scorecardresearch

खास रपटः बीजापुर का रक्तपात

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के आखिरी किले को ध्वस्त करने के लिए आगे बढ़ रहे सुरक्षाबल आ गए जानलेवा हमले की चपेट में.

बीजापुर का रक्तपात
बीजापुर का रक्तपात
अपडेटेड 15 अप्रैल , 2021

लगभग 2,000 सुरक्षाकर्मी, 2 अप्रैल की रात ऑपरेशन के लिए छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के एक गांव तर्रेम में बने अपने कैंप से रवाना हुए. इस मिश्रित समूह में राज्य पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी), बस्तर बटालियन और माओवादियों से लडऩे वाले सीआरपीएफ के विशेष बल कोबरा के कमांडो शामिल थे. उनके पास फरार माओवादी फील्ड कमांडर, माडवी हिड़मा के एक जगह पर छिपे होने की पक्की खुफिया जानकारी थी.

अप्रैल 2010 में दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ जवानों के नरसंहार सहित सुरक्षाबलों पर घात लगाकर किए गए कई हमलों का जिक्वमेदार हिड़मा पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के सबसे घातक लड़ाकू गुट बटालियन नंबर 1 का कमांडर है. करीब 180 कुशल प्रशिक्षित लड़ाकों वाला यह ग्रुप राज्य के दक्षिणी छोर पर स्थित दोरनापाल और जगरगुंडा के गांवों के बीच 80 किलोमीटर के इलाके में सक्रिय रहता है.

इस इलाके में हाल के वर्षों में माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच सबसे भीषण लड़ाई देखी गई है. ऑपरेशन की शुरुआत धीमी गति से तैनाती के साथ हुई थी. पिछले कुछ महीनों में सुरक्षाबलों ने सुकमा और बीजापुर जिलों की सीमाओं के आसपास चार नए कैंप स्थापित किए और पांच बटालियनों को तैनात कर दिया था.

दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्रालय और सीआरपीएफ के अधिकारियों की तरफ से निर्देशित ऑपरेशन ने जंगल के अंदर विशेष अभियानों के लिए केंद्रीय आतंकवाद निरोधक बल, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के उपयोग की संभावनाओं पर भी चर्चा की थी.

सुरक्षाबल नए क्षेत्रों में प्रवेश करते जा रहे थे और हर नए कैंप के साथ माओवादियों की पकड़ वाले क्षेत्र का दायरा सिकुड़ता गया. एक दशक पहले जब माओवादियों का प्रभुत्व चरम पर था तो वे दक्षिणी छत्तीसगढ़ में केरल के बराबर क्षेत्र को नियंत्रित करते थे. पिछले कुछ वर्षों में सड़क निर्माण गतिविधियों में तूफानी गति की तेजी और सुरक्षा बलों की संख्या बढऩे से माओवादियों का प्रभाव अब सिमटकर, आकार में सिक्किम से थोड़े बड़े क्षेत्र में रह गया है.

घातक हमलों से बचने के उपाय
घातक हमलों से बचने के उपाय


माओवादी नेता नंबला केशव राव उर्फ बसवराज और उसका 21 सदस्यीय पोलित ब्यूरो, जिसने 2004 के बाद से हिंसक विद्रोह को तेज कर दिया है, के बारे में माना जाता है कि वह इसी अंतिम माओवादी गढ़ में कहीं रहता है. इसलिए इस क्षेत्र में प्रवेश करने के सुरक्षा बलों के उद्देश्य के लिए बटालियन नंबर 1 और उसके कमांडर को ढेर करना जरूरी था.

योजना जोनागुडा, टेकलगुडम और जीरागांव जैसे आदिवासी गांवों में घेरने की थी. पांच दलों में से एक ने भोर में गांवों में प्रवेश किया तो एक डरावनी शांति ने उनका स्वागत किया था. वहां किसी के नहीं मिलने पर एक टीम ने बगल की पहाड़ी पर खोज शुरू की. थोड़ी देर बाद, कुछ टीमों ने तर्रेम के अपने कैंप की ओर लौटना शुरू किया.

तभी, एक अन्य पहाड़ी से जुगाड़ से बनाए गए (इम्प्रॉवाइज्ड) रॉकेटों और एलएमजी से उन पर जोरदार हमला हुआ और वे बचने के लिए वापस गांव की ओर लौटने को विवश हुए. यह एक फंदा था. गांव के पास, नक्सलियों ने दूर तक सीध में घात की एक लंबी शृंखला सजा रखी थी—घात लगाकर बैठा कोई भी नक्सली आमने-सामने नहीं था—और मोर्चा ज्यादा से ज्यादा जवानों को मारने की नीयत से तैयार किया गया था. 

दोनों तरफ की गोलीबारी खत्म होने तक 22 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके थे. अगले दिन सुरक्षा बलों ने कुछ क्षत-विक्षत शव बरामद किए. सीआरपीएफ के एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को माओवादियों ने पकड़ लिया, हालांकि 8 अप्रैल की शाम को मध्यस्थों के जरिये उन्हें छुड़वा लिया गया. हमले के दो दिन बाद माओवादियों ने सुरक्षाबलों से लूटी गईं 10 एके राइफलों, एक सेल्फ-लोडिंग राइफल, एक लाइट मशीन गन, एक लाइट मोर्टार और एक अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर की तस्वीरें जारी कीं. इस बड़ी लूट पर इतराते हुए माओवादियों ने हजारों राउंड राइफल की गोलियों से—‘पीएलजीए 2021’ लिखा था.
 
नेतृत्व का प्रश्न
3 अप्रैल का यह घात लगाकर किया गया हमला, पहली बार नहीं हुआ था. एक दशक पहले, 6 अप्रैल 2010 को नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में 82 सीआरपीएफ जवानों की पूरी कंपनी पर हमला किया था. तीन घंटे बाद जब गोलीबारी बंद हुई तो 76 सैनिक मारे जा चुके थे. केवल छह ही बच सके थे. किसी आंतरिक सुरक्षा ऑपरेशन में भारत के लिए एक दिन में यह सबसे बड़ी क्षति थी. 11 वर्षों में, 100 से अधिक सुरक्षा बलों ने इसी तरह अपनी जान गंवाई है.

हताहतों से ज्यादा चोट, घात लगाकर हुए हमले ने सुरक्षा बलों के मनोबल को पहुंचाई. ऐसे हमले बार-बार हो रहे हैं और यह विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि बहुत-से लोगों का ऐसा मानना है कि चरमपंथियों के खिलाफ युद्ध अंतिम चरण में प्रवेश कर रहा है. चिंता के अन्य कारण भी हैं. माओवादियों के पास हथियारों और गोला-बारूद के स्रोत बहुत कम हैं और वे सुरक्षा बलों से लूटे गए हथियारों पर विशेष रूप से आश्रित हैं.

घात लगाकर किए प्रत्येक हमले के परिणामस्वरूप उन्हें काफी हथियार और गोला-बारूद मिल जाता है जिसका इस्तेमाल वे अपना शस्त्रागार बढ़ाने और नई भर्तियों को हाथों में हथियार देकर हमले कराने में करते हैं. मिसाल के तौर पर 3 अप्रैल को नौ वॉकी टॉकी और एक शॉर्ट वेव रेडियो सेट भी माओवादियों के हाथ लग गया, जिसका इस्तेमाल वे सुरक्षा बलों की बातचीत को पकडऩे में कर सकते हैं.

इन हमलों की सफलता समझने के लिए माओवादी विचारधारा, उनके प्रशिक्षण और उनकी रणनीति को समझना होगा. राजनीतिक-सैन्य माओवादी उग्रवाद जम्मू-कश्मीर के आतंकवादी हमलों से अलग है, जहां हमलावर दो या तीन की संख्या में होते हैं. माओवादी लड़ाकों को आम सैन्य यूनिट्स-सेक्शन (7 व्यक्ति), प्लाटून (20-30 व्यक्ति), कंपनी (60-70 व्यक्ति) और बटालियन (लगभग 200 व्यक्ति) की तरह ही संगठित और प्रशिक्षित किया जाता है.

भारत राज्य को 2050 तक उखाड़ फेंकने की माओवादी महत्वाकांक्षाओं के साथ बने पीएलजीए में भर्ती आदिवासी रंगरूटों को सेना की इकाइयों की तरह काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. वे खामोशी से काम करते हैं, सुरक्षा बलों को घेरने और उन पर गोलीबारी करने से पहले आपसी बातचीत के लिए हाथ के संकेतों और सीटी का उपयोग करते हैं, और तेजी से पीछे हटने से पहले गोला-बारूद एकत्र करते जाते हैं.

खतरनाक क्षेत्र
खतरनाक क्षेत्र

माओवादियों की तरफ से सितंबर 2004 में जारी 13-अध्यायों वाला एक दस्तावेज ‘स्ट्रैटेजी ऐंड टैक्टिक्स ऑफ द इंडियन रिवोल्यूशन (भारतीय क्रांति की रणनीति और युद्धकौशल)’ में छापामार लड़ाई को अपना मुख्य तरीका बताया है जो कि 1949 में माओत्से तुंग के राष्ट्रवादी चीन पर कब्जे की मुख्य रणनीति थी. ‘सुरक्षा बलों को हराना’ ही अपना मुख्य उद्देश्य बताते हुए दस्तावेज कहता है, ‘‘लड़ें, जब आप जीत सकते हैं. जब जीत नहीं सकते तो पीछे हट जाएं.’’ इसमें कहा गया है कि ‘छापामार लड़ाई का मकसद इलाके को जीतना और उस पर अपना कब्जा बनाए रखना नहीं होगा, इसके बजाए इसका उद्देश्य दुश्मन सैनिकों को मिटा देना है.’ 

छुपकर हमले के लिए जाल बिछाना इसी छापामार लड़ाई का चरम बिंदु है. माओवादी विद्रोह का अध्ययन करने वाले सैन्य रणनीतिकारों का कहना है कि इसे केवल एक ऐसे जमीनी नेतृत्व से तोड़ा जा सकता है जो तेजी से बदलती स्थितियों का माकूल जवाब देने में सक्षम हो. बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक ई. राममोहन, जिन्होंने अप्रैल 2010 दंतेवाड़ा हत्याकांड की आधिकारिक जांच की थी, खराब नेतृत्व को इस विफलता के लिए दोषी मानते हैं.

रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन 1 अप्रैल 2013 को इसके कुछ अंश मेल टुडे के हाथ लगे थे जिसमें राज्य सरकार और सीआरपीएफ नेतृत्व की जमीन पर लड़ रहे जवानों के साथ बहुत ‘लापरवाह अंदाज’ में व्यवहार के लिए खिंचाई की गई थी. सैनिकों के रहने के लिए खराब प्रबंध, निरीक्षणों की कमी, ऑपरेशनों में शीर्ष नेतृत्व का भाग नहीं लेना और दूर-दराज के शिविरों में हेलीकॉप्टरों से कभी-कभार के दौरे आदि पर चिंता जताई गई थी.

राममोहन ने रिपोर्ट में ऑपरेशन के दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव और स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रॉसिजर्स या मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) की सिफारिश करते हुए टिप्पणी की है, ‘‘मुझे जमीनी प्रशिक्षण में कोई कमी नहीं दिखी लेकिन नेतृत्व का अभाव नजर आ जाता है.’’

2010 के बाद घात लगाकर हुए पांच हमले (देखें-छह हमले, एक सी कहानी) जिनमें कई सुरक्षाकर्मियों की जान गई, जमीनी स्थिति और एसओपी का पालन न करने के कारण हुए हैं, विशेष रूप से गांवों से दूर रहने या सड़कों से दूर पहाड़ी इलाकों पर चलना जहां माओवादियों की ओर से उन पर हमला हो सकता था. कई मुठभेड़ों में एक बात यह उभरकर आई कि मुठभेड़ स्थल के पास मौजूद सुरक्षाबल नक्सलियों को घेरने और उन्हें उलझाकर जवाबी हमला करने में नाकाम रहे हैं.

हालांकि 3 अप्रैल के एनकाउंटर का विवरण अभी मिलना बाकी है, सुरक्षा योजनाकार सवाल पूछ रहे हैं कि आगे बढ़ रहे पांच दलों के बीच आपसी समन्वय किस प्रकार बनाया जा रहा था. मृतकों और घायलों को क्यों छोड़ा गया? क्यों किसी गांव में नहीं प्रवेश करने के एसओपी का पालन नहीं किया गया? एक काउंटर-इंसर्जेंसी एक्सपर्ट (जवाबी कार्रवाई के विशेषज्ञ) जो अपनी पहचान नहीं जाहिर करना चाहते, पूछते हैं, ‘‘पांच कॉलम का मतलब है बड़ी ताकत.

जब पहली बार फायरिंग की आवाज सुनी गई तो उन्हें तुरंत कार्रवाई के लिए क्यों नहीं भेजा गया?’’ कई अन्य विफलताएं भी नजर आती हैं. सुरक्षाबलों को अपने कैंप से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर माओवादियों के इतने एक बड़े दल के जमावड़े की जानकारी नहीं थी. गांव में कोई नहीं था यह कुछ न कुछ गलत होने का एक स्पष्ट संकेत था जिसे वे अनदेखा कर गए. छत्तीसगढ़ एसटीएफ के एक कंपनी कमांडर जिन्हें माओवादी क्षेत्रों का लंबा अनुभव है, कहते हैं, ''हम आमतौर पर यात्रा के दौरान मिल रहे संकेतों को भी पढ़ते हैं.

मसलन, अगर किसी सड़क पर कोई गाड़ी नहीं आ जा रही है, इसका मतलब है कि आगे सड़क पर आइईडी बिछी हो सकती है या फिर सड़क बंद हो सकती है. ये ऐसे संकेत हैं जो वर्षों के लड़ाई के अनुभव से हम समझने लगते हैं.’’ लड़ाई तीन घंटे तक चली और इसकी खबर कैंप तक बहुत जल्द पहुंच गई थी. बचाव दलों को भेजा गया था, लेकिन उन्हें तर्रेम से लगभग 2 किलोमीटर पहले ध्यान भटकाने वाला दस्ता मिल गया और उसने उलझा लिया. दूसरे शब्दों में, बचाव दल समय रहते घातस्थल पर नहीं पहुंच सका.

केरल के पूर्व डीजीपी और सीआरपीएफ के माओवादी ऑपरेशन के एडीजी डॉ. एन.सी. अस्थाना का कहना है कि सुरक्षाबलों को स्थानीय खुफिया जानकारी और नेतृत्व में सुधार करने की आवश्यकता है और उन्हें कमान और नियंत्रण की समस्याओं को कम करने के लिए कम से कम एक प्लाटून (35 जवानों) और अधिकतम एक कंपनी (125 जवानों) के साथ ऑपरेशन शुरू करना होगा.

वे कहते हैं, ‘‘एक बुनियादी सिद्धांत यह है कि इस तरह के संचालन को सीमित दायरे में होना चाहिए और आकार बहुत बड़ा नहीं होना चाहिए. आपको कभी भी दुश्मन से उसकी शर्तों पर नहीं लडऩा चाहिए. विशेषज्ञों का कहना है कि माओवादियों के झुंडों से लडऩा आवश्यक है.’’ 

कांकेर स्थित आतंकवाद विरोधी और जंगल युद्धकौशल कॉलेज चलाने वाले ब्रिगेडियर बी.के. पंवार (सेवानिवृत्त), जिन्होंने 2005 से 25,000 से अधिक पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षित किया है, कहते हैं, ‘‘माओवादी अपनी उस कहावत का अनुसरण करते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. हमें अग्रिम मोर्चे पर प्रभावी नेतृत्व के माध्यम से आक्रामक जवाबी कार्रवाई करके इस सशस्त्र खतरे को खत्म करने की जरूरत है.’’

ऐसा भी नहीं है कि सुरक्षा व्यवस्था से जुड़ा हर व्यक्ति यही मानता हो कि कई बड़ी चूक हुई हैं. दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव कहते हैं, ‘‘जब आरपार की लड़ाई होगी तो हताहत होंगे ही. दूर से देखते हुए कोई भी यह बता सकता है कि क्या गलत हुआ. लेकिन तथ्य यह है कि बलों पर घात लगाकर हमला किया गया था और उन्होंने अच्छे आपसी समन्वय के साथ मुकाबला किया.

बड़ी संख्या में माओवादी भी मारे गए हैं जिसकी पुष्टि विभिन्न सबूतों से हो रही है.’’ 3 अप्रैल को हुए हमलों में सुरक्षाबलों की ओर से की गई जवाबी कार्रवाई कई मायनों में पिछले घातों से बेहतर थी. सुरक्षाकर्मी मृतकों की कुछ राइफलों को वापस लेकर आए ताकि वे नक्सलियों के हाथों में न पड़ें.

ग्राउंड जीरो छत्तीसगढ़ 
2009 में जब खून-खराबा अपने चरम पर था, माओवादी विद्रोहियों का महाराष्ट्र से पश्चिम बंगाल तक ‘रेड कॉरिडोर’ में दबदबा था और इसमें अविभाजित आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा राज्य के बड़े हिस्से भी शामिल थे. उस साल माओवादी हिंसा ने 2,258 लोगों की जान ली थी.

तब से, गृह मंत्रालय ने हताहतों की संख्या और भौगोलिक प्रसार दोनों में एक स्थिर गिरावट को महसूस किया है, जिसे वह 'वामपंथी उग्रवादी प्रेरित हिंसा’ का नाम देता है. फरवरी में लोकसभा में एक लिखित जवाब में, गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने 2009 के बाद से घातक हमलों में 70 प्रतिशत की गिरावट का हवाला देते हुए 2020 में केवल 665 मौतों का उल्लेख किया था.

लगभग दो दशकों से चली आ रही समस्या का समाधान दक्षिणी छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के भीतर ही मिल सकता है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 5 अप्रैल को जगदलपुर में मीडिया से कहा कि माओवादी हमला उनके क्षेत्रों में लगाए जा रहे कैंपों की प्रतिक्रिया है. उन्होंने कहा, ''आने वाले दिनों में हम और अधिक कैंप बनाएंगे और नक्सलियों का अबूझमाड़ से संपर्क खत्म किया जाएगा.

फिर टेलीफोन संपर्क, सड़क निर्माण और नौकरी के अवसर तेजी से आगे बढ़ेंगे.’’ 17 दिसंबर, 2018 को शपथ लेने के तुरंत बाद उनकी सरकार माओवादियों पर नरम पड़ती दिखाई दी थी. माओवादी गतिविधियों में गिरावट थी और सुरक्षाबलों से उनकी झड़पों में कमी आई थी.

छत्तीसगढ़ पुलिस में एक एसपी इसे नई सरकार की चेतावनी का परिणाम बताते हैं. वे कहते हैं, ‘‘हम जानते थे कि किसी भी गलती, या दुर्घटनावश गई जान के लिए बख्शा नहीं जाएगा. परिणामस्वरूप, केवल काडर और अन्य निचले-रैंक के माओवादी ही मारे गए या फिर समर्पण के लिए तैयार हुए.’’ 9 अप्रैल 2019 को दंतेवाड़ा के विधायक भीमा मंडावी की हत्या के बाद चीजें बदलने लगीं.

भाजपा विधायक और उनके चार पुलिस अंगरक्षक मारे गए थे, जब माओवादियों ने उनके वाहन को आईईडी से उड़ा दिया था. मंडावी की हत्या के कारण रणनीति में बदलाव आया और केंद्र के शुरू किए गए नए कैंपों में सीएपीएफ की पांच नई बटालियनों को तैनात कर दिया. तर्रेम कैंप एक ऐसा ही बेस है और इसके बाद माओवादियों के गढ़ के बीचों-बीच सिल्गेर भी ऐसा कैंप होगा. स्वतंत्र एक्टिविस्टों के शांति वार्ता के प्रयासों को राज्य सरकार ने ठुकरा दिया है (माओवादी कुछ शर्तों के साथ उस पर सहमत थे).

राजनीतिक मोर्चे पर माओवाद को लेकर रणनीति में स्पष्टता जरूरी है. आम सहमति यह है कि 2009 की ऑपरेशन ग्रीन हंट की आक्रामक नीति का पालन किया जाना चाहिए. किसी प्रकार की देर या भ्रम से माओवादियों को फिर संगठित होने का समय मिल जाएगा और यह राज्य को महंगा पड़ेगा. गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री बघेल ने 5 अप्रैल को घायल सुरक्षाकर्मियों से मुलाकात की और अपने संकल्प का इशारा दिया.

शाह ने बाद में कहा, ‘‘सुरक्षाबलों के हौसले मजबूत हैं और माओवाद के खिलाफ युद्ध को उसके निर्णायक अंत पर ले जाया जाएगा.’’ जब वर्तमान राज्य डीजीपी डी.एम. अवस्थी नक्सल विरोधी अभियान का नेतृत्व कर रहे थे, तब छत्तीसगढ़ राज्य पुलिस ने 2017 और 2018 में प्रहार-1 और प्रहार -2 जैसा अभियान शुरू किया था जो पर्याप्त सफल भी रहा था.

पुलिस उसी तर्ज पर एक आक्रामक अभियान शुरू करने के लिए तैयार है. जब कैंप बनाए जा रहे हों तो राज्य सरकार को सुरक्षाकर्मियों के साथ विकास एजेंसियों को भी भेजने की आवश्यकता है. स्कूलों, अस्पतालों और सड़क निर्माण से सुरक्षाकर्मियों के प्रति स्थानीय लोगों का रवैया नरम होता है. पुलिस को अपना खुफिया तंत्र मजबूत करने के लिए गांवों के नागरिकों की भर्ती करने की भी आवश्यकता है. 

छत्तीसगढ़ में सक्चती शुरू होते ही पड़ोसी राज्यों ने माओवादी घुसपैठियों के खिलाफ सुरक्षा के लिए अपना मुखबिर नेटवर्क तैयार करना शुरू कर दिया है. मध्य प्रदेश के नक्सल ऑपरेशन के आइजी साजिद शापू कहते हैं, ‘‘हमने पड़ोसी राज्यों के साथ समन्वय बढ़ाया है और बीजापुर की घटना के बाद विशेष सतर्कता बरती जा रही है.’’ प्रेरित गुरिल्लाओं को हराना आसान नहीं होने वाला है, खासतौर जब वे अपने उखड़ते पांव फिर जमाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

दायित्व
शहीद सुरक्षाकर्मियों को श्रद्धांजलि देते केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री मानते हैं कि यह हमला माओवादियों के इलाके में सुरक्षा बलों के कैंप लगाए जाने की प्रतिक्रिया है

सुरक्षाबल घात लगाकर हमला होने के संकेत समझ नहीं सके, सवाल इस पर भी है कि पांच दलों-जैसे भारी संख्या वाले सुरक्षाकर्मियों का तालमेल किस तरह किया गया

घातक 
हमलों से बचने के उपाय

सुरक्षा बलों को रिज और पहाडिय़ों से होकर यात्रा करनी चाहिए, ऊंची जगहों से घात लगाना अधिक मुश्किल होता है, माओवादी अमूमन जंगल के रास्ते को घात लगाने के लिए इस्तेमाल करते हैं

ऐसे गांवों से बचें जहां माओवादियों के मुखबिर हैं. गांवों में तभी घुसना चाहिए जब सुरक्षा जांच कर ली गई हो

3 अप्रैल जैसे बड़े ऑपरेशन की अगुआई किसी अफसर को करनी चाहिए और उसका समन्वय इस जगह के निकट मुख्यालय के किसी वरिष्ठ अधिकारी के साथ करना चाहिए

किसी माओवादी इलाके में आने और जाने के रास्ते अलग-अलग होने चाहिए

गश्त वाले इलाकों में हाथ से चलाने वाले ड्रोन का इस्तेमाल खुफिया सूचनाओं के लिए होना चाहिए, शुरुआती चेतावनी के लिए मिलिट्री वर्किंग डॉग्स का इस्तेमाल करना चाहिए

छह हमले, एक जैसी कहानी
सुरक्षाबलों पर बार-बार माओवादियों के बड़े समूह बरसों से एक जैसी रणनीति का इस्तेमाल करते हुए हमले कर रहे हैं. यह सब आखिर इस तरह से कैसे जारी है?

1
6 अप्रैल, 2010, दंतेवाड़ा
माओवादियों ने 75 सीआरपीएफ जवानों और राज्य पुलिस के एक कांस्टेबल को मौत के घाट उतार दिया. आंतरिक सुरक्षा के मामले में यह एक दिन में हुई सबसे बड़ी जनहानि थी. चूक कहां हुई: अधिकारी स्थानीय भूभाग से परिचित नहीं थे, जवान आदिवासी गांव में रुके और उनकी संख्या का पता चल गया, वे जिस रास्ते से आए, उसी से लौट रहे थे

2
11 मार्च, 2014, सुकमा
सीआरपीएफ के 11 जवान, चार पुलिसकर्मी और एक नागरिक की मौत सुकमा जिले के तहकवाड़ा गांव में हुई. चूक कहां हुई: सुरक्षाबलों का ध्यान खींचने के लिए तीन गाडिय़ों में आग लगाई. तीन सीआरपीएफ दल बैच में आए, माओवादियों ने ऊंचे स्थान से हमला किया,15 हथियार चुराए

3
12 मार्च, 2017, सुकमा
सड़क निर्माण के काम को सुरक्षा देने जा रहे सीआरपीएफ जवानों पर घात लगाकर हमला किया गया. 12 सीआरपीएफ जवान मारे गए. चूक कहां हुई: बाकी बचे बल ने माओवादियों पर फायर करने और जवाब देने की कोई कोशिश नहीं की

4
24 अप्रैल, 2017, सुकमा
300 माओवादियों ने सड़क मजदूरों की सुरक्षा कर रहे 99 सीआरपीए जवानों पर घात लगाकर हमला किया. हमले में 25 जवान मारे गए और 7 गंभीर रूप से घायल हुए. चूक कहां हुई: सीआरपीएफ ने निगहबानी ढीली कर दी थी. हमले हुआ तब वे सब खाना खा रहे थे

5
21 मार्च, 2020, सुकमा
छत्तीसगढ़ पुलिस के 17 जवान घात लगाकर किए हमले में मारे गए, 15 घायल हुए और 16 हथियार लूट लिए गए. चूक कहां हुई: नेतृत्व की नाकामी, तीन सुरक्षा दल तीन अलग दिशाओं में चले, जब एक पर हमला हुआ तो बाकी बचाने नहीं आए

6
3 अप्रैल, 2021, बीजापुर
घात लगाकर हुए हमले में 22 जवान शहीद, एक सीआरपीएफ जवान को माओवादियों ने बंधक बना लिया. चूक कहां हुई: खाली गांवों के चेतावनी संकेत की अनदेखी. मदद देर से पहुंची.

Advertisement
Advertisement