
राजधानी हैदराबाद से 117 किलोमीटर दूर चहल-पहल भरे पोल्ट्री के गढ़ तथा जिला मुख्यालय कामारेड्डी में 9 अक्टूबर को गुलाबी रंग का सागर ठाठे मार रहा है. केसीआर नाम से चर्चित तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के पांच-मंजिला ऊंचे कटआउट सड़कों के किनारे कतार से लगे हैं. पार्टी का चुनाव चिह्न भी लगा है—हिंदुस्तान मोटर्स की पुरानी एंबेसडर जैसी कार.
हर चीज चटख गुलाबी रंग की है. यही उस पार्टी का रंग है जिसने राष्ट्रीय साख चमकाने के लिए पिछले साल नाम बदलकर भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) रख लिया. गुलाबी सार्वभौम शांति और प्रेम का प्रतीक है. यह चैन, करुणा और गर्मजोशी भी जगाता है. इसीलिए यह रंग केसीआर ने बीआरएस के लिए चुना.
सभा-स्थल पर बैंड वाले भी गुलाबी रंग में हैं. वे ऊंचे स्वरों में पार्टी के गाने गा-बजा रहे हैं, जिसमें केसीआर के कसीदे पढ़े गए हैं और जिसकी तान ऊंची उठते-उठते ''जय जय तेलंगाना’’ के आह्वान पर टूटती है. एक और लोकप्रिय गीत है— "एक दो तीन चार, देश का नेता केसीआर." इसमें उस शख्स की आकांक्षाओं को पिरोया गया है जिसने पहले राज्य के लिए आंदोलन की अगुआई की और 2014 से उसकी तकदीर को रास्ता दिखाते आ रहे हैं. अब वे 30 नवंबर को होने जा रहे तेलंगाना के चुनाव में मुख्यमंत्री के तौर पर तीसरा कार्यकाल हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.
इस बार 69 वर्षीय केसीआर ने कामारेड्डी से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया. 2014 और 2018 के विधानसभा चुनाव में केसीआर पड़ोसी सिद्धिपेट जिले की गजवेल सीट से चुनकर विधानसभा में पहुंचे थे. विपक्ष इसे केसीआर की असुरक्षा का संकेत मानता है. जनमत सर्वेक्षणों से भी उनके खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान की झलक मिलती है, जिसकी वजह से उनकी पार्टी 119 में से 2018 में जीती अपनी 88 से काफी कम सीटों पर सिमट सकती है.
हालांकि केसीआर असुरक्षा का कोई संकेत नहीं दिखाते. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, "केसीआर कभी परेशान नहीं होता. सत्ता समर्थक रुझान है". वे मानते हैं कि उनकी पार्टी की सेहत तंदुरुस्त और भली-चंगी है और वह आसानी से बहुमत के साथ वापसी करेगी. वे कहते हैं, "इस बार मेरी पार्टी की सीटें पहले से कहीं ज्यादा होंगी—95-100 सीटें. दो सीटों से लड़ने के पीछे मेरे अपने कारण हैं, जिनका खुलासा मैं नतीजों के बाद करूंगा."
कयास लगाए जा रहे हैं कि वे कामारेड्डी को 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने के आधार के तौर पर तैयार कर रहे हो सकते हैं. अगर उनकी पार्टी राज्य का चुनाव शानदार तरीके से जीत लेती है, तो केसीआर अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ा सकते हैं—अपनी बातचीत में उन्होंने इसकी तरफ बदस्तूर इशारा भी किया—हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह राज्य की कीमत पर कतई नहीं होगा.
बीआरएस की रणनीति
फिलहाल केसीआर कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. उन्होंने 119 में से 115 विधानसभा सीटों के लिए बीआरएस के उम्मीदवारों का ऐलान अगस्त में ही कर दिया था. ऐसा करते हुए वे अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वियों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से बहुत आगे थे, जिन्होंने अपने उम्मीदवारों की सूचियां नामांकन बंद होने की तारीख से कुछ ही हफ्तों पहले जारी कीं.
जनमत सर्वेक्षणों ने हालांकि भविष्यवाणी की कि बीआरएस के कई विधायकों के लिए दोबारा जीतकर आ पाना बहुत मुश्किल होगा, पर केसीआर ने उन्हें हटाया नहीं. उन्होंने अपने सभी मंत्रियों और वरिष्ठ विधायकों को टिकट दिए और महज सात सीटों पर बदलाव किए. विपक्ष ने इसे केसीआर की कमजोरी के संकेत के तौर पर देखा—विधायकों को दोबारा टिकट नहीं दिया तो बगावत का डर. मगर केसीआर ने यही कहा कि ये विधायक तेलंगाना राज्य के निर्माण में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे, और वैसे भी जब उनके पक्ष में लहर है तो उन्हें बदलने का कोई कारण उन्हें नहीं दिखता.

उम्मीदवारों की जल्दी घोषणा से बीआरएस ने अपना चुनाव अभियान भी काफी जल्द शुरू कर दिया. कांग्रेस और भाजपा हाथ-पैर मारते रह गए. बीआरएस की चुनाव रैलियों के अग्रिम मोर्चे पर केसीआर खुद थे. दीवाली के पहले ही वे 36 निर्वाचन क्षेत्रों में प्रजा आशीर्वाद सभाओं को संबोधित कर चुके थे. केसीआर को उम्मीद है कि 28 नवंबर को चुनाव प्रचार खत्म होने तक वे करीब 100 निर्वाचन क्षेत्रों तक पहुंच चुके होंगे, यानी रोज औसतन 3-4 रैलियां, महज उन नौ सीटों को छोड़कर जहां दोस्ताना पार्टी एआइएमआइएम या ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन चुनाव लड़ रही है.
अपनी रैलियों में केसीआर समय से पहुंचने की कोशिश करते हैं. भाषणों में वे तेलंगाना के विकास की कहानी और "अलग राज्य के लिए अपने संघर्ष और त्याग" की तरफ ध्यान दिलाते हैं, इस उम्मीद में कि मतदाताओं की भावनाओं को छू सकें. फिर वे निरंतरता के साथ बदलाव और जनकल्याण के बेहतर उपायों और रियायतों की थीम पर ध्यान केंद्रित करते हैं.
इसके बाद वे तेलंगाना को 'गुड टु ग्रेट’ या 'अच्छे से महान’ की ओर ले जाने के अपने अधूरे एजेंडे के लिए समर्थन मांगते हैं. यह उनका नया नारा है, जो उन्होंने इस बार अपने चुनाव अभियान के लिए गढ़ा है. दक्षिणी राज्यों को कोई सियासी सूरमा लगातार तीन कार्यकाल नहीं जीता और केसीआर को उम्मीद है कि 3 दिसंबर को जब वोटों की गिनती होगी, तो यह उनकी गौरवशाली उपलब्ध होगी.
हैट-ट्रिक लगाने के लिए केसीआर अपनी राजनैतिक समझदारी और कुशाग्र रणनीति पर भरोसा करके चल रहे हैं, जिसे उनकी केंद्रीयकृत शैली और शानदार प्रदर्शन का सहारा है. पार्टी ने बूथ समितियों को 100-100 मतदाताओं को आखिरी दिन तक कारणों और तर्क के साथ विश्वासपूर्वक यह समझाने का काम सौंपा है कि वे बीआरएस को वोट दें. वे मतदाताओं को सरकार के कामों के बारे में बताते हैं, और यह भी कि आगे क्या होने वाला है, और उनसे अपने निर्वाचन क्षेत्र में 2014 से पहले और उसके बाद हुए कामों की तुलना करने को कहते हैं.
ऊपर से देखने पर तो यही लगता है कि केसीआर ने चाकचौबंद काम किया है. यहां तक कि उन्होंने नजर रखने के लिए निर्वाचन क्षेत्र प्रभारी भी नामजद किए हैं. फिर भी सब कुछ इतना आसान नहीं होगा. यह मानते हुए कि जल्द शुरुआत का बड़ा फायदा बीआरएस के उम्मीदवारों को मिलेगा, नलसर यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ाने वाले हरथि वागीशन कहते हैं, "कमी बस यह है कि हैदराबाद सरीखी जगहों को छोड़ दें तो उनके पास वोटरों से कहने के लिए कुछ नया नहीं है. यही नहीं, बीआरएस के कई विधायक जमीन पर लोगों को गुस्सा झेल रहे हैं."
कांग्रेस का पुनर्जन्म
केसीआर का काम कठिन बनाएगी उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी, जो राज्य में एक किस्म के पुनर्जन्म से गुजर रही है. 2018 में कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति या टीआरएस—जो बीआरएस को उस वक्त कहा जाता था—के बीच वोट हिस्सेदारी में 18.5 फीसद अंकों का फर्क था.
इसलिए 2018 में 28.4 फीसद वोट (2014 में उसे मिले 25.2 फीसद से ज्यादा) हासिल करने के बावजूद, पार्टी ने महज 19 सीटें ही जीतीं. टीआरएस ने 46.9 फीसद वोटों के साथ 88 सीटें जीतीं, तो भाजपा करीब 7 फीसद वोट हिस्सेदारी के साथ महज एक सीट जीतकर तीसरे पायदान पर रही. हाल के जनमत सर्वेक्षण बताते हैं कि कांग्रेस ने बीआरएस के साथ वोटों का फासला काफी हद तक पाटा है.
कांग्रेस वाकई केसीआर के लिए चिंता की वजह होगी. पार्टी ने साल भर पहले ही अपनी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया था, पर कर्नाटक की शानदार जीत ने उसके पंखों में नया जोश भर दिया. कांग्रेस ने अब उस जीत के वास्तुशिल्पी—अव्वल चुनावी रणनीतिकार सुनील कानुगोलू—को तेलंगाना में तैनात किया है. प्रतिद्वंद्वी पार्टी के उम्मीदवारों को पस्त करने के लिए अपने अभियान के कंगूरे तय करने के लिए वह निर्वाचन क्षेत्र वार उनके मूल्यांकन पर भरोसा करके चल रही है.
पार्टी आलाकमान शुरुआत में दूसरी पार्टियों के दलबदलुओं को स्वीकार करना नहीं चाहता था, पर जब उन्हें बताया गया कि टीआरएस और भाजपा ने कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं को अपने पाले में शामिल कर लिया है, तो वे मान गए. समझा-बुझाकर और राजी करके पार्टी ने इस चुनाव में 30 दलबदलुओं को मैदान में उतारा है.
जिस एक और बात ने कांग्रेस के चुनाव अभियान में नई जान फूंक दी है, वह है उसके लोकसभा सांसद 54 वर्षीय ए. रेवंत रेड्डी का जुझारू नेतृत्व, जिन्हें जून 2021 में तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी (टीपीसीसी) का अध्यक्ष बनाया गया था. उन्होंने एन. उत्तम कुमार की जगह ली थी, जिन्होंने 2016 में सार्वजनिक रूप से कसम खाई थी कि वे अपनी दाढ़ी तब तक नहीं बनवाएंगे जब तक कांग्रेस सत्ता में नहीं आती.
हुआ बस इतना कि उनका दाढ़ी वाला चेहरा पार्टी की लाचारी और कमजोरी का प्रतीक बन गया. दूसरी तरफ रेवंत सड़कों पर लड़ने और तीखा बोलने वाले तेज-तर्रार नेता हैं. उन्हें आक्रामक, वाक्पटु, जमीन से जुड़ा और करिश्माई नेता माना जाता है, जो केसीआर को उन्हीं की जबान में जवाब दे सकता है.
रेवंत की तेलंगाना के मुख्यमंत्री से एक पुरानी अदावत भी है. 2015 में उन्होंने राज्य के ऐंटी-करप्शन ब्यूरो की तरफ से उन पर मनोनीत विधायक को घूस देने का आरोप लगाए जाने के बाद उन्हें गिरफ्तार करवाया था. एक महीने से ज्यादा जेल में रहने के बाद ही उन्हें जमानत मिल सकी थी.
कांग्रेस अपनी उन 'गारंटियों’ का भी फायदा उठा रही है जिनके बूते उसने पड़ोसी कर्नाटक में जीत हासिल की थी. केसीआर अपनी जनकल्याण योजनाओं पर इठला रहे हैं, तो कांग्रेस उनका मुकाबला अपनी छह गारंटियों से कर रही है, जिनकी घोषणा कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सितंबर में हैदराबाद की एक रैली में की थी.
इनमें सबसे पहले महिलाओं को रिझाने के लिए महालक्ष्मी है, जिसमें उन्हें हर माह 2,500 रुपए दिए जाएंगे. फिर राज्य परिवहन की बसों में उनके लिए मुफ्त यात्रा और 500 रुपए में गैस सिलेंडर है. केसीआर की रायतु बंधु योजना की काट के लिए कांग्रेस ने किसानों को 15,000 रुपए की सालाना वित्तीय सहायता देने का वादा किया है, जो केसीआर की गारंटी की गई रकम से 5,000 रुपए ज्यादा है.कांग्रेस ने खेतिहर मजदूरों को भी साल में 12,000 रुपए देने का वादा किया है, जो केसीआर की योजनाओं में शुमार नहीं है.
कांग्रेस तेलंगाना के शिल्पकार होने के केसीआर के दावे पर भी हमला कर रही है. वह जोर देकर कह रही है कि अगर कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने अलग राज्य नहीं दिया होता, तो तेलंगाना नहीं होता. देश की सबसे पुरानी पार्टी दरअसल केसीआर पर विश्वासघात का आरोप लगा रही है और कह रही है कि उन्होंने अलग राज्य की मांग मान लिए जाने पर अपनी पार्टी के विलय का वादा किया था, पर बाद में मुकर गए.
केसीआर से पूछिए, तो अपनी बातचीत में वे कहते हैं कि विश्वासघात तो खुद कांग्रेस ने ही किया. जो बात कांग्रेस के लिए नुक्सानदेह साबित हो सकती है, वह है ओबीसी (अन्य पिछड़े वर्ग) को बड़ी तादाद में टिकट नहीं दे पाना. विश्लेषकों का मानना है कि अगर चुनाव प्रचार के आखिरी पखवाड़े में सत्ता-विरोधी रुझान का ज्वार नहीं उमड़ता है, तो कांग्रेस जीत की बढ़त गंवा सकती है.
भाजपा का दोहरापन
कांग्रेस ने बीआरएस के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपनी स्थिति मजबूत की है, मगर भाजपा की हालत डांवाडोल है. भगवा पार्टी का ग्राफ पिछले पांच वर्षों में राज्य में बढ़ता हुआ लग रहा था. उसने दिसंबर 2020 में ग्रेटर हैदराबाद नगर परिषद (जीएचएमसी) चुनावों में कुल 150 में 48 सीटों पर अच्छी जीत हासिल की थी. उसने दुब्बाका और हुजूराबाद के दो विधानसभा उपचुनाव भी जीते. हुजूराबाद में नवंबर 2021 में भाजपा में आए टीआरएस के संस्थापक नेताओं में एक तथा पिछड़े वर्ग के प्रमुख चेहरे एटेला राजेंदर जीते थे.
भाजपा की हवा तब और तेज होती दिखी, जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने नवंबर 2022 में केसीआर की बेटी तथा अब निजामाबाद से एमएलसी के. कविता को नोटिस भेजा. उन पर दिल्ली शराब घोटाले में कथित संलिप्तता का आरोप है, जिसमें मनी-लॉन्ड्रिंग शामिल थी. भाजपा भले इनकार करे, मगर ईडी मामले को काफी हद तक केसीआर को निशाना बनाने और उनकी छवि खराब करने की कोशिश की तरह देखा गया.
फिर, अचानक बिना किसी सफाई के भाजपा केसीआर पर नरम हो गई. चुनाव से चार महीने पहले, जुलाई 2023 में पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष तेजतर्रार बंडी संजय कुमार को हटा दिया, जो केसीआर की नाकामियों पर आकर्षक शब्दावली में खुलकर हमलावर थे. उनकी जगह केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी को लाया गया, लेकिन उन्हें मंत्री पद से मुक्त नहीं किया गया, इसलिए इसे अस्थायी व्यवस्था माना जा रहा है.
फिर, सितंबर में ईडी कविता को सुप्रीम कोर्ट में 20 नवंबर को सुनवाई तक न बुलाने पर राजी हो गई. इन दोनों घटनाक्रमों से यह धारणा बनी कि भाजपा केसीआर पर नरम हो गई है. कई जानकारों को लगता है कि भगवा पार्टी कांग्रेस को जीतने देने के बजाए बीआरएस का समर्थन करना चाहेगी, इसलिए कोशिश केसीआर को और कमजोर न करने की है.
हालांकि, पिछले डेढ़ महीने से भाजपा ने इस धारणा से पीछा छुड़ाने की कोशिश की है कि वह अंदरखाने बीआरएस का समर्थन कर रही है. अक्तूबर की शुरुआत में निजामाबाद की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि 2020 में जीएचएमसी चुनावों में बीआरएस के खराब प्रदर्शन के बाद केसीआर ने एनडीए में शामिल होने के लिए उनसे संपर्क किया था.
प्रधानमंत्री ने यह भी खुलासा किया कि केसीआर ने उनसे कहा था कि वे 70 साल के होने वाले हैं, इसलिए अपने बेटे के.टी. रामाराव (केटीआर) को मुख्यमंत्री बनाकर संन्यास लेने की सोच रहे हैं. इंडिया टुडे के साथ बातचीत में इसके बारे में पूछे जाने पर, केसीआर ने प्रधानमंत्री पर "सुविधाजनक कहानियां गढ़ने" और राजनैतिक लाभ के लिए निजी अनौपचारिक बातचीत को उजागर करने की हद तक नीचे गिरने का आरोप लगाया.
भाजपा केसीआर पर परिवारवाद और भाई-भतीजावाद का भी आरोप लगाती है. पार्टी का कहना है कि केसीआर के बेटे केटीआर बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष तथा उद्योग मंत्री हैं, जबकि बेटी कविता अब एमएलसी हैं. फिर भतीजे टी. हरीश राव स्वास्थ्य और वित्त मंत्री हैं.
दूसरे भतीजे जे. संतोष कुमार राज्यसभा सदस्य हैं, जो केसीआर की मदद करते हैं, और तीसरे भतीजे के. वामशीधर राव को जुलाई में महाराष्ट्र का पार्टी प्रभारी नियुक्त किया गया. केसीआर ने भाजपा पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगाया और हाल ही में कर्नाटक में बी.वाइ. विजयेंद्र को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाने का हवाला देते हैं, जो पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के बेटे हैं.
इस बीच, भाजपा के ताकतवर नेता अमित शाह ने ऐलान किया कि अगर पार्टी जीतती है तो ओबीसी मुख्यमंत्री बनाएगी. यह राज्य के 52 फीसद ओबीसी मतदाताओं को लुभाने की रणनीति है. यह अगड़ी जाति और सामंती पृष्ठभूमि के केसीआर और कांग्रेस के रेवंत के बरअक्स माहौल बनाने की कोशिश है. केसीआर वेलामा समुदाय से हैं और रेवंत रेड्डी हैं.
शाह की कोशिश उस तथ्य को हवा देने की है कि आजादी के बाद से किसी भी तेलुगु राज्य में ओबीसी मुख्यमंत्री नहीं बना है. इसी वजह से शायद भाजपा ने 36 ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जो बीआरएस और कांग्रेस दोनों के 23-23 उम्मीदवारों से काफी अधिक है. भाजपा अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सभी सीटों की दौड़ में भी है. हाल में मोदी ने राज्य के प्रमुख एससी समुदाय मडिगा को आश्वासन दिया कि वे आरक्षण में वर्गीकरण के तरीके ईजाद करेंगे, ताकि उन्हें उचित हिस्सा मिल सके.
वैसे, तमाम आक्रामकता और रणनीतिक कोशिशों के बावजूद भाजपा के लिए केसीआर के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में कांग्रेस की जगह लेना मुश्किल दिखता है. दूसरे राज्यों की तरह भगवा पार्टी तेलंगाना में भी मोदी की छवि और केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं के भरोसे है. फिर भी राज्य भाजपा प्रमुख रेड्डी, ओबीसी मोर्चा प्रमुख के. लक्ष्मण, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डी.के. अरुणा और भाजपा के मध्य प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव सहित कई वरिष्ठ नेता विधानसभा चुनाव में नहीं उतरे. हालांकि भाजपा केंद्रीय चुनाव समिति फैसला ले चुकी थी कि सभी सांसदों, विधायक और वरिष्ठ नेताओं के लिए चुनाव लड़ना अनिवार्य होगा.
केसीआर राज्य में भाजपा को बेमानी बताकर खारिज कर देते हैं और दावा करते हैं कि उसे एक भी सीट जीतने में मुश्किल होगी. दरअसल, वे कांग्रेस पर ही हमलावर हैं. उन्होंने कांग्रेस को "फ्लॉप पार्टी" बताया, जिसमें "राष्ट्रीय पार्टी होने के चरित्र का अभाव है" और उनकी दलील है कि कांग्रेस की विचारधारा हर राज्य में बदल जाती है.
केसीआर की गारंटियां
बयानबाजी से इतर केसीआर तीव्र और समावेशी विकास के तेलंगाना मॉडल की वकालत कर रहे हैं. उन्होंने 2014 में कुर्सी संभाली, तो पड़ोसी राज्यों से घिरा तेलंगाना दक्कन के पठार का कमोबेश एक बंजर इलाका था और लोग सिर्फ कृषि पर निर्भर थे. हैदराबाद को छोड़कर राज्य में कोई दूसरा समृद्ध शहरी केंद्र नहीं था. राज्य में बहने वाली दो प्रमुख नदियों कृष्णा और गोदावरी की सतह नीची होने के मद्देनजर सिंचाई के लिए पानी निकालना महंगी लिफ्ट सिंचाई विधि से ही संभव है.
केसीआर ने व्यापक आंकड़े पेश किए कि कैसे उन्होंने देश के सबसे नए राज्य को बदल दिया है. पहले कार्यकाल से सिंचाई और बिजली आपूर्ति पर जोर देने के साथ-साथ किसानों को सालाना 10,000 रुपए प्रति एकड़ की मदद देने की नीति अपनाई है. इन दोनों उपायों ने कभी बंजर राज्य को दक्षिण का चावल का कटोरा बना दिया है. कृषि उपज 2014 में 1.54 करोड़ टन से बढ़कर अब 3.78 करोड़ टन हो गया है. प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 2,126 यूनिट है, जो राष्ट्रीय औसत 1,255 यूनिट से 70 फीसद अधिक है. नई प्रोत्साहन योजनाओं और मैन्युफैक्चरिंग तथा सेवा क्षेत्र की इकाइयों की फटाफट मंजूरी से उद्योग भी विकसित हुआ है.
लिहाजा, तेलंगाना का सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 2014-05 में 5 लाख करोड़ रुपए से दोगुना से अधिक होकर 2022-23 में 12.9 लाख करोड़ रुपए हो गया है. गठन के बाद से राज्य की विकास दर औसतन 12.7 फीसद सालाना रही है, जो राष्ट्रीय औसत 10.5 फीसद के इस साल के बजटीय अनुमान से 2.2 फीसद अंक अधिक है.
प्रति व्यक्ति आय 2013-2014 में 1.12 लाख रुपए से बढ़कर 2022-23 में 3.12 लाख रुपए हो गई है, जो किसी भी बड़े राज्य से अधिक है. ये शानदार आंकड़े केसीआर की तीसरे कार्यकाल की संभावनाओं को बढ़ा सकते हैं. उन्होंने विकास और कल्याणकारी उपायों दोनों मोर्चों पर अपनी उपलब्धियों को प्रचारित करने के लिए एक मजबूत तंत्र स्थापित किया है.
केसीआर बनाम केसीआर
इन सबके बावजूद 2023 केसीआर के लिए पिछले दो चुनावों के मुकाबले अधिक कठिन होगा. 2014 में नए राज्य की सहानुभूति केसीआर के लिए स्वाभाविक मददगार बनी. 2018 में रायतु बंधु योजना की सफलता ने उन्हें वापस सत्ता दिला दी. लेकिन इस बार, कांग्रेस और भाजपा दोनों ने भ्रष्टाचार और परिवारवाद के साथ-साथ सार्वजनिक भर्ती परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों के लीक होने का मामला जोर से उठाया है.
कांग्रेस के एक रणनीतिकार कहते हैं, "यह चुनाव पूरी तरह से केसीआर बनाम केसीआर है." वागीशान कहते हैं, "केसीआर का दूसरा कार्यकाल विपक्ष विरोधी सख्त रणनीतियों और सिविल सोसाइटी संगठनों को कमजोर करने वाला रहा है. उनका सर्वज्ञ होने का रवैया राजकाज में बाधा बना है."
दरअसल, केसीआर के खिलाफ एक आम शिकायत यह है कि वे मनमौजी हैं और किसी की नहीं सुनते, यहां तक कि अपने बेटे केटीआर की भी नहीं. उनका राजकाज भी बहुत अधिक केंद्रीकृत माना जाता है. हालांकि केसीआर का कहना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इससे प्रशासन का काम आसान हो जाता है. इसके अलावा, फिजूलखर्ची और लोकलुभावनवाद ने राज्य के खजाने पर काफी दबाव डाला है और कर्ज का बोझ बढ़ा दिया है, जो लंबी अवधि में विकास के लिए सही नहीं है.
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के 2021-22 के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य पर कुल 3.2 लाख करोड़ रुपए (जीएसडीपी का 28 फीसद) की देनदारियां थीं. यह राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम, 2003 के तहत राज्यों के लिए निर्धारित 20 फीसद मानदंड से काफी ऊपर है.
राज्य की कर्ज की स्थिति के बचाव में केटीआर का कहना है कि तेलंगाना का निवेश बिजली, सिंचाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में है. वे कहते हैं, "जीवन की गुणवत्ता, बीमारी की रोकथाम और आर्थिक राहत पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है." वे तेलंगाना के वर्तमान कर्ज-जीडीपी अनुपात 25 फीसद की तुलना देश के 60 फीसद से करते हैं.
एक और मुद्दा बीआरएस के लिए मुसीबत बन गया है. अक्टूबर में 80,000 करोड़ रुपए की कालेश्वरम लिफ्ट सिंचाई योजना (केएलआइएस) के मेडीगड्डा बैराज के कुछ खंभे ढह गए. कांग्रेस और भाजपा दोनों का कहना है कि केएलआइएस बीआरएस के प्रथम परिवार के लिए दूधारू गाय रही है. राष्ट्रीय बांध सुरक्षा प्राधिकरण (एनडीएसए) ने खामियों की ओर इशारा किया, लेकिन बीआरएस का कहना है कि उसके निष्कर्ष राजनीति प्रेरित हैं.
उनकी कल्याणकारी योजनाओं की भी आलोचना होती है. इनमें गरीबों के लिए 2 बीएचके आवास योजना भी शामिल है. आंकड़े बताते हैं कि स्वीकृत 2,92,000 घरों में से अब तक सिर्फ 1,80,000 ही पूरे हो पाए हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय के ई. वेंकटसु कहते हैं, "कुछ कल्याणकारी योजनाओं पर धीमे अमल, सरकारी बिजली वितरण संस्थाओं की कार्यप्रणाली, हैदराबाद और उसके आसपास विकास पर अधिक जोर और बंपर धान उपज के लिए बाजार न होने से ग्रामीण मतदाताओं का मोहभंग हो गया है."
फिर, युवा वर्ग की नाराजगी किसी भी पार्टी को महंगी पड़ सकती है. 35 वर्ष से कम उम्र के लोग चुनाव परिणामों को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकते हैं और इस आयु वर्ग में तेलंगाना के कुल 3 करोड़ मतदाताओं में 30 फीसद से अधिक हैं. इनमें करीब 8 लाख युवा 18-19 वर्ष आयु वर्ग में हैं जबकि अन्य 75 लाख 19-35 वर्ष आयु वर्ग में हैं.
केसीआर का दावा है कि उन्होंने तेलंगाना में बेरोजगारी दर को काफी कम कर दिया है, लेकिन युवाओं के लिए नौकरियां राज्य में एक बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं. इसे भुनाने की उम्मीद में कांग्रेस खासकर बेरोजगारी के मुद्दों को खूब उछालती है, यहां तक कि पार्टी ने आत्महत्या की वारदातों के लिए सरकारी रिक्तियों को भरने में नाकामी और 3,016 रुपए प्रति माह बेरोजगारी भत्ता देने के 2018 के चुनावी वादे पर पूरा न उतरने का आरोप लगाया है.
बहरहाल, घूमड़ रहे बवंडर के बावजूद, केसीआर शांत और चैन में दिखाई देते हैं. उनके मन में जरा भी संदेह नहीं है कि वे तीसरी बार सत्ता में आएंगे. थकाऊ प्रचार के बाद वे हैदराबाद के बाहरी इलाके में अपने फार्महाउस में लौट आते हैं. रात में वे देंग शियाओपिंग की जीवनी पढ़ते हैं, जो एक समय चीन के सर्वोच्च नेता थे और अपने देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. केसीआर की नजर भविष्य में राष्ट्रीय भूमिका पर है. अगर राज्य में तीसरी बार जीतें, तो भविष्य की राह शायद आसान हो जाए.