
दिल्ली के जामिया नगर में रहने वाली रिजवाना ने 2009 में फरीदाबाद के सेक्टर 77 स्थित बीपीटीपी प्रोजेक्ट में चार बेडरूम का फ्लैट 32 लाख रुपए में बुक कराया, सारा पैसा लोन और अपने संसाधनों से बिल्डर को वक्त पर दे दिया. लेकिन 13 साल बाद भी फ्लैट नहीं मिला और पिछले चार साल से साइट पर ऊंची घास के बीच लेंटर के साथ लाल ईंट की दीवारें देखते-देखते उनकी आंखें थक गई हैं. बिल्डर लगातार टालमटोल कर रहा है, हालांकि यह प्रोजेक्ट रेरा के तहत पंजीकृत है.
गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में रह रहे प्राइवेट जॉब करने वाले दीपक मिश्र ने 2010 में आम्रपाली बिल्डर के ड्रीमवैली प्रोजेक्ट में 17 लाख रुपए देकर दो बेडरूम का फ्लैट बुक किया और उसकी ईएमआइ 15 साल के लिए 15 हजार रुपए प्रतिमाह देने लगे. उन्हें तय समय पर फ्लैट नहीं मिला. बाद में बिल्डर की धोखाधड़ी सामने आई. यह सब उठापटक देखकर दीपक ने 2017 में ईएमआइ चुकाना बंद कर दिया, जिससे उनकी मुश्किल दोहरी हो गई. लोन देने वाला बैंक, ऋण वसूली अधिकरण (डीआरटी) चला गया. इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने आम्रपाली के मालिक को जेल भेजा और दीपक का बैंक के साथ समझौता हो गया. अब दीपक 7 साल के लिए 20 हजार रु. ईएमआइ दे रहे हैं और मकान उन्हें नहीं मिला है. उनके लिए मकान की कीमत लगभग दोगुनी हो गई है, पर मिला नहीं है.
बी ब्लॉक सेवंथ एवेन्यू, गौर सिटी, ग्रेटर नोएडा वेस्ट के निवासी विनीत अरोड़ा ने मार्च 2018 में रेडी टु मूव स्कीम के तहत फ्लैट लिया, जिसमें उन्हें क्लब मेंबरशिप समेत 10 चीजें देने का वादा किया गया. रियल एस्टेट एजेंट इन्वेस्टर क्लीनिक ने ये वादे किए थे. लेकिन बिल्डर बायर एग्रीमेंट में ये सुविधाएं और चीजें आने वाले वक्त में देने की बात की गई थी. डीजल जेनरेटर सुविधा देने का वादा था लेकिन बाद में इससे मना कर दिया. इस पर उन्होंने 2019 में रेरा में शिकायत की लेकिन उसने इस मामले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया. उन्होंने आखिरकार 2021 में पजेशन ले लिया.

मैनेजमेंट प्रोफेशनल पुनीत पाराशर ने आम्रपाली हार्टबीट सिटी सेक्टर 107 में 2011 में तीन बेडरूम का फ्लैट बुक कराया. 2013 में 90 प्रतिशत पैसा दे दिया. उन्हें अभी तक फ्लैट नहीं मिला है. इसके लिए उन्होंने अन्य खरीदारों के साथ आम्रपाली फ्लैटबायर्स एसोसिएशन के बैनर तले लंबी लड़ाई लड़ी है. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद उम्मीद जगी है. पाराशर कहते हैं कि उम्मीद है कि तीन साल में उन्हें घर मिल जाएगा.
लेकिन फाइट फॉर रेरा अभियान चलाने वाले कोलकाता के अभय उपाध्याय बताते हैं कि मैं जिस घर में फंसा था, वह मुझे मिल चुका है. बिना रेरा मेरे साथ जुड़े सभी खरीदारों को भी मैंने घर दिलाया. उन्होंने कोलकाता वेस्ट इंटरनेशनल सिटी में जहां 390 एकड़ जमीन बिल्डर को दी गई, 2006 में घर बुक किया जिसे जून 2008 में मिलना था. उन्होंने सोचा 6 महीने देर हो जाएगी, मार्च तक तो मिल ही जाएगा. जनवरी 2009 में जब वे साइट पर गए तो वहां घास ऊगी हुई थी. इस प्रोजेक्ट का पैसा बिल्डर ने डाइवर्ट कर दिया था. कंज्यूमर फोरम, अदालत, हाइकोर्ट जाने से लेकर धरना-प्रदर्शन तक किया. वे दिल्ली-एनसीआर के बिल्डर पीड़ियों तक भी पहुंचे और उनके संगठन ने रेरा कानून बनवाने की लंबी लड़ाई लड़ी. अभय उपाध्याय केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय की सेंट्रल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य और फोरम फॉर पीपुल्स कलेक्टिव एफर्ट के प्रेसिडेंट हैं.
विनीत अरोड़ा को बिल्डर की ओर से क्लब की मेंबरशिप और अन्य चीजों के मामले में दरअसल बिल्डर-बायर एग्रीमेंट का सख्ती से पालन कराने की जरूरत है. किसी हाउसिंग प्रोजेक्ट को ऑक्यूपेंसी सर्टिफिकेट (ओसी) देने से पहले सरकारी टीम ढांचे की जांच तो करती है लेकिन कमोड, बाथरूम, बिजली स्विच लगा या नहीं अथवा बिल्डर के किए अन्य वादे पूरे हुए या नहीं-यह नहीं देखती. अभय उपाध्याय कहते हैं कि वे सिर्फ ईंट-गारे का अप्रुवल देते हैं. काफी हद तक रेरा भी मकान दिलाने पर सीवर-बिजली-पानी व्यवस्था देने तक ही सीमित है. अनेक मामलों में बिल्डर का वादा पूरा कराने में रेरा विफल रहा है.

अभी देश में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अलग-अलग बिल्डर-बायर एग्रीमेंट स्वरूप हैं, इनमें एकरूपता नहीं है. मॉडल बिल्डर बायर एग्रीमेंट पूरे देश में लागू करने से जुड़ा केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी में केंद्र सरकार से राज्य के रेरा नियमों की जांच कर तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा है. यह जांच इस दिशा में होगी कि राज्यों ने केंद्र के रेरा नियमों को कहीं तोड़-मरोड़ तो नहीं दिया है. जांच मॉडल बिल्डर-बायर एग्रीमेंट की दिशा में जरूरी है. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला नहीं आया है.
आखिर मॉडल बिल्डर बायर एग्रीमेंट क्यों जरूरी है. इसकी मांग वाली अपनी याचिका में वकील अश्विनी उपाध्याय ने दलील दी है कि प्रमोटर बिल्डर और एजेंट ग्राहकों के पैसे का गलत उपयोग करने की नीयत से एकतरफा करार करते हैं जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और रेरा ऐक्ट में भी मॉडल एग्रीमेंट का प्रावधान नहीं है. खरीदार की असली समस्या तो एकतरफा एग्रीमेंट है जो खरीदार और बिल्डर को एक धरातल पर नहीं रखता और यह आपराधिक साजिश, कॉर्पोरेट फ्रॉड, धोखाधड़ी के साथ मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है.
मकान मिलने में बेइंतिहा विलंब हो रहा है. आंकड़े बताते हैं कि अकेले नोएडा-ग्रेटर नोएडा में 1 लाख से अधिक ऐसे फ्लैट अटके हुए हैं जो रेरा कानून आने से पहले लॉन्च हुए थे. आम्रपाली फ्लैट बायर्स एसोसिएशन के पुनीत पाराशर कहते हैं कि रेरा से पहले के ज्यादातर अटके फ्लैटों में मुख्य समस्या बिल्डर का फंड डायवर्ट करना है. इनमें रेरा के रिफंड ऑर्डर पर भी अमल नहीं हो रहा है. करीब 100 लोग आम्रपाली में ही रिफंड ऑर्डर ले आए हैं लेकिन उस पर अमल नहीं हुआ. फंड डाइवर्ट करने की जिम्मेदारी बिल्डर पर तय नहीं हो पा रही है (आम्रपाली का मामला सुप्रीम कोर्ट देख रहा है. कोर्ट ऑर्डर दे रहा है और जेल भी भेज रहा है). रेरा इस तरह के अन्य प्रोजेक्ट में कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है. वकील अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि रेरा के तहत की गई दंड व्यवस्था प्रभावी नहीं है. इसके तहत दिया जाने वाला दंड बहुत कम और अस्पष्ट है. जाहिर है, रेरा में संशोधन की जरूरत महसूस हो रही है.
महाराष्ट्र रेरा के पूर्व चेयरमैन गौतम चटर्जी कहते हैं कि रेरा में बदलाव होना चाहिए. रेरा में प्रोजेक्ट इसलिए रजिस्टर होते हैं ताकि खरीदारों को सही समय पर मकान मिले. एक बार रजिस्टर्ड हुए प्रोजेक्ट का पूरा होना जरूरी है. अगर बिल्डर प्रोजेक्ट अधूरा छोड़ दे या किसी वजह से प्रोजेक्ट अटक जाए तो आवंटियों की एसोसिएशन के साथ मिलकर रेरा को उस प्रोजेक्ट को पूरा कराने का प्रावधान है. चटर्जी कहते हैं कि कानून में संशोधन कर इसमें वित्तीय संस्थानों को भी शामिल करना चाहिए. ऐसा किए बगैर अटके प्रोजेक्ट का पूरा होना बहुत मुश्किल है क्योंकि वह भी एक स्टेकहोल्डर है. बिल्डर वित्तीय संस्थानों के पास फ्लैट गिरवी रखकर पैसा उठाता है.
चटर्जी कहते हैं, ''रेरा को सिर्फ बिल्डर, एजेंट और खरीदार को निर्देश देने के अधिकार से आगे की शक्तियां मिलनी चाहिए. इसमें निवेशक और मंजूरी देने वाले संस्थानों को निर्देश देने का भी अधिकार रेरा को मिलनी चाहिए. रियल एस्टेट सेक्टर के सभी हिस्सेदारों की प्रोजेक्ट में जिम्मेदारी तय करने का अधिकार रेरा को मिलना चाहिए.''
ऑनगोइंग प्रोजेक्ट के मामले में रजिस्ट्रेशन कराने के दौरान डेवलपर्स ने प्रोजेक्ट की नई डेडलाइन दी क्योंकि एक डेडलाइन वे पहले ही पार कर चुके थे. नई टाइमलाइन के मसले पर डेवलपर्स ने जान-बूझकर ज्यादा वक्त ले लिया. इस पर खरीदारों के प्रतिनिधियों ने रेरा नियम बनते वक्त आपत्ति भी दर्ज की थी. हालांकि केंद्र सरकार के रेरा नियमों में साफ है कि बचे हुए काम के अनुसार ही प्रोजेक्ट पूरा करने की तारीख तय होगी. बिल्डर की दी हुई टाइमलाइन मानने के लिए रेरा बाध्य नहीं है. पुराने प्रोजेक्ट में भी बिल्डर को खरीदारों से लिए पैसे का 70 प्रतिशत एस्क्रू अकाउंट में रखने का प्रावधान केंद्र के रेरा में तो था लेकिन महाराष्ट्र, गुजरात और अन्य राज्यों ने इसके लिए बिल्डरों को बाध्य नहीं किया. अभय उपाध्याय कहते हैं कि अगर सरकारें रेरा कानून के तहत पूर्व के प्रोजेक्ट में भी पैसा जमा कराने के लिए बाध्य करतीं तो आज जो विलंब हो रहा है, वह न होता.
एक और बड़ा मुद्दा है कंप्लीशन सर्टिफिकेट (सीसी) और ऑक्यूपेंसी सर्टिफिकेट (ओसी) का. कानून में यह होना चाहिए था कि बिल्डर कंप्लीशन सर्टिफिकेट (सीसी) मिलने के बाद ही पजेशन देता. वह कॉमन एरिया डेवलपमेंट का काम सबसे आखिर में करता है. लेकिन ओसी पहले हासिल कर तैयार टॉवरों का पजेशन देना शुरू कर देता है. पार्क, स्विमिंग पूल वह सबसे बाद में बनाता है.
रेरा में 19 (10) के प्रावधान के तहत ओसी के दो महीने के भीतर पजेशन लेना पड़ेगा वरना खरीदार पर पेनाल्टी लगेगी. रेरा का काम यह देखना था कि विज्ञापन में किए वादे और प्रोजेक्ट में निभाए गए हैं या नहीं. ओसी के आधार पर पजेशन लेने से लोग वहां रहने तो लगते हैं लेकिन लगातार निर्माण कार्य होने से वहां रहना काफी मुश्किल हो जाता है. रेरा इसका समाधान नहीं पेश करता. सीसी या ओसी का कॉन्सेप्ट हर राज्य में अलग है. चटर्जी कहते हैं कि प्रोजेक्ट परिसर के कंस्ट्रक्शन वर्क की हर जानकारी बिल्डर को खरीदार को साफ तौर पर देनी चाहिए. एग्रीमेंट में दर्ज हर वादा पूरा करना बिल्डर के लिए अनिवार्य है अगर रेरा से न्याय नहीं मिले तो अपीलेट अथॉरिटी में जाने का रास्ता खुला है. लेकिन कितने लोग ये मुसीबतें झेलने के काबिल होते हैं.

राज्यों का हाल
रेरा कानून केंद्र ने बनाया लेकिन उसे लागू करने की जिम्मेदारी राज्य की है. उपाध्याय कहते हैं कि 5 साल में एक भी केस ऐसा नहीं आया जिसमें प्राधिकरण ने सेल-परचेज पर रोक लगाई हो. रेरा गड़बड़ी होने का इंतजार करता है, इसे पहले ही इसके भौतिक परीक्षण के आधार पर रोकता नहीं है.
रेरा रिफंड का ऑर्डर देता है, बिल्डर उसे मानता नहीं है तो रेरा रिकवरी सर्टिफिकेट जारी करता है जो डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के पास जाता है. रिकवरी आसान नहीं है. चटर्जी कहते हैं कि रिकवरी ऑर्डर पर अमल न होना एक गंभीर मुद्दा है. धारा 40 के तहत दिए इन आदेशों पर सख्ती से अमल के लिए इस एक्ट में बदलाव होने चाहिए.
दिलचस्प बात यह है कि मध्य प्रदेश में रेरा ने अपना रिकवरी अफसर नियुक्त कर लिया. हालांकि बाद में इस रिकवरी अफसर को हटा दिया गया. इससे अगर कोई फायदा हुआ है तो इसे दूसरे राज्यों में क्यों नहीं अपनाया गया. जाहिर है, यहां कुछ गड़बड़झाला है. उपाध्याय कहते हैं, ''रेरा में पॉवर की कोई कमी नहीं है, जितना है उसका ही इस्तेमाल कर लें. खरीदारों के प्रति निष्ठा न होने के कारण लोग धक्के खा रहे हैं.''
पश्चिम बंगाल ने पहले कहा कि हम रेरा नहीं लागू करेंगे और वहां डब्ल्यूबीहीरा बनाया गया. इसमें मूल कानूनों के प्रावधानों को कमजोर कर दिया गया. मई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने डब्लूबीहीरा को असंवैधानिक करार दिया. इसके बाद सरकार ने रूल नोटिफाइ किए, अथारिटी और अपीलेट ट्रिब्यूनल बना दिया. लेकिन इन संस्थाओं के लिए कोई नियुक्तियां नहीं कीं, वेबसाइट नहीं बनी. इससे राज्य में रेरा अभी तक तो बेमतलब है. अब यहां बिल्डर बगैर रजिस्ट्रेशन के धड़ाधड़ प्रोजेक्ट लॉन्च कर रहे हैं. इसके खिलाफ भी लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. तेलंगाना में आज भी स्थायी रेरा अथॉरिटी नहीं बनी. वहां चल रहे प्रोजेक्ट रेरा के दायरे से बाहर कर दिए गए हैं. यानी वहां सिर्फ नए प्रोजेक्ट ही रेरा में रजिस्टर होंगे.
रेरा प्राधिकरणों में लेट हो रहे प्रोजेक्ट जानने का कोई तंत्र नहीं बना. बिना शिकायत बिल्डर से विलंब के लिए जवाब मांगने की कोई व्यवस्था नहीं है. दो महीने लेट होने पर कार्रवाई करे रेरा तो प्रोजेक्ट दो साल लेट नहीं होगा. इसके लिए खरीदार की शिकायत का इंतजार किया जाता है.
उपाध्याय कहते हैं कि रेरा कानून आने से पहले वाले प्रोजेक्ट में ज्यादा समस्याएं हैं. रेरा के बाद आए प्रोजेक्ट में दिक्कत नहीं है. हालांकि इसका कोई डाटा नहीं है. जिन प्रोजेक्ट को ओसी नहीं मिली थी वे भी रेरा में रजिस्टर हो गए. प्रावधान था कि साल में एक रिपोर्ट रेरा देगा—महाराष्ट्र, गुजरात रेरा, यूपी रेरा को छोड़कर किसी ने रिपोर्ट नहीं दी. कितने प्रोजेक्ट वक्त पर पूरे हुए, इसका कोई डाटा रेरा के पास नहीं है. रेरा पूर्व और रेरा के बाद वाले प्रोजेक्ट का कोई ब्योरा नहीं दिया गया. केसों का निपटारा होने से न्याय नहीं मिल जाता. पजेशन का ऑर्डर कितने मामलों में किया, रिफंड कितने में किया, यह बताना जरूरी है. घर मिल गया पर सुविधाएं नहीं मिलीं. इन सबका ब्योरा नहीं है. हालांकि चटर्जी कहते हैं, विस्तृत रिपोर्ट बनाई जा सकती है. वैसे, इसका कोई प्रावधान नहीं है. लेकिन धाराओं के मुताबिक फैसलों का वर्गीकरण बहुत आसान काम है और रेरा प्राधिकरण यह कर सकते हैं.
इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को आयकर की गडड़बड़ियों का पता चल जाता है लेकिन रेरा को बिल्डरों को गड़बड़ी का पता नहीं चलता, यह हैरानी की बात है. क्या रेरा सिर्फ एक रजिस्ट्रेशन करने का संस्थान है. रेरा कानून में कमी नहीं है, इसे लागू करने में कमी है. यहां पर भी नेक्सस घुस गया है. रेरा बिल्डरों के प्रोजेक्ट का भौतिक निरीक्षण करे, ठीक उसी तरह जैसे आयकर विभाग और सेबी रैंडम चेकिंग करता है. एक आंतरिक सिस्टम विकसित किए बगैर सुधार संभव नहीं है. लेकिन चटर्जी कहते हैं, रेरा अगर भौतिक निरीक्षण करेगा तो दूसरे नियामकों से रेरा के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है. हालांकि ऐसा कहीं-कहीं होता भी है. रेरा अथॉरिटी अधिकारियों को तलब कर फैसला जरूर दे सकता है.
महाराष्ट्र रेरा ने इस कानून को काफी मजबूती दी और शुरुआत में यह देश का सबसे बढ़िया रेरा प्राधिकरण माना जाता था. लेकिन महाराष्ट्र समेत कई राज्यों ने समझौता फोरम (कंसीलिएशन) बनाने जैसे काम किए, जिसमें बिल्डर और खरीदार मिल-बैठकर समस्या का निराकरण करेंगे. सवाल उठता है कि जहां बिल्डर प्राधिकरण के आदेश नहीं मान रहे हैं, वहां समझौता फोरम की बात कौन मानेगा, महाराष्ट्र रेरा बिल्डर के सेल्फ रेगुलेटरी ऑर्गेनाइजेशन (एसआरओ) को रजिस्टर करने की बात कहता है जो निश्चित तौर पर बिल्डरों को बचाव का रास्ता देता है. महाराष्ट्र रेरा प्रस्तावित प्लान को रजिस्टर करने की बात कहता है जो रेरा के नियम के खिलाफ है. चटर्जी कहते हैं, बिल्डर सूचनाएं साझा नहीं करते थे, यह बड़ी समस्या थी. एसआरओ का मकसद सूचनाएं साझा करना है. यह विदेशों में भी हो रहा है, इसको लेकर कुछ भ्रांतियां हैं लेकिन इसमें कुछ गलत नहीं है.
कितना कामयाब है रेरा
यूं तो रेरा को 1 मई, 2016 को अधिसूचित किया गया लेकिन इसके कुछ नियम केंद्र सरकार ने 2017 में अधिसूचित किए. बिल्डर मानते हैं कि रेरा को करीब पांच साल होने वाले हैं जबकि खरीदार कहते हैं कि रेरा को छह साल होने वाले हैं. सरकार के आंकड़े कहते हैं कि रेरा प्राधिकरणों ने अब तक देश में 86 हजार से ज्यादा शिकायतें निपटाई हैं. पांच साल के लिहाज से देखा जाए तो 17 हजार से ज्यादा शिकायतें हर साल निपटी हैं और अगर राज्यों की संख्या के लिहाज से, पश्चिम बंगाल में रेरा न बनने के बावजूद बाकी बड़े राज्यों का औसत देखा जाए तो कानून लागू होने के बाद से एक हजार शिकायतें सालाना निपटी हैं. इसमें यह जानकारी नहीं होती है कि कितने बिल्डरों से पेनाल्टी वसूलकर उपभोक्ताओं को दी गई. अब जिस देश में लंबित कानूनी मुकदमों की संख्या करोड़ों में हो, वहां रेरा जैसी दीवानी अदालत में कुछ हजार शिकायतों का निपटारा उल्लेखनीय उपलब्धि तो नहीं कहा जाएगा. उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अब तक रेरा सिर्फ 158 शिकायतें निपटा सका है जबकि इस राज्य में रेरा रजिस्टर्ड प्रोजेक्ट ही 2300 से ज्यादा हैं. इसी तरह दिल्ली जैसे बड़े प्रॉप्रटी मार्केट में 200 से भी कम शिकायतें निपटाई गईं. झारखंड में 100 से कम शिकायतें निपटीं जबकि त्रिपुरा जैसे राज्य में एक भी शिकायत न आना हैरान करता है.
दिल्ली रेरा ने जुलाई 2018 के अपने एक आदेश में एक रियल एस्टेट एजेंट का पंजीकरण आवेदन इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि जिस बिल्डिंग के लोअर बेसमेंट का उसने पता दर्ज कराया था उस बिल्डिंग में लोअर बेसमेंट था ही नहीं. इसके बाद उसने पता बदला लेकिन सही रेंट एग्रीमेंट नहीं दिया. यह उदाहरण है कि किस तरह के धोखेबाज लोग रियल एस्टेट एजेंट बनने की जुगत में रहते हैं. लेकिन ऐसे लोगों के मंसूबों पर रेरा ने पानी फेर दिया है. फिलहाल देश में रेरा रजिस्टर्ड रियल एस्टेट एजेंट 60 हजार से भी कम हैं जबकि 2015 में एक स्वतंत्र अनुमान के अनुसार इनकी संख्या पांच लाख से अधिक थी. एजेंटों के अलावा ठगने वाले रियल एस्टेट डेवलपर्स की संख्या भी घटी है. देश के प्रमुख शहरों में 50 प्रतिशत तक डेवलपर्स इस सेक्टर से बाहर हो चुके हैं.
दूसरी ओर, देश में हाउसिंग डेवलपर्स की शीर्ष संस्था क्रेडाई (कॉन्फेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशंस ऑफ इंडिया) के अध्यक्ष हर्षवर्धन पटोदिया का कहना है कि उपभोक्ताओं के हितों को सुरक्षित करने वाला यह कानून इस सेक्टर की ग्रोथ के भी हित में हैं. यह पिछले पांच साल से रियल एस्टेट सेक्टर में लेन-देन की पारदर्शिता के चलते घर खरीदने वालों के हितों की रक्षा कर रहा है. यह ऐक्ट बहुत अच्छा है और बिल्डरों की जिम्मेदारी सख्ती से तय कर रहा है. डेवलपर्स इससे भी खुश हैं कि अब केवल भरोसेमंद कंपनियां ही मैदान में हैं.
दिल्ली की रियल एस्टेट डेवलपर फर्म त्रेहन आइरिस के डायरेक्टर अभिषेक त्रेहन कहते हैं कि रेरा के आने से अब खरीदार को प्रोजेक्ट की हरेक जानकारी हो रही है. शिकायतें जल्द सुनी जा रही हैं, प्रोजेक्ट को लेट करना संभव नहीं है. सेक्टर में पारदर्शिता बढ़ी है लेकिन नियमन सख्त होने से बिल्डरों का जोश घट गया है.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ''रेरा मेरे हिसाब से बीस प्रतिशत ही कामयाब है. लोगों को बिल्डरों के खिलाफ शिकायत का एक मंच मिल गया है. जहां कुछ नहीं था, वहां कुछ तो मिल रहा है. इस कानून में कोई टाइमलाइन नहीं है कि कितने दिनों में शिकायत का निस्तारण करना है. रेरा ये नहीं देख रहा है कि बिल्डर-बायर एग्रीमेंट सही है या नहीं है. रेरा में एग्रीमेंट की शिकायत नहीं की जा सकती. एग्रीमेंट का पालन नहीं हो रहा है, सिर्फ इसकी शिकायत हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील डी.के. गर्ग कहते हैं, ''रेरा के आदेशों पर अमल करवाना बहुत मुश्किल है. अगर रिकवरी और रिफंड के आदेशों पर अमल नहीं होगा तो कोई फायदा नहीं है. इसके बाद उसकी अपील होती है, इसी में समय बीत जाता है. रेरा अब बेअसर दिख रहा है.''
जानकार बताते हैं कि रेरा के वकील काफी महंगे हैं. गर्ग कहते हैं कि अब लोगों का रेरा पर भी भरोसा नहीं रहा. आम वकीलों की रेरा में कोई सुनवाई नहीं होती, मेंबर उन्हें इग्नोर करते हैं. गर्ग कहते हैं कि रेरा प्राधिकरण में न्यायिक सदस्य होने चाहिए, न कि प्रशासनिक अधिकारी बैठाने चाहिए. कुछ वकील रेरा प्राधिकरणों में एजेंटों के बोलबाले की बात भी कहते हैं. वे यह भी कहते हैं कि रेरा से बेहतर न्याय उपभोक्ता फोरम से मिलता है. अभय उपाध्याय कहते हैं कि जो होम बायर जिस एंगल से फंसा है वह उसी एंगल से अपनी समस्या बताएगा. रेरा ने 80 हजार से ज्यादा केसों का निपटारा देशभर में किया है, इनमें से 10-20 प्रतिशत को तो राहत मिली होगी. उपाध्याय कहते हैं कि इतना बढ़िया कानून था तो आज भी लाखों खरीदार भटक नहीं रहे होते.
पुनीत पाराशर कहते हैं कि 1 मई, 2016 से पहले से चल रहे प्रोजेक्ट के लिए यह लड़ाई थी और इनमें कोई फायदा नहीं हुआ. लेकिन नए प्रोजेक्ट वालों को रेरा के नए प्रावधानों से फायदा हुआ. यह सच है कि रेरा के बाद से नए लॉन्च काफी कम हो गए हैं और जो हुए हैं उनमें कोविड काल के अपवाद छोड़ दिए जाएं तो खरीदारों को कब्जा मिला है. क्रेडाई के अध्यक्ष पटोदिया का कहना है कि रेरा उपभोक्ताओं के हितों को संरक्षण देने वाला कानून है और अब समय आ गया है कि इसमें बदलाव कर डेवलपर्स के भी हितों पर ध्यान दिया जाए. एग्रीमेंट में कीमतें बढ़ाने वाला उपबंध जोड़ा जाना चाहिए. कंज्यूमर फोरम व अन्य अदालतों में चल रहे खरीदारों के मुकदमों को भी रेरा के हवाले किया जाना चाहिए.
मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के मुताबिक, रेरा, जीएसटी और नोटबंदी के बाद लगाम कसे जाने के चलते देश के प्रमुख रियल एस्टेट बाजारों से 50 प्रतिशत से ज्यादा डेवलपर्स मैदान छोड़कर भाग चुके हैं. रेरा के बाद के प्रोजेक्ट में विलंब की वजह कोविड भी रहा है. कोविड महामारी आने के बाद 25 मार्च, 2020 से 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुरूप बिल्डरों को हाउसिंग प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए 6 से 9 महीने का अतिरिक्त समय दिया था. साल 2030 तक देश को 9 करोड़ मकानों की जरूरत होगी. लिहाजा, रेरा के प्रावधानों को उपभोक्ता के लिए और अधिक अनुकूल करना वक्त की जरूरत है.