scorecardresearch

परत-दर-परत ई-कचरा

ई-कचरे रूपी दैत्य के आकार-प्रकार और उसके प्रबंधन तथा हमारे शरीर और पर्यावरण पर उसके जहरीले असर का एक आकलन.

कचरे का समुद्र : राजस्थान के अलवर में ई-कचरे का संयंत्र ग्रीनवेस्ट
कचरे का समुद्र : राजस्थान के अलवर में ई-कचरे का संयंत्र ग्रीनवेस्ट
अपडेटेड 6 सितंबर , 2022

अजय सुकुमारन

जरा सोचिए, कितनी बार आप सेलफोन बदलते हैं, या नया टीवी, कंप्यूटर या एयरकंडिशनर खरीदते हैं. लेकिन क्या आप थोड़ा ठहरकर कभी यह सोचते हैं कि उन पुरानी चीजों का क्या होता है, जिसे आप बदलते हैं? पता करने के लिए आप सिर्फ उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के मुस्तफाबाद का एक चक्कर लगा आइए. यह देश के सबसे बड़े इलेक्ट्रॉनिक कबाड़खानों में एक है.

यहां की घनी आबादी वाली संकरी गलियों में दुकानें और गोदाम ठुंसे हुए हैं. किसी एक में घुसिए और आप पाएंगे कि हरे, सर्किट बोर्ड छतों तक अंटे पड़े हैं और टीवी सेट के कल-पुर्जे गलियों में बाहर तक बिखरे हुए हैं. किसी दूसरी में, एयरकंडिशनर कंप्रेशर और उसके कल-पुर्जें खुले पड़े हैं. तीसरी गली में सफेद बोरों में भरे कॉपर वायर बाहर झांक रहे हैं. चारों ओर घर्र-घू या धूम-धड़ाम की आवाजें गूंजती रहती हैं और हवा में प्लास्टिक जलने की बू फैली हुई है.

हर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का यहां पुर्जा-पुर्जा हो जाता है, उसमें से सिर्फ लोहा, तांबा या एल्युमीनियम ही नहीं निकाला जाता, बल्कि सोना, चांदी और प्लेटिनम भी छांटे जाते हैं और आखिरी पुर्जा तक बिक जाता है. कहा जाता है कि एक टन अयस्क के मुकाबले एक टन इलेक्ट्रॉनिक कचरे से सौ गुना अधिक सोना निकल आता है. यह तथ्य भी है कि एक टन कबाड़ सेलफोन या पीसी से आप 16 लाख रुपए कीमत का 280 ग्राम सोना पा सकते हैं.

शायद इसी लूट पर आपके स्थानीय कबाड़ी बाजारों की नजर है. इलेक्ट्रॉनिक या ई-कबाड़ पिछले कुछ दशकों से देश में बड़ा कारोबार और बड़ा खतरा बन गया है. इलेक्ट्रॉनिक सामान की तीन मोटी कैटेगरी है-सफेद (रेफ्रिजरेटर, वॉशिंग मशीन और एयरकंडिशनर), सलेटी (डेस्कटॉप कंप्यूटर, लैपटॉप, सेलफोन और प्रिंटर), और भूरा (टेलीविजन सेट, कैमरा और रिकॉर्डर). इन उत्पादों के ई-कबाड़ से आधा तो लोहा और स्टील, 21 फीसद प्लास्टिक और 13 फीसद तांबा, एल्युमीनियम और बेशकीमती धातु निकलते हैं.

इसके अलावा मर्करी (पारा), लिथियम, लीड (शीशा) और कार्डियम जैसे घातक पदार्थ भी निकलते हैं, जिन्हें संभालने में बेहद सावधानी नहीं बरती गई तो ये जहरीले या कैंसरकारी हो सकते हैं (देखें, परत-दर-परत ई-कचरा). भारत अब दुनिया में ई-कबाड़ का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत बन गया है. ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2020 के मुताबिक, भारत में हर साल करीब 32 लाख टन (2019) ई-कचरा निकलता है, जो सिर्फ चीन (1 करोड़ टन) और अमेरिका (69 लाख टन) से पीछे है.

हालात सिर्फ बदतर ही होने वाले हैं, क्योंकि इन सामानों की खपत में उछाल से भारत में टनों ई-कचरा और बढ़ने का खतरा है. हमारे यहां सालाना 15 करोड़ स्मार्टफोन, 1.75 करोड़ टीवी सेट, 2 करोड़ नग ऑडियो उपकरण, 1.45 करोड़ रेफ्रिजेरेटर, और 70 लाख वॉशिंग मशीन बिकती हैं. हर उत्पाद औसतन 9-10 साल टिकता है, इस हिसाब से, दिल्ली स्थित शोध और परामर्श देने वाले स्वयंसेवी संगठन सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) का अनुमान है कि 2030 तक भारत में 1.4 करोड़ टन ई-कचरा पैदा होगा या आज के मुकाबले चार गुना ज्यादा.

ई-कचरे में भारी विस्फोट के मद्देनजर रिसाइक्लिंग उद्योग संगठित स्वरूप लेता दिख रहा है. देश में फिलहाल 472 से अधिक ऐसी इकाइयां हैं. लेकिन अनुमान है कि इनमें कुल ई-कचरे के सिर्फ 15 फीसद का निबटान हो पाता है. यह एक व्यापक तंत्र है, जिसके शुरुआती सिरे पर आपके पड़ोस का कबाड़ी होता है, जो जरूरी सामान को छांटकर बाकी को फेंक देता है, जिससे पर्यावरण में घातक प्रदूषण फैलता है (देखें, ई-कचरा कहां जाता है?). इसी खतरे से देश को निबटना है.

घातक ई-कचरा

ई-कचरे की असंगठित और संगठित दोनों तरह की रिसाइक्लिंग देख चुके, बेंगलूरू में ईवाआरडीडी रिसाइकलर्स संस्था चलाने वाले आसिफ पाशा कहते हैं, ''मर्करी और लीड के बिना कोई ई-कचरा नहीं हो सकता. ये हर उपकरण में होते हैं.’’ 1990 के दशक में जब भारत में ई-कचरा कुछ विदेशी-सी चीज थी, पाशा को पिता की मृत्यु की वजह से कॉलेज छोड़ना पड़ा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से धातु निकालने के पारिवारिक धंधे में जुड़ना पड़ा.

यह अनौपचारिक या असंगठित था, जैसा कि पुराने बेंगलूरू के गोरीपलाया मुहल्ले के दूसरे लोग किया करते थे. पाशा ने 2009 में एक औपचारिक रिसाइक्लिंग औद्योगिक इकाई स्थापित की. उनके मुहल्ले में यह पहला उद्योग था, जिसमें सुरक्षा उपकरण, डस्ट कलेक्टर और धुआं सोखने वाला यंत्र लगा था. उस दशक के अंत तक ई-कचरा सबकी जुबान पर आ गया और बड़ी चिंता का सबब बन गया.

दो दशकों से ई-कचरे पर काम करने वाले दिल्ली स्थित एनजीओ टॉक्सिक्स लिंक की मुख्य कार्यक्रम संयोजक प्रीति महेश कहती हैं, ''अनौपचारिक क्षेत्र में ई-कचरे की मात्रा वास्तव में ज्यादा घटी नहीं है, जिसका मतलब यह है कि ऐसा अभी भी जारी है. भारत के बाहर कई प्राथमिक अध्ययन हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि ई-कचरे का किस कदर असर हो सकता है. हम जानते हैं कि ई-कचरा कितना घातक है और पर्यावरण में प्रदूषण फैला सकता है.’’

इलेक्ट्रॉनिक कचरे की रिसाइक्लिंग में मर्करी, लीड और कैडमियम जैसे भारी धातुओं का निबटान करना पड़ता है, और फिर जलाए जाने के दौरान घातक डाइऑक्सिन और दूसरे प्रदूषणकारी तत्व निकलते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 2021 की रिपोर्ट में बताया गया है कि 1,000 से ज्यादा घातक पदार्थ ई-कचरे से या उसे प्रोसेस करने के दौरान निकलते हैं.

ई-कचरे की रिसाइक्लिंग करने वाले ज्यादातर लोग निम्न आय वर्ग के होते हैं, सस्ते मजदूर रखते हैं और धातु छांटने के लिए घातक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. वे उपयुक्त सुरक्षा पहनावे या तरीकों की परवाह नहीं करते. सोने को विलगाने का अनगढ़ पुराना तरीका एसिड के इस्तेमाल का है, जिससे मजदूरों के जल जाने का खतरा होता है.

कैपेसिटर और ट्रांसफॉर्मर में पाया जाने वाला पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफिनाइल बेहद जहरीला होता है, जिससे इम्यून सिस्टम और प्रजनन अंगों पर बुरा असर पड़ सकता है और कैंसर भी हो सकता है. सर्किट बोर्ड और पॉलीबिनाइल क्लोराइड इनसुलेटेड कॉपर केबल को खुले में जलाने से प्रदूषणकारी तत्व निकलते हैं, जो श्वास नली को नुक्सान पहुंचाते हैं.

यह भी स्थापित तथ्य है कि ई-कचरे के अनौपचारिक या अनगढ़ से निस्तारण से पानी, मिट्टी, हवा में प्रदूषण फैलता है. अब यह तथ्य भी जाहिर है कि मिट्टी और पानी  में घुले ये विषैले तत्व हमारी खाने-पीने की चीजों में घुल जाते हैं और कई तरह की बीमारियों का कारण बन रहे हैं. डब्ल्यूएचओ की 2021 की रिपोर्ट में भारत की चार ई-कचरा निबटान जगहों नई दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नै की मिट्टी के नमूने के अध्ययन केहवाले से बताया गया है कि 'आसपास के मेट्रोपोलिटन इलाकों की मिट्टी में टॉक्सिक पीसीबी की बढ़ी मात्रा का सीधा संबंध अनौपचारिक रिसाइक्लिंग से है.’’ 

कचरे का सही उपचार

इस मसले ने जैसे खौफनाक आयाम ग्रहण कर लिए हैं, उसको देखते हुए केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने 2016 में कड़े नियम बनाए और ई-सामान पैदा करने वाली कंपनियों के लिए पुराने उपकरणों को रिसाइक्लिंग की जिम्मेदारी लेने के लक्ष्य तय किए. संग्रह के लक्ष्य कुल बिक्री के अनुपात में तय किए जाते हैं, जिन्हें एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी (ईपीआर) या विस्तारित उत्पादक दायित्व नाम दिया गया.

ईपीआर के लक्ष्य बायबैक या वापस-खरीद सरीखी अवधारणाओं के जरिए तय और 2018 में संशोधित किए गए. सीएसई की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2017-18 और 2021-22 के बीच 13 बड़े उपभोक्या ब्रांड के लिए संग्रह के कुल सालाना लक्ष्य 80,991 टन से बढ़कर 1,53,889 टन हो गए.

इन कोशिशों के नतीजतन रिसाइक्लिंग प्रक्रिया को और ज्यादा औपचारिक रूप मिला, क्योंकि कई प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी ऑर्गेनाइजेशन (पीआरओ) या उत्पादक दायित्व संगठनों (पिछली गिनती के वक्त 77) ने इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्यूफैक्चररों की तरफ से संग्रह केंद्र स्थापित किए (देखें इन्फोग्राफिक). वे अब ई-कचरे को अनौपचारिक संग्राहकों से समर्पित रिसाइकलिंग इकाइयों तक ले जाने की प्रमुख कड़ी बन गए हैं.

रिसाइक्लिंग इकाइयों की संख्या भी बढ़ी है. नतीजा क्या हुआ? उद्योग का अनुमान है कि पिछले साल भारत में 1.2 मीट्रिक टन ई-कचरा रिसाइकल किया गया. वित्त वर्ष 2020-21 में ईपीआर लक्ष्यों के तहत 3,50,000 टन ई-कचरा एकत्र और संसाधित किया गया.

उद्योग के निकाय मटेरियल रिसाइक्लिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एमआरएआइ) के ई-कचरा प्रभाग के प्रमुख ए.एल.एन. राव, जो ई-कचरा रिसाइक्लिंग  फर्म एक्सिगो रिसाइक्लिंग  के सीईओ और नीति आयोग की चक्रीय अर्थव्यवस्था समिति में भी हैं, कहते हैं, ''सरकार की कार्बन-तटस्थ पहलों और जलवायु परिवर्तन की वजह से आ रही पुरजोर जागरूकता को देखते हुए कचरा प्रबंधन के तमाम हिस्सों में यह बेहद रोमांचक दौर है.

देश को जरूरत है कि रिसाइक्लिंग  सच्चे ढंग से हो और शहरी खनन की अवधारणा कामयाब हो, तभी चक्रीय अर्थव्यवस्था परवान चढ़ेगी.’’ वे बताते हैं कि रिसाइक्लिंग में नए खिलाड़ी आए और मौजूदा खिलाड़ियों ने विस्तार में निवेश किया, ''क्योंकि उन्हें पता है कि इस उद्योग का भविष्य अच्छा है.’’ 

भारत का ई-कचरा प्रबंधन भारी चुनौती और मौका दोनों है. यह शहरी उपभोक्ता से शुरू होता है, जिसे आज समझना होगा कि अपने पुराने उपकरणों का क्या करें. सीएसई में प्रोग्राम मैनेजर सिद्धार्थ घनश्याम सिंह कहते हैं, ''उपभोक्ता होने के नाते क्या हम वह कोशिश करने को तैयार हैं? दरअसल तैयार नहीं हैं.’’

फिर सरकारी महकमों सहित बड़ी तादाद वाले उपभोक्ताओं का ई-कचरा भी जरूर होना चाहिए. बेंगलूरू के ई-परिसरा के पी. पार्थसारथी कहते हैं, ''बहुत भारी तादाद होनी चाहिए. यह कहां जा रहा है?’’ ई-परिसरा ठेठ 2004 में ही केंद्रीय लाइसेंस हासिल करने वाली भारत की पहली ई-कचरा रिसाइक्लिंग  इकाई थी.

अनौपचारिक संग्राहक अपनी कम लागत वाली पद्धतियों के कारण घरों और बड़े उपभोक्ताओं को उनके ई-कचरे की आम तौर पर बेहतर कीमत देते हैं. मसलन, टॉक्सिक्स लिंक्स की 2018 की रिपोर्ट कहती है कि उन्होंने दिल्ली के जिन अनौपचारिक रिसाइकलरों के दस्तावेज तैयार किए, वे सभी 'आवासीय या अनधिकृत कॉलोनियों के जर्जर और तंग कमरों’ से काम करते थे, उनमें से कोई अपने कामगारों को पेशेवर स्वास्थ्य सुरक्षा और शून्य उत्सर्जन, बाहर छोड़े जाने वाले तरल अपशिष्ट या कचरे के शोधन के मामले में स्वास्थ्य सुरक्षा मुहैया नहीं करता था.

रिपोर्ट में कहा गया, ''कचरा साफ तौर पर खुले में या नालियों के पास रखी गई सामुदायिक कचरापेटियों में फेंका जाता, जिससे मिट्टी, पानी और भूमिगत जल के दूषित होने का खतरा था.’’ प्रीति महेश कहती हैं, ''इन वर्षों में एकमात्र बदलाव यह आया है कि यह कुछ ज्यादा दबे-छिपे ढंग से होने लगा, क्योंकि उन्हें पता है कि नियम-कायदे लागू हो गए हैं.’’ 

मुंबई से करीब 70 किलोमीटर दूर 16,000 प्रति वर्ष क्षमता के रिसाइक्लिंग  संयंत्र द रिसाइक्लिंग  कंपनी चलाने वाले करण ठक्कर कहते हैं, ''आम तौर पर लोग ई-कचरा कबाड़ के  कारोबारियों को बेचते हैं जो खतरनाक अवयवों को शहर की नदी में डाल देते हैं.’’ पहली पीढ़ी के उद्यमी ठक्कर कहते हैं कि शुरुआत में अपना ई-कचरा देने के लिए लोगों को राजी करना मुश्किल था, पर धीरे-धीरे हालात सुधरे. ''अपना ई-कचरा इकट्ठा करने के लिए लोग स्वेच्छा से हमें बुलाते हैं.’’

यह अपने आप में कम बड़ी विडंबना नहीं कि जिस देश में कूड़े-करकट का बढ़ता स्तर साफ परेशानी का सबब है, कई औपचारिक रिसाइकलर पर्याप्त ई-कचरा नहीं मिलने की शिकायत करते हैं. ईवार्ड रिसाइकलर्स के पाशा याद करते हैं कि 2009 में जब उन्हें लाइसेंस मिला, लोग अपना ई-कचरा मुफ्त में देते थे.

अब उन्हें इतनी सामग्री भी मुश्किल से मिलती है कि अपनी छोटी-सी इकाई साल में तीन महीने चला पाएं. ई-कचरे के व्यापारियों की तादाद रिसाइकलरों से ज्यादा है और उनके जैसे लोग उन्हें मात नहीं दे सकते. वे कहते हैं, ''यह मेरी परेशानी नहीं है, यह पूरे उद्योग का मसला है.’’ निश्चित रूप से यह बड़ी समस्या बन सकता है.

सीएसई के सिद्धार्थ घनश्याम सिंह बताते हैं कि यूरोपीय देशों में विस्तारित उत्पादक दायित्व 1990 के दशक की शुरुआत से ही मौजूद है, जबकि भारत में यह नवजात अवस्था में है. वे कहते हैं, ''अनौपचारिक क्षेत्र की अपनी ताकतें और कमजोरियां हैं. उनकी ताकत संग्रह है.’’ खतरनाक पदार्थों की रिसाइक्लिंग के रिसावों को बंद करने की जरूरत है. मगर इस आपूर्ति शृंखला को औपचारिक बनाने का तरीका पेचीदगियों से तार-तार है.

क्योंकि यह हजारों की आजीविका का स्रोत भी है. ई-परिसरा के पार्थसारथी कहते हैं, ''यह होगा. मगर विकास धीमे-धीमे ही होने वाला है. यही जर्मनी में हुआ और स्विट्जरलैंड में भी. जब हमने शुरू किया तब उनकी संग्रह दर मुश्किल से 20 फीसद थी. अब यह बढ़ी है.’’ जर्मनी और स्विट्जरलैंड में बाजार में रखे गए इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों की संग्रह दर 2019 में 44.3 फीसद और 2018 में 68 फीसद थी.

मई में नए ई-कचरा नियमों का मसौदा रखा गया, जिसमें भारत के ई-कचरा प्रबंधन का जीर्णोद्धार प्रस्तावित था. एक्सिगो के राव इसे गेम-चेंजर मानते हैं. कई दूसरी बातों के अलावा अब ज्यादा तरह के उत्पाद ई-कचरे की छतरी के तहत आएंगे—पहले 21 के मुकाबले 95 चीजें, जिनमें खिलौनों से लेकर लोहे के संदूक तक हैं. फिर मौजूदा चलन से हटकर रिसाइकलरों को लाइसेंस अब राज्य के बोर्ड नहीं बल्कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड देगा.

आखिर में लेन-देन के लिए ऑनलाइन पोर्टल का तंत्र प्रस्तावित है, जिसमें ईपीआर प्रमाणपत्र भी है, जिसे वस्तुओं के उत्पादक खरीद सकते हैं. भारत की सबसे बड़ी ई-कचरा शोधन कंपनियों में से एक एटेरो रिसाइक्लिंग के नितिन गुप्ता कहते हैं, ''कुल मिलाकर ये नियम-कायदे अत्यंत सकारात्मक और सही दिशा में कदम हैं.’’ उत्तराखंड के रुड़की में स्थित यह संयंत्र 200 मीटर लंबा गलियारा है जिसमें एक के बाद एक तीन शेड हैं.

पहले शेड के अगले हिस्से में प्रशासनिक दक्रतर और पिछले हिस्से में धातु के टुकड़े करने वाली प्राथमिक इकाई है. एसी, रेफ्रिजरेटर, बड़े टीवी पैनल, धातु की चादरों सरीखी ई-कचरे की बड़ी चीजों को रिसाइकल करने के लिए छोटे टुकड़ों में बांटकर अलग किया जाता है. दूसरे शेड में ज्यादातर ऑटोमोबाइल की हजारों लीथियम-आयन बैटरियां करीने से लगाए ढेरों में रखी हैं और कामगार उनके हिस्सों को एक-एक करके विघटित कर रहे हैं. पिछले हिस्से में बहुत छोटे टुकड़े अलग करने का इलाका है, जहां और भी छोटे और खास ई-कचरे को तोड़ा जाता है.

इस शेड की ऊपरी मंजिल पर कामगारों की फौज फोन, प्रिंटर, लैपटॉप और छोटे एलसीडी सरीखी छोटी-छोटी चीजों के ई-कचरे से खनिज तोड़कर निकाल रही है. इस मंजिल पर मटेरियल टेस्टिंग लैब के साथ वह हिस्सा भी है जहां कीमती खनिज निकाले जाते हैं. शेड के सुदूर छोर पर घुलनशील ई-कचरे से धातु और खनिज निकालने के लिए हाइड्रो मेटलर्जिकल प्रोसेस के सूक्ष्म प्लेटफॉर्म हैं. 

आखिरी शेड में भट्टियां हैं जहां छांटे गए कचरे से तांबे और एल्युमिनियम सरीखी धातुएं पिघलाई और सिल्लियां बनाने के लिए सांचों में डाली जाती हैं. दूसरे हाथ की तरफ पानी की विशाल नांदों में पृथक घुलनशील कचरा है, जिसमें गाद निकालने वाली और इलेक्ट्रॉनिक आयन एक्सचेंज प्रणालियों का इस्तेमाल किया जाता है. भारत में ई-कचरे की रिसाइक्लिंग के अग्रमोर्चे पर सन्नद्ध एटेरो रोज करीब 160 टन ई-कचरा संसाधित करती है. यह दो और संयंत्र शुरू करने की तैयारी कर रही है—एक भारत में और दूसरा पोलैंड में.

हालांकि मौजूदा आपूर्ति शृंखला में सभी आशावादी नहीं हैं. 'करो संभव’ के संस्थापक प्रांशु सिंघल कहते हैं, ''इन नियमों को लेकर बहुत ज्यादा चिंता है.’’ 'करो संभव’ पीआरओ है जिसके देश भर में 55 संग्रह केंद्र हैं जो हर साल 5,000 टन ई-कचरा इकट्ठा करते हैं. सिंघल को आशंका है कि नया मसौदा पीआरओ को उस अनिवार्य भूमिका से बेदखल कर देता है. वे कहते हैं, ''संग्रह के चैनल स्थापित करने पर बहुत कम ध्यान दिया गया है, जो मेरे लिए चक्रीय होने के केंद्र में है.

हम मानकर चल रहे हैं कि रिसाइकलर जादुई छड़ी से (ई-कचरा) इकट्ठा कर लेगा.’’ बेंगलूरू स्थित लाभ निरपेक्ष संगठन साहस जीरो वेस्ट की सीओओ शोभा राघवन इससे सहमत हैं. ई-कचरा नियमों की शुरुआत के बाद बीते पांच साल में ही यह हुआ कि पूरा क्षेत्र जबरदस्त जागरूकता और प्रशिक्षण मेलजोल के साथ ज्यादा औपचारिक व्यवस्था की तरफ बढ़ने लगा. वे कहती हैं, ''पीआरओ और विघटन करने वाली संस्थाओं को हटाकर पांच साल में बने पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करना अप्रत्याशित था. दुनिया भर में कहीं भी किसी उद्योग के पास ऐसी आपूर्ति शृंखला नहीं है जिसका बस शुरुआती और समापन बिंदु है.’’

आगे का रास्ता

ऐसे सरोकारों को जहां नए नियमों में साफ तौर पर जगह देने की जरूरत है, वहीं अब ज्यादा से ज्यादा ध्यान टिकाऊ खपत पर है. जुलाई में उपभोक्ता मामलों के केंद्रीय मंत्री ने मरम्मत के अधिकार के व्यापक विधायी ढांचे पर काम करने के लिए समिति का गठन किया, जिसके पीछे सोच यह थी कि उपभोक्ता को अपने उत्पादों को दुरुस्त और रूपांतरित कर पाना चाहिए. नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में कंज्यूमर लॉ ऐंड प्रैक्टिस के चेयर प्रो. अशोक पाटील इस समिति में हैं. वे कहते हैं, ''मरम्मत के अधिकार का दायरा बहुत व्यापक है, जिसमें ई-कचरे की समस्या भी आती है.’’

हमने पहले भी कहा कि समस्या और अवसर विशाल हैं. महामारी के दौरान, जब ऑनलाइन कक्षाएं और घर से काम करना जरूरी हो गया, स्मार्टफोन और लैपटॉप की बिक्री में हुई बढ़ोतरी पर विचार कीजिए. 4-5 साल में इन उपकरणों का जीवनकाल खत्म हो जाएगा और वे कबाड़ बाजार में आ जाएंगी. क्या हम इसके लिए तैयार हैं? बेंगलूरू की रिफर्बिशिंग और रिसाइक्लिंग कंपनी सेलेब्रा ग्रीन के सीईओ रवि कुमार नीलाद्रि कहते हैं, ''जाहिरा तौर पर नहीं.’’

वे आगे कहते हैं, ''ये सभी कदम सही दिशा में हैं, पर सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि हम अनौपचारिक हिस्से को औपचारिक के साथ कैसे जोड़ते हैं. मेरी राय में यह नया और तेजी से बढ़ता हिस्सा है और हमने सतह तक नहीं कुरेदी है.’’

विशेषज्ञ ई-कचरे के प्रबंधन के लिए लंबे वक्त के समाधान की पेशकश करते हैं, जिनमें मैन्यूफैक्चरर पर पर्यावरण के अनुकूल ऐसे उत्पाद विकसित करने के लिए जोर डालना भी है जिनका न केवल जीवनकाल ज्यादा हो बल्कि वे सुरक्षित ढंग से रिसाइकल की जा सकने वाली सामग्री का भी इस्तेमाल करें. टॉक्सिक्स लिंक्स की प्रीति महेश कहती हैं, ''कंपनियां लंबे वक्त टिकने के लिए डिजाइन किए गए उत्पाद नहीं बना रही हैं. दरअसल वे उत्पादों के जीवनचक्र में सुधार लाने के लिए अनुसंधान में निवेश नहीं कर रही हैं.’’ 


बहरहाल, यकीनन जिम्मेदारी हमारी भी है. उपभोक्ता होने के नाते हमें जोर देना चाहिए कि हम बस ऐसे उत्पाद खरीदें जो सुरक्षित ढंग से रिसाइकल और इस्तेमाल किए जा सकें और उनका हश्र उन इलेक्ट्रॉनिक कब्रगाहों में न हो जो बीमारियों की शक्ल में हमें बार-बार तंग करती हैं. फिर देश के जल, जमीन और हवा का भी ख्याल रखना है.

—साथ में अनिलेश एस. महाजन और किरण डी. तारे

Advertisement
Advertisement