
पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार पिछले कुछ सालों से एक के बाद एक भ्रष्टाचार के कई आरोपों में घिरती रही है. चाहे शिक्षक भर्ती घोटाला हो या गायों की तस्करी का मामला, अथवा कोयला घोटाला या फिर उसके नेताओं पर जबरन वसूली के आरोप, समय-समय पर इन सबने सत्ताधारी पार्टी की छवि धूमिल ही की है.
अब, तृणमूल कांग्रेस कुछ और नए आरोपों में घिरी नजर आ रही है जिसमें पीएम पोषण योजना के तहत बच्चों के लिए निर्धारित राशन में धांधली के अलावा इसके लिए आवंटित धन का कहीं और इस्तेमाल करना शामिल है. कहा जा रहा कि यह सब बेईमान व्यवसायियों, लचर प्रशासन और निजी और सरकारी स्कूलों के बीच गठजोड़ से चल रहा है. अगर इन अनियमितताओं को जांच में सही पाया गया तो राज्य सरकार को एक बार फिर खासी शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है.
मामला प्रकाश में तब आया जब खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में काम करने वाले संगठनों के एक स्वतंत्र नेटवर्क राइट टू फूड कैंपेन (पश्चिम बंगाल चैप्टर) ने राज्य की तरफ से जारी किए गए आंकड़ों के आधार पर व्यापक शोध किया. इसमें यह बात सामने आई कि महामारी के दौरान अप्रैल 2020 से जून 2022 के बीच लॉकडाउन की अवधि में मध्याह्न भोजन राशन की आपूर्ति काफी कम मात्रा में की गई.
इस वजह से करीब 1.15 करोड़ बच्चे (राज्य में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल जाने वाले बच्चों की कुल संख्या) अपने लिए निर्धारित 45,593 टन चावल से वंचित रहे. रिपोर्ट में कहा गया है कि मुख्यत: दाल और सब्जियों के माध्यम से दिए जाने वाले प्रोटीन के संदर्भ में प्रत्येक बच्चा करीब 7 किलो सामग्री से वंचित रहा.
इस पूरे गड़बड़झाले का मौद्रिक मूल्य आंकें तो यह 1,572 करोड़ रुपए होगा, जिस पर पीएम पोषण योजना (जिसे पहले मिड-डे मील योजना कहा जाता था) के तहत बच्चों का हक था. जाने-अनजाने एक अपराध की तरफ इशारा करने वाली इस पड़ताल ने बहुत से लोगों को हतप्रभ कर दिया, वहीं इस वजह से भी इसे काफी गंभीर माना जा रहा है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-5 (2019-21) से पता चलता है कि बंगाल में पांच वर्ष से कम उम्र के 34 फीसद बच्चे स्टंटिंग (वृद्धिरोध) के शिकार हैं यानी उनकी लंबाई उम्र के हिसाब से कम है.

20 फीसद वेस्टेड (शिशु निर्बलता) यानी काफी पतले हैं और सात फीसद 'गंभीर रूप से पतले’ हैं. और 32 फीसद 'कम वजन’ वाले हैं. इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि ताजा आंकड़े एनएफएचएस-4 (2015-16) की तुलना में प्रत्येक श्रेणी में स्पष्ट तौर पर वृद्धि को दर्शाते हैं.
इस मामले में इंडिया टुडे की पड़ताल में पाया गया कि प्रधानमंत्री पोषण योजना पर अमल में कई अनियमितताएं रही हैं, जैसे इसके लिए आवंटित धन का कथित तौर पर कहीं अन्य इस्तेमाल किया जाना और खाद्यान्नों की हेराफेरी करना सालों से चल रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो निश्चित तौर पर इन्हीं सब कारणों से एनएफएचएस-5 में खतरनाक आंकड़े सामने आए हैं, जिसमें लॉकडाउन के कारण आई बाधा भी शामिल है.
कैंपेन की अगुवाई करने वाली सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता अनुराधा तलवार कहती हैं, ''एनएफएचएस-5 बंगाल के स्कूली बच्चों में कुपोषण का उच्च स्तर दर्शाता है. भूखे रहना तो वंचित तबके के बच्चों की नियति है. स्कूल में परोसा जाने वाला गर्मागर्म भोजन उनके लिए एक छोटी-सी राहत है. लेकिन महामारी के दौरान इसमें आई कमी ने उनके पोषण को प्रभावित किया है और यह एनएफएचएस-6 में दिखाई भी देगा.’’
भाजपा पहले ही यह मुद्दा उठा चुकी है और राज्य में नेता विपक्ष शुभेंदु अधिकारी ने जनवरी में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को पत्र लिखकर बताया था कि ''प्रधानमंत्री पोषण कोष में सुनियोजित ढंग से गबन हो रहा है और इस धन को दूसरी जगह इस्तेमाल करके एक बड़ा वित्तीय घोटाला किया जा रहा है.’’
अपने इस पत्र के साथ बतौर साक्ष्य उन्होंने कुछ दस्तावेज भी भेजे जिनमें दिखाया गया कि कैसे उत्तरी 24 परगना जिले के हिंगलगंज में बीडीओ ने 29 नवंबर से 1 दिसंबर, 2022 के बीच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रशासनिक दौरे के लिए जलपान की व्यवस्था के नाम पर कथित तौर पर 16.25 लाख रुपए मध्याह्न भोजन कोष से निकाले. शुभेंदु अधिकारी ने अपने पत्र में आरोप लगाया है कि एक दशक से अधिक समय से इस धन को प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
इस पत्र में लगाए गए आरोपों और बंगाल में खराब गुणवत्ता वाला भोजन परोसे जाने को लेकर लगातार मिल रही रिपोर्टों को आधार बनाकर केंद्र ने फरवरी के शुरू में स्थिति की समीक्षा के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों और पोषण विशेषज्ञों के दलों को राज्य के विभिन्न हिस्सों में भेजा. हालांकि, इनकी तरफ से अभी तक अपने निष्कर्षों का खुलासा नहीं किया गया है.
दूसरी तरफ, टीएमसी प्रवक्ता कुणाल घोष ने इन सभी दावों को निराधार करार देते हुए इसे बदले की राजनीति बताया है. उन्होंने कहा, ''राज्य सरकार गंभीर वित्तीय संकट के बावजूद मध्याह्न भोजन योजना को हरसंभव बेहतर तरीके से लागू करने में जुटी है, क्योंकि केंद्र की तरफ से धन जारी करना बंद कर दिया गया है...
बेहतर होगा कि वे (अधिकारी) हम पर आरोप लगाने के बजाए अपने राजनैतिक आकाओं से धनराशि जारी करने को कहें.’’ महिला एवं बाल विकास मंत्री शशि पांजा कहती हैं, ''मुझे उम्मीद है कि समीक्षा निष्पक्ष तरीके से की गई होगी. हमारे पास कोई रिपोर्ट नहीं आई है. यदि उन्हें वास्तव में चिंता होती, तो बंगाल में केंद्रीय दल भेजने के बजाए अन्य राज्यों का दौरा करते. यह सब हमारे राज्य को बदनाम करने का तरीका है.’’
पीएम पोषण योजना के तहत, प्राथमिक कक्षा में पढ़ने वाले प्रत्येक बच्चे (एक से पांच साल तक) के लिए हर दिन गर्म भोजन की लागत 5.45 रुपए और उच्च प्राथमिक कक्षा के प्रत्येक बच्चे (छह से आठ साल उम्र तक) के लिए 7.97 रुपए निर्धारित की गई है. इसमें खाना पकाने और खाद्यान्न (चावल या गेहूं) की लागत शामिल नहीं है. गौरतलब है कि प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षा का प्रत्येक बच्चा क्रमश: 100 ग्राम और 150 ग्राम खाद्यान्न का हकदार हैं.
मुफ्त खाद्यान्न की आपूर्ति भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) की तरफ से की जाती है. इस योजना का उद्देश्य बच्चों के पोषण मानकों को पूरा करना और उन्हें एनीमिया और विकास बाधित करने वाली बीमारियों से बचाना है. कुल 1.15 करोड़ स्कूली बच्चों वाले बंगाल में प्रति बच्चा प्रति दिन 5.45 रुपए/7.97 रुपए और स्कूल खुलने के दिनों की संख्या 220 से 240 प्रति वर्ष के हिसाब से पोषण योजना के लिए काफी धन निर्धारित होता है.
कैसे चल रही धांधली
इंडिया टुडे के साथ बातचीत में कई शिक्षकों ने बताया कि स्कूल फंड डायवर्ट करने के लिए अक्सर योजना के लाभार्थियों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, क्योंकि यह खाना खाने वाले बच्चों की संख्या पर आधारित होता है. आम तौर पर दर्शाया तो यही जाता है कि योजना के तहत हकदार 100 फीसद छात्र नियमित रूप से भोजन कर रहे हैं, जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है.
उदाहरण स्वरूप, पश्चिमी मिदनापुर के हरिहरहाट अनाथ स्मृति प्राथमिक विद्यालय में 17 फरवरी को 92 में से केवल 40 छात्र कक्षाओं में हाजिर रहे. आदर्श तरीका तो यही है कि स्कूल भोजन पाने वाले छात्रों की संख्या के बारे में औसतन एक सही तस्वीर सामने रखें. लेकिन ऐसा किया नहीं जाता है. इसके बजाए, स्कूल पूरा फंड मांगते हैं. यह स्टॉक में बचे चावल/गेहूं को इस्तेमाल करने का भी एक तरीका है.
यह दिखाने के लिए कि मध्याह्न भोजन का पूरी तरह उपयोग किया जा रहा है, कुछ और भी तरीके अपनाए जाते हैं. मसलन, बंगाल के अर्ध-शहरी क्षेत्रों में तेजी से फल-फूल रहे निजी प्राथमिक स्कूलों ने सरकारी स्कूलों के साथ हाथ मिला लिया है. सबांग के भाजपा नेता अमूल्य मैती का आरोप है, ''सबांग ब्लॉक (पश्चिम मिदनापुर में) में छह निजी किंडरगार्टन स्कूल हैं, जिनमें से हर एक में 150 छात्र हैं.
माता-पिता अपने बच्चों को निजी प्राथमिक स्कूलों में भर्ती कराते हैं लेकिन साथ ही चाहते हैं कि उच्च कक्षाओं में उन्हें सरकारी स्कूलों में प्रवेश मिल जाए—क्योंकि निजी स्कूलों में या तो माध्यमिक कक्षाएं हैं नहीं और अगर हैं भी तो उनमें पढ़ाना काफी महंगा है. इसलिए, निजी और सरकारी स्कूलों के बीच एक मौन सहमति बनी हुई है. इसके तहत निजी स्कूल सरकारी प्राथमिक स्कूलों को अपने छात्रों का रिकॉर्ड दिखाने की अनुमति देते हैं, ताकि वे अपने यहां छात्रों की ज्यादा संख्या दिखाकर पूर्ण पोषण निधि का दावा कर सकें. बदले में निजी स्कूलों को आश्वस्त किया जाता है कि उनके छात्रों को आगे चलकर सरकारी स्कूलों में समाहित कर लिया जाएगा.’’
हिंगलगंज के एक प्राथमिक स्कूल के शिक्षक कहते हैं, ''एक स्कूल है जिसमें लगभग 10 छात्र हैं. यह कैसे चल रहा है? निजी प्राथमिक स्कूल उन्हें छात्र उधार देते हैं. औसतन 50 से 100 निजी स्कूली छात्र सरकारी पोर्टल पर आते हैं.’’ हालांकि, राज्य सरकार के डिजिटल बांग्ला शिक्षा पोर्टल के तहत हर एक सरकारी स्कूल के साथ-साथ छात्रों का निजी डेटा रखे जाने के बावजूद, यह सब चल रहा है. शिक्षकों का कहना है कि स्कूल की तरफ से जो भी जानकारी मुहैया कराई जाती है, उसे पोर्टल अपलोड कर दिया जाता है और उसकी सत्यता की कोई जांच तक नहीं कराई जाती है.
स्कूल निरीक्षकों को मिड-डे मील सहित सारी जानकारी जुटाने और सत्यापित करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन वे आम तौर पर स्कूलों के आंकड़ों पर निर्भर होते हैं. फिर, कई सरकारी स्कूलों ने छात्रावास भी खोल रखे हैं, जहां मध्याह्न भोजन के राशन का उपयोग कथित तौर पर छात्रावास के बच्चों को खाना खिलाने में भी किया जाता है, भले ही वे पोषण योजना के तहत इसके हकदार न हों.
फिर ऐसे राशन डीलर/वितरक भी हैं जिन्होंने एफसीआइ से योजना के लिए खाद्यान्न का एक बड़ा स्टॉक उठाया. एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं कि अधिकारियों के निर्देश के तहत वे इसका एक हिस्सा अलग रखते हैं. वे कथित तौर पर स्कूलों में चावल की खेप तीन से चार महीने पहले भेजते हैं ताकि वह थोड़ा-बहुत खराब हो जाए, और शिकायतें आने पर उसे खाने योग्य न होना बताया जा सके. फिर डीलर पूरे स्टॉक को वापस ले लेता है, हालांकि इसमें से अधिकांश अच्छी स्थिति में होता है.
इसके बाद वह इसे या तो खुले बाजार में बेचता है या कथित तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को इसकी आपूर्ति करता है. दूसरी तरफ, सूचना मिलने पर एफसीआइ पूरे स्टॉक की भरपाई कर देता है. हावड़ा जिले के अंडुल स्थित एक स्कूल के प्रधानाध्यापक कहते हैं, ''मॉनसून में तो यह खासकर चलता है, जब डीलर बाढ़ के खतरों को अच्छी तरह जानते हुए भी तीन महीने के लिए राशन लेने का दबाव बनाते हैं.’’
इसके अलावा, इस तरह के भी काफी आरोप लग रहे हैं कि बीडीओ मध्याह्न भोजन फंड को एक या दो महीने तक रोक लेते हैं. भाजपा और माकपा जैसे विपक्षी दलों का आरोप है कि यह बैंक में जमा राशि पर अतिरिक्त ब्याज का लाभ उठाने के लिए किया जाता है.
तलवार के मुताबिक, कोविड के दौरान बंगाल में पोषण योजना सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई. वे कहती हैं, ''लॉकडाउन के दौरान कई परिवारों को भुखमरी का सामना करना पड़ा, जबकि बच्चों को पोषण की बेहद जरूरत थी. लेकिन हमने पाया कि बंगाल में बच्चों को महीने में दो किलो चावल और दो किलो आलू मिलते थे, जो मात्रा उनके हक की तुलना में बहुत कम थी.’’
पोषण संबंधी तथ्यात्मक आंकड़ों को देखते हुए पश्चिम बंगाल में पीएम पोषण योजना को पटरी पर लाना बेहद जरूरी है. अगर ऐसा नहीं हो पाता तो इस राज्य की युवा पीढ़ी बड़े पैमाने पर कुपोषण की शिकार हो सकती है.