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आदिवासियों से बड़ी आस

केंद्र सरकार ने 15 आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने का फैसला किया है, क्या भाजपा इस फैसले से आदिवासियों को रिझा पाएगी?

रिझाने की रणनीति : इस साल 20 अप्रैल को गुजरात के दाहोद में आयोजित हुए 'आदिजाति महा सम्मेलन’ को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
रिझाने की रणनीति : इस साल 20 अप्रैल को गुजरात के दाहोद में आयोजित हुए 'आदिजाति महा सम्मेलन’ को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
अपडेटेड 26 सितंबर , 2022

हिमांशु शेखर

छत्तीसगढ़ में लंबे समय से आदिवासी समाज के बीच काम कर रहे आदिवासी नेता और सर्व आदिवासी समाज के प्रदेश सचिव विनोद कुमार नागवंशी गोंड समाज से हैं. वे बताते हैं कि  सरकारी दस्तावेजों में अंग्रेजी में गोंड को एक ही तरह से लिखा गया है, जबकि हिंदी में इसे चार तरह से लिखा जाता है—गोंड, गोड, गोंड़ और गोड़. अनुसूचित जनजाति (एसटी) की सूची में सिर्फ गोंड दर्ज है, इस वजह से जिन लोगों के जाति प्रमाण पत्र में गोंड़ लिखा गया, उन्हें एसटी सूची का लाभ नहीं मिल पा रहा था.

बीते दिनों 15 आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट ने स्वीकृति देकर ऐसे कई आदिवासी समुदायों की दिक्कतें दूर करने का काम किया है जो लिपिगत त्रुटियों की वजह से एसटी सूची में होने के लाभ से वंचित थे. जिन 15 समुदायों को एसटी सूची में शामिल किया गया है, वे हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु से हैं.  

हिमाचल प्रदेश में इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. वहीं कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव अगले साल होंगे. इस नाते यह माना जा रहा है कि केंद्र सरकार का यह निर्णय सत्ताधारी भाजपा की आदिवासी समाज में अपनी पैठ मजबूत करने की रणनीति का एक हिस्सा है. उत्तर प्रदेश के एसटी समुदायों को एसटी सूची में शामिल करने को 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा की तैयारी से भी जोड़ा जा रहा है.

हिमाचल प्रदेश के जिस हाटी समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने का निर्णय केंद्र सरकार ने लिया है, वह प्रदेश के सिरमौर जिले के गिरीपार क्षेत्र में रहते हैं. इनकी आबादी तकरीबन 1.6 लाख है. हालांकि, कुछ लोग यह दावा कर रहे हैं कि इनकी संख्या अब बढ़कर तकरीबन तीन लाख हो गई है. सिरमौर जिले के शिलाई, पांवटा, रेणुका और पछाड़ विधानसभा क्षेत्र में हाटी समुदाय के लोग रहते हैं.

लेकिन इनका प्रभाव सिर्फ इन चार सीटों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पड़ोस के शिमला जिले को मिलाकर इस समाज के लोग 9 विधानसभा सीटों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. भाजपा को उम्मीद है कि इस निर्णय से उसे इन सीटों पर फायदा हो सकता है. हिमाचल प्रदेश में 68 सदस्यों वाली विधानसभा है. 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 47 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. लेकिन इस बार पार्टी के लिए एक-एक सीट का महत्व है, क्योंकि आम आदमी पार्टी के आने से यहां संघर्ष त्रिकोणीय हो गया है. ऐसे में भाजपा के लिए हाटी समाज के प्रभाव वाली नौ विधानसभा सीटों का महत्व समझा जा सकता है.

हालांकि, हाटी समुदाय को एसटी सूची में शामिल किए जाने से स्थानीय स्तर पर थोड़ा असंतोष भी है. हाटी 14 जातियों और उपजातियों का सामूहिक नाम है. इनमें से कुछ एसटी सूची में शामिल होना चाहते थे तो कुछ अनसूचित जाति यानी एससी सूची में ही रहना चाह रहे थे. क्योंकि इन्हें लग रहा था कि एससी सूची में रहकर उन्हें सरकारी नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिल रहा था लेकिन एसटी सूची में आने के बाद 7.5 प्रतिशत आरक्षण में ही उन्हें मुकाबला करना होगा.

अगर यह असंतोष बढ़ा भाजपा को इसका नुक्सान भी उठाना पड़ सकता है. दूसरी अहम बात है कि भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम दिल्ली के संयुक्त महामंत्री विष्णु कांत भी इस फैसले पर सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ''सिरमौर जिले के केवल चार प्रखंड के हाटी लोगों को ही एसटी सूची में सम्मिलित किया गया है, बाकियों को क्यों छोड़ दिया गया?

दूसरी बात यह है कि जब किसी जिले या क्षेत्र में एसटी आबादी आधी से अधिक हो जाती है तो उस क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र का दर्जा भी देना पड़ता है. वहां पेसा कानून लागू होता है, भूमि व वनभूमि से जुड़े कई अधिकार लोगों को देने होते हैं. सरकारें राजनीतिक लाभ तो लेना चाहती हैं लेकिन इन मुद्दों पर संरक्षण देना नहीं चाहतीं.’’ विष्णु कांत यह भी कहते हैं कि सरकार के इस फैसले की वजह से आगे एसटी की आरक्षित सीटें भी बढ़ानी होंगी और उसी अनुपात में एससी की सीटें कम भी करनी पड़ सकती हैं और शायद सरकार ने इसीलिए सभी हाटियों को इस सूची में शामिल नहीं किया.

छत्तीसगढ़ में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इस प्रदेश के भी 12 आदिवासी समुदायों को एसटी सूची में शामिल करने का निर्णय केंद्र सरकार ने लिया है. इनमें 11 ऐसे समुदाय हैं, जिनके नामों के पर्यायवाची को शामिल किया गया है और एक नया एसटी समुदाय है. छत्तीसगढ़ की कुल आबादी में तकरीबन 32 फीसदी हिस्सेदारी आदिवासियों की है. इससे पता चलता है कि इस समाज की चिंता करना किसी भी पार्टी के लिए राजनीतिक तौर पर कितना आवश्यक है.

दरअसल, कई जगहों से ऐसी शिकायतें आती रही हैं कि एक ही एसटी समुदाय का नाम अलग-अलग ढंग से लिखे जाने की वजह से उस समाज के अधिकांश लोग एसटी सूची में शामिल होने के लाभ से वंचित रह जाते हैं. इन दिक्कतों को दूर करने के लिए इसी साल फरवरी में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और अप्रैल में पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह ने केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे. अब इसका श्रेय लेने की होड़ में छत्तीसगढ़ की सत्ताधारी कांग्रेस और केंद्र की सत्ताधारी भाजपा दोनों शामिल हो गई हैं.

कांग्रेस की ओर से कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के प्रयासों की वजह से यह ऐतिहासिक विसंगति दूर हुई. वहीं भाजपा के नेता इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को दे रहे हैं. 90 सदस्यों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में एसटी समाज के लिए भले ही 29 सीटें आरक्षित हों लेकिन यहां आमतौर पर जीतने वाले एसटी विधायकों की संख्या इससे अधिक होती है. अभी प्रदेश में 32 एसटी विधायक हैं. इनमें से 30 सत्ता पक्ष में हैं और 2 विपक्ष में. 

केंद्रीय कैबिनेट ने उत्तर प्रदेश के 13 जिलों में रहने वाले गोंड समुदाय को एससी सूची से हटाकर एसटी सूची में शामिल करने का निर्णय लिया है. गोंड समुदाय की पांच उपजातियों धुरिया, नायक, ओझा, पथारी और राजगोंड को अब एसटी सूची का लाभ मिल पाएगा. कहा जा रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए भाजपा ने छोटे-छोटे समुदायों को अपने साथ जोडऩे की रणनीति के तहत यह निर्णय लिया है.

हालांकि सरकार के इस फैसले पर भी विष्णु कांत सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश में यह दर्जा पाने का पहला हक तो कोल समुदाय को था.’’ केंद्र सरकार के इस निर्णय से उत्तर प्रदेश के 13 जिलों में रहने वाले गोंड समुदाय की उपजातियों को लाभ होगा. 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा कम से कम इन 13 जिलों की संसदीय सीटों पर इस निर्णय का लाभ लेने की कोशिश करेगी. 

केंद्रीय कैबिनेट ने कर्नाटक के बेट्टा-कुरुबा को एसटी सूची में शामिल करने का भी निर्णय लिया है. इसे कडु कुरुबा के पर्यायवाची के तौर पर एसटी सूची में शामिल किया गया है. इस समुदाय की ओर से एसटी सूची में शामिल करने की मांग पिछले 30 सालों से उठ रही थी. कर्नाटक में भी अगले साल विधानसभा चुनाव हैं.

बेट्टा-कुरुबा समाज के लोग मोटे तौर पर कर्नाटक राज्य के तीन जिलों चामराजनगर, कोडागू और मैसूरू जिले में रहते हैं. इस समाज के लोगों को भी जाति के नाम लिखने के अलग-अलग ढंग की वजह से एसटी सूची में शामिल होने का लाभ नहीं मिल रहा था. माना जा रहा है कि भाजपा सरकार की तरफ से लिए गए इस निर्णय का लाभ पार्टी अगले विधानसभा चुनावों में तीन जिलों के विधानसभा सीटों पर लेने की कोशिश करेगी.

इसी तरह से तमिलनाडु के कुरुविक्करन समुदाय को भी एसटी सूची में शामिल किया गया है. तमिलनाडु में भी केंद्रीय कैबिनेट के इस निर्णय का श्रेय लेने की सियासी होड़ दिख रही है. प्रदेश भाजपा जहां इसके लिए खुद श्रेय लेने की कोशिश कर रही है तो वहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन का कहना है कि डीएमके सरकार द्वारा किए गए लगातार प्रयासों की वजह से यह संभव हो पाया है. उल्लेखनीय है कि पिछले साल हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में अपने घोषणापत्र में डीएमके ने कहा था कि अगर पार्टी सत्ता में आई तो वह केंद्र सरकार से इन समुदायों को एसटी सूची में शामिल करने की मांग करेगी.

इसी साल मार्च में स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर एक बार फिर से इन समुदायों को एसटी सूची में शामिल करने की इस मांग को दोहराया था. आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की सलाहकार डॉ. सीमा सिंह कहती हैं, ''आदिवासी समाज के लोगों की एक अलग सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान रही है. अगर उनकी पहचान करने में कहीं कोई कमी रही है तो उसे ठीक करने का सरकार का निर्णय सही है.’’

हालांकि, विपक्षी दलों का सरकार के इस फैसले पर अलग ही रुख है. भारतीय ट्राइबल पार्टी के अध्यक्ष छोटू बसावा कहते हैं, ''केंद्र सरकार आदिवासियों का हक मार रही है. जिन जातियों को अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग में होना चाहिए, उन्हें एसटी सूची में डाला जा रहा है. हम इसका विरोध करेंगे और गुजरात चुनाव में हमारे लिए यह एक मुद्दा होगा.’’

आदिवासी समाज से आने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भक्त चरण दास कहते हैं, ''सरकार ने ठीक काम किया है, लेकिन उसे आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श करके ऐसा करना चाहिए था. इससे किसी को कोई शिकायत नहीं रहती. बाकी आदिवासियों का कल्याण सिर्फ उन्हें एसटी सूची में शामिल करने से नहीं होगा बल्कि सरकार को उन्हें बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध करानी चाहिए. अभी तो आदिवासियों के संसाधनों पर कब्जा जमाने का काम किया जा रहा है.’’

दरअसल, आदिवासी बहुल सीटों पर अब तक भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है. छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में 128 एसटी सीटों में से 86 पर कांग्रेस को कामयाबी मिली थी. वहीं ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुल 97 आदिवासी बाहुल्य विधानसभा सीटों में से भाजपा को सिर्फ चार सीटों पर जीत मिली.

इस स्थिति को बदलने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा पिछले कुछ सालों से आदिवासी समाज में अपनी पैठ मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं. देश की कुल आबादी में इस समाज की हिस्सेदारी 8.14 प्रतिशत है.

अब तक आदिवासी समाज एक संगठित वोट बैंक के तौर पर नहीं उभरा है. कुछ राज्यों में यह कांग्रेस के साथ है तो कुछ राज्यों में स्थानीय पार्टियों के साथ. जैसे झारखंड में आदिवासी समाज के लोग बड़ी संक्चया में झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए वोट करते हैं तो ओडिशा में बीजू जनता दल के लिए.  

भाजपा ने आदिवासियों को रिझाने लिए पिछले कुछ समय में कई काम किए हैं. इनमें सबसे बड़ा निर्णय था आदिवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाना. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समुदाय में पार्टी की पैठ मजबूत करने के लिए अक्सर बिरसा मुंडा का जिक्र अपने भाषणों में करते हैं. बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को मोदी सरकार ने जनजातीय गौरव दिवस घोषित किया है.

वहीं इस साल 20 अप्रैल को वे गुजरात के दाहोद जिले में आदिवासी समाज के एक कार्यक्रम में आदिवासी वेशभूषा में शामिल हुए थे. यहां उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री आदिवासियों के लिए किए गए कार्यों को गिनाया. प्राकृतिक खेती को लेकर केंद्र द्वारा किए जा रहे प्रयासों को भी इस समुदाय को सशक्त बनाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. 

आदिवासी समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अपनी पैठ मजबूत करने की एक वजह यह भी है कि इसी समाज से सबसे अधिक धर्मांतरण ईसाई धर्म में होता है. संघ को लगता है कि अगर इस समाज में उसकी पकड़ मजबूत होती है तो इससे एक तरफ तो भाजपा को चुनावी लाभ मिलेगा, वहीं दूसरी तरफ धर्मांतरण पर भी काबू पाया जा सकेगा.

संघ की सहयोगी संस्था वनवासी कल्याण आश्रम भी शैक्षणिक और अन्य गतिविधियों के जरिए आदिवासी समाज के बीच काम कर रही है. भाजपा और संघ दोनों आदिवासी समाज में अपने सांगठनिक विस्तार के जरिए राजनीतिक विस्तार की हर संभावना को टटोल रहे हैं. 

 

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