छत्तीसगढ़ में घने जंगलों के बीच बसा एक अनजाना-सा गांव हर साल तीन दिनों के लिए किसी गहमागहमी भरे सैन्य शिविर में तब्दील हो जाता है. खाकी वर्दीधारी सैकड़ों आदिवासी पुरुष-महिलाएं पहरा देने के अंदाज में गांव के चारों तरफ घूमते नजर आते हैं. कुछ अस्थायी दुकानें भी सज जाती हैं जहां सस्ते दामों पर सैन्य सामग्री—बैग, वर्दी, जूते, बेल्ट, रैंक और प्रतीक चिन्ह आदि—मिलते हैं. हां, हथियारों के नाम पर सैनिकों के पास कुछ खास नहीं होता. उनके पास सबसे बड़ा हथियार डंडा ही होता है. अधिकारी संवर्ग में आने वाले कुछ सैनिकों के पास जरूर वायरलेस सेट होते हैं, जो शिविर में उपलब्ध सबसे आधुनिक उपकरण हैं. गांव में कुछ पेड़ों और लकड़ी के खंभों पर मुर्गे बंधे नजर आ रहे हैं, जिनकी यहां आदिवासी देवताओं के सम्मान में बलि दी जाएगी. यहां एकत्र सैनिक सितारों भरे खुले आसमान के नीचे ही बिस्तर लगाकर सोते हैं और जरूरत की छोटी-मोटी चीजें और बर्तन आदि करीने से उनके तंबुओं के पास रखे रहते हैं. दिन के वक्त कंगला मांझी सरकार के 'सैनिक' अपने अभ्यास और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी में व्यस्त रहते हैं और देश के आदिवासियों के उत्थान की अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हैं. इन गतिविधियों के बीच बाघमार गांव जीवंतता से भर उठता है.
रायपुर से करीब 120 किलोमीटर दूर बाघमार में 5 दिसंबर से 7 दिसंबर तक चलने वाला यह तीन दिवसीय कार्यक्रम एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी कंगला मांझी की पुण्यतिथि के मौके पर आयोजित होता है, जो सुभाष चंद्र बोस से बहुत प्रभावित थे (इसलिए इनके सैनिकों की वर्दी आजाद हिंद फौज—आइएनए—की जैसी ही है). 'सेना' एक स्वयंसेवी बल है जो आदिवासियों के उत्थान की दिशा में काम करता है. हालांकि, इसके बारे में छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बाहर किसी को कोई खास जानकारी नहीं है. लेकिन राज्य की प्रमुख सियासी हस्तियों का इस कार्यक्रम में हिस्सा लेना कोई नई बात नहीं है. पिछले साल 6 दिसंबर को केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री और मंडला से सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते इसमें शामिल हुए. राज्यपाल अनुसुइया उइके भी इस कार्यक्रम में शिरकत कर चुकी हैं.
कंगला मांझी के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म 1880 के आसपास मौजूदा कांकेर जिले के तेलावत गांव में एक गोंड परिवार में हुआ था और उनका नाम हीरा सिंह देव था. हीरा सिंह वन कानूनों को चुनौती देकर ब्रिटिश प्रशासन से भिड़ गए थे. इसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया, और कुछ समय बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल हो गए. उनके बारे में गहन अध्ययन करने वाले प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी लेखक परदेशी राम वर्मा कहते हैं कि आदिवासी समाज के साथ हो रहे शोषण को देखकर ही उन्होंने अपना नाम 'कंगला' रख लिया, जिसका मतलब होता है दरिद्र. कंगला मांझी ने 1915 में महात्मा गांधी से प्रेरित होकर गोंडवाना प्रांत की स्थापना के लिए एक आंदोलन की अगुआई की. अंग्रेजों ने तीन जिलों को मिलाकर एक ऐसा प्रांत गठित करने की पेशकश भी की, लेकिन मांझी ने यह कहते हुए इसे मानने से इनकार कर दिया कि एक अखंड गोंडवाना के बिना जनजातीय एकता के साथ न्याय नहीं हो सकता.
1951 में मांझी एक आंदोलन के सिलसिले में आदिवासियों के एक समूह का नेतृत्व करते हुए दिल्ली पहुंचे और उस दौरान उन्हें कनॉट प्लेस के पास रहने के लिए जगह दी गई. वहां बसाए गए मूल निवासियों के वंशज आज भी वहीं रहते हैं और यह जगह 'नेहरू हिल' कहलाती है. उसी साल मांझी ने श्री मांझी इंटरनेशनल सोशलिस्ट ट्राइबल फार्मर सोल्जर ऑर्गेनाइजेशन की स्थापना की थी. संगठन नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके समाजवादी विचारों से बहुत गहराई से प्रेरित था.
कंगला मांझी की पत्नी और सरकार की अध्यक्ष 'राजमाता' फुलवा देवी कांगे कहती हैं, ''आदिवासी शिक्षा क्षेत्र में पिछड़े हैं और शोषण के शिकार होते रहे हैं. यह संगठन उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के अलावा सशक्तिकरण में शिक्षा की अहमियत को समझाकर स्कूल जाने के लिए प्रेरित करने की दिशा में काम करता है.'' उनके बेटे कुंभ देव कांगे सरकार के उपाध्यक्ष हैं.
आदिवासियों से जुड़े मामलों में ये सैनिक विभिन्न तरीकों से योगदान देते हैं, जिसमें स्थानीय विवाद सुलझाने के लिए मध्यस्थता करने से लेकर समुदाय की शिकायतों की अनसुनी करने वाले अधिकारियों के सामने सामूहिक तौर पर पुरजोर ढंग से आवाज उठाना भी शामिल है. गडाखर गांव निवासी मनोहर परते बताते हैं, ''मेरा भाई रोवा सिंह परते कंगला मांझी सरकार में सैनिक था और 1994 में मैं भी इसका हिस्सा बन गया. कई बार जब पटवारी या पुलिसवाले कोई मसला सुलझाने समय पर नहीं पहुंचते हैं तो हम खुद मध्यस्थता के लिए आगे आते हैं.'' मनोहर परते पेशे से दर्जी हैं, और दिसंबर रिट्रीट में हिस्सा लेने के लिए हर साल 600 किलोमीटर का सफर करके बाघमार पहुंचते हैं.
कोई आपात स्थिति उत्पन्न होने पर संगठन के सदस्य स्थानीय प्रशासन के समक्ष खुद को सहायक बल के तौर पर पेश करते हैं, लेकिन पर्याप्त तरजीह न मिलना उन्हें कहीं न कहीं सालता भी है. मध्य प्रदेश इकाई के कोषाध्यक्ष और कंगला मांझी सरकार के सुरक्षा प्रमुख श्रवण परते के मुताबिक, ''कोविड-19 महामारी के दौरान 2020 और 2021 में जब बड़ी संक्चया में लोग बाहर से लौट रहे थे तब हमने गांवों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए काफी कुछ किया.'' यह संगठन आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की दिशा में भी कार्य करता है; और तीन दिवसीय आयोजन में दो दिन तो जनजातीय नृत्य और साहित्य के प्रचार को समर्पित रहते हैं.
बाघमार में इन आदिवासी सैनिकों का अभ्यास बच्चे की जैसी मासूमियत से भरा होता है और किसी स्काउटिंग शिविर की याद दिलाता है. वर्ष के बाकी समय, अधिकांश सैनिक किसान, दर्जी, नाई या सुरक्षा गार्ड के तौर पर अपने मामूली जीविकोपार्जन में व्यस्त रहते हैं. मांझी सरकार के महासचिव राजू उइके कहते हैं, ''संगठन में अनुमानित तौर पर दो लाख सदस्य हैं.'' इसकी मौजूदगी मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ के बाद सबसे अधिक सदस्य यहीं हैं), ओडिशा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, झारखंड और तेलंगाना जैसे राज्यों में भी है. इसके अलावा, नेताजी की आइएनए में सिर्फ महिलाओं की मौजूदगी वाली 'रानी झांसी रेजिमेंट' की तरह इस सरकार की सेना में भी एक महिला विंग है. 'सैनिकों' को बुनियादी प्रशिक्षण दिया जाता है, जैसे मार्च करना, निर्देशों पर अमल और गार्ड ऑफ ऑनर देना.
हालांकि, सेना का हिस्सा बनने में कुछ जोखिम भी हैं. चार साल पहले महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में माओवादियों ने वर्दी पहनने और पुलिस का साथ देने को लेकर एक 'सैनिक' की हत्या कर दी थी. यही नहीं, कई बार पुलिस भी उन्हें पकड़ लेती है और अक्सर उन पर अपनी वर्दी की आड़ में जबरन वसूली का आरोप लगाती है. बहरहाल, उन्हें लगता है कि सरकार कभी न कभी तो उनकी जमीन देने की मांग पूरी कर देगी, और किसी दिन 'सैनिकों' को स्थानीय पुलिस या सेना में शामिल किए जाने का सपना भी सच हो सकता है.
आदिवासियों की सेना में पदानुक्रम की भी व्यवस्थित संरचना है. संगठन में सबसे निचला पद एक सैनिक का है, जिसके ऊपर पांच गांवों का केंद्र अध्यक्ष होता है. फिर 10 गांवों की इकाई का नंबर आता है, उसके बाद क्रमश: 20 और 40 गांवों की इकाइयों के प्रमुख होते हैं. फिर तहसील, जिला और प्रांत स्तर के प्रमुख नियुक्त होते हैं. 'सेना' में बाकायदा पदोन्नति भी होती है. एक टीम स्थानीय इकाइयों के कामकाज का फीडबैक जुटाती है और जिसकी रिपोर्ट अच्छी होती है, उसे पुरस्कृत किया जाता है. स्वयंसेवी बल होने के कारण किसी को वेतन नहीं मिलता. सेवानिवृत्ति की भी कोई निर्धारित आयु नहीं है. समय-समय पर युवा रंगरूट इसमें शामिल होते रहते हैं. हालांकि, युवाओं के बीच इस बल की अपील धीरे-धीरे कम होती नजर आ रही है.
विडंबनाएं भी कम नहीं
संगठन को आदर्शवाद विरासत में मिला है लेकिन इसमें कई विरोधाभास हमेशा नजर आते रहे हैं. आजादी से पहले, भारत में आंदोलन के शुरुआती दिनों के दौरान मांझी पूरी तरह नेहरू से प्रभावित थे. 1951 के बाद, अपना संगठन स्थापित करने और समाजवादी लाल झंडा अपनाने के बाद उन्होंने बोस से भी प्रेरित होने का दावा किया. लेकिन सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह संगठन वैसे तो समाजवादी दृष्टिकोण अपनाने का दावा करता है, लेकिन फुलवा देवी को आदरपूर्वक 'राजमाता' और उनके पुत्र और सरकार के उपाध्यक्ष को 'राजकुमार' का दर्जा देता है, दोनों ही सामंतियों उपाधियों से प्रेरित हैं.
कुछ लोग सुभाष चंद्र बोस की आइएनए और कंगला मांझी की सेना के बीच सीधे कोई संबंध होने पर सवालिया निशान भी लगाते हैं. बोस के बारे में, खासकर पुराने मध्य प्रांत क्षेत्र के साथ उनके रिश्तों पर, व्यापक शोध करने वाले डॉ. ब्रज किशोर प्रसाद कहते हैं, ''बोस ने जनवरी 1941 में भारत छोड़ दिया था. एक आम धारणा यह भी है कि मांझी ने लाल किले के मुकदमे और ब्रिटिशकालीन भारत में जूनागढ़ अधिवेशन के बारे में पढ़ा-सुना होगा, और बहुत संभव है कि इसी ने उन्हें प्रेरित किया हो.'' बहरहाल, इस तरह की विसंगतियों का मतलब यह कतई नहीं है कि इस आंदोलन को सिरे से खारिज कर दिया जाए. डॉ. प्रसाद कहते हैं, ''मांझी को एक समाज सुधारक के रूप में देखा जाना चाहिए.''
आजादी के 75 वर्षों के बाद भी देश में आदिवासियों के समक्ष पेश आने वाली चुनौतियां बदस्तूर बरकरार हैं, और शायद यही वजह है कि आज दशकों बाद भी इस सेना की प्रासंगिकता बनी हुई है. कंगला मांझी सरकार के लक्ष्य कभी-कभी अस्पष्ट और भ्रामक लग सकते हैं—और हो सकता है कि उसका भविष्य भी अनिश्चित है—लेकिन उसकी तरफ से उठाए जाने वाले मुद्दे अवास्तविक नहीं हैं.