नवंबर की 7 तारीख को जब बिहार विधानसभा में जाति आधारित गणना के आर्थिक आंकड़े पेश किए गए तो ऐसा लगा कि इन आंकड़ों के बहाने जातियों की रस्साकशी खूब बढ़ेगी. यह बहस भी तेज होगी कि आजादी के बाद किस जाति की स्थिति कितनी बदली है. मगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जैसे ही आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 75 फीसद करने की घोषणा की, पूरी बहस आरक्षण पर केंद्रित हो गई.
मुख्यमंत्री ने न सिर्फ आरक्षण का दायरा बढ़ाने का दांव खेला, बल्कि गरीबों की मदद के लिए भी पैकेज की घोषणा कर डाली. उन्होंने कहा, "इन आंकड़ों में 94 लाख परिवार गरीब पाए गए हैं. इनके पास कोई रोजगार नहीं है. ऐसे में सरकार इन्हें कम से कम दो लाख रुपए की मदद राशि देगी ताकि वे अपने लिए रोजगार का इंतजाम कर सकें. राज्य में अभी भी 63,850 परिवार आवास हीन हैं. सरकार इन सभी को आवास देगी."
माना जा रहा है कि एक तरह से इन घोषणाओं के जरिए मुख्यमंत्री ने उन तथ्यों पर पर्दा डालने की कोशिश की है, जो बिहार की बदहाल व्यवस्था और एक तरह से उनकी सरकार की नाकामी की भी कहानी कहते हैं. जाति गणना के इन आर्थिक आंकड़ों में जो जानकारी सबसे परेशान करने वाली है, वह यह है कि आज भी राज्य के 34.13 फीसद परिवार गरीब हैं.
जबकि देश में गरीबों की संख्या 16.4 फीसद के आसपास है. बिहार में सामान्य वर्ग की गरीबी भी राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक 25.9 फीसद है. अनुसूचित जाति और जनजाति के बीच तो अभी भी 42 फीसद से अधिक गरीबी है. ओबीसी और ईबीसी जातियों के बीच गरीबी भी 33 फीसद से अधिक है. राज्य के सिर्फ 3.90 फीसद परिवार ही 50 हजार रुपए प्रति माह से अधिक कमा पाते हैं, जबकि दो-तिहाई परिवारों की मासिक आमदनी 10 हजार रुपए से भी कम है.
दूसरा परेशान करने वाला आंकड़ा आवास का है. राज्य में आज भी सिर्फ 36.76 फीसद परिवार ही दो कमरे के पक्के मकान में रह पा रहे हैं, जबकि 40.36 फीसद परिवार कच्चे घरों में रहने को विवश हैं. भले सरकार रोजगार का कितना भी ढिंढोरा पीट ले, मगर राज्य में सबसे बड़ा रोजगार आज की तारीख में मजदूरी है, खेती भी नहीं. 32.46 फीसद आबादी कमाऊ है, जिनमें 16.73 फीसद यानी आधे से अधिक मजदूरी करते हैं. इसके करीब आधी यानी 7.70 फीसद आबादी ही खेती में जुटी है.
शिक्षा का हाल भी बहुत संतोषजनक नहीं है. राज्य की लगभग नौ फीसद आबादी ही ऐसी है, जो इंटरमीडिएट से आगे की पढ़ाई कर पाई है. जाहिर है, ये आंकड़े सरकार के लिए सहज करने वाले नहीं हैं. इस मसले पर ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डी.एम. दिवाकर कहते हैं, "वैसे तो आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं, मगर छन-छनकर जो सूचनाएं आ रही हैं, वे बिहार की बदहाल स्थिति की तरफ इशारा कर रही हैं. सरकार ने सोचा नहीं होगा कि ये तथ्य भी सामने आएंगे. एक तो इन तथ्यों को सार्वजनिक नहीं किया गया, दूसरा कई घोषणाओं के जरिए इस पर पैबंद लगाने की कोशिश की जा रही है. बिहार का रोग पैबंद से ठीक नहीं होगा. इसके लिए सरकार को समावेशी विकास प्रक्रिया अपनानी होगी."
इसके अलावा भी नीतीश कुमार ने विधानसभा में कई तथ्यों को अनदेखा छोड़ दिया है. उन्होंने आरक्षण का दायरा बढ़ाने की घोषणा तो की, मगर यह नहीं बताया कि आखिर इस नए कोटे में ओबीसी और ईबीसी की हिस्सेदारी कितनी होगी. हालांकि बाद में कैबिनेट में तय हुआ कि ईबीसी का कोटा 25 फीसद प्रस्तावित होगा और ओबीसी का 18 फीसद.
इस मुद्दे पर अति पिछड़ा पदाधिकारी-कर्मचारी संगठन के संयोजक विजय कुमार चौधरी कहते हैं, "ईबीसी का कोटा बढ़ना चाहिए, क्योंकि ये जातियां गरीब हैं. मगर न भी बढ़े तो 2:3 के अनुपात में तो होना ही चाहिए, जितना पहले था. अगर ऐसा होगा तब भी ईबीसी रिजर्वेशन 27 फीसद देना चाहिए." वे इन आंकड़ों पर भी सवाल उठाते हैं कि आखिर ईबीसी और ओबीसी जाति की गरीबी एक बराबर कैसे हो गई. वे कहते हैं, "यह तो सब मानते हैं कि ईबीसी जातियां अधिक गरीब हैं, बनिस्बत ओबीसी के."
क्या नए आंकड़ों को देखते हुए जातियों की श्रेणी भी बदली जाएगी, इस बात को भी साफ नहीं किया गया. क्योंकि हर श्रेणी में कुछ जातियां अधिक संपन्न हैं. जैसी ओबीसी में बनिया और सुनार जाति, ईबीसी में दांगी जाति. अति पिछड़ी जातियां लंबे अरसे से तेली, तमोली और दांगी जाति को बाहर करने की मांग करती रही हैं. पूर्व डिप्टी सीएम एवं भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी कहते हैं, "देश जब से आजाद हुआ तो इन्हीं तीन दलों कांग्रेस, राजद और जदयू ने ही राज किया. हम तो बस कुछ दिनों सहयोगी की भूमिका में रहे. ऐसे में जो आंकड़े सामने आए हैं, वे दिखाते हैं कि ये तीनों बिहार को विकसित राज्य बनाने में फेल हो गए."
वहीं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी तंज करते हुए कहते हैं, "बिहार में 45.54 फीसद मुसहर और 46.45 फीसद भुइयां अमीर हो गए. यह तो बड़ा बदलाव हो गया. मैं कहता हूं राज्य के किसी प्रखंड में आप सौ मुसहर या भुइयां परिवार को अमीर बता दें, तो समझूं!"
वे जाति गणना की आर्थिक रिपोर्ट को भी फर्जी बताते हैं और कहते हैं कि इस बहाने खजाने की लूट हुई है. वहीं भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल कहते हैं, "रिपोर्ट यह बताती है कि शिक्षा और रोजगार में दलित-अत्यंत पिछड़ी जातियों की भागीदारी अभी भी बहुत कम है. वे जिस जमीन पर बसे हैं, उसी का मालिकाना हक उनके पास नहीं है. हमारी मांग है कि सरकार जमीन की मिल्कियत की रिपोर्ट को भी सार्वजनिक करे." इन सवालों के बीच नीतीश का दांव उल्टा भी पड़ सकता है.