
आनंद चौधरी
नागौर जिले के नावां कस्बे में 11 मार्च की दोपहर को 40 मोरिया नामक जगह पर कई जेसीबी और ट्रैक्टर एक साथ जमीन को समतल कर नमक की क्यारियां बनाने में जुटे थे. मेंढ़ा नदी पर बनी इन 40 मोरियों (नालियों) के जरिए सांभर झील में पानी आता रहा है. अब इन मोरियों को बांध कर झील में पानी आने का स्रोत बंद कर दिया गया है. जिस वक्त झील के कैचमेंट एरिया में ये क्यारियां बनाई जा रही थीं, ठीक उसी वक्त यहां से 500 मीटर दूर नावां पुलिस थाने में इस जमीन पर अवैध कब्जा किए जाने का मुकदमा दर्ज कराया जा रहा था. यह मुकदमा 85 साल की अमर कंवर के पोते भरत सिंह की ओर से दर्ज कराया गया.
भरत सिंह का आरोप है, ''खसरा संख्या 2111/1803 में आने वाली यह 53 बीघा जमीन मावंडाकलां गांव के पूर्व जागीरदार लादूसिंह को जागीर ऐक्ट 1952 के तहत आवंटित हुई थी. राजस्व रिकॉर्ड में अब भी यह जमीन मेरी दादी अमर कंवर के नाम दर्ज है. रवींद्र सिंह ने मेरे दादी के फर्जी हस्ताक्षर करके इस जमीन की फर्जी पावर ऑफ अटॉर्नी बना ली और गोपाल मोदी, सवाई सिंह, विश्वनाथ शाह और जगदीश प्रसाद रूहेला के नाम से बैनामा कर दिया.''
हालांकि, सांभर झील के कैचमेंट एरिया से सटी इस जमीन को लेकर भरत सिंह और अन्य लोगों के बीच विवाद काफी समय से चल रहा है. स्थानीय लोगों को अंदेशा है कि यह विवाद कभी भी खूनी संघर्ष का रूप ले सकता है. अंदेशा गलत भी नहीं है क्योंकि ऐसे ही एक विवाद में 14 मई, 2022 को नावां के नमक कारोबारी तथा भाजपा किसान मोर्चा के जिलाध्यक्ष जयपाल पूनिया की दिन-दहाड़े बाजार में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
फौज से रिटायर हुए जयपाल पूनिया हरियाणा के रहने वाले थे और 15 साल पहले नावां आकर नमक के कारोबार और भाजपा से जुड़ गए थे. राजनैतिक रसूख और प्रशासनिक सांठगांठ के चलते जयपाल ने कुछ ही साल में नावां के नमक कारोबार पर वर्चस्व कायम कर लिया. 2018 में नावां से महेंद्र चौधरी कांग्रेस के विधायक चुने गए. महेंद्र चौधरी के भाई मोती सिंह भी कांग्रेस और नमक के कारोबार से जुड़े थे. राजस्थान में सत्ता परिवर्तन के बाद जयपाल पूनिया का नावां के नमक कारोबार पर एकछत्र राज मोती सिंह को नागवार गुजरा. जयपाल को रास्ते से हटाने के लिए मोती सिंह ने साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीके अपनाए. इसी दौरान जयपाल को बिजली विभाग से 45,000 रुपए के भुगतान का नोटिस मिला और जब जयपाल पैसा जमा कराने बिजली विभाग के दफ्तर पहुंचे तो हरियाणा से बुलाए गए शूटरों ने उन्हें गोलियों से भून दिया. मोती सिंह और भाड़े पर बुलाए गए शूटर फिलहाल जेल में हैं लेकिन नावां के नमक पर वर्चस्व की जंग जारी है.
सांभर और नावां के नमक की इस जंग में जयपुर, अजमेर और नागौर जिलों के हजारों लोग शामिल हैं. स्थानीय लोग इन्हें 'नमक के दारोगा' कहते हैं. इस क्षेत्र में लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता मनोज गंगवाल दावा करते हैं कि सांभर और नावां के आस-पास के इलाकों में करीब एक से डेढ़ हजार करोड़ रुपए के नमक का सालाना अवैध कारोबार चलता है. यही वजह है कि करीब तीन हजार से ज्यादा लोग इससे जुड़े हैं. सांभर झील के पानी से बनाए जा रहे नमक के अवैध कारोबार के लिए न सरकार को किसी तरह का राजस्व देना पड़ता है और न कोई अन्य कर. सो, यहां नमक का माफिया पनप रहा है.

सांभर झील से नमक बनाने के लिए सरकारी कंपनी सांभर सॉल्ट लिमिटेड अधिकृत है. राजस्थान सरकार के मुताबिक, सांभर सॉल्ट लिमिटेड सालाना ढाई से तीन लाख मीट्रिक टन नमक बनाती है लेकिन नमक के अवैध कारोबारी इससे 20 गुना ज्यादा नमक उत्पादित करते हैं. सांभर से सालाना 40 लाख मीट्रिक टन अवैध नमक बनाया जाता है जो देश के अधिकांश इलाकों तक पहुंचता है. सांभर में देश की कुल मांग का 9-10 प्रतिशत नमक बनता है. अवैध कारोबारी जो नमक तैयार करते हैं, उसकी क्वालिटी भी निम्न स्तर की है. सांभर सॉल्ट लिमिटेड के जनरल मैनेजर रक्षपाल सिंह का कहना है कि कंपनी को एक क्यारी में नमक तैयार करने में जहां 8-9 माह लगते हैं, वहीं अवैध कारोबारी महज 15 दिन में नमक तैयार कर लेते हैं. जल्दबाजी में तैयार किया गया यह नमक खाने योग्य नहीं माना जाता लेकिन बिहार, बंगाल, असम जैसे राज्यों में इस नमक को धड़ल्ले से बेचा जा रहा है.
इंडिया टुडे ने झील के कैचमेंट एरिया की पड़ताल की और अलग स्रोतों से जानकारी ली तो पता चला कि झील के कैचमेंट एरिया में 50 हजार से ज्यादा अवैध बोरिंग चल रहे हैं, जिनसे झील का खारा पानी चोरी से 5-7 किलोमीटर तक पाइप लाइन के जरिए सरकारी जमीन पर बनाई गई अवैध क्यारियों तक पहुंचाया जाता है. क्यारी या कंटासर को स्थानीय भाषा में खारड़ा कहा जाता है. नावां और उसके आस-पास के इलाके में इस तरह के करीब 3,000 अवैध खारड़े बने हुए हैं.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के नोटिफिकेशन के तहत सांभर झील और उसके पांच किलोमीटर तक के कैचमेंट एरिया में नमक की खारड़े और बोरिंग करने पर रोक है. लेकिन इस समय यहां करीब 3,500 से ज्यादा क्यारियां बनी हुई हैं. इनमें महज 500 क्यारियां ही वैध हैं. बाकी अवैध. इन क्यारियों में जितना भी नमक बनता है, उसमें सांभर झील के पानी का उपयोग किया जाता है. झील के पेट में बनाए गए 50 हजार से ज्यादा अवैध बोरिंग से पाइपलाइनों के जरिए यह पानी इन क्यारियों तक लाया जाता है. झील के पास-पास करीब 100 किलोमीटर तक पूरे इलाके में जमीन पर जगह-जगह पाइपलाइन और बिजली के तार बिखरे हुए नजर आते हैं जो झील के भीतर बनाए गए अवैध बोरिंग तक पहुंचते हैं. ऐसा नहीं है कि प्रशासन को इस अवैध धंधे की खबर नहीं है. नमक के इस अवैध कारोबार पर प्रशासन पूरी तरह मूक है. इसी का नतीजा है कि पिछले दिनों सांभर झील की मुख्य सहायक नदी मेंढ़ा के बहाव क्षेत्र में नई क्यारियां बना दी गईं.
जयपुर, नागौर और अजमेर जिलों में आने वाली देश की दूसरी और राजस्थान की सबसे बड़ी खारे पानी की झील सांभर का कैचमेंट एरिया 7,500 वर्ग किलोमीटर है. देश की सबसे बड़ी खारे पानी की झील ओडिशा की चिल्का झील को माना जाता है. मेंढ़ा, रूपनगढ़, खारी और खंडेला नदियां सांभर झील में आकर गिरती हैं. ये नदियां हर साल करीब डेढ़ लाख मीट्रिक टन नमक बहाकर सांभर झील में जमा करती हैं.
सांभर सॉल्ट लिमिटेड के जनरल मैनेजर रक्षपाल सिंह बताते हैं, ''सांभर झील तक पानी पहुंचाने वाली नदियों के बहाव क्षेत्र को बाधित करने से झील के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है. नागौर और अजमेर जिले के प्रशासन से सहयोग नहीं मिल रहा. झील का कैचमेंट इलाका बड़ा है लेकिन हमारे पास अवैध गतिविधियों को रोकने के लिए पर्याप्त सुरक्षाकर्मी नहीं हैं.'' नागौर के कुचामनसिटी के सर्कल अधिकारी संजीव कुमार कहते हैं, ''झील के भीतर अवैध बोरिंग रोकना प्रशासन का काम है.''
पिछले चार साल में सांभर सॉल्ट लिमिटेड, पुलिस और प्रशासन ने झील में अवैध तरीके से खोदे गए 545 बोरिंग नष्ट किए हैं. बिजली विभाग ने यहां पिछले पांच साल में करीब 5,000 से ज्यादा अवैध कनेक्शन काटे हैं. हालांकि स्थानीय निवासी चंद्रशेखर शर्मा कहते हैं, ''यह कार्रवाई कागजी है. प्रशासन ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि इस सबके पीछे कौन है. नमक के अवैध कारोबार से जुड़े रसूखदारों को पकड़ने के लिए कभी मुस्तैदी नहीं दिखाई गई.''
दूसरी तरफ नमक के अवैध कारोबार से जुड़े लोगों ने अब बिजली की समस्या का हल भी खोज लिया है. झील के कैचमेंट एरिया से अब सोलर पंप के जरिए पानी नमक की क्यारियों तक लाया जाने लगा है. झील के कैचमेंट एरिया के गांवों में करीब 5,000 से ज्यादा सोलर पंप चल रहे हैं.
सांभर झील में अतिक्रमण रोकने के लिए राजस्थान सरकार ने 8 फरवरी, 2010 को रिटायर्ड आइएएस अफसर विनोद कपूर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया. कपूर कमेटी ने राजस्व विभाग के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में समिति के गठन की सिफारिश की. समिति की 14 फरवरी, 2011 को बैठक हुई जिसमें जिला स्तर पर कलेक्टर और उपखंड स्तर पर उपखंड अधिकारी की अध्यक्षता में समितियां बनाए जाने का सुझाव दिया गया. राजस्थान सरकार ने हाल ही में विधानसभा में बताया कि सांभर झील में जयपुर जिले के फुलेरा क्षेत्र में 175.02 बीघा और नागौर जिले के नावां क्षेत्र में 258 बीघा में सरकारी भूमि पर अतिक्रमण है.
अभिनव राजस्थान पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अशोक चौधरी कहते हैं, ''सरकार ने कमेटियां बनाकर सांभर की तरफ से आंख मूंद ली. इन कमेटियों के बीच तालमेल के अभाव के चलते इनकी कभी संयुक्त मीटिंग नहीं हो पाई. इसी का नतीजा है कि अवैध बोरिंग और अतिक्रमण बढ़ता रहा.'' हिंदुस्तान सांभर सॉल्ट लिमिटेड के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर कमलेश कुमार का कहना है, ''हमने झील का वजूद बचाने के लिए एनजीटी और हाइकोर्ट की मदद ली है.''
राजस्थान की खारे पानी की सबसे बड़ी झील है सांभर. मुगल, राजपूत और अंग्रेजी राज में भी जिस झील का वजूद नहीं मिट पाया, आज नमक के नए माफिया के कारण उसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है.
सांभर के नमक का दारोगा कौन?
सांभर झील को लेकर आज भी यह पहेली है कि सांभर और नावां के इस नमक का मालिक यानी दारोगा कौन है? दरअसल, प्राचीन समय से आज तक सांभर झील के मालिकाना हक को लेकर सवाल बने हुए हैं.
जयपुर फाउंडेशन के पास उपलब्ध रिकॉर्ड के अनुसार, सांभर कस्बे की नींव चौहान वंश के सम्राट वासुदेव चौहान ने रखी थी. उन्होंने शाकम्भरी यानी सांभर को अपनी राजधानी बनाया. सांभर झील का निर्माण भी वासुदेव चौहान के कार्यकाल में हुआ. अजयराज के शासक बनने तक सांभर चौहान वंश की राजधानी रही लेकिन 1113 ईस्वी को अजयराज ने अजमेरू यानी अजमेर नगर की स्थापना की और उसे अपनी नई राजधानी बनाया. चौहान वंश के बाद सांभर झील मुगलों के कब्जे में आ गई.
बताते हैं कि जयपुर रियासत के राजा भारमल की बेटी और अकबर की शादी सांभर लेक टाउन में ही हुई थी. तब झील से सालाना ढाई लाख रुपए की आमदनी होती थी, जो औरंगजेब के काल में 15 लाख रुपए तक पहुंच गई. 1709 तक सांभर पर मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम के नवाब का अधिकार रहा. 1709 में जयपुर के कच्छावा और मारवाड़ के राठौड़ शासकों की सेनाओं ने मिलकर नवाब को खदेड़ दिया. सांभर के नमक की आय दोनों रियासतों में बराबर बंटती थी. कहा जाता है कि जोधपुर रियासत के राजा की मृत्यु पर सांभर के लोग बाईं तरफ और जयपुर के राजा की मृत्यु होने पर दाईं तरफ के सिर के बाल कटवाते थे.
आजादी तक सांभर झील से देश में 14 प्रतिशत नमक की आपूर्ति होती थी. 1835 में अंग्रेजों ने संधि के जरिए झील अपने जिम्मे ले ली. 1870 में ब्रिटिश सरकार ने झील को अपने नियंत्रण में ले लिया और आजादी के बाद से यह केंद्र सरकार के नियंत्रण में रही. अंग्रेजों ने 1876 में सांभर में नमक परिवहन के लिए रेलवे लाइन डाली. 1869 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने सांभर सॉल्ट लिमिटेड के साथ 90 वर्ष का करार किया. फिर, 1 जनवरी, 1959 को भारत सरकार की ओर से सांभर सॉल्ट लिमिटेड को 25 वर्ष के लिए लाइसेंस जारी किया जाता रहा. 23 जुलाई, 1996 में नमक उद्योग को लाइसेंस मुक्त कर दिया गया. अब राजस्थान और केंद्र सरकार की हिस्सेदारी वाली हिंदुस्तान सॉल्ट्स की सब्सिडियरी सांभर सॉल्ट का कब्जा है. राजस्थान और सांभर सॉल्ट लिमिटेड की 40:60 की हिस्सेदारी है. कंपनी राज्य सरकार को सालाना 5.5 लाख रुपए अदा करती है.
सांभर झील में आम लोगों को नमक बनाने की छूट के पैरोकार अभिनव राजस्थान के संयोजक डॉ. अशोक चौधरी कहते हैं, ''नमक को लेकर सरकारें आज भी अंग्रेजों की नीतियों पर चल रही हैं. सांभर झील का मालिक कोई नहीं, सरकार को आम आदमी को नमक बनाने की छूट देनी चाहिए.''
मौत के बाद भी नहीं मिटता नमक का दर्द
जो नमक हमारी रसोई का स्वाद बनाता है उसे बनाने वाले मजदूरों की पीड़ा बहुत दर्दनाक है. स्थानीय लोग कहते हैं कि जो मजदूर जीवनभर नमक बनाने का काम करते हैं, उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार करना बहुत मुश्किल होता है. कई साल तक खारे पानी में काम करने के कारण उनके शरीर के कुछ हिस्से इतने कठोर हो जाते हैं कि आग में जलते नहीं. अंतिम संस्कार के समय उनके हाथ-पैरों का जलना बहुत मुश्किल हो जाता है. बिना जले हुए हिस्से पर नमक डालकर जमीन में दफन कर दिया जाता है. नावां इलाके में नमक की क्यारियों में काम करने वाले मजदूरों में महिलाओं की तादाद ज्यादा है. सांभर और नावां क्षेत्र में नमक निर्माण व औद्योगिक इकाइयों में करीब एक लाख मजदूर कार्यरत हैं. यहां काम करने वाली गीता और परमेश्वरी कुमावत कहती हैं, ''दिनभर नमक के पानी में बैल की तरह कंटावड़ा खींचने के बाद भी 200-250 रुपए से ज्यादा मजदूरी नहीं मिल पाती.''
प्रवासी परिंदों की आश्रयस्थली
सांभर झील कई प्रजातियों के प्रवासी पक्षियों की भी आश्रयस्थली है. अजमेर, जयपुर और नागौर के बीच करीब 230 वर्ग किमी इलाके में फैली सांभर झील प्रवासी पक्षी गुलाबी फ्लेमिंगो की सबसे पसंदीदा जगह है. अध्ययनों के अनुसार, सांभर झील इलाके में जीव-जंतुओं की 212 प्रजातियां पाई जाती हैं. सांभर झील फ्लेमिंगो पक्षियों के लिए भारत में शीत-प्रवास और प्रजनन की दूसरी सबसे बड़ी जगह है. फ्लेमिंगो के सांभर झील के आस-पास देसी व प्रवासी पक्षी पिनटेल, शाउलर, डेबचिक, कूट्स, स्नेक बर्ड, स्फून, मेलार्ड, पोचार्ड, बगुले, टिटहरी भी प्रवास करते हैं. 2020 में सांभर झील में प्रवासी पक्षियों की मौत ने पूरे विश्व का ध्यान खींचा. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उस वक्त करीब 20,000 पक्षी मारे गए जबकि गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार यहां 40 से 50,000 पक्षियों की मौत हुई. मौत की वजह इनमें फैलने वाले बोटुलिनम बैक्टरिया को माना गया. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर शर्मा का कहना है, ''सांभर झील के आस-पास नमक की रिफाइनरियों और अन्य इकाइयों से निकला सल्फ्यूरिक एसिड का अपशिष्ट बेजुबान पक्षियों की मौत की वजह बनता है और जमीन को बंजर बनाता है.''