दरअसल, केरल में वाम मोर्चा सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच लड़ाई ने तब और तूल पकड़ लिया जब सरकार ने राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दाखिल कीं. पिनाराई विजयन की अगुआई वाली सरकार चाहती है कि कोर्ट राज्यपाल के लिए उनके कार्यालय में लंबित आठ विधेयकों पर फैसला लेने की "उचित समय सीमा" तय करे. इनमें पांच विधेयक विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़े हैं और दो साल से ज्यादा वक्त से खान की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं. अन्य तीन विधेयक एक साल से ज्यादा वक्त से उनके दफ्तर में पड़े हैं.
पिनाराई सरकार और राजभवन के बीच रिश्तों में तभी से तनाव है जब पिछले साल राज्यपाल ने नौ वाइस-चांसलरों की नियुक्ति में नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए उनके इस्तीफे मांगे थे. तनातनी की ताजातरीन घटना वह थी जब राज्यपाल ने केरलीयम सांस्कृतिक महोत्सव के आयोजन और मुख्यमंत्री के सरकारी आवास में स्विमिंग पुल के निर्माण सरीखी 'फिजूलखर्चियों' को लेकर बुरी तरह फटकारा और कहा कि यह सब ऐसे समय किया जा रहा है जब राज्य वित्तीय संकट से घिरा है. राज्य सरकार ने पलटवार करते हुए यह तथ्य लीक कर दिया कि राज्यपाल के दफ्तर ने राजभवन के खर्चों के लिए 36 गुना ज्यादा रकम की मांग की है. रिपोर्ट्स बताती हैं कि खान का दफ्तर मौजूदा 32 लाख रुपए के मुकाबले 2.6 करोड़ रुपए का सालाना आवंटन चाहता है.
सुप्रीम कोर्ट ने 10 नवंबर को जब राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने में इसी तरह की देरी के लिए पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित की खिंचाई की, तो वाम मोर्चा सरकार की बांछें खिल गईं. सीपीआई (एम) के एक बड़े नेता ने इन टिप्पणियों को विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों की 'गंदी राजनीति' के खिलाफ शीर्ष अदालत के मिजाज के तौर पर देखा.
केरल ने शीर्ष अदालत के समक्ष दो रिट याचिकाएं दायर की हैं. इनमें से एक विशेष अनुमति याचिका संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों के लिए विधेयकों पर मंजूरी देने या उन्हें लौटा देने की समय सीमा तय करने की मांग करती है. उधर, खान ने मीडिया से कहा कि उन्होंने मंजूरी देने में देरी इसलिए की क्योंकि "मुख्यमंत्री ने मुझे कभी सरकार के मामलों की जानकारी नहीं दी."
मगर मुख्यमंत्री यह मानने को कतई राजी नहीं. एक बार भी राज्यपाल का नाम लिए बगैर 8 नवंबर को उन्होंने मीडिया से कहा, ''यह दुर्भाग्यपूर्ण है. जब भी जरूरत पड़ी या संविधान की मांग हुई, मैंने हर बार उन्हें सरकार के मामलों के बारे में जानकारी दी. मैं भविष्य में भी उनसे मिलूंगा. मुझे लगता है कि विधेयकों को मंजूरी नहीं देने के पीछे उनका कोई निजी एजेंडा है.''
अपने ऊंचे ओहदे के काम से अलहदा मामलों में पड़ने की खान की फितरत भी परेशानी का सबब रही है. शाह बानो मामले को लेकर राजीव गांधी के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने वाले पूर्व कांग्रेसी खान कभी घुमा-फिराकर बात नहीं करते. लेकिन उनके कुछ ''भाजपा समर्थक'' माने गए (खान पार्टी के पूर्व नेता हैं) काम ने भी राज्य में थोड़ी-बहुत खलबली पैदा की. इनमें सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के खिलाफ राज्य सरकार के शीर्ष अदालत में जाने को लेकर उनका विरोध और राजभवन में स्टाफ के तौर पर भाजपा की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य की नियुक्ति शामिल है.
इस बीच सुप्रीम कोर्ट में दायर राज्य की याचिकाओं में कहा गया है कि विधेयकों पर अनिश्चित काल की देरी करके राज्यपाल ने ''संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हुए'' लोगों को उनके अधिकारों से वंचित किया है. सरकार ने शीर्ष अदालत का दरवाजा तब खटखटाया जब केरल हाइकोर्ट ने राज्यपाल के ''मनमाने'' कामों पर उसकी याचिका का निबटारा यह कहकर कर दिया कि राज्यपालों के लिए उनके संवैधानिक कामों की समय सीमा तय करना उचित नहीं होगा.
राज्यपाल का ताजा रुख यह है कि लंबित विधेयकों को मंजूरी तब तक नहीं देंगे जब तक मुख्यमंत्री उनसे नहीं मिलते. उनका कहना है, ''मैं रबर स्टाम्प नहीं हूं.'' जाहिर है, टकराव से दोनों पक्षों के स्याह चेहरे ही उभरते हैं.