अपने राज्य पशु ऊंट की आबादी में तेज गिरावट को रोकने के लिए राजस्थान में बेशक कोशिशें जारी हैं. पिछले महीने एक कैबिनेट उपसमिति ने उसे खत्म करने की सिफारिश की जिसे पशुपालन विभाग की विशेष सचिव आरुषि मलिक ‘‘एक किस्म का इंस्पेक्टर और परमिट राज’’ कहती हैं. यह 2015 के राजस्थान ऊंट (वध निषेध और अस्थायी प्रव्रजन या निर्यात विनियमन) कानून की वजह से हुआ है.
इससे ऊंटों का व्यापार, उनकी ढुलाई और मौत को उनके वध और फौजदारी मुकदमे से जोड़ गया है. इस कानून के जरिए तब की भाजपा सरकार ने ऊंटों की तादाद में गिरावट को रोकने के लिए उन्हें ‘पवित्र गाय’ जैसा दर्जा दे दिया था. अब गहलोत सरकार ऊंट कानून के प्रावधानों को हल्का कर रही है और गिरावट को रोकने के लिए बीकानेर के राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र (एनआरसीसी) की मदद भी ले रही है. कैबिनेट उपसमिति ने आधा दर्जन संशोधनों की सिफारिश की है जिनमें केवल वध के लिए सजा/प्रतिबंध और बिक्री के लिए ढुलाई की इजाजत शामिल हैं.
ऊंट कानून के चलते ऊंट मेलों में ऊंटों की खरीद-फरोख्त में नाटकीय गिरावट आई. एनआरसीसी ने यह खुद पाया है. 2014 में उसने 40 ऊंट नीलामी के लिए पेश किए और सभी को 30,000 रुपए की औसत कीमत पर खरीदार मिल गए. 2018 में 50 में से 30 को कोई खरीदार नहीं मिला और 2019 में 30 में से 22 नहीं बिक पाए. औसत कीमत घटकर 3,500 रुपए पर आ गई, जबकि सबसे कम बोली 2,000 रुपए की थी.
2016 के पुष्कर ऊंट मेले में 2000 ऊंट बिके थे, जबकि 2018 में 800 ही बिके. कई साल से ऊंटों के संरक्षण में सक्रिय सदरी स्थित लोकहित पशुपालक संस्थान के निदेशक हनवंत सिंह राठौर कहते हैं कि दशक भर पहले भी अच्छे ऊंट की कीमत 70,000 रु. मिल जाती थी, कई बार साल भर के बछड़े भी 15,000 रु. में बिक जाते थे.
घटती तादाद
राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (एनवीएजीआर) के मुताबिक, भारत में कूबड़ वाले ऊंटों की नौ नस्लें हैं. इनमें से पांच (बीकानेरी, जेसलमेरी, जालौरी, मारवाड़ी और मेवाड़ी) राजस्थान से निकली हैं. मेवाती ऊंट राजस्थान और हरियाणा में पाए जाते हैं, जबकि कच्छी और खराई गुजराती हैं और मालवी मध्य प्रदेश के हैं. दोहरे कूबड़ वाले बैक्ट्रियाई ऊंट लद्दाख की नुंब्रा घाटी में हैं.
राजस्थानी ऊंट की आबादी में गिरावट पहली बार 1990 के दशक के आखिर में दर्ज की गई थी. 1998 और 2003 के बीच राजस्थान में एक-चौथाई ऊंट कम होकर 5,00,000 रह गए, जबकि दशक भर पहले 7,56,000 थे. 2012 आते-आते 3,26,000 और 2019 में महज 2,13,000 रह गए. 2012 के बाद हरियाणा और उत्तर प्रदेश (और कुछ हद तक गुजरात) में भी ऊंटों की आबादी में भारी कमी आई. अब पूरे भारत में महज 2,50,000 ऊंट (जिनमें 86 फीसद राजस्थान में) बचे हैं. जिस देश में कभी ऊंटों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी हुआ करती थी, वह अब 46 देशों के शीर्ष 10 में भी नहीं है.
हमेशा ऐसा नहीं था. राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) ने 1970 के दशक की गणना में राज्य में ऊंटों की 11 लाख आबादी बताई थी, पर रेगिस्तान में सड़कों, मशीनी वाहनों और ट्रैक्टरों की आमद ने ऊंटों पर निर्भरता कम कर दी. राज्य के सात रेगिस्तानी जिलों—बाड़मेर, बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़, जैसलमेर, जोधपुर और श्रीगंगानगर—से गुजरने वाली इंदिरा गांधी नहर सिंचाई लेकर आई, खेतों में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई और खुले चारागाह घट गए, जिनके सहारे ऊंट जिंदा रहते थे. रेगिस्तान के ज्यादातर हिस्सों के ऊंटपालक उन्हें साल के करीब आठ महीने घूमने के लिए छुट्टा छोड़ देते हैं. विकास के साथ-साथ जंगलों और मैंग्रोव में घुसने पर पाबंदियों की वजह से मुफ्त चारा मिलने में बहुत कमी आई है और ऊंटपालकों के लिए उन्हें पालना महंगा हो गया है.
दवाई के लिए दूध
ऊंटों को कभी डेयरी पशु की तरह नहीं पाला गया. बड़े शहरों की कुछेक छोटी डेयरियों को छोड़कर राजस्थान में इसका कोई संगठित बाजार नहीं है. राज्य का डेयरी संघ ऊंट के दूध को उस तरह संरक्षण नहीं देता जैसे गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ (जीसीएमएमएफ) देता है, जिसके पास ऊंट के दूध के लिए अलग शीत संयंत्र है. कच्छ के कोई 200 परिवार संघ को दूध बेचकर आजीविक कमाते हैं और संघ उसे अमूल ब्रांड नाम से बेचता है (ऊंट के दूध की 200 मिली की बोतल 25 रुपए की है).
मगर अब एक निजी उद्यम बीकानेर का आद्विक फूड्स अपना शीत और पास्चुराइजेशन संयंत्र लगाकर बाजार में उतरा है. यह कैमल मिल्क पाउडर (जो 6,650 रुपए प्रति किलो बिकता है) और दूसरी चीजें बनाता है. उम्मीद है कि उर्मूल ट्रस्ट का एक और उद्यम जल्द ही पोकरण में अपना शीत संयंत्र लगाएगा. लोकहित पशुपालक संस्थान के राठौड़ कहते हैं, ''हमारी ऊंट डेयरी करिज्मा रोज 100 लीटर दूध बेचती है और ऊंटपालकों को हम 60 से 70 रुपए प्रति लीटर देते हैं.
खरीदार हैदराबाद और कर्नाटक में हैं, इसलिए हमें आइस बॉक्स में जमा हुआ पैक्ड दूध भेजना होता है जिससे लागत 400 रुपए प्रति लीटर आती है.’’ यहां वे 200 रुपए प्रति लीटर बेचते हैं. मांग अभी जोर नहीं पकड़ पाई है. इसके उलट गुजरात की सहकारी संस्थाएं दूध के खराब न होने की मियाद पांच से बढ़ाकर 180 दिन करने में सफल रही हैं. इससे उनके लिए देश भर के बाजार खुल गए हैं.
वहां की डेयरियां रोज कुछ हजार लीटर दूध प्रोसेस करती हैं और संग्रह तथा वितरण शृंखला बनाने में कामयाब रही हैं. वे ऊंट मालिक को प्रति लीटर 50 रुपए देती हैं, जिससे गुजरात को ऊंटों की आबादी के घटने पर लगाम लगाने में मदद मिली है. अगर राजस्थान गुजरात की कामयाबी को दोहरा सके, राज्य के मिल्क ब्रांड सरस को जोड़कर ऊंट के दूध का ब्रांड और मार्केट विकसित कर सके, तो ऊंटपालक इस पशु में निवेश बनाए रखेंगे.
एनआरसीसी के निदेशक डॉ. ए. साहू कहते हैं कि ऊंट के दूध का इस्तेमाल दवाई की तरह करना होता है और यह दूसरे दूध की तरह रोज पीने वाली चीज नहीं है. लेकिन एनआरसीसी और पशुपालन महकमा इसके चिकित्सीय गुणों के बारे में तब तक शोध नहीं कर सकते जब तक भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) शामिल न हो. एनआरसीसी के डायरेक्टर कहते हैं, ''ऊंट को विलुप्त होने से बचाने के लिए हमें इसकी बहुत सारी उपयोगिताएं खोजनी होंगी. यह रेगिस्तान का जहाज ही नहीं है बल्कि ‘चिकित्सा का जहाज’ भी है.’’
बेशकीमती सह-उत्पाद
एनआरसीसी कई सारी दूसरी संस्थाओं के साथ मिलकर ऊंट से मिलने वाली चीजों के चिकित्सकीय उपयोगों का पता लगा रही है (देखें बॉक्स). लेकिन एनआरसीसी के पास न ज्यादा पैसा है और न स्टाफ. वैज्ञानिकों के पद 23 हैं और वैज्ञानिक केवल 10. बुनियादी अनुसंधान के लिए न बॉयोकेमिस्ट हैं, न दुग्ध गुणवत्ता के पारखी और न माइक्रोबॉयोलॉजिस्ट. बजट भी 2012 से 12 करोड़ रुपए पर अटका है.
ऊंटपालक भी मायूस हैं. ऊंटपालकों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए पिछले नवंबर में आंदोलन की धमकी दी थी. उन्होंने गहलोत को पांच मांगों की सूची दी जिसमें इनके निर्यात पर रोक लगाने की मांग भी शामिल थी. एक केंद्रीय योजना के जरिये राजस्थान सरकार ने ऊंट बछड़े के जन्म पर 10,000 रु. की सहायता (तीन किस्तों में) शुरू की थी लेकिन शिकायतों के बाद इसे रोक दिया गया. अनेक चरवाहों को सिर्फ पहली किस्त मिली और राठौड़ आरोप लगाते हैं कि सर्वे/टैगिंग के लिए आए अफसर 1,000 रु. की घूस प्रति ऊंट ले रहे थे. पूरी ग्रांट के लिए ज्यादा रिश्वत देनी पड़ती थी.
सब कोई मानते हैं कि गिरावट को रोकने की कुंजी विविधता लाना है. कई देशों ने गिरावट का रुझान रोका है और अब उनके यहां ऊंटों की आबादी स्थिर है या बढ़ रही है. चीन में जहां आधुनिकीकरण की वजह से उनके बैक्ट्रियाई ऊंटों की आबादी घट रही थी, वहीं ऊंट के बाल और ऊन और उनके दूध के चिकित्सकीय गुणों में नई दिलचस्पी ने यह रुझान उलट दिया है.
एनआरसीसी ऊंट के बालों का इस्तेमाल जूट के साथ करने के लिए कोलकाता की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फाइबर इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी के साथ काम कर रहा है. फाइबर से भरपूर ऊंट की लीद से दस्तकारी का कागज और ईंट बनाने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं. चमड़ा उद्योग में ऊंट की खाल की पहले ही बहुत मांग है. ऊंट की ढुलाई के नियमों को हल्का करने से उन राज्यों में ऊंट की नई मांग पैदा होगी, जहां ये नई चीज हैं. ऊंट दौड़ को लोकप्रिय बनाना भी एक संभावना है. एनआरसीसी ने 2019 में अपने कैपंसों में ऊंट दौड़ आयोजित की थीं.
सैन्य हरावल दस्तों में ऊंट का इस्तेमाल कम होता जा रहा है. सीमा सुरक्षा बल ने 1970 के दशक में सेना के ऊंट ले लिए थे, पर अब वह उन पर कम निर्भर रह गया है. अंतरराष्ट्रीय सीमा पर बाड़ लगने और नई सड़कें बनने से अब मोटरसाइकिल और जीप को तरजीह दी जाती है. बल के पास अभी 470 ऊंट हैं जबकि स्वीकृत क्षमता 1,052 है. अफसरों का कहना है कि वे ''कुछ सौ और खरीदने की योजना’’ बना रहे हैं. गणतंत्र दिवस की परेड और दूसरे समारोहों में ऊंटों का दस्ता बड़ा आकर्षण होता है. मगर यह शर्म की बात है क्योंकि कुछ दशक पहले तक वे हमारी पश्चिमी सरहदों पर अहम हिस्सा थे. ठ्ठ
राजस्थान में हर नए बछड़े के लिए दस हजार रु. की सहायता शुरू की थी, जो बाद में बंद हो गई. कुछ को पहली किस्त ही मिली, घूस की बातें भी सामने आईं
ऊंट से मिलने वाली चीजें उन्हें बचाने में मददगार हैं?
एनआरसीसी की कई संस्थानों केसाथ अनुसंधान परियोजनाएं चल रही हैं. इनका उद्देश्य ऊंट से मिलने वाली चीजों का इस्तेमाल ढूंढना है
बीएआरसी के साथ यह इंसानों में थॉयराइड कैंसर और टीबी के इलाज की खातिर सिंगल डोमैन एंटीबॉडी के विकास के लिए ऊंटों पर वीवो रिसर्च पर काम कर रही है
एस.पी. मेडिकल कॉलेज बीकानेर और प्रीमियम सीरम पुणे के साथ जहर-रोधी कैमेलिड का उत्पादन, एस्चिस सोचुरेकी (भारतीय वाइपर सांप की एक प्रजाति) के काटे के इलाज में इस्तेमाल किए जाने वाले एक नए जहर-रोधी कैमेलिड का व्यावसायिक स्तर पर विकास
केंद्र कोलकाता विश्वविद्यालय के साथ स्टैफीलोकोक्स ऑरियस और एलर्जिक अस्थमा में एलर्जी पैदा करने वाले विशिष्ट तत्व जीए के खिलाफ स्थिर सिंगल एंटीबॉडी विकसित कर रहा है
बिट्स पिलानी के साथ यह ऊंटों में जानलेवा बीमारी ट्रायपैनोसोमिएसिस के इलाज के लिए क्विनोपायरैमाइन और आइसोमेटामिडियम सॉल्ट के लिपिड-आधारित नैनोकणों का विकास कर रहा है
एनआरसीसी ऊंट के बालों का इस्तेमाल जूट के साथ करने के लिए कोलकाता की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फाइबर इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी के साथ काम कर रहा है. यह जोड़ पौधों के ग्रो बैग बनाने में पोलीथिन की जगह काम आ सकता है. ऊंट की लीद में फाइबर भरपूर होता है और इससे दस्तकारी का कागज और ईंट की कोशिशें की जा रही है.