राजधानी पटना के मिलर स्कूल मैदान में एक साधारण सा मंच सजा है. मंच पर अति पिछड़ा वर्ग की अलग-अलग जातियों के कई नेता बैठे हैं और सामने दस हजार लोगों से अधिक की भीड़ उनकी एक-एक बात पर नारे लगा रही है. इन्हीं दर्शकों में आरा के सहार से आए मनोज कुमार चंद्रवंशी हैं. वे कहते हैं, ''बिहार सरकार ने अतिपिछड़ा कोटा को जनरल बोगी समझ लिया है. जो भी आता है, उसको इसी बोगी में धक्का मार कर गिरा देती है. मगर अब हम बर्दाश्त नहीं करेंगे. अब आर-पार की लड़ाई होगी.''
मनोज की बातों को साफ करते हुए अतिपिछड़ा पदाधिकारी-कर्मचारी संगठन के संयोजक और इस आयोजन समिति के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ''2015 में नीतीश और लालू की बिहार सरकार ने तेली, तमोली और दांगी जैसी आर्थिक रूप से संपन्न और मजबूत जातियों को ओबीसी कोटे से हटाकर अतिपिछड़ा कोटे में डाल दिया. ये जातियां अब हम अति पिछड़ों की हकमारी कर रही हैं. राजनैतिक और नौकरियों के मामले में भी.''
वे कहते हैं, ''इस साल हुए नगर निकाय चुनाव में मेयर की तीन सीटें अतिपिछड़ों के लिए रिजर्व थीं, उनमें से तीनों पर इनका कब्जा हो गया. इसके अलावा भी चार और सीटें इन जातियों के खाते में गईं. जिला परिषद अध्यक्ष की आठ सीटें अति पिछड़ा जातियों के लिए आरक्षित हैं, इनमें से छह पर तेली जाति का कब्जा है. ऐसे में 109 अति पिछड़ा जातियों की हकमारी हो रही है.''
इन मुद्दों पर बिहार की शेष अतिपिछड़ा जातियां खुद को मूल अतिपिछड़ी जाति घोषित कर लगातार संघर्ष कर रही है. 2 अक्तूबर को अति पिछड़ी जातियों के नेताओं ने राजद के एमएलसी रामबली सिंह चंद्रवंशी के नेतृत्व में समस्तीपुर के कर्पूरी ग्राम से अति पिछड़ा आरक्षण बचाओ पदयात्रा की शुरुआत की और 7 अक्तूबर को पटना के मिलर स्कूल में सम्मेलन का आयोजन किया.
इस सम्मेलन का इसलिए खास महत्व है, क्योंकि संभवत: पहली दफा राज्य की अति पिछड़ी जातियों के लोगों ने अपने दम पर कोई बड़ा आयोजन किया. अब तक राज्य में जो भी अति पिछड़ा सम्मेलन हुए, वे किसी न किसी राजनैतिक दल के बैनर तले ही हुए. चौधरी कहते हैं, ''इस बार रामबली जी ने राजद में रहते हुए पार्टी से अलग आवाज उठाने का साहस किया है, इसलिए यह आयोजन संभव हुआ. यह राज्य की अति पिछड़ी जातियों के रुख में आए बदलाव का भी संकेत है.''
इन नेताओं के मुखर होने की वजह है. 2 अक्तूबर को जारी जाति आधारित गणना ने पहली बार इस सच्चाई पर मुहर लगा दी कि राज्य में अति पिछड़ा वर्ग 36 फीसद के साथ सबसे बड़ा जातीय समूह है. इन आंकड़ों के बाद न सिर्फ राजद के एमएलसी रामबली सिंह चंद्रवंशी ने राज्य के भर के अति पिछड़ों को एकजुट करने का साहस किया है, जद (यू) के प्रवक्ता रहे प्रगति मेहता ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिखकर जातीय गणना की विसंगतियों के बारे में सूचित किया. प्रगति ने कहा कि गणना में धानुक जाति की संख्या कम बताई गई है. प्रगति कहते हैं, ''मुंगेर समेत आसपास के कई जिलों में धानुकों की काफी संख्या है. फिर भी हमारी आबादी सिर्फ 2.1393 फीसद बताई गई है. हमारी आबादी कुर्मियों से भी कम बताई जा रही है, यह हमारे समाज के लोगों को विश्वसनीय नहीं लगता.''
इसी तरह चंद्रवंशी (कहार) जाति के नेता भी जाति गणना में अपनी जाति के वोटरों की संख्या के कम होने का विरोध कर रहे हैं. 9 अक्तूबर, 2023 को इन जातियों के नेताओं ने पटना में विरोध प्रदर्शन किया. जद (यू) सांसद सुनील कुमार पिंटू ने कहा है कि वे आंकड़े मुख्यमंत्री को सौपेंगे.
ये जातियां लंबे अरसे से मानती रही हैं कि संख्या बल में सबसे अधिक होने के बावजूद इन्हें राजनीति, सत्ता और सरकारी नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. 7 अक्तूबर को मिलर स्कूल ग्राउंड में दो दर्जन से अधिक अतिपिछड़ा नेता अलग-अलग तरीके से इन सवालों को उठाते रहे.
समानुपातिक प्रतिनिधित्व न होने का अतिपिछड़ों का दावा वाजिब भी लगता है. राज्य की एक-तिहाई से अधिक आबादी होने के बावजूद इस वक्त इन जातियों के 31 में से सिर्फ चार मंत्री राज्य सरकार में हैं. तेली, तमोली और दांगी जाति को छोड़ दिया जाए तो राज्य की 243 सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ 19 अति पिछड़ा विधायक हैं. 40 लोकसभा और 16 राज्यसभा सदस्य चुनने वाले बिहार में अति पिछड़ों के सिर्फ आठ सांसद हैं. छह लोकसभा में और दो राज्यसभा में. 75 सदस्य वाली बिहार विधान परिषद में इन जातियों के सिर्फ छह सदस्य हैं. चौधरी कहते हैं, ''जबकि भूमिहार और राजपूत जैसे सवर्णों ही नहीं बल्कि यादव, कुर्मी और कुशवाहा जैसी शासक जातियों के सदस्यों की संख्या भी लोकसभा और विधानसभा में आबादी के मुकाबले काफी अधिक है.'' (इस रिपोर्ट के आखिर में आंकड़े दिए गए हैं)
जाहिर है, नए आंकड़े आने के बाद राज्य की अति पिछड़ी जातियां अब सत्ता में अपनी समानुपातिक भागीदारी का दावा कर रही है. अति पिछड़ा वर्ग राज्य आयोग के पूर्व सदस्य और राज्य में अति पिछड़ों की स्थिति पर इकलौती किताब अति पिछड़ा दर्पण के लेखक उदयकांत चौधरी कहते हैं, ''जिस बिहार में कभी कर्पूरी ठाकुर जैसे कद्दावर अति पिछड़ा नेता हुआ करते थे, जिन्होंने राज्य में सबसे पहले पिछड़ा आरक्षण को लागू किया. उसी बिहार में आज अतिपिछड़ों की सत्ता में नाममात्र की भागीदारी है.''
वे कहते हैं, ''राज्य में अतिपिछड़े सिर्फ किंगमेकर बनकर रह गए हैं. इन अतिपिछड़ों ने पहले लालू जी को मजबूत किया. लालू जिन्हें अपना जिन्न मतदाता कहते थे, वे अति पिछड़े ही तो थे. मगर जब अपनी सत्ता के उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी जाति को बढ़ावा देना शुरू किया और उनकी जाति के दबंग लोग अतिपिछड़ों पर अन्याय करने लगे तो ये अति पिछड़े नीतीश जी के साथ आ गए.''
उदयकांत कहते हैं, ''मगर 2015 में जब लालू और नीतीश एक हो गए तो नीतीश जी ने अति पिछड़ों की उपेक्षा शुरू कर दी. टिकट कम देना तो एक बात थी. असली दिक्कत की बात थी तेली, तमोली और दांगी जैसी जातियों को अति पिछड़ा वर्ग में शामिल करना. जैसे ही ये तीन संपन्न और मजबूत जातियां अति पिछड़ा वर्ग का हिस्सा बनीं, इन जातियों ने पूरे कोटे पर अपना कब्जा करना शुरू कर दिया. इसके बाद शेष अति पिछड़ी जातियां नीतीश से छिटकने लगीं. अब कई जातियां भाजपा की तरफ शिफ्ट करती नजर आ रही हैं.''
हालांकि चौधरी अति पिछड़ा वर्ग के लोगों के भाजपा की तरफ शिफ्ट होने को जायज नहीं ठहराते. वे कहते हैं, ''हम अब नहीं चाहते कि अति पिछड़ा किसी पार्टी की गुलामी करे. अब हम किंगमेकर की भूमिका से निकलना चाहते हैं. हम अब संख्या बल के आधार पर सत्ता में भागीदारी चाहते हैं.''
सत्ता में भागीदारी, किंगमेकर नहीं किंग की भूमिका. चौधरी के ये शब्द इन दिनों राज्य की ज्यादातर अति पिछड़ी जाति के नेताओं की जुबान पर हैं. इसी सोच के तहत जद (यू) के पूर्व एमएलसी रामबदन राय ने इसी साल कर्पूरी जनता दल के नाम से पार्टी का गठन किया है. राज्य की 20 जलजीवी जातियों का निषाद समूह बनाकर और खुद को सन ऑफ मल्लाह बताकर मुकेश सहनी लंबे समय से राजनीति कर रहे हैं. उन्होंन जाति गणना के बाद अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन देकर बताया कि बिहार में निषादों की बीस जातियां मिलकर 9.6 फीसद होती हैं. चौधरी कहते हैं, ''हम 2024 और 2025 के चुनाव अपनी ताकत पर लड़ना चाहते हैं और चाहते हैं कि 2030 तक बिहार में अति पिछड़ा मुख्यमंत्री बने.''
मगर यह लक्ष्य इतना आसान नहीं है. दरअसल संख्या बल के रूप में अति पिछड़ा वर्ग जरूर राज्य में नंबर एक है, मगर यह समूह हिंदू और मुस्लिम दो धर्मों की 112 जातियों में बंटा है ( इस रिपोर्ट के आखिर में आंकड़े दिए गए हैं). राज्य की पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों के सवालों पर केंद्रित पत्रिका सबाल्टर्न के प्रधान संपादक महेंद्र सुमन कहते हैं, ''इनमें कुछ जलजीवी जातियां हैं, कुछ धानुक और दांगी जैसी किसान जातियां हैं. कुछ बढ़ई-कुम्हार जैसी शिल्पकार जातियां हैं तो कुछ छोटी व्यापारी जातियां हैं. इन सबका काम और स्वभाव अलग-अलग है. इसलिए ये एक यूनिट की तरह सोच नहीं पातीं.''
यही नहीं, इस समूह में 25 जातियां मुस्लिम समुदाय की हैं, जिनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता और वोटिंग पैटर्न अलग है. राज्य में अति पिछड़ा समेत सभी पसमांदा जातियों पर अध्ययन करने वाले पूर्व सांसद अली अनवर कहते हैं, ''सभी सेकुलर पार्टियों से मेरी अपील है कि वे अतिपिछड़ों को उनका वाजिब हक दें.'' लेकिन जैसा कि महेंद्र सुमन कहते हैं, ''किसी जाति या जातीय समूह के राजनैतिक रूप से आगे बढ़ने के पीछे उसमें बौद्धिक और धनी वर्ग दोनों के होने की भूमिका होती है. अति पिछड़ा समूहों में दोनों तरह के लोग कम हैं.''
हालांकि सभी अति पिछड़ा नेता यह नहीं मानते कि वे बुद्धिबल और धनबल के अभाव में राजनैतिक रूप से सक्षम नहीं हो पाए. जद (यू) नेता प्रगति मेहता कहते हैं, ''पहले अति पिछड़ों के नेता कहीं अधिक मजबूत थे. तब कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता हुए जो मुख्यमंत्री तक बने. धनिक लाल मंडल जैसे नेता केंद्रीय मंत्री बने और राज्यपाल भी. आज अति पिछड़ों के बीच से ऐसे नेता कहां निकल रहे.''
जद (यू) से जुड़े एक अति पिछड़ा नेता अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं, ''नीतीश जी की सबसे बड़ी ताकत आज भी अति पिछड़ा समाज है, मगर आज भी आप किसी एक अति पिछड़ा नेता को उनके करीब नहीं देखेंगे. उनकी कोर टीम में संजय झा और ललन सिंह जैसे सवर्ण नेता हैं, अशोक चौधरी जैसे दलित नेता हैं, मगर कोई अति पिछड़ा नेता नहीं.''
इस सवाल पर रामबदन राय कहते हैं, ''वैसे तो अति पिछड़ों को अपना नेतृत्व ही विकसित करना होगा. इसके बावजूद अगर भाजपा अति पिछड़ों को अपने पाले में करना चाहती है तो केंद्र सरकार रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू कर दे. मगर दिक्कत यह है कि भाजपा अति पिछड़ों को सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से लुभाती है.''
चौधरी कहते हैं, यह बात तमाम दूसरी पार्टियों के बारे में भी सच है. वे प्रतीकात्मक रूप से अति पिछड़ों को थोड़ा बहुत प्रतिनिधित्व देती रही हैं. इसलिए अतिपिछड़ों का अपना नेता होना ही सबसे बेहतर विकल्प है. अति पिछड़ा जाति के नेताओं को उम्मीद है कि एक रोज उन्हीं में से कोई उनके समाज और 112 जातियों को नेतृत्व दे सकता है.
एक लाख से अधिक आबादी सिर्फ 41 जातियों की
अमात, इदरीसी, कमार, कसाब, कानू, कुल्हैया, केवट, केवर्त, गौड़ी, गंगई, गंगोता, चंद्रवंशी, चांय, चूड़ीहार, ठकुराई, तियर, तुरहा, तेली, दांगी, धानुक, धुनिया, धोबी (मुस्लिम), नाई, नागर, नोनिया, प्रजापति, पाल, बढ़ई, तमोली, बिंद, बेलदार, मल्लाह, माली, जुलाहा, राइन, राजभर, राजवंशी, शेरशाहबादी, सिंदुरिया बनिया, सेखड़ा, हलुवाई.
राजनैतिक प्रतिनिधित्व
- 170 विधायक - 1967 से 2020 के बीच
- 11 सांसद - 1992 से 2020 के बीच राज्यसभा में
- 14 सांसद - 1967 से 2004 के बीच लोकसभा में
- 24 विधायक - 1978 से 2008 के बीच विधान परिषद में
- बिहार में मूल अतिपिछड़ा समूह के मंत्रियों की संख्या: 4, कुल मंत्री: 31
- बिहार में मूल अतिपिछड़ा समूह के लोकसभा सदस्यों की संख्या: 6. कुल लोकसभा सदस्य: 40
- राज्यसभा में बिहार के मूल अति पिछड़ा सदस्यों की संख्या: 2, कुल सदस्य: 16
रोहिणी आयोग का परामर्शपत्र
राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग की विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण संबंधी विषमताओं को समझने के लिए केंद्र सरकार ने जस्टिस जी. रोहिणी के नेतृत्व में 2 अक्तूबर, 2017 को एक आयोग का गठन किया था. इस कमिशन ने 1 अगस्त, 2023 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी. यह रिपोर्ट तो जारी नहीं हुई है मगर इसके परामर्श पत्र में कई चौंकाने वाली सूचनाएं हैं. ये सूचनाएं कमिशन ने केंद्र सरकार की 1.3 लाख नौकरियों और केंद्रीय संस्थानों में दाखिले के अध्ययन के जरिये हासिल की हैं. इसके मुताबिक:
- केंद्र सरकार में ओबीसी कोटे के तहत मिलने वाली 97 फीसद नौकरियां और शिक्षण संस्थानों में दाखिले ओबीसी की सिर्फ 25 फीसद जातियों को मिले हैं. यानी शेष 75 फीसद पिछड़ी जातियों को सिर्फ तीन फीसद नौकरियों और दाखिलों से संतोष करना पड़ रहा है
- देश में तकरीबन 2,600 पिछड़ी जातियां हैं. ओबीसी आरक्षण के तहत इनमें 983 जातियों को अब तक न कोई केंद्र सरकार की नौकरी मिली है, न किसी केंद्रीय संस्थान में दाखिला
- इसी तरह 994 पिछड़ी जातियों का केंद्रीय नौकरियों और दाखिलों में महज 2.68 फीसद का प्रतिनिधित्व है.