प्रदीप आर. सागर
रोहित भट्ट इस महीने के अंत में सविता कंसवाल के साथ रूस की सबसे ऊंची चोटी माउंट एल्ब्रस को फतह करने के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे. कंसवाल को माउंट एवरेस्ट और माउंट मकालू पर मात्र 16 दिनों में चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला के रूप में जाना जाता है. यह उपलब्धि उन्होंने इसी साल मई में हासिल की थी. ये दोनों अनुभवी पर्वतारोही 41 प्रशिक्षु पर्वतारोहियों और प्रशिक्षकों के एक समूह का हिस्सा थे, जो अपने लक्ष्य से बमुश्किल 100 मीटर पहले डोकरानी बामक ग्लेशियर के पास हिमस्खलन की चपेट में आ गए थे.
यह समूह उत्तराखंड के उत्तरकाशी में स्थित 5,670 मीटर ऊंची चोटी माउंट द्रौपदी का डांडा 2 (डीकेडी-2) के चढ़ाई अभियान पर था. भट्ट का टिहरी गढ़वाल के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है और भारतीय पर्वतारोहण की अब तक की इस सबसे बड़ी त्रासदी में कंसवाल समेत 29 लोगों की मौत हो गई.
21 वर्षीय भट्ट केवल इसलिए बच पाए क्योंकि उन्होंने हिमस्खलन की चपेट में आने से मात्र एक मिनट पहले ही खुद को लंबी रस्सी से अलग कर लिया था. वे बताते हैं, ''हम इस चोटी (डीकेडी-2) को फतह करने के अपने रास्ते पर थे. हम 27 अक्तूबर को माउंट एल्ब्रस पर चढ़ाई के लिए रूस जाने को लेकर काफी उत्साहित थे. हमने योजना बनाई थी कि हम सात दिनों के भीतर एल्ब्रस फतह करके विश्व रिकॉर्ड बनाएंगे. लेकिन अब, सविता के बिना, मैं वहां नहीं जाऊंगा.''
उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग (एनआइएम) के 34 प्रशिक्षुओं और सात प्रशिक्षकों के समूह के लिए 4 अक्तूबर बहुत मनहूस दिन था. 25 दिनों के प्रशिक्षण का प्रैक्टिकल पूरा होने को था. सुबह लगभग 8:45 बजे डीकेडी-2 पर चढ़ते समय, एक बड़ा हिमखंड टूटकर नीचे खिसक गया और इसने लगभग पूरे बैच को 300 फुट नीचे स्थित बर्फ की एक गहरी दरार में खींच लिया. बर्फ की इस कब्र के ऊपर कई टन वजन की और बर्फ और चट्टानें गिरीं. सत्ताइस प्रशिक्षु और दो प्रशिक्षक इसमें दबकर जान गंवा बैठे.
भट्ट बताते हैं कि जब उन सबने रात के 3:15 बजे चोटी पर चढ़ाई शुरू की तब मौसम बिल्कुल ठीक था. चूंकि वे लंबी रस्सी के साथ सहज महसूस नहीं कर रहे थे इसलिए उन्होंने तय किया कि वे एक छोटी रस्सी के सहारे खुद को टिकाएंगे. शायद यह फैसला ही उनके लिए जीवनदायी बन गया. वे लंबी रस्सी पर 18वें स्थान पर थे.
भट्ट कहते हैं, ''हिमस्खलन से कोई आवाज नहीं आई. हमें कोई चेतावनी ही नहीं मिली ताकि हम संभल सकें. हममें से अधिकांश 70 फुट गहरे गड्ढे में गिर गए. पांच अन्य प्रशिक्षकों के साथ, जो किसी तरह बच गए, मैंने अपने सहयोगियों को बचाने की पूरी कोशिश की. लेकिन मैं केवल चार को बचा सका और चार की लाश ही मिल सकी.'' अन्य लोग बर्फ की दरार के अंदर फंस गए जहां बर्फ के नीचे दबने से उनकी मौत हो गई. पर्वतारोहियों के अनुसार, यह एक सामान्य नियम है कि कोई भी व्यक्ति ऐसी स्थिति में दो घंटे से अधिक जीवित नहीं रह सकता.
आपदा की खबर सैटेलाइट फोन से बेस कैंप को भेजी गई और बचाव दल के पहले सदस्य कुछ ही घंटों में मौके पर पहुंच गए. चूंकि एनआइएम केंद्रीय रक्षा मंत्रालय के तहत आता है इसलिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने तत्काल हस्तक्षेप के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को फोन किया, जिसके बाद भारतीय वायु सेना बचाव अभियान में शामिल हो गई. पहाड़ पर मौसम बिगड़ता जा रहा था इसलिए भट्ट समेत आठ पर्वतारोही नीचे बेस कैंप चले आए. छह अन्य लोगों ने भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) के बचावकर्मियों के साथ पहाड़ पर रात बिताई और अगले दिन भारतीय वायु सेना के हेलिकॉप्टरों से उन्हें एयरलिफ्ट किया गया.
जिला प्रशासन से सूचना मिलने के तुरंत बाद मटली स्थित आइटीबीपी की बारहवीं बटालियन सबसे पहले बचाव के लिए आई. बचाव अभियान में 12 पर्वतारोहियों के एक दल को चोटी पर उतारा गया. हालांकि, तब तक यह साफ हो गया था कि बहुत कम लोग जिंदा बचे थे, इसलिए उनका मुख्य कार्य शवों को निकालना था. रात में तापमान -10 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता था फिर भी आइटीबीपी की टीम ने अगले पांच दिनों तक वहां डेरा डाले रखा. 16,000 फुट की ऊंचाई पर एक अस्थायी हेलिपैड बनाया गया. बचाव अभियान में शामिल एक अधिकारी का कहना है, ''फंसे हुए पर्वतारोहियों के परिवारजनों को भरोसा दिलाना हमारे लिए सबसे कठिन था. पहले दो दिनों तक वे अपने परिजनों के जिंदा बचे होने की उम्मीद कर रहे थे. जब तक उन्होंने वास्तव में शव नहीं देखे तब तक उन्हें उनके जिंदा बचे होने की आस थी.''
हादसे में बची एक अन्य पर्वतारोही कंचन बिष्ट का कहना है कि वे फिलहाल यह हादसा याद करने की स्थिति में भी नहीं हैं. वे कहती हैं. ''मैं गहरे सदमे में हूं क्योंकि मैंने अपने कई दोस्तों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा है. लाख कोशिशों के बाद भी मैं उन्हें बचा नहीं पाई. उनके शरीर को खोजकर निकालने के लिए मैं जो कुछ कर सकती थी, मैंने वह सब किया.'' लंबी रस्सी पर सबसे आगे कंचन ही थीं. वे बताती हैं, ''जैसे ही मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है, मैंने खुद को रस्सी से अलग कर लिया. मैं इसलिए जिंदा बच पाई क्योंकि मैं दरार से पांच मीटर दूर फंस गई थी.''
शिखर पर चढ़ने का प्रयास करने वाले 41 पर्वतारोही उन कुल 150 लोगों में से थे, जो 12,600 फुट पर स्थापित डोकरानी के बेस कैंप में थे. इन पर्वतारोहियों को पर्वतारोहण में एडवांस कोर्स के लिए चुना गया था और उन्हें बेस कैंप से चार घंटे ट्रेक करके चोटी तक पहुंचना था. इतनी ऊंचाई पर इतनी बड़ी संख्या में पर्वतारोहियों की मौजूदगी को लेकर सवाल उठे हैं. इस बात की ओर इशारा करते हुए कि भारी बर्फबारी की भविष्यवाणी थी और इस साल सितंबर में आमतौर पर साल के इस समय होने वाली सामान्य बारिश से 250 प्रतिशत अधिक बारिश देखने के बावजूद चढ़ाई का प्रयास किया गया था. दुर्घटना में अपने एक दोस्त को खो देने वाले देहरादून के एक पर्वतारोही विनीत नेगी अभियान पर सवाल खड़े करते हैं.
वे कहते हैं, ''बर्फबारी की आशंका और भारी बारिश के अलावा, पास के बरहाट रेंज में रिक्टर पैमाने पर 2.5 की तीव्रता वाला भूकंप भी आया था. उसे भी अनदेखा किया गया.'' 2015 में, नेपाल में एक भूकंप के कारण हिमस्खलन हुआ था. भूकंप का केंद्र माउंट एवरेस्ट से 250 किमी दूर था. उस घटना ने पर्वतारोहियों के बीच खलबली मचा दी थी क्योंकि उसमें पश्चिम के देशों के कई लोगों सहित 19 पर्वतारोहियों की पास की ढलानों पर मृत्यु हो गई थी. नेगी कहते हैं, ''लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि क्या हिमालय और दूसरे पहाड़ भी बड़े पैमाने पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर रहे हैं. हमने संकेतों को समझने की कोशिश की, लेकिन जल्द ही हम भटक गए.''
उत्तरकाशी त्रासदी में मारे गए लोगों में भारतीय नौसेना के एक सिपाही विनय पंवार भी थे, जिन्होंने पहले एनआईएम में पर्वतारोहण का बुनियादी कोर्स पूरा किया था और एडवांस कोर्स के लिए उनकी अनुशंसा की गई थी. पंवार छुट्टी लेने और फीस का भुगतान करने के बाद शामिल हुए थे क्योंकि नेवल एडवेंचर विंग के तहत एनआइएम की सीटें पहले से ही भरी हुई थीं. सैन्य विभाग के एक नियम के अनुसार, ''छुट्टी की अवधि के दौरान लगी कोई चोट या मृत्यु, भारत में या विदेश में वास्तविक कर्तव्य के दौरान लगी चोट या मौत नहीं मानी जाएगी.'' उनके परिवार के सामने उनकी पेंशन और दूसरे अनुग्रह लाभ गंवाने का खतरा पैदा हो गया है. हालांकि, एक और नियम यह भी है कि ''सेवा मुख्यालय की ओर से विधिवत अनुमोदित सभी खेल आयोजनों को वास्तविक कर्तव्य माना जाएगा.'' चूंकि पंवार, जिन्होंने रोमांच की भावना का परिचय दिया और पहाड़ों में एक खतरनाक प्रशिक्षण गतिविधि पर गए थे जिसकी नौसेना अनुमति और बढ़ावा देती है.
इसलिए उनके परिवार को मरणोपरांत मिलने वाले उन लाभों से वंचित करना अनुचित होगा, जिसके वे हकदार होते यदि उनके पास उस कोर्स के लिए एक आधिकारिक आदेश होता. सशस्त्र बल अपने कर्मियों के बीच साहसिक खेलों को प्रोत्साहित करते हैं फिर भी हर कोई जो अपने जुनून का पीछा करना चाहता है, वह आधिकारिक चैनल के माध्यम से एनआइएम या पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में स्थित हिमालय पर्वतारोहण संस्थान जैसे संस्थानों में नहीं जाता, जो सीधे रक्षा मंत्रालय के अधीन हैं और वहां मंत्रालय और रक्षाकर्मियों के लिए सीटें होती हैं.
कर्नल पी.के. चौधरी, जिन्होंने पिछले साल एनआइएम में अपना बुनियादी पर्वतारोहण कोर्स किया था, वे भी उसी एडवांस कोर्स का हिस्सा बनने जा रहे थे जो हादसे का शिकार हुआ लेकिन प्रशासनिक कारणों से वे इसमें शामिल नहीं हो सके. वे कहते हैं कि पर्वतारोहण एक ऐसा क्षेत्र है जहां हर समय मौत की आशंका होती है, लेकिन 4 अक्तूबर के हादसे में बड़ी संख्या में लोग मारे गए इसलिए यह घटना विशेष रूप से परेशान करने वाली थी. उस दिन केदारनाथ पर्वतमाला में भी बड़े हिमस्खलन हुए थे. एडवांस कोर्स 28 सितंबर को शुरू हुआ था और अंतिम चरण में डोकरानी बामक ग्लेशियर के पास बने कैंप में 10 दिनों तक रहना और फिर डीकेडी-2 चोटी पर चढ़ना शामिल था, जो पर्वतारोही पिछले 50-55 वर्षों से करते आ रहे हैं.
कर्नल चौधरी मानते हैं कि हिमस्खलन की भविष्यवाणी करना संभव नहीं है, फिर भी पर्वतारोहियों को हिमस्खलन संभावित क्षेत्रों की पहचान करने और उस हिसाब से सुरक्षा उपाय करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. वे कहते हैं, ''इस घटना में, दो सबसे भयावह आपदाएं एक साथ हुईं—पहला हिमस्खलन और फिर उसके बाद पर्वतारोहियों का बर्फ की एक दरार में गिर जाना. इतनी ऊंचाई पर बचाव कार्य बहुत कठिन और धीमा होता है. सांस लेना कठिन होता है और ऊर्जा का स्तर मैदानी इलाकों की तुलना में बहुत मामूली होता है. तापमान इतना कम रहता है कि हाथ सुन्न हो जाते हैं. कम ऊंचाई पर मौजूद बचाव दल को आपदा स्थल तक पहुंचने में बहुत अधिक समय लगता है.'' एक ही घटना में इतनी संख्या पर्वतारोहियों की मौत को शायद टाला नहीं जा सकता था, लेकिन उन लोगों को यह बात तसल्ली नहीं देने वाली जिन्होंने अपनों को खोया है.