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टीबी फिर हुआ खतरनाक

लगातार प्रयोग के चलते दवाइयों के बेअसर होने से टीबी यानी तपेदिक के मरीजों और इससे मरने वालों की तादाद बढ़ी. इसके चलते देश को इस रोग से 2025 तक पूरी तरह से मुक्त कर पाने की मंशा पर संदेह. तो इससे निजात के लिए आखिर हमें और क्या करना होगा?

तगड़े साइड इफेक्टः दीप्ति चह्वाण 40 वर्ष, पेटेंट एडवोकेट, मुंबई
तगड़े साइड इफेक्टः दीप्ति चह्वाण 40 वर्ष, पेटेंट एडवोकेट, मुंबई
अपडेटेड 9 मई , 2023

सोनाली आचार्जी

यह स्वाभाविक ही था कि भारत ने हाल ही में वाराणसी में वन वर्ल्ड टीबी समिट की मेजबानी करने का बीड़ा उठाया. दुनिया में टीबी यानी तपेदिक के सबसे ज्यादा मामले हमारे यहां जो हैं. हर साल दुनिया में टीबी का शिकार होने वाले एक करोड़ लोगों में से एक-चौथाई हमारे यहां होते हैं, बल्कि इस बीमारी की वजह से हम साल में चार लाख जानें गंवा देते हैं, जो दुनिया में होने वाली सालाना 14 लाख मौतों का करीब एक-तिहाई है. वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य से पांच साल पहले 2025 तक टीबी को खत्म करने की भारत की प्रतिबद्धता दोहराई. भारत से तपेदिक खत्म करने की कोशिशों के दायरे को आखिरी गांव तक बढ़ाने के लिए उन्होंने टीबी मुक्त पंचायत पहल की शुरुआत भी की.

हालांकि हाल के सालों में सरकार की तरफ से ताबड़तोड़ की गई पहलकदमियों के बावजूद विशेषज्ञों को अगले दो साल में भारत से टीबी को पूरी तरह खत्म किए जाने की महत्वाकांक्षा को लेकर संदेह है. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत को अब ड्रग-रेजिस्टेंट ट्यूबरक्यूलोसिस (डीआर-टीबी) यानी दवाओं से बेअसर हो चुके तपेदिक के सबसे ज्यादा मामले होने की कुख्याति मिली हुई है. इससे भी आगे बढ़कर इसे मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट (एमडीआर) यानी तमाम दवाओं से बेअसर और व्यापक किस्म के इलाजों से बेअसर (एक्सडीआर) टीबी वाले देशों की श्रेणी में रखा गया है. हाल के सालों में डीआर-टीबी के मामले और मौतें दोनों देश में तेजी से बढ़ीं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक, भारत में एमडीआर-टीबी के 1,19,000 मामले दुनिया भर के मामलों के 26 फीसद से भी ज्यादा थे. चेन्नै स्थित आइसीएमआर-राष्ट्रीय तपेदिक अनुसंधान संस्थान (एनआइआरटी) की डायरेक्टर सी. पद्मप्रियदर्शिनी स्वीकार करती हैं, ''डीआर-टीबी भारत में बढ़ती चिंता का विषय है.'' इसके बढऩे के जो कारण वे गिनाती हैं, उनमें अनियमित इलाज करवाना, इलाज पूरा करने से पहले अधबीच बंद कर देना और जल्द तथा फौरन डायग्नोसिस के लिए स्वास्थ्य केंद्र न आना शामिल है.

आप कभी अपने सबसे बड़े दुश्मन को भी टीबी और खासकर डीआर-टीबी होने की कामना करना नहीं चाहेंगे. पुणे की आर्किटेक्ट देबश्री लोखंडे को 2014 में टीबी का पता चला. फौरन दवाएं दी जाने लगीं. मगर हालत बिगड़ती रही. डॉक्टरों ने उन्हें टीबी की चार मानक दवाओं में से तीन का प्रतिरोधी पाया. इधर वे असर करने वाली दवाई की खोज में जुटे थे, उधर महज छह महीने में लोखंडे का पूरा बायां फेफड़ा नष्ट और दूसरा संक्रमित हो गया.

हताश परिवार दौड़ा-दौड़ा मुंबई के हिंदुजा अस्पताल के डॉक्टर के पास गया. लोखंडे को नई दवाइयां दी गईं. इनमें बेडाक्विलीन भी थी, जिसे तभी 2014 में प्रायोगिक इस्तेमाल की मंजूरी दी गई थी. यह अनुंकपा के आधार पर उन्हें मिली. सुनने की क्षमता में कमी सरीखे गंभीर साइड इफेक्ट और कोक्लियर इम्प्लांट तथा टीबी की दवाइयां खरीदने के वित्तीय बोझ से जूझते हुए शारीरिक जद्दोजहद के तीन साल बाद कहीं जाकर लोखंडे की हालत में सुधार आना शुरू हुआ.

आखिर फिर क्यों उभर रहा है यह
भारत में तपेदिक कोई नई बीमारी नहीं है. इस संक्रामक रोग को जड़ से खत्म करने के लिए राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम देश में 50 साल से भी ज्यादा समय से चल रहा है. कभी गरीबों की बीमारी कही जाने वाली टीबी अब वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करती. न ही यह फेफड़ों तक सिमटी है. यह बैक्टीरिया किडनी, दिमाग या रीढ़ में भी उतनी ही आसानी से बस सकता है. इलाज आम तौर पर दो चरणों में होता है. आरंभिक चरण में शुरुआती दौर की चार दवाएं—आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन, पाइराजिनामइड और एथेमब्यूटॉल—दो महीने दी जाती हैं. फिर निरंतरता वाले दौर में आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन और एथेंब्यूटोल चार महीने तक और दी जाती हैं. 

ऐंटीबायोटिक के सालों के उपयोग और दुरुपयोग के बाद यह बैक्टीरिया इन दवाओं के असर से बच निकलने में माहिर हो गया. 2014-16 के राष्ट्रीय तपेदिक विरोधी दवा प्रतिरोध सर्वे (डीआरएस) के मुताबिक, इनमें से एक या दूसरी दवाई के प्रति भारत के एक-चौथाई टीबी मरीजों में प्रतिरोध विकसित हो गया, और इनमें से 1.3 फीसद एक्सडीआर-टीबी के मामले थे. इंडिया टीबी रिपोर्ट 2023 के मुताबिक, 2022 में एमडीआर के 63,801 मामले पता चले. एमडीआर-टीबी आइसोनियाजिड और रिफैम्पिसिन की प्रतिरोधी है, तो एक्सडीआर-टीबी रिफैम्पिसिन, किसी भी फ्लोरोक्विनोलोन और इंजेक्ट की जाने वाली दूसरी कतार की तीन दवाओं—एमिकासिन, कानामाइसिन या कैप्रियोमाइसिन—में से कम से कम एक के प्रति प्रतिरोधी है. हाल के सालों में दो निगली जाने वाली दवाओं—बेडाक्विलीन और डेलामानिड—से डीआर-टीबी का इलाज होने लगा है, जो सरकारी अस्पतालों या कुछ निश्चित निजी अस्पतालों में उपलब्ध हैं. ये दवाएं डीआर-टीबी के पिछले इलाजों में इस्तेमाल दवाओं के मुकाबले ज्यादा असरदार हैं और साइड इफेक्ट भी कम हैं.

अज्ञान अब भी लोगों को तपेदिक होने का असल दोषी है. इस बीमारी का अकेला लक्षण लंबे वक्त की खांसी है, इसलिए कइयों को जब तक पता चलता है कि उन्हें टीबी है, देर हो चुकी होती है. दिल्ली के बीएलके मैक्स सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में छाती और श्वसन रोग विभाग के प्रमुख डॉ. संदीप नायर कहते हैं, ''अगर किसी को दो या तीन हफ्तों से ज्यादा खांसी है और दूसरी बीमारियां खारिज की जा चुकी हैं, तो उसे टीबी की संभावना टटोलनी चाहिए.'' देरी से न केवल उस व्यक्ति का मामला बिगड़ सकता है, बल्कि उस वक्त में वह दूसरों को भी संक्रमित कर सकता है. पल्मोनरी टीबी या फेफड़ों का तपेदिक अत्यधिक संक्रामक है. सक्रिय टीबी से ग्रस्त लोग एक साल के अरसे में घनिष्ठ संपर्क के जरिए पांच से 15 लोगों को संक्रमित कर सकते हैं. संक्रमित व्यक्ति के खांसने या बोलने पर यह बीमारी हवा के जरिए फैलती है. जब बैक्टीरिया सांस के जरिए दूसरे व्यक्ति के भीतर पहुंचता है, तो फेफड़ों में जाकर जम जाता है. यहां या तो यह शांत पड़ा रह सकता है, जिसे सुप्त टीबी संक्रमण कहते हैं, या फिर अच्छी-खासी बीमारी की शक्ल ले सकता है. जिस वक्त लोखंडे अपने लिए एक्सडीआर-टीबी का इलाज खोजने की जद्दोजहद कर रही थीं, उन्हीं दिनों उनकी बहन भी इस बीमारी से संक्रमित हो गईं ''क्योंकि डॉक्टर मेरे परिवार को यह सलाह देने में नाकाम रहे कि टीबी घर में कैसे फैलता है.'' इंडिया टीबी रिपोर्ट के आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं. टीबी के लक्षणों वाले करीब 64 फीसद लोग अस्पताल नहीं गए. इसकी जो आम वजहें बताई गईं, वे थीं—लक्षणों की अनदेखी करना (68 फीसद), इन्हें टीबी के लक्षणों के तौर पर नहीं पहचान पाना (18 फीसद), खुद ही दवा ले लेना (12 फीसद) और अस्पताल में दिखाने का खर्च न उठा पाना (2 फीसद). सर्वे इस नतीजे पर पहुंचा कि एमडीआर के अनुमानित मरीजों में से 56 फीसद को डायग्नोज और 64 फीसद का इलाज नहीं किया जा सका.

दवाओं के बेअसर होने के खतरे
जागरूकता न होने के अलावा टीबी के डायग्नोज न हो पाने का एक और कारण सामाजिक लांछन है. ग्लोबलकोएलिशन ऑफ टीबी एडवोकेट्स की सीईओ और खुद इस बीमारी से उबर चुकीं ब्लेसिना कुमार कहती हैं, ''टीबी अब भी गरीबों की बीमारी है. टीबी का बोझ आम तौर पर मरीज को अकेले उठाना पड़ता है.'' वे डर के मारे डायग्नोसिस करवाने नहीं जाते या पूरे छह या ज्यादा महीने इलाज करवाने के बजाए उसे अधबीच बंद कर देते हैं. यह एक मुख्य वजह है जिससे बैक्टीरिया दवाओं का प्रतिरोधी बन जाता है. यह भी एक वजह है कि सरकार ने अपनी पहले की डायरेक्लटी ऑब्जर्व्ड थेरेपी (डीओटी) या प्रत्यक्ष अवलोकन उपचार कार्यक्रम को आगे बढ़ाना तय किया. इसके तहत स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने पक्का किया कि टीबी के मरीज रोज दी गई दवाएं लें और असर के हिसाब से फिर उन्हें कम करें या बढ़ाएं.

दिक्कत स्वास्थ्य व्यवस्था में भी है. जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ चपल मेहरा कहते हैं, ''जांच में देरी अक्सर इसलिए होती है क्योंकि इसका आदेश दिया ही नहीं जाता या बहुत देर से दिया जाता है. इसलिए स्वास्थ्य व्यवस्था के भीतर के लोगों को पता नहीं होता कि मरीज को डीआर-टीबी है या नहीं और अगर है तो यह नहीं पता होता कि उस पर कौन-कौन सी दवाएं बेअसर हो चुकी हैं.'' यह कटु अनुभव मुंबई की 33 वर्षीया गृहिणी अदिति माथुर (बदला हुआ नाम) को अच्छी तरह याद है. वे बताती हैं, ''मैंने चार साल खुद को इनसानी गिनी पिग की तरह महसूस किया जब डॉक्टर मेरी बीमारी के इलाज की कोशिश करते और नाकाम होते रहे. मुझे एमडीआर-टीबी थी और उन्हें पता नहीं था कि किस किस्म का प्रतिरोध मेरे भीतर है, इसलिए गलत दवाइयों से इसका इलाज करने में उन्होंने पहले दो साल बर्बाद कर दिए.''

इलाज का शरीर और जेब पर बोझ डीआर-टीबी को और ज्यादा बेरहम बना देता है. डीआर-टीबी के इलाज की वैसे भी कम दवाएं हैं और नई दवाएं व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं हैं. ये दवाएं ज्यादा विषाक्त भी हैं, साइड इफेक्ट में गैस्ट्राइटिस, सिरदर्द, पेरिफेरल न्यूरोपैथी, अवसाद और सुनने की क्षमता में कमी तक शामिल हैं. डीआर-टीबी से उबर चुकीं पटना की वकील आशना अशेष ने भी पाया कि टीबी शारीरिक और भावनात्मक तौर पर निचोड़ देता है. वे कहती हैं, ''अवसाद भी एक तरह का तपेदिक ही था, मांसपेशियों का नाश कर देने वाले क्षय रोग की तरह भले न हो पर एक लिहाज से अस्तित्व का नाश कर देने वाला तपेदिक तो था ही.''

इस बीमारी का एक और कमर तोड़ देने वाला पहलू खर्च है. साधारण टीबी में लगने वाले छह महीनों के मुकाबले डीआर-टीबी के इलाज में दो साल तक लग जाते हैं. प्रिटोरिया स्थित ग्लोबल टीबी एलायंस फॉर टीबी ड्रग डेवलपमेंट के मुताबिक, डीआर-टीबी के इलाज में साल में 14,000 ज्यादा गोलियां लेनी होती हैं. मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में डीआर-टीबी के 50 मरीजों पर किए गए और पबमेड में प्रकाशित 2019 के अध्ययन के अनुसार, दो साल के इलाज का खर्च 1.3 लाख रुपए से 25 लाख रुपए तक हो सकता है. टीबी के खर्चों का मिलान करते हुए इंडिया टीबी रिपोर्ट ने पाया कि भारत में टीबी के 68 फीसद मरीजों को यह खर्च विनाशकारी लगा. इसके मुकाबले इस वक्त टीबी का इलाज करवा रहे मरीजों को डायग्नोसिस और इलाज और परोक्ष खर्चों सहित टीबी के इलाज की जो कुल लागत उठानी पड़ी, वह एनएटीबीपीएस या राष्ट्रीय तपेदिक प्रसार सर्वेक्षण 2019-2020 के मुताबिक, सरकारी अस्पतालों में 7,500 रुपए और निजी क्षेत्र में 20,000 रुपए थी.

जंग में जीत के लिए
भारत सरकार ने ठान लिया है और वह इस आत्मविश्वास से भरी है कि 2025 तक हर प्रकार के तपेदिक का उन्मूलन कर देगी. उसका मानना है कि वह यह लक्ष्य हासिल करने की राह पर है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2015 और 2021 के बीच केरल में मामले 40 फीसद तक कम हुए. और लक्षद्वीप तथा जम्मू-कश्मीर के बडगाम जिले को तो 2021 में टीबी मुक्त घोषित किया गया. पूरे जम्मू-कश्मीर में इसके मामलों में 20 फीसद की कमी आई. टीबी से सबसे ज्यादा पीड़ित राज्यों में से एक महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले ने इसे 60 फीसद कम करने में कामयाबी पाई है जबकि अकोला और बीड जिलों में 20 फीसद की कमी आई है. इन शुरुआती कामयाबियों का श्रेय सरकार हाल में सिलसिलेवार शुरू की गई अपनी योजनाओं को देती है.

पिछले साल सितंबर में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान (पीएमटीबीएमबीए) लॉन्च किया, जिसके तहत मंत्री, सेलेब्रिटी, कारोबारी, कॉर्पोरेट कंपनियां और एनजीओ टीबी मरीजों को गोद लेकर निक्षय मित्र बन सकते हैं. इससे न सिर्फ वित्तीय संसाधन जुटाने में मदद मिलती है बल्कि यह समाज और एकाकी पड़ गए टीबी मरीजों के बीच बन गई खाई पाटने का भी काम करती है. उन्हें भावनात्मक सहारा मिलता है और कुछ हद तक लांछन से छुटकारा भी. सरकार का दावा है कि फिलहाल करीब 75,000 लोग और संगठन इस योजना से जुड़े हैं और 10.1 लाख मरीजों को गोद लिया गया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया का कहना है कि यह योजना ''हमारे समुदाय से आगे आकर टीबी के मरीजों को गोद लेने का आह्वान है ताकि उन्हें टीबी का मुफ्त इलाज मिल सके. यह दुनिया में अपने किस्म की पहल है जो जनांदोलन बन चुकी है. टीबी को खत्म करने में हमारी मदद के लिए सभी क्षेत्र के लोग आगे आ रहे हैं.'' सरकार इस बीमारी पर फतह पाने वाले स्त्री-पुरुषों को संचार और सामुदायिक सहायता रणनीतियों से भी जोड़ रही है, जिनमें जनता को इस बीमारी के बारे में शिक्षित करना, लांछन मिटाना और बीमारी से जूझ रहे लोगों और उनकी देखभाल करने वालों को भावनात्मक सहारा देना शामिल है. 

डायग्नोस्टिक्स या रोग की पहचान एक और अहम मोर्चा है, जिस पर सरकार ध्यान दे रही है. सामान्य टीबी के विपरीत डीआर-टीबी का पता लगाना मुश्किल हो सकता है क्योंकि दवाइयों के प्रति प्रतिरोध का पता लगाने के लिए विशेष जांच और परीक्षणों की दरकार होती है. ये जांच बहुधा महंगी हैं और दूर-दूर तक खासकर कम संसाधन वाली परिस्थितियों में उपलब्ध भी नहीं हैं. गुरुग्राम स्थित मेदांता—द मेडिसिटी में रेस्पिरेटरी मेडिसिन की डायरेक्टर बरनाली दत्ता कहती हैं, ''दवा-प्रतिरोधी टीबी की पहचान के लिए सबसे कारगर कसौटी परंपरागत कल्चर आधारित जांच ही है. मगर टीबी का बैक्टीरिया धीरे-धीरे बढ़ता है, इसलिए नतीजे आने में दो हफ्ते लग सकते हैं.'' ट्रूनैट/सीबीएनएएटी सरीखी नई टेक्नोलॉजी टीबी के तेज और सटीक डायग्नोसिस और रिफैम्पिसिन के प्रति प्रतिरोध का पता लगाने में गेमचेंजर हैं, पर उन्हें विकसित करने का काम मुश्किल और धीमा है.

दिल्ली की मेडजीनोम लैब्स में प्रिंसिपल साइंटिस्ट और संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. गुनीशा पसरीचा कहती हैं, ''डीआर-टीबी का पता लगाने के लिए आदर्श डायग्नोस्टिक औजार तेज, सटीक और लागत-प्रभावी होने चाहिए, उनकी लंबी शेल्फ लाइफ हो और सभी एटीटी दवाओं का समग्र कवरेज दे. चुनौती इन सबको एक जांच में समाहित करना है.'' डॉ. पसरीचा और उनकी टीम स्पिटसेक नाम की एक जांच लेकर आई, जो महज 14 दिनों में डीआर-टीबी का पता लगा सकती है बल्कि पहली कतार, दूसरी कतार और नई दवाओं सहित 18 दवाइयों से जुड़े म्यूटेशन और प्रतिरोध के बारे में बता सकती है. इस जांच की संवेदनशीलता 100 फीसद और सुनिश्चितता 98.04 फीसद पाई गई. नई-नई टेक्नोलॉजी का मतलब है कि तुरत-फुरत मॉलिक्यूलर टेस्ट पता लगा सकता है कि डीआर-टीबी है या नहीं, किन दवाओं के प्रति यह प्रतिरोधी है, और तेजी से इलाज शुरू करने में मदद कर सकता है. नए परीक्षण टीबी के इलाज के लिए निहायत जरूरी दो और चीजें तय करने में मदद करते हैं—दवाइयों की अवधि और खुराक.

डायग्नोसिस में तेजी लाने पर जोर
टेक्नोलॉजी की पहुंच बढ़ाने के लिए सरकार मानव संसाधन, बुनियादी ढांचे और नीतिनिर्माण पर पैसा लगा रही है. देश में ट्रूनैट/सीबीएनएएटी सुविधाएं 2014 में महज 40 से बढ़कर 5,090 हो गई हैं. अभी देश में 80 प्रयोगशालाएं हैं, जो डीआर-टीबी के लिए लिक्विड कल्चर प्रणाली को सहारा देती हैं. इसका विस्तार करके लिनेजोलिड और पिराजिनैमिड सरीखी ज्यादा दवाओं के प्रति प्रतिरोध को भी शामिल कर लिया गया है. 

जमीनी स्तर पर अच्छी-खासी तैनाती ने इन कोशिशों को और धार दी है. 34 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने 2021 में घर-घर अभियान चलाया, जिसमें 2.2 करोड़ लोगों की जांच की गई. इनमें से 17,52,903 नमूनों में टीबी की जांच की गई और 73,772 अतिरिक्त टीबी मरीजों की पहचान हुई. सुदूर और बीहड़ इलाकों में डायग्नोसिस करने के लिए 81 चलती-फिरती टीबी डायग्नोस्टिक वैन राज्यों को मुहैया करवाई गईं. बड़ा और अच्छा कदम उठाते हुए सरकार ने टीबी के किसी मरीज के सभी घनिष्ठ घरेलू संपर्कों को संभावित मरीज मानना और उनका इलाज करना शुरू कर दिया है. अगर उन्हें लेटेंट या निष्क्रिय किस्म का यानी डीआर-टीबी (एलटीआइ) भी है, तो उनका इलाज इस तरह किया जा सकता है कि यह सक्रिय बीमारी न बन पाए. शरीर में एलटीआइ है या नहीं, यह पक्का करने में मॉन्टू टेस्ट मदद कर सकता है, जिसमें पीपीडी ट्यूबरक्यूलिन नामक पदार्थ की थोड़ी-सी मात्रा हाथ के अगले हिस्से में त्वचा के नीचे इंजेक्ट की जाती है. यह ज्यादातर निजी अस्पतालों में औसतन 100 रुपए में हो जाती है.

नतीजे भी दिखने लगे. 2021 में टीबी के कुल मामलों में 19 फीसद की बढ़ोतरी हुई थी. निजी क्षेत्र के अस्पतालों से भी जानकारियां मिलने में भी अच्छा-खासा इजाफा हुआ—2014 में 1,06,000 मामलों के मुकाबले 2022 में 7,33,00 मामले. दरअसल, टीबी के सबसे ज्यादा मामलों का डायग्नोसिस और इलाज निजी क्षेत्र में किया गया. डायग्नोसिस बढ़ाने के लिए विभिन्न राज्य सरकारें अब साझेदारियां कायम कर रही हैं.

मार्गदर्शक बन रहा है हरियाणा. गुरुग्राम का मेदांता अस्पताल 2025 तक टीबी खत्म करने के लिए राज्य सरकार के साथ काम कर रहा है. मेदांता के चेयरमैन डॉ. नरेश त्रेहन टीबी दूर करने की कोशिशों में अपने अस्पताल के एक अहम हस्तक्षेप का जिक्र करते हैं. ''हमें एहसास हुआ कि डायग्नोसिस के लिए एनालॉग एक्सरे भरोसेमंद नहीं है और राज्य के ग्रामीण इलाकों में डिजिटल एक्सरे टेक्नोलॉजी की जरूरत है. इसलिए हमने डिजिटल एक्सरे से लैस मोबाइल वैन बनाईं और डीआर-टीबी का तेजी से पता लगाने के लिए उनमें मॉलीक्यूलर टेक्नोलॉजी भी लगाईं.'' अस्पताल ने घर-घर जाकर सक्रिय मामलों का पता लगाने का काम हाथ में लिया और पाया कि इसके नतीजतन जांच के लिए मरीजों का इंतजार करने के मुकाबले टीबी के तीन गुना ज्यादा मामले सामने आए. डॉ. त्रेहन कहते हैं, ''हम टीबी के लक्षणों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और हमारे टीबी के इलाजों के नतीजों के बारे में ज्यादा जानने के लिए लोगों के साथ जुड़ भी रहे हैं.'' उन्हें लगता है कि इस बीमारी को खत्म करने के लिए ऐसी साझेदारियां अहम हैं.

इलाज के मोर्चे पर क्रांति
इंडिया टीबी रिपोर्ट ने उत्साह बढ़ाने वाली एक बात यह बताई कि 2021 में टीबी से ग्रस्त पाए गए लोगों में से करीब 95.5 फीसद का इलाज शुरू कर दिया गया. डीआर-टीबी की दो नई दवाएं बेडाक्विलीन और डेलामानिड—जिनका पेटेंट इसी साल खत्म हो रहा है—बाजार में उपलब्ध नहीं हैं और फिलहाल सरकार उन्हें मुफ्त में मुहैया करवा रही है. उनकी कीमत उन्हें सामान्य किस्म का इलाज बना पाने के रास्ते का रोड़ा है. डॉ. नायर कहते हैं कि बाजार में उनकी कीमत 2,000 रुपए रोज के हिसाब से बैठती. इन स्थितियों को देखते हुए सरकार डीआर-टीबी के लिए कम अवधि की नई दवाइयां विकसित करने पर भी जोर दे रही है. आइसीएमआर की ओर से विकसित एक नई दवा का मुंबई में परीक्षण किया जा रहा है, जिससे इलाज की अवधि घटकर छह महीने हो सकती है.

दुनिया में अब कई कम अवधि की ज्यादा असरदार दवाइयां उपलब्ध हैं. इंजेक्शन के ओरल विकल्प और कम साइड इफेक्ट वाली दवाएं भी हैं. इन्हें भारत लाना चाहिए और कीमत कम करने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर देना चाहिए. बीते दिनों में अदालत के आदेशों के जरिए टीबी के मरीजों की मदद कर चुके वकील आनंद ग्रोवर कहते हैं, ''अपने ऊपर दवाओं से बेअसर हो चुकी टीबी की दूसरी नई दवा हासिल करने के लिए कितने मरीज अदालत का रुख करेंगे? कानूनी कार्रवाई में लगने वाला लंबा समय और लागत उन्हें दूर रखेगी. सरकार को पक्का करना चाहिए कि पेटेंट की वजह से इन अनिवार्य दवाओं पर कोई एकाधिकार न हो. बेडाक्विलीन और डेलामानिड के जेनेरिक वर्जन अगर हम हासिल नहीं कर पाए तो यह हाथ लगा मौका गंवा देने जैसा मामला होगा.'' हालांकि सब लोग इस तरह के विकेंद्रीकरण के पक्ष में नहीं हैं. मसलन, एम्स की पैथोलॉजिस्ट डॉ. पूर्वा माथुर को ही लीजिए. वे कहती हैं, ''बैक्टीरिया बेहद चतुर जीव हैं, जो अपने को तेजी से हालात के अनुरूप ढाल सकते हैं. इसीलिए वे इनसान से भी पुराने हैं. वे हमारे पास मौजूद दवाओं के आदी होते जा रहे हैं, और हम पर्याप्त नई दवाएं विकसित नहीं कर रहे हैं.'' इन हालात को देखते हुए दो ही दवाओं को लोकप्रिय बनाने के बजाए व्यापक पैमाने पर दवाएं मुहैया करवाना कहीं ज्यादा तर्कपूर्ण मकसद हो सकता है.

दवाएं खरीद पाने की क्षमता अपने स्तर पर एक बाधा बनी हुई है, इसलिए सरकार ने मरीजों की मदद के लिए कई योजनाएं लॉन्च कीं. जन आरोग्य योजना ऐसी ही जीवनरेखा है. सरकार निक्षय पोषण योजना के तहत प्रति मरीज 500 रुपए की वित्तीय सहायता और सरकारी अस्पतालों के जरिए मुफ्त दवाइयां भी देती है. इस योजना के तहत 2018 से टीबी के करीब 71 लाख मरीजों को लगभग 2,100 करोड़ रुपए की सहायता मिली है. सरकार उम्मीद कर रही है कि बेडाक्विलीन और डेलामानिड के सस्ते विकल्पों की बदौलत 2023 के आखिर तक इलाज की कीमत और कम हो जाएगी. डीआर-टीबी के इलाज का 35-70 फीसद खर्च इन्हीं दवाओं पर होता है, जिनके पेटेंट जल्द ही खत्म होने वाले हैं. सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं के तहत पोषण किट भी दे रही है क्योंकि अच्छा खानपान न मिलना टीबी का प्रमुख कारण है. पबमेड में प्रकाशित मंगलौर के येनेपोया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के 2022 के अध्ययन से पता चला कि भारत में टीबी के 9,02,000 मामलों में अल्पपोषण का योगदान है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, अल्पपोषित लोगों में टीबी होने का तीन गुना ज्यादा जोखिम है. इसके आंकड़ों के अनुसार, 2021 में दुनिया भर में टीबी के 22 लाख नए मामले अकेले अल्पपोषण की वजह से थे, जिनमें भारत के 6,55,000 मामले भी थे.

सरकार की ताजातरीन टीबी मुक्त पंचायत पहल के तहत टीबी के बारे में जागरूकता बढ़ाने, लांछन मिटाने और सर्विस डिलिवरी की निगरानी के लिए 2,50,000 ग्राम पंचायतों की सहायता ली जाएगी. पंचायतें टीबी से उबर चुके लोगों की खोज करने और उन्हें संचार और सलाह रणनीतियों से जोड़ने में भी मदद कर सकती हैं. देश में टीबी के उन्मूलन की प्रगति पर नजर रखने के लिए हर जिले में व्यवस्था है. इस रोग के होने के अत्यधिक जोखिम वाले लोगों के लिए नई टीबी रोकथाम थेरैपी भी लॉन्च की गई है. छह महीनों तक रोज एक दवा लेने के बजाए नए इलाज में पहली कतार की दवाइयां हफ्ते में महज एक बार 12 हफ्तों तक लेनी होंगी.

...और भारत की राह
दुनिया भर के हितधारक टीबी के उन्मूलन की दिशा में भारत की कोशिशों की सराहना कर रहे हैं. एमएसएफ एक्सेस कैंपेन की दक्षिण एशिया की रीजनल हेड लीना मेघानी कहती हैं, ''भारत का नेतृत्व टीबी के उन्मूलन को गंभीरता से ले रहा है. यह सही मायनों में एक प्रतीकात्मक फैसला है क्योंकि इसे ऐसे देश ने लिया है जो टीबी से सबसे ज्यादा प्रभावित है. जेनेरिक प्रतिस्पर्धा और बेडाक्विलीन से कम अवधि के ओरल इलाज की व्यवस्था के असर से कीमतें कम हो जाएंगी.'' स्टॉप टीबी पार्टनरशिप की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. लुकिका दितियू ने भी वाराणसी के शिखर सम्मेलन में यही कहा. उनकी राय थी कि ''भारत टीबी उन्मूलन में दुनिया को प्रेरित कर रहा है. निक्षय मित्र पहल हर देश में होनी चाहिए. जिस तरह से यह पायलट मोड यानी नमूने के स्तर पर नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर राज्यों में लागू किया जा है, मैं इस पहलकदमी को सैल्यूट करती हूं.'' द ग्लोबल फंड फॉर मलेरिया, टीबी ऐंड एचआइवी अपने आगामी 2024-27 के ग्रांट साइकल में 50 करोड़ डॉलर के आवंटन की 50 फीसद से ज्यादा धनराशि भारत को टीबी के उन्मूलन के लिए दे रहा है, जिससे इलाज की व्यापकता, सुलभता और कीमत में सुधार होने की उम्मीद है.

अलबत्ता हर किसी को यकीन नहीं हो पा रहा है कि भारत 2025 तक टीबी को जड़ से खत्म कर पाएगा. ब्लेसिना कुमार कहती हैं, ''मेरे क्चयाल से ज्यादातर लोग जानते हैं कि यह समय सीमा यथार्थवादी सोच से परे है. सरकार पहलकदमियां तो कई कर रही है पर उन्हें मंजिल पर पहुंचते नहीं देखा जा रहा.'' मेहरा भी अपना शुबहा जाहिर करते हैं. टीबी उन्मूलन की समय सीमा के बारे में वे कहते हैं, ''नहीं, यह मुमकिन नहीं. मान लीजिए कि हम राह पर बढ़ भी रहे थे तो कोविड की वजह से वह सब कुछ डगमगा गया ना! सरकार की मौजूदा रूपरेखा भी सीमित है और जमीनी हकीकतों में उसका अक्स दिखाई नहीं देता.'' मगर सवाल यह नहीं कि हम टीवी को 2025 तक खत्म कर पाते हैं या नहीं. लक्ष्य तो एक महत्वाकांक्षा है. पर यह लंबे वक्त से हमारी जिंदगियां और संसाधन लील रही इस बीमारी को जड़ से मिटाने के इरादे की रफ्तार को जरूर तेज कर सकता है.

दीप्ति चह्वाण

40 वर्ष, पेटेंट एडवोकेट, मुंबई

खौफनाक मर्ज

दीप्ति को छह साल एमडीआर टीबी का इलाज करवाना पड़ा. उन्हें जो दवाइयां लिखी गई थीं, उनके बहुत तगड़े साइड इफेक्ट थे. ''एक दवाई साइक्लोसेरीन आत्मघाती और चिड़चिड़ा बनाती है और आप सुध-बुध खो बैठते हैं. परिवार को लगता है कि मरीज हताशा की वजह से ऐसा कर रहा है, पर वह इसलिए कर रहा होता है क्योंकि उसे वह दवाई दी जा रही हैं.'' एक और दवाई क्लोफाजिमीन की वजह से उनकी त्वचा काली पड़ गई और रंग-रूप में आ रहे भीषण बदलावों ने उन्हें डरा दिया. दीप्ति कहती हैं, ''एमडीआर के साइड इफेक्ट भयंकर हो सकते हैं और कम ही मरीजों को इसके बारे में ठीक तरह से बताया जाता है. अब मैं वह काउंसिलिंग देने की कोशिश कर रही हूं जो मुझे नहीं मिली.''

देबश्री लोखंडे

35 वर्ष, आर्किटेक्ट, पुणे

लंबी और कष्टकारी लड़ाई

देबश्री का जीवन 2014 में हमेशा के लिए बदल गया जब पता चला कि उन्हें एक्सडीआर टीबी है. तब तक तीन साल की गलत रिपोर्टों और चिकित्सकीय सलाहों से उनकी हालत खराब हो चुकी थी. परीक्षणों से पता चला कि उनमें चार दवाओं वाली टीबी की मानक किट की चार में से तीन दवाओं बेअसर हो चुकी थीं. देबश्री को जब अनुकंपा के आधार पर बेडाक्वीलाइन दी गई, तब जाकर वे ठीक हो सकीं. लेकिन उनका इलाज बेहद कष्टकारी था. दवा के भयानक दुष्प्रभाव से उनकी बोलने और सुनने की क्षमताएं कम हो गईं. उस दौर को याद करते हुए देबश्री कहती हैं, ''इससे मैं और भी अलग-थलग महसूस करने लगी. केवल मेरी बहन ही सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हुए मुझसे संवाद कर पाती थी.'' इससे भी बुरी बात यह कि डॉक्टरों ने उन्हें टीबी की संक्रामकता के बारे में कोई जानकारी न दी और लोखंडे की बहन भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं. आज भले देबश्री पूरी तरह से ठीक हो चुकी हैं पर अब भी कुछ लोग ऐसे हैं जो उनसे मिलने से कतराते हैं. वे कहती हैं, ''मैं एक मुखर पक्षधर के रूप में अपनी कहानी साझा कर रही हूं, ताकि लोग इस बीमारी की वास्तविकताओं के बारे में अधिक जागरूक हो सकें.''

दीप्तेंदु भट्टाचार्य

37 वर्ष, शिक्षाविद्, कोलकाता

समझ आई जिंदगी की अहमियत

दीप्तेंदु को 2014 में एमडीआर टीबी होने का पता चला था. उस समय वे आइआइटी खड़गपुर के छात्र थे. बीमारी ने उनका जीवन तहस-नहस करके रख दिया. शुरू में डॉक्टरों को यह नहीं पता था कि उनकी टीबी पहली कतार यानी शुरुआती दवाओं की प्रतिरोधी थी. कॉलेज जल्द लौट सकने की उम्मीद में दीप्तेंदु ने अपने दिन हैरी पॉटर पढ़ते हुए और संगीत सुन कर बिताए. लेकिन लगभग साल भर के उपचार के बाद डॉक्टरों ने महसूस किया कि दीप्तेंदु के मामले में इलाज और लंबा चलेगा तथा ज्यादा विषाक्त दवाओं का उपयोग करना होगा. दीप्तेंदु बताते हैं, ''जिस दिन मैंने दवा की पहली खुराक ली, उस दिन मैं अपना हाथ कंधे से ऊपर नहीं उठा सका. जल्द ही मुझे बाजार से इंजेक्शन खरीदने पड़े. दवा की ऊंची कीमतों के कारण मुश्किलें बढ़ने के साथ-साथ इलाज छूट जाने की चिंता से भी संकट गहरा गया था.'' दीप्तेंदु को उन दवाओं के गंभीर दुष्प्रभाव भी भोगने पड़े, ''मेरे कान सूख गए थे और स्वादेंद्रियां अजीब हो गई थीं. मेरी दृष्टि और लिखावट भी खराब हो गई थी.'' उन वर्षों को याद करते हुए दीप्तेंदु कहते हैं कि टीबी ने उन्हें भौतिक चीजों के बजाए जीवन को महत्व देना सिखाया. ''इसने मुझे ज्यादा संतुलित और समझदार बना दिया है.''

आशना अशेष

30 वर्ष, वकील, पटना

हिलाकर रख दिया

आशना को 2017 में पता चला कि उन्हें एमडीआर टीबी है. सहारे के लिए परिवार और दोस्त भी उनके साथ खड़े थे लेकिन बीमारी ने उन्हें गहरे डिप्रेशन या अवसाद में डुबो दिया. उन्हें पता यह चला कि मानसिक सेहत पर टीबी के असर के बारे में मुश्किल से ही बात की जाती है. डॉक्टर इसे खारिज कर देते, परिवार समझ नहीं पाता. वे कहती हैं, ''मुझे एहसास हुआ कि डिप्रेशन का भी मरीज पर उतना ही गहरा असर पड़ता है जितना शारीरिक बीमारी का. फिर हैरानी क्या कि टीबी के मरीजों के लिए इसके इलाज की हिदायतें मानना इतना दुश्वार हो जाता है.'' आशना अब ठीक हो चुकी हैं और टीबी से जुड़ी मानसिक बीमारियों से लड़ने में लोगों की मदद के काम में जुटी हैं. वे कहती हैं, ''मुफ्त काउंसिलिंग समेत समग्र योजना के बगैर भारत में टीबी के मरीज अपने रहमो-करम पर जीने को मजबूर रहेंगे.''


भारत पर तपेदिक का ताप

27 लाख मरीज थे भारत में टीबी के, 2021 में. यानी दुनिया भर के एक करोड़ मरीजों में से एक-चौथाई

1.19 लाख मरीज थे भारत में एमडीआर-टीबी के. यानी डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, दुनिया भर के कुल मरीजों में से 26 फीसद

4 लाख लोग हर साल मरते हैं भारत में टीबी से, यानी दुनिया भर में इस रोग से मरने वाले 14 लाख लोगों में से करीब एक-तिहाई

जानलेवा है यह बैक्टीरिया

उस घातक मर्ज के पैदा होने की वजहें, लक्षण, डायग्नोसिस और इलाज जो पारंपरिक दवाओं को गच्चा देने में महारत हासिल कर बैठा है

क्या है ट्यूबरक्यूलोसिस या तपेदिक?

यह माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस नाम के बैक्टीरिया से होने वाला रोग है. अमूमन यह फेफड़ों को चपेट में लेता है लेकिन गुर्दे, दिमाग, लीवर और रीढ़ की हड्डी जैसे अंगों को भी यह संक्रमित कर सकता है. वैसे शरीर में बैक्टीरिया होने के बावजूद सबको टीबी नहीं होता. उस दशा में इसे लेटेंट टीबी यानी सुषुप्तावस्था वाली टीबी कहते हैं

इसके सामान्य लक्षण हैं लगातार खांसी, कफ में खून आना, बिलावजह वजन घटना, बुखार और कंपकंपी होना. संक्रमित व्यक्ति के खांसने, छींकने या बोलने पर हवा के जरिए यह रोग फैलता है. फेफड़े वाली टीबी सबसे ज्यादा संक्रामक है

किसी दूसरे व्यक्ति की सांस से अंदर जाने पर यह फेफड़ों में बैठ जाता है, जहां यह शांत पड़ा रह सकता है या बढ़ने लगता है. सक्रिय टीवी वाला एक आदमी साल भर में आसपास के 5 से 15 लोगों को संक्रमिक कर सकता है

टीबी कब दवाओं के प्रति बेअसर हो जाता है?

भारत में टीबी के एक- चौथाई मरीजों पर इसकी एक या दूसरी दवाएं बेअसर हो चुकी हैं. ऐंटीबायोटिक की कम-ज्यादा खुराक या अवधि बैक्टीरिया को उसके प्रति बेअसर बना देती है

एमडीआर या मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट टीबी में आइसोनियाजिड और रीफैम्पिसिन दवाएं बेअसर हो जाती हैं; एक्सडीआर या एक्सटेंसिवली-ड्रग रेजिस्टेंट टीबी में रीफैम्पिसिन और किसी भी तरह की फ्लूरोक्विनोलोन के अलावा इंजेक्शन से दी जाने वाली तीन सेकंड-लाइन दवाओं एमिकासिन, कानामाइसिन या कैप्रियोमाइसिन में से कम-से-कम एक बेअसर हो जाती है

तो टीबी की पहचान कैसे करें?

स्प्यूटम स्मियर माइक्रोस्कोपी: टीबी की पहचान के लिए यह एकदम खरा टेस्ट है जो फेफड़े से निकले कफ के नमूने से किया जाता है. बीमारी चूंकि धीरे-धीरे बढ़ते बैक्टीरिया से पैदा होती है, इसलिए दवाओं के बेअसर होने का पता लगने में 3-8 हक्रते या उससे ज्यादा भी लग सकते हैं

लाइन-प्रोब ऐसेज: डब्ल्यूएचओ ने सबसे पहले इसी मॉलीक्यूलर टेस्ट को रिकमेंड किया था. इसमें टीबी और पहली तथा दूसरी लाइन की दवाओं के प्रति रेजिस्टेंस का पता लगाने में औसतन दो दिन लगता है. मरीज के फेफड़े से फ्लुइड सैंपल लेकर 'ऐसेज' नामक स्ट्रिप पर उसका परीक्षण किया जाता है

सीबीएनएएटी/ट्रूनैट: डब्ल्यूएचओ से मंजूर इस तरीके में कफ या दूसरे नमूनों को बेहद संवेदनशील और अपेक्षाकृत तेज असरकारी न्यूक्लिक एसिड एंप्लिफिकेशन टेस्ट के जरिए जांचा जाता है. इसमें दो घंटे में टीबी के अलावा यह भी पता चल जाता है कि यह रीफैम्पिसिन से बेअसर हो चुका है या नहीं

दूसरे किस्म के तपेदिक और उनके लक्षण

(शरीर के दूसरे अंगों में होने वाले टीबी के अलग-अलग लक्षण हो सकते हैं, जो खांसी, बुखार और वजन घटने जैसे पारंपरिक लक्षणों से भिन्न हो सकते हैं)

प्ल्यूरल टीबी

प्ल्यूरा यानी फेफड़ों और सीने अंदरूनी अंगों को ढकने वाले टिश्यूज की पतली परत में होने वाला इन्फेक्शन)

सांस लेने में दिक्कत

सीने में दर्द

खांसी होना और 

वजन घटना

ब्रेन टीबी

सिरदर्द, धुंधला दिखना

दिमागी बेचैनी, बेढंगा पोस्चर, गर्दन में अकड़न

मतली, उल्टी

गुर्दे की टीबी

पेशाब में जलन के साथ खून या/और मवाद

बार-बार पेशाब लगना

पेट में या दाएं-बाएं हिस्से में दर्द होना

पेट और आंतों की टीबी

दस्त और कब्ज, वजन घटना, 

भूख कम लगना

पेट दर्द, पेट में गांठ होने जैसा एहसास

अस्थितंत्र या बोन टीबी

जोड़ों में दर्द, जकड़न, रीढ़ में मवाद भर जाना

भयंकर पीठदर्द

मांसपेशियां कमजोर हो जाना

भारत में मौजूद इलाज

साधारण टीबी
दवाइयां: आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन, पायराजिनामाइड और इथेंब्यूटॉल

अवधि: 24 हफ्ते (शुरू में आरंभिक कतार की दवाइयों के आठ हक्रते, उसके बाद आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन और इथेंब्यूटॉल के और 16 हफ्तों का लगातार इलाज)

आम साइड इफेक्ट: सीने में दर्द, थकान, दिल की धड़कन का तेज होना, खूनी खांसी, मतली

खर्च: सरकारी अस्पताल में 7,500 रुपए; निजी अस्पतालों में 20,000 रुपए

एक्सडीआर यानी व्यापक रूप से दवाओं से बेअसर हो चुकी टीबी

दवाइयां: एक्सडीआर-टीबी दरअसल एमडीआर-टीबी में प्रयुक्त एक या अधिक दवाइयों के प्रति बेअसर हो जाती है. इसमें गलत दवा, खुराक या अवधि की वजह से इलाज नाकाम हो जाता है. बाद की पीढ़ी की क्रलोरोक्विनोलोन दवाएं चौथी और पांचवीं श्रेणी की इंजेक्ट की जा सकने वाली दवाओं के साथ दी जाती हैं. मसलन क्लोफाजिमाइन, लिनेजोलिड, एमोक्सिसिलिन/क्लावुलेनेट, थायोसिटाजोन, इमिपेनेम/सिलास्टैटिन, हाइ-डोज आइसोनियाजिड और क्लैरिथ्रोमाइसीन

अवधि: हर मरीज के मामले में अलग-अलग हो सकती है

आम साइड इफेक्ट: जोड़ों का दर्द, त्वचा की रंगत बदलना, डायरिया, अवसाद, दिमाग में बहुत ज्यादा रक्त जमा होना, अनिद्रा, बहुत ज्यादा कमजोरी

खर्च: एक अध्ययन के मुताबिक औसत खर्च 6.9 लाख रुपए

एमडीआर टीबी

दवाइयां: कानामाइसिन, लिवोफ्लॉक्सासिन, साइक्लोसेरिन, एथियोनामाइड, पायराजिनामाइड और इथेंब्यूटॉल. इनमें किसी भी दवाई के प्रति सहनशीलता या प्रतिक्रिया के अंदेशे में रिजर्व दवा के तौर पर पी-एमीनोसैलीसाइक्लिक एसिड दी जाती है

अवधि: 24-27 महीने (छह-नौ महीने का गहन दौर, उसके बाद लगातार 18 महीने का दौर)

आम साइड इफेक्ट: सुनने की क्षमता में कमी, अवसाद, साइकोसिस या मनोविकृति, नजरों का धुंधला होना या बदलना, त्वचा का रंग गहरा होना, थकान और बदन दर्द

खर्च: मुंबई के हिंदुजा अस्पताल के 50 मरीजों पर किए गए और पबमेड में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, इलाज का औसत खर्च 4.7 लाख रुपए था

खाने वाली नई टैबलेट

बेडाक्विलाइन: यह बैक्टीरिया के जिंदा रहने के लिए जरूरी एंजाइम का उत्पादन रोककर इस बैक्टीरिया को मार देती या उसका बढ़ना बंद कर देती है

अवधि: छह महीने

साइड इफेक्ट: सीने में दर्द, चक्कर आना, बलगम में खून, दिल की धड़कन का अनियमित चलना

डेलामानिड: यह बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति के लिए अनिवार्य दो अवयवों का उत्पादन रोक देती है, जिससे बैक्टीरिया मर जाता है

अवधि: छह माह
साइड इफेक्ट: थोड़ा बुखार, सिरदर्द, चक्कर आना, मितली

*बेडाक्विलाइन का पेटेंट जुलाई तक जानसेन फार्मास्यूटिकल्स के पास है और इसकी कीमत प्रति शीशी 7 लाख रुपए रखी गई, जबकि डेलामानिड का पेटेंट अक्तूबर तक ओत्सुका फार्मास्यूटिकल्स के पास है और इसकी एक शीशी की कीमत 1.5 लाख रुपए है. दोनों फिलहाल केवल सरकारी केंद्रों पर उपलब्ध हैं और मुफ्त दी जा रही हैं. एमएसएफ का अनुमान है कि इसके मुकाबले जेनेरिक कीमतें प्रति माह मात्र करीब 8-16 डॉलर यानी 658-1,316 रुपए हो सकती हैं.

टीबी के खिलाफ जंग

जो कुछ किया गया

केंद्र ने 2018 में ही टीबी को 2025 तक भारत से उखाड़ फेंकने का लक्ष्य तय किया था. यह यथार्थ से ज्यादा आशावादी लक्ष्य है. लेकिन इस दिशा में कुछ बड़ी उपलब्धियां तो रही हैं:

लक्षद्वीप और जम्मू-कश्मीर का बडगाम जिला 2021 में  पूरी तरह से टीबी मुक्त घोषित किए गए

अलग-अलग राज्यों के यही कोई नौ जिलों ने 2015 और 2021 के बीच टीबी के मामलों में 60 फीसद कमी दर्ज की

निक्षय मित्र के रूप में 75,000 लोगों और संगठनों ने 10 लाख मरीजों को गोद लिया और वे उन्हें न सिर्फ पैसे से मदद कर रहे हैं बल्कि सामुदायिक सहायता भी मुहैया कर रहे हैं

टीबी की ज्यादा फुर्तीली और सटीक डायग्नोसिस सुलभ करवाने की कोशिश. देश में सीबीएनएएटी/टनैट की सुविधाएं 2014 में महज 40 से बढ़कर 5,090 पर जा पहुंचीं

कुल 34 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने 2021 में घर-घर अभियान चलाकर 22.3 करोड़ लोगों की जांच की. नतीजतन उस साल नए पता चले मामलों में 19 फीसद की बढ़ोतरी हुई

इस पूरे उपक्रम में निजी क्षेत्र को जोडऩे के अच्छे नतीजे मिले. 2014 में 1,06,000 मामलों के मुकाबले 2022 में 7,33,000 से ज्यादा मामले दर्ज हुए

सरकार डीआर-टीबी की दो बेहद अहम दवाइयां—बेडाक्विलीन और डेलामानिड—सरकारी केंद्रों और कुछ चुनिंदा निजी अस्पतालों में मुफ्त मुहैया करवा रही है

इलाज की नई-नई संभावनाओं का अध्ययन किया जा रहा है और आइसीएमआर एक ऐसी दवा का परीक्षण कर रही है जिससे इलाज का वक्त दो साल से घटकर छह महीने रह जाएगा

करीब 71 लाख मरीजों को 2018 के बाद से टीबी के इलाज के सिलसिले में 2,100 रुपए की वित्तीय सहायता मिली है

और जो किया जाना बाकी

टीबी मरीजों की पोषण जरूरतें पूरी करने के लिए निक्षय पोषण योजना के तहत धनराशि 500 रुपए से बढ़ाकर 2,500 रुपए करनी चाहिए

बेडाक्विलीन और डेलामानिड इस साल पेटेंट से बाहर हो जाएंगी. इनके जेनेरिक रूप बनाकर मुहैया किए जाने चाहिए ताकि डीआर-टीबी का खर्च और वक्त कम हो

मरीजों और उनके तीमारदारों की काउंसिलिंग की जानी चाहिए

नीतियां इस तरह तैयार की जानी चाहिए जिससे डीआर-टीबी की जांच का आदेश न देने वालों या अहम ऐंटीबायोटिक्स की गलत खुराक/अवधि लिखने वालों को नतीजे भुगतने पड़ें

ठोस और टिकाऊ अभियान के जरिए इससे जुड़ी भ्रांतियां दूर की जानी चाहिए

इलाज से स्वस्थ हुए टीबी मरीजों को इस बारे में जनसंवाद और सहयोग रणनीति का हिस्सा बनाया जाना चाहिए

''हम इस मकसद से लोगों को जोड़ रहे हैं कि टीबी के लक्षण पहचानने की जागरूकता बढ़े. इसके अलावा टीबी के इलाज के नतीजों को और व्यापक स्तर पर पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं''
—डॉ. नरेश त्रेहन, चेयरमैन, मेदांता—द मेडिसिटी, गुरुग्राम

''टीबी उन्मूलन की दिशा में भारत दुनिया को प्रेरित कर रहा है. निक्षय मित्र जैसी पहल हर देश में होनी चाहिए. यह पायलट नहीं बल्कि व्यापक स्तर की योजना है''
—लुकिका दितियू, एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, स्टॉप टीबी पार्टनरशिप

''डीआर-टीबी की पहचान के लिए आदर्श डाएग्नॉस्टिक टूल तेज नतीजे देने वाले, सटीक, सस्ते, टिकाऊ हों और उनमें टीबी की सभी दवाओं का व्यापक कवरेज हो. इन सारे पहलुओं को एक में समेटना ही असल चुनौती है.''
—डॉ. गुनीशा पसरीचा, प्रिंसिपल साइंटिस्ट, मेडजीनोम लैब्स

''भारत के हुक्मरान टीबी के समूल नाश के मिशन को गंभीरता से ले रहे हैं. यह प्रतीकात्मक फैसला है क्योंकि यह उस देश ने लिया है जो इससे सबसे प्रभावित है''
—लीना मेघानी,  रीजनल हेड, एमएसएफ एक्सेस कैंपेन, दक्षिण एशिया

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