज्यादा चर्चा बाड़मेर जिले की शिव विधानसभा क्षेत्र की है. कांग्रेस और भाजपा को यहां दो निर्दलीयों से कड़ी चुनौती मिल रही है. भाजपा के बागी युवा नेता रविंद्र सिंह भाटी और कांग्रेस के बागी फतेह खान की मौजूदगी ने शिव विधानसभा क्षेत्र को राजस्थान की सबसे हॉट सीट बना दिया है. इस क्षेत्र के चक गूंगा गांव के गट्टू खान कहते हैं, ''हमारे गांव में 2004 में बनी सड़क में अब सिर्फ पत्थर बचे हैं, लेकिन इतने वर्षों में किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. यहां 1,500 रुपए में पानी का टैंकर आता है, दो-दो दिन तक बिजली नहीं आती, लेकिन ये सब इस बार चुनाव के मुद्दे नहीं हैं.''   

सांसदों के सामने बागी

चुनाव प्रचार के दौरान दीया कुमारी

राजस्थान के चुनावी समर में भाग्य आजमा रहे कई सूरमा इस बार अपने ही किले में घिरते नजर आ रहे हैं. राज्य में भाजपा ने अपने सात सांसदों को चुनाव लड़ाने का फैसला तो कर लिया, पर इन सांसदों की राह आसान नहीं है. 

जयपुर के विद्याधरनगर से भाजपा प्रत्याशी और राजसमंद सांसद दीया कुमारी के अलावा अधिकतर सांसद अपनी सीटों पर जूझते दिख रहे हैं. दीया को तीन बार से भाजपा का गढ़ रही सबसे सुरक्षित सीट पर मौका दिया गया, वहीं अन्य छह सांसदों को हारी हुई विधानसभा सीटों से लड़ाया जा रहा है. यहां की जंग रोचक हो गई है क्योंकि भाजपा सांसदों को पार्टी के बागी ही चुनौती दे रहे हैं. 

वहीं, सवाई माधोपुर में इस बार राज्यसभा सांसद डॉ. किरोड़ी लाल मीणा की साख पर संकट मंडरा रहा है. वैसे, पूर्व राजस्थान की आदिवासी बहुल सीटों पर उनका वर्चस्व माना जाता है, पर इस बार वे अपने ही निर्वाचन क्षेत्र में घिरे हुए हैं. कांग्रेस के दानिश अबरार के अलावा उन्हें भाजपा की बागी आशा मीणा से चुनौती मिल रही है. आशा को 2018 में भाजपा ने यहां से उम्मीदवार बनाया था. 

राज्य में सबसे ज्यादा वोटरों वाले जयपुर जिले के झोटवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में पूर्व मंत्री और भाजपा सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को भी पार्टी के बागी उम्मीदवार आशुसिंह सुरपुरा से चुनौती मिल रही है. वहीं, कांग्रेस ने यहां एनएसयूआइ के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अभिषेक चौधरी को मौका दिया है. इसी तरह जालोर जिले की सांचौर सीट पर भाजपा सांसद देवजी पटेल के लिए पार्टी के बागी जीवाराम चौधरी मुश्किल खड़ी कर रहे हैं. 2018 में भी यह सीट भाजपा को बगावत के कारण गंवानी पड़ी थी. इस बार भी इसका फायदा कांग्रेस के सुखराम विश्नोई को होता दिख रहा है. 

झुंझुनूं जिले की मंडावा विधानसभा सीट पर सांसद नरेंद्र कुमार का कांग्रेस की विधायक रीटा चौधरी से सीधा मुकाबला है. नरेंद्र यहां से 2013 और 2018 में विधानसभा चुनाव जीते हैं, लेकिन इस बार उनके लिए जीत की राह आसान नहीं है. 2019 में नरेंद्र के झुंझुनूं से सांसद चुने जाने के बाद यह सीट वापस कांग्रेस की झोली में जा चुकी है. 

अलवर जिले की तिजारा विधानसभा सीट पर इस बार सांसद और महंत बालकनाथ अपनी जीत के लिए जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस ने यहां अल्पसंख्यक चेहरे को मौका दिया है. उसके जवाब में भाजपा ने हिंदुत्ववादी चेहरे के तौर पर बालकनाथ को उतारा है. बसपा और आजाद समाज पार्टी की मौजूदगी से यहां मुकाबला रोचक हो गया है. 1952 से लेकर 2018 तक हुए 17 विधानसभा चुनावों में तिजारा सीट पर 9 बार कांग्रेस, एक बार भाजपा और छह बार निर्दलीय और अन्य पार्टियों का कब्जा रहा है. बसपा का भी यहां मजबूत वोट बैंक है जिसके चलते 2018 में बसपा के संदीप कुमार विधायक चुने गए थे. 

अजमेर जिले की किशनगढ़ विधानसभा सीट पर सांसद भागीरथ चौधरी को भाजपा से बगावत कर कांग्रेस का दामन थामने वाले विकास चौधरी और 2018 में निर्दलीय विधायक चुने गए सुरेश टाक कड़ी टक्कर दे रहे हैं. विकास यहां से 2018 में भाजपा के उम्मीदवार थे. भाजपा की पहली लिस्ट में जैसे ही भागीरथ के नाम की घोषणा हुई, विकास और उनके समर्थक बगावत पर उतर आए. कांग्रेस ने मौके को भांपकर विकास को अपने पाले में कर लिया. 2018 में यहां कांग्रेस प्रत्याशी नंदाराम की जमानत जब्त हो गई थी. यहां 2008 से जीत के लिए तरस रही कांग्रेस को एक ऐसे कद्दावर नेता की तलाश थी जो इस सीट को उसकी झोली में डाल सके.

गहलोत-राजे की राह साफ, राठौड़-विश्वेंद्र फंसे

एक रैली में वसुंधरा राजे

ढाई दशक से राजस्थान की राजनीति के सिरमौर रहे अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे की विधानसभा की राह इस बार भी आसान नजर आ रही है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थक सरदारपुरा में उनकी जीत को लेकर इस बार भी आश्वस्त हैं. इसकी बानगी 20 नवंबर की रात सरदारपुरा में स्टेडियम के सामने चल रहे उनके चुनाव कार्यालय में दिखी. पार्षद इरफान खान बेली की बिल्डिंग में चल रहा यह कार्यालय रात 8 बजे बंद हो चुका था जबकि उनके प्रतिद्वंदी महेंद्र राठौड़ का चुनाव कार्यालय पूरी रात खुला रहता है. कांग्रेसी चुनाव कार्यालय के बाहर मौजूद शोएब खान कहते हैं, ''यहां कार्यालय चाहे खुला रहे या बंद, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. यहां तो अशोक गहलोत के नाम का ही जादू चलता है.'' 

पूर्व मुख्यमंत्री राजे के निर्वाचन क्षेत्र झालरापाटन की गिनती भी इसी तरह की सुरक्षित सीटों में की जा रही है. पर राजस्थान विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता राजेंद्र राठौड़ (तारानगर), उपनेता सतीश पूनिया (आमेर), पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के दामाद और विद्याधर नगर से विधायक नरपत सिंह राजवी (चित्तौड़गढ़), कांग्रेस नेता हरीश चौधरी (बायतू), विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सी.पी. जोशी (नाथद्वारा), कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, मंत्री विश्वेंद्र सिंह (डीग-कुम्हेर), शांति धारीवाल (कोटा उत्तर), जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह (सिवाना), कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रोफेसर गौरव वल्लभ (उदयपुर) की राह आसान नहीं लग रही. ऐसे में इन दिग्गजों को जीत के लिए को जीतोड़ जुगत करनी पड़ रही है.

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