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कश्मीरी सेब की किसने छीन ली मिठास?

मौसम का बदलता मिजाज भारतीय सेबों की फसल बुरी तरह बर्बाद कर रहा है. यह न केवल उनका सुर्ख रंग बल्कि गुणवत्तापूर्ण मिठास भी छीन रहा है

बर्बाद हो चुके फलों के साथ बिलाल अहमद कुरैशी, कोलीपोरा, बडगाम
बर्बाद हो चुके फलों के साथ बिलाल अहमद कुरैशी, कोलीपोरा, बडगाम
अपडेटेड 17 नवंबर , 2023

पहलगाम के ब्रिधाजी गांव के अन्य लोगों की तरह 54 वर्षीय मोहम्मद रजब ने भी 2005 में मक्के की खेती छोड़कर अपनी 4.5 कनाल भूमि पर सेब के पेड़ लगा दिए. सेब की खेती ने 150 घरों वाले इस गांव में उनके कई पड़ोसियों की किस्मत ही बदल दी थी. इनमें कई लोगों ने 2000 के बाद ही अपने मक्के के खेतों को सेब के बगीचों में तब्दील कर दिया था.

रजब सेब के पेड़ों की देखभाल के लिए सुबह जल्दी ही अपने बगीचे में पहुंच जाते. नियमित तौर पर कीटनाशक और पोषक तत्वों का छिड़काव करते और पेड़ों के बीच 10 से 20 फुट दूरी रखने जैसे वैज्ञानिक तरीके भी अपनाते. और जब सेब फलने लगता तब उन्हें जंगली भालुओं से बचाने के लिए रात भर बगीचे में रुककर पहरेदारी भी करते.

रजब बताते हैं, "मैंने बगीचे को एकदम बच्चे की तरह पाला-पोसा है." इस उम्मीद के साथ कि गुणवत्तापूर्ण सेबों की उपज उन्हें अच्छा लाभ दिलाएगी. हालांकि, पिछले तीन साल में बार-बार हुए आर्थिक नुक्सान ने रजब को सेब की खेती करने पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर कर दिया है.

रजब बताते हैं, "मौसम में अचानक होने वाला बदलाव- जैसे सुबह-शाम बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि हो जाना- पेड़ों के फलने के समय काफी नुक्सानदेह साबित होता है. इसके अलावा बीमारियों के प्रकोप ने भी यहां खेती को अस्थिर कर दिया है." 2020 तक रजब अपने बगीचे में 450 पेटी 'डिलीशियस' किस्म के सेब उगा लेते थे, जिससे उन्हें सालाना लगभग 2.5 लाख रुपए की कमाई होती थी.

लेकिन अक्टूबर 2021 के शुरू में हुई बर्फबारी ने पूरी घाटी में सेब के बगीचों को तबाह कर दिया. रजब के बगीचे को पहुंचा नुक्सान अब भी साफ देखा जा सकता है, जहां करीब 70 पेड़ नट और बोल्ट के सहारे खड़े हैं. अब, बुरी तरह हताश हो चुके पांच बच्चों के पिता रजब कहते हैं, "तब से मेरे बगीचे में 35 फीसद भी फल नहीं आते. हम सेब के इन 100 पेड़ों को काटकर जलावन लकड़ी के रूप में इस्तेमाल करेंगे. आर्थिक नुक्सान को देखते हुए मेरा परिवार नहीं चाहता कि मैं और सेब उगाऊं. दूसरों की तरह मैं भी अगले साल अखरोट के पेड़ लगाने की सोच रहा हूं. उन्हें सेब की तरह कीटनाशक या इतनी देखभाल की जरूरत नहीं होती और न ही मौसम का उतार-चढ़ाव ही ज्यादा असर डालता है."

भारत में सेब की पैदावार 24 लाख टन है

इसमें दो राय नहीं कि अनियमित मौसम क्षेत्र के लाखों लोगों की आजीविका छीन रहा है. सर्दियां गर्म हो रही हैं और गर्मियों में बेतहाशा तीखी धूप और बेमौसम बारिश हो रही है, जिससे कृषि और इससे जुड़ी तमाम गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं. मौसम विज्ञान विभाग के क्षेत्रीय केंद्र के आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि पिछली सदी में 0.8 डिग्री से 0.9 डिग्री सेल्सियस की वैश्विक वृद्धि की तुलना में जम्मू-कश्मीर में तापमान एक डिग्री से अधिक बढ़ गया है.

वहां पारा अक्सर 20 से 25 डिग्री के पहले के सामान्य तापमान के मुकाबले 30 डिग्री तक पहुंच जाता है. जम्मू-कश्मीर में बारिश में भी 25 फीसद की कमी आई है, अगस्त-सितंबर (फसल के मौसम) में करीब 209 मिमी बारिश ही दर्ज हुई, जबकि आमतौर पर अगस्त-सितंबर में औसतन 280 मिमी बारिश होती है. कम बारिश पीने और सिंचाई के लिए पानी की कमी की भी वजह बन रही है. क्षेत्र में सिंचाई के प्रमुख स्रोत झेलम में जल प्रवाह 70 साल के सबसे निचले स्तर पर है.

भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) और बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड साइंस (बिट्स), पिलानी की तरफ से 'भारतीय वनों में जलवायु परिवर्तन के हॉटस्पॉट का मानचित्रण' शीर्षक से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 2030 तक जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में गर्मी और बढ़ने का अनुमान है. अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि इन हिमालयी राज्यों में 2030, 2050 और 2085 में तापमान में 'सर्वाधिक वृद्धि’ होगी और बारिश में बेहद कम वृद्धि होगी, या फिर कभी-कभी गिरावट भी नजर आ सकती है.

जलवायु परिवर्तन कृषि भूमि को बागवानी में इस्तेमाल करना शुरू होने का एक प्रमुख कारण था क्योंकि इसमें तुलनात्मक रूप से कम सिंचाई की जरूरत पड़ती है. कश्मीर यूनिवर्सिटी के भू-सूचना विज्ञान विभाग ने अमेरिका के डुडले स्थित निकोलस कॉलेज के पर्यावरण विज्ञान विभाग के साथ मिलकर 2020 में 'ग्लेशियर घटने, पीछे खिसकने और बदलते जलधारा पैटर्न के हालिया घटनक्रम को भारत के हिमालयी क्षेत्र कश्मीर के भूमि क्षेत्र में बदलाव के साथ जोड़कर’ एक अध्ययन किया, जिसमें पाया गया कि भूमि व्यवस्था में बदलाव का सेब की बागवानी और उससे होने वाले आर्थिक लाभ पर काफी असर पड़ा है. आंकड़े दर्शाते हैं कि 1980 से 2017 के बीच सिंचाई आधारित कृषि क्षेत्र में 39 फीसद की कमी आई है जबकि बागों का 177 फीसद विस्तार हुआ है.

हालांकि, कश्मीर स्थित शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के कृषि विज्ञान प्रोफेसर आशिक हुसैन कहते हैं कि मौसम के बदलते मिजाज का असर अब बागवानी क्षेत्र पर भी पड़ रहा है. मसलन, सेब की कलियां या फूल लगने के लिए सर्दियों में 1,400 घंटे 0-7 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है.

लेकिन, "सर्दियों के तापमान में वृद्धि होने की वजह से वसंत में फूटे फूल या कलियां गिर जाती हैं. इसी तरह, जब गर्मियों में तापमान और आर्द्रता बढ़ती है तो हम फसलों पर कीट-पतंगों जैसी बीमारियों का प्रकोप देखते हैं. इससे गुणवत्ता तो खराब होती ही है, उपज भी घट जाती है." उन्होंने बताया कि अभी उच्च तापमान और शुष्कता की वजह से आधे फल गिर चुके हैं और जो बाकी बचे हैं, वे उतनी रसीले नहीं रह गए हैं.

भारत में सालाना 24 लाख टन सेब का उत्पादन होता है. यहां सेब की खेती का कुल क्षेत्रफल 2 लाख हेक्टेयर से अधिक है, और जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड प्रमुख सेब उत्पादक राज्य हैं. कुल उपज का 75 फीसद उत्पादन अकेले कश्मीर करता है. इस साल सेब उत्पादकों की ट्रेड यूनियन और कमिशन एजेंट 40 फीसद की गिरावट का अनुमान लगा रहे हैं. फल की खास पहचान बने सुर्ख लाल रंग, रस की मात्रा और चमक में भी कमी साफ नजर आ रही है.

कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के हिल स्टेट्स हॉर्टिकल्चर फोरम के संयोजक हरीश चौहान किसानों को हुए भारी घाटे पर खासी निराशा जताते हैं. हिमाचल में पहले तो शुरुआती बारिश की कमी से फूल और कलियां झड़ गईं, और फिर बाढ़ ने करीब 10 फीसद बगीचे तबाह कर दिए. 27 किसान संगठनों के समूह संयुक्त किसान मोर्चा के सहसंयोजक चौहान कहते हैं, "पेड़ों पर जो कुछ बचा रह गया था, उसे बाढ़ ने बर्बाद कर दिया. दूसरी तरफ कश्मीर में सेबों की तुड़ाई चल रही है लेकिन वहां भी कीट-पतंगों और अनियमित मौसम की वजह से वार्षिक उत्पादन में 40 फीसद की गिरावट का अनुमान है. दोनों जगह किसानों को भारी नुक्सान हो रहा है. हम चाहते हैं कि सरकार हिमाचल में बाढ़ से नुक्सान की भरपाई के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करे. साथ ही बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआइएस) और उत्पादकों के लिए फसल बीमा भी घोषित करे."

प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव दिखता है. उत्तरी कश्मीर के निहालपोरा निवासी मुश्ताक अहमद के चार कनाल के बगीचे के लगे 100 पेड़ों से कभी 400 पेटी सेब होते थे, जिनमें लाल 'डिलीशियस’ और बड़े और चमकीले लाल रंग वाले महाराजी शामिल होते थे. लेकिन बेमौसम और लगातार बारिश और फिर अभी सूखे जैसी स्थिति की वजह से फलों का आकार छोटा रह गया है और रंग भी पीला-पीला हो गया है.

यही नहीं उत्पादन भी घटकर आधा ही रह गया है. दोपहर को खिली धूप से भरा आसमान देखकर बारिश की आस लगाए 52 वर्षीय अहमद कहते हैं, ''मैं तो बस ऊपर वाले की रहमत के भरोसे हूं.’’ पेड़ों के नीचे से गुजरते हुए अहमद बताते हैं कि डाल से गिरा यह फल 'सी’ ग्रेड का है. सेब को आकार और रंग के आधार पर ए, बी और सी की श्रेणियों में बांटा गया है, जिसमें 'ए’ प्रीमियम श्रेणी है. वे कहते हैं, ''इस साल, हमारे पास सी-ग्रेड सेब काफी ज्यादा हो गया है. हमें इसको औने-पौने दाम पर बेचना पड़ेगा. इस साल उपज का एक बड़ा हिस्सा निम्न गुणवत्ता वाला है. मैं तो अब बारिश का इंतजार कर रहा हूं ताकि कम से कम फलों का रंग तो खिल सके.’’

हिमाचल में बाढ़ के मद्देनजर सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने घोषणा की है कि उसकी खरीद एजेंसियां खराब किस्म के सेब 12 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से लेंगी. कश्मीर में, जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 निरस्त करने और फिर कोविड-19 महामारी लॉकडाउन के बाद दो साल के लॉकडाउन के दौरान एक एमआइएस की घोषणा की थी.

इसमें भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन महासंघ (नेफेड) ने कश्मीर में उत्पादकों से सीधे सेब खरीदना शुरू किया, जिससे किसानों का मुनाफा 2,000 करोड़ रुपए बढ़ गया. इस बार भी कश्मीर के सेब उत्पादकों ने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से मिलकर सेबों की खराब फसल की वजह से नुक्सान की भरपाई के लिए उस योजना को फिर शुरू करने की मांग की है.

13 सितंबर को एपल फार्मर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के श्रीनगर चैप्टर ने भी एमआइएस फिर शुरू करने की मांग को लेकर एक ज्ञापन सौंपा. सी-ग्रेड सेब बहुतायत में होने के संदर्भ में फेडरेशन अध्यक्ष जहूर अहमद राथर कहते हैं कि कम गुणवत्ता वाले फल बाजार पर प्रतिकूल असर डालेंगे और 'कश्मीरी सेब’ के अच्छे ब्रांड नाम को खराब कर देंगे.

वे कहते हैं, "कोई न्यूनतम मूल्य नहीं होगा, और उत्पादकों को अपना स्टॉक औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर होना पड़ेगा. अच्छी गुणवत्ता वाले सेबों की आपूर्ति कम होगी तो बाजार में उनके मूल्यों में खासी वृद्धि हो सकती है क्योंकि बाजारों में बहुतायत में उपलब्ध अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता फलों को खरीदने वाला कोई नहीं होगा."

जम्मू-कश्मीर में 2.15 लाख हेक्टेयर भूमि पर 6.4 करोड़ से अधिक फलदार पेड़ लगाए गए हैं, जो 2.4 मीट्रिक टन से अधिक फलों की पैदावार करते हैं. इसमें लगभग 4.5 करोड़ पेड़ सेब के हैं, जो 70 फीसद से अधिक भूमि (1.5 लाख हेक्टेयर) में लगे हैं और हर साल 2.1 मीट्रिक टन से अधिक सेब का उत्पादन करते हैं. 10,000 करोड़ रुपए का बागवानी क्षेत्र जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाता है और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 7,00,000 परिवारों यानी 35 लाख लोगों को रोजगार देता है.

कश्मीर बागवानी विभाग के तकनीकी अधिकारी मोहम्मद अमीन का अनुमान है कि इस बार उत्पादन पिछले वर्ष की इसी अवधि में 2.1 मीट्रिक टन उत्पादन की तुलना में 5 फीसद कम होगा. उनके मुताबिक, "गर्म शुष्क मौसम ने सेब की गुणवत्ता को प्रभावित किया है, खासकर डिलीशियस किस्म के रंग और आकार दोनों पर ही प्रतिकूल असर पड़ा है. कलियों के फूलने की अवधि के दौरान मौसम का मिजाज बदला हुआ था. हमने बागवानों को सलाह दी कि जहां भी संभव हो अपने खेतों की सिंचाई करें, गर्म और शुष्क मौसम के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए उपयुक्त पोषक तत्वों और अन्य रसायनों का छिड़काव करें."

वहीं, हिमाचल में बागवानी विभाग के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में वार्षिक सेब उत्पादन 2022 में 6.7 लाख टन (3.03 करोड़ पेटी) तक पहुंच गया था, लेकिन इस वर्ष 2.9 करोड़ पेटी ही रहने का अनुमान है. हिमाचल प्रदेश के बागवानी विभाग में संयुक्त निदेशक, सुभाष चंदर इसके पीछे बीमारी और बाढ़ के प्रकोप सहित कई कारण गिनाते हैं.

उनका कहना है कि बाढ़ ने उत्पादकों का करीब 155 करोड़ रुपए का नुक्सान किया है. वे कहते हैं, ''हम पिछले साल के उत्पादन के करीब नहीं पहुंच पाएंगे. बाजार ठीक चल रहा है, लेकिन आपूर्ति कम है.’’ विभाग ने हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी, सोलन को बागवानी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अध्ययन और उत्पादकों के लिहाज से बचाव के उपाय सुझाने का जिम्मा सौंपा है.

फलों और सब्जियों के मामले में एशिया के सबसे बड़े थोक बाजार यानी दिल्ली की आजादपुर मंडी में पिछले फसल सीजन में प्रति दिन तकरीबन 150 ट्रक सेब आते थे. आजादपुर में कश्मीर एपल मर्चेंट्स एसोसिएशन के महासचिव और चार दशकों से अधिक समय से इस व्यापार से जुड़े राकेश कोहली कहते हैं, ''अब एक दिन में केवल 50-70 ट्रक ही आते हैं. उत्पादन में गिरावट से दरें और मांग बढ़ी है. उदाहरण के तौर पर एक किलो 'ए’ ग्रेड सेब 90 रुपए से 140 रुपए के बीच बिक रहा है जो पिछले साल की तुलना में 25 फीसद अधिक कीमत है.’’

उत्पादक सरकार की तरफ से 2019 में अमेरिका से सेब तथा अन्य कृषि उपजों के आयात पर लगाए गए अतिरिक्त 20 फीसद टैरिफ को हटाए जाने से भी नाखुश हैं, जो 2018 में अमेरिका के भारतीय एल्यूमीनियम और इस्पात निर्यात पर शुल्क बढ़ाने के जवाब में लगाया गया था. इस साल जून में अमेरिका दौरे के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह शुल्क हटाने पर सहमति जताई थी.

बढ़े टैरिफ ने अमेरिका से सेब आयात को 2017-2018 में 14.5 करोड़ डॉलर से घटाकर 2022-2023 में 52.7 करोड़ डॉलर पर पहुंचा दिया. लेकिन इसका लाभ मुख्यत: ईरान, तुर्की, न्यूजीलैंड और चिली जैसे देशों को हुआ, जिन्होंने भारतीय बाजार में अमेरिकी हिस्सेदारी की जगह ले ली. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो इन देशों से सेब का आयात 2018-19 में 16 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2022-23 में 29 करोड़ डॉलर हो गया.

हालांकि, अतिरिक्त शुल्क हटाने का मतलब आयातित सेब पर तरजीही राष्ट्र शुल्क में कोई छूट देना नहीं है, जिसमें अमेरिकी उत्पाद भी शामिल हैं. यह 50 फीसद ही है. वाणिज्य मंत्रालय ने भूटान को छोड़ अन्य सभी देशों से सेब आयात पर 50 रुपए प्रति किलोग्राम का न्यूनतम आयात शुल्क भी लगाया है. इस कदम से अफगानिस्तान के माध्यम से मुक्त व्यापार समझौते के तहत ईरान से आयातित बड़ी मात्रा में शुल्क मुक्त सेबों के कारण स्थानीय उत्पादकों को होने वाली क्षति की कुछ भरपाई हो सकती है.

आलोचनाओं पर पलटवार करते हुए केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल कहते हैं कि अब सभी देशों के लिए एक समान आयात शुल्क है. उनके मुताबिक, ''कोई आयात शुल्क कम नहीं किया गया है. सेब उत्पादन को समर्थन के लिए मोदी सरकार ने आयातित सेब पर भारी शुल्क लगाया है. कुछ महीने पहले हमने सेब के लिए न्यूनतम आयात मूल्य भी निर्धारित किया था.’’

आजादपुर मंडी में भी कई लोग इस बात से सहमत हैं कि अतिरिक्त टैरिफ हटाने से स्थानीय उपज पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि अमेरिकी सेब की कीमत 170-180 रुपए प्रति किलोग्राम होगी. इससे वॉशिंगटन सेब के लिए बाजार में अपेक्षाकृत सस्ती आयातित किस्मों की हिस्सेदारी के बीच जगह बनाना आसान नहीं होगा. एक कारोबारी नेता का कहना है, ''लोग इन देशों से सस्ता सेब खरीदेंगे.’’

फिर भी, उत्पादकों को यह आशंका सता रही है कि वॉशिंगटन सेब की कीमतों में गिरावट से स्थानीय प्रीमियम किस्में प्रभावित होंगी. उदाहरण के तौर पर वॉशिंगटन सेब की 20 किलोग्राम की पेटी की कीमत मौजूदा 4,000 रुपए से घटकर 3,000 से 3,200 के बीच हो सकती है, जिससे यह सीधे तौर पर 2,500 से 3,000 रुपए में बिकने वाली प्रीमियम स्थानीय किस्मों के साथ प्रतिस्पर्धा करेगा. चौहान कहते हैं, ''लोग बढ़ियां पैकेजिंग और चमक देखकर इसे ही पसंद करेंगे, भले ही यह हिमाचल या कश्मीर के स्वादिष्ट, लाल और रसीले कुल्लू सेबों के आगे कहीं न ठहरता हो.’’

> श्रीनगर से मोअज्जम मोहम्मद

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