
तमिलनाडु में वेल्लूर की रहने वाली स्नेहा ने साल 2019 में बिना जाति, बिना धर्म का प्रमाणपत्र हासिल किया. देश में अपने तरह का यह पहला प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए उन्हें 9 साल लड़ाई लडऩी पड़ी. लेकिन धर्म से छुटकारा पाने के इस वाकये के विपरीत झारखंड के आदिवासी अपने सरना धर्म को मान्यता दिलाने की मुहिम में जुटे हुए हैं. आदिवासियों की सुनी जा रही है और झारखंड सरकार ने एक संकल्प पास कर केंद्र सरकार के पास भेजा है जिसमें सरना धर्म कोड को 2021 की जनगणना से लागू करने की मांग की गई है. लेकिन देश के करोड़ों आदिवासियों और सैकड़ों जनजातियों को एक धर्म की छतरी में लाना इस दौर में कितना मुश्किल होगा जब धर्मांतरण और धर्म से जुड़े मुद्दे बहुत नाजुक मोड़ पर खड़े हैं.
11 नवंबर 2019 को विधानसभा के विशेष सत्र में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, ''प्रकृति की पूजा करने वाले आदिवासियों की पहचान के लिए अलग सरना कोड जरूरी है. यह मांग इसलिए उठाई गई ताकि आदिवासी अपनी पहचान के प्रति आश्वस्त हो सकें. कुल आबादी का 8 से 9 प्रतिशत आदिवासी हैं. पिछली जनगणना में झारखंड में 50 लाख लोगों ने सरना धर्म दर्ज किया है. राज्य में सरना धर्म कोड की मांग के सबसे अधिक आंदोलन हुए हैं. जनगणना के कॉलम में 1951 तक आदिवासियों का कॉलम अलग-अलग नाम से रहा. 1961 में इसे हटा दिया गया.'' मुख्यमंत्री ने कहा कि सरना आदिवासी धर्म कोड को जनगणना 2021 में शामिल कराने के लिए सत्ता पक्ष के सभी विधायकों के साथ वे केंद्र सरकार और गृह मंत्री से मिलकर अनुरोध करेंगे.
प्रदेश भाजपा भी इसके पक्ष में खड़ी दिखी. सदन में भाजपा विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा ने सरना धर्म कोड के प्रस्ताव का समर्थन करने के साथ यह भी कहा कि 1951 में आदिवासियों के लिए अलग कोड था पर 1961 में सत्ता में बैठी कांग्रेस ने अन्य का विकल्प हटा दिया. कांग्रेस अपनी गलती को छुपाने के लिए हड़बड़ी में चुनाव के मद्देनजर यह प्रस्ताव लेकर आई है.
लेकिन सदन के बाहर भाजपा में सरना कोड को लेकर एकराय नहीं है. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता रघुबर दास का कहना है, ''सरना कोड राजनीतिक मसला है. सरना शब्द तो सिर्फ झारखंड में बोला जाता है. उरांव बहुसंख्यक जिलों में ही सरना शब्द बोला जाता है.'' अलग-अलग जनजातियों के पूजास्थल के अपने अपने नाम हैं- संथाल में माजिस्तान बोला जाता है, हो में अलग है, गोंड का अलग है तो एक नाम कैसे थोपा जा सकता है. दास कहते हैं, ''यूपीए सरकार के जमाने में 2013 में भाजपा सांसद सुदर्शन भगत ने संसद में इस मुद्दे पर सरकार से सवाल पूछा था जिसके जवाब में सरकार ने कहा था कि यह संभव नहीं है. ये तुष्टीकरण और वोटबैंक की राजनीति से जुड़ा प्रस्ताव है. आदिवासी समाज पहले से सनातन समाज से जुड़ा हुआ है. सनातन धर्म में प्रकृति की ही पूजा होती है. बिना प्रकृति के सनातन धर्म में पूजा संभव ही नहीं है. ये कुछ अलगाववादी शक्तियों की चाल और आंख में धूल झोंकने का प्रयास है.''
सरना कोड के लिए दो दशकों से जमीनी आंदोलन चला रहे नेता सालखन मुर्मू अडिग हैं. झारखंड जद (यू) अध्यक्ष, पूर्व सांसद और आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू कहते हैं, ''ये जनजातियों की धार्मिक आजादी का प्रश्न है. भोलेपन की वजह से इनको धर्मांतरित किया जा रहा है जिसे धर्म की मान्यता से रोका जा सकता है. दूसरे धर्म में जाते ही आदिवासी का भोलापन खत्म हो जाता है. धार्मिक मान्यता नहीं मिलने से हमारे प्राकृतिक व्यक्तित्व और जीवन दर्शन की हत्या हो रही है. इसलिए सरना कोड को जनगणना 2021 में मान्यता मिलनी चाहिए. पिछली जनगणना में 50 लाख लोगों ने एनी अदर के कॉलम में सरना लिखवाया था. उड़ीसा, बंगाल, असम, छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में झारखंडी आदिवासी रहते हैं.
इनके त्योहार सरना के नाम से प्रचलित हैं, सरना आदिवासियों का पूजास्थल होता है.'' संथाल जनजाति से ताल्लुक रखने वाले मुर्मू कहते हैं, ''हमारी संस्था ने 100 सरना धर्म (सगाड़) रथ निकाले हैं लोगों को यह बताने के लिए कि 2021 में जनगणना होगी. हमें सरना धर्म के लिए लड़ना है और जनगणना में लिखाना भी है.'' उन्होंने चेतावनी दी है कि सरकार अगर मान्यता की घोषणा नहीं करेगी तो 6 दिसंबर को राष्ट्रव्यापी चक्काजाम किया जाएगा. झारखंड, बंगाल, बिहार, ओडिशा और असम में वे यह प्रचार कर रहे हैं. पांचों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के अलावा कांग्रेस-भाजपा को भी पत्र भेजा गया है.
मुर्मू कहते हैं कि आदिवासियों के बीच उन्हें जबर्दस्त रिस्पांस मिल रहा है. वे भाजपा-कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों से उम्मीद करते हैं कि उनसे कम आबादी वाले धर्मों को मान्यता मिली हुई है तो ज्यादा संख्या वाले आदिवासियों के धर्म का जिक्र तो होना चाहिए. वे कहते हैं, ''धर्मांतरण हमारे मूल अधिकारों की हत्या है. इसमें सिर्फ भाजपा की बात नहीं है, कांग्रेस भी इसके लिए दोषी है. इसके लिए हम भी जिम्मेदार हैं. हमारे मंत्री नेता भी इस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं.''
भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष और सांसद समीर उरांव कहते हैं, ''ये पूरे देश की बात है. एक प्रदेश ने यह प्रस्ताव भेजा है. प्रस्ताव को करोड़ों लोगों और सैकड़ों जनजातियों पर लागू कराने का मसला है. हम तो झारखंड के हैं इसलिए सरना जानते हैं लेकिन राजस्थान, गुजरात, नॉर्थ ईस्ट, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र के लोग क्या बोलते हैं यह किसी को पता नहीं. अकेले किसी एक की सहमति का कोई मतलब नहीं है.'' उरांव कहते हैं कि आज के राजनीतिक नेताओं से कई गुना सोचने वाले नेता आजादी के वक्त थे. उस समय उन्होंने ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया, इस सवाल का जवाब ढूंढना चाहिए. इसमें किसी बात का एकाएक समर्थन या विरोध करना वाजिब नहीं होगा. भाजपा देशभर की जनजातियों के हितों के लिए काम कर रही है. भाजपा कोई भी फैसला देशहित और समाजहित में होगा.
सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरना पर झारखंड से बाहर के आदिवासी क्या सोचते हैं. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के मध्य प्रदेश अध्यक्ष और गोंड जनजाति से ताल्लुक रखने वाले हरताप तिलगाम कहते हैं, ''आदिवासी को वैसे तो किसी अलग धर्म की जरूरत नहीं है क्योंकि वह पहले से प्रकृति से जुड़ा हुआ है. लेकिन आजकल धर्म पहचान का मसला है. महाकौशल, विंध्य, मालवा में आदिवासी समाज की मांग रही है कि गोंडी धर्म होना चाहिए. महाकौशल में पार्टी संस्थापक दादा हीरासिंह मरकाम ने इसके लिए आंदोलन चलाया था. मैंने खुद पिछली जनगणना में गोंडी धर्म लिखवाया था. समाज का अनुमान है कि 2011 की जनगणना में 6 लाख लोगों ने गोंडी धर्म लिखवाया था. गोंडी के नाम पर सरना वाले सहमत नहीं हो रहे हैं. वैसे धर्म के नाम को लेकर सर्वसम्मति बनाने का प्रयास हो रहा है.'' धर्म से क्या फायदा होगा? इसके जवाब में वे कहते हैं कि इससे पहचान मिलेगी. वे ऐसा शब्द खोज रहे हैं जिस पर सभी जनजातियां सहमत हों.

भील आदिवासी और राजस्थान में भारतीय ट्राइबल पार्टी के विधायक रामप्रसाद कहते हैं, ''जनगणना में अब तक कोई कॉलम नहीं था. सर्वे वाला अपने आप धर्म का कॉलम भर लेता है. जो व्यवस्था आजादी से पहले थी, वही लागू रहनी चाहिए. हमारा धर्म आदिवासी होना चाहिए. हमारी संस्कृति अलग और मान्यताएं अलग हैं. आदिवासियों को एकजुट होना चाहिए.''
लेकिन छत्तीसगढ़ की आदिवासी नेता बिल्कुल अलग राय रखती हैं. छत्तीसगढ़ से कांग्रेस की राज्यसभा सांसद फूलो देवी नेताम कहती हैं, ''झारखंड का अलग मामला होगा. यहां छत्तीसगढ़ में आदिवासियों को किसी अलग धर्म की जरूरत नहीं है.''
छत्तीसगढ़ में जगदलपुर के पत्रकार और बस्तर मंय आदिवासियों के बीच 40 साल से काम कर रहे हेमंत कश्यप कहते हैं, ''आदिवासी किसी प्रचलित धर्म को नहीं मानते. बस्तर में लिंगो देवता की पूजा होती है. अलग-अलग गांव में अलग-अलग मंदिर होते हैं. ये त्योहारों पर स्थानीय देवताओं की पूजा करते हैं. नवाखानी यानी नए अनाज की पूजा का त्योहार और बस्तर का वनांचल हमारी दीवाली को बड़ा दिवाली कहते हैं. इनकी दीवाली पूस में होती है और इसे दियारी कहा जाता है.'' कश्यप कहते हैं कि सरकार आदिवासियों को हिंदू मानती है लेकिन आदिवासी समाज के कथित नेता खुद को अलग मानते हैं.
मुर्मू कहते हैं कि कुछ लोग आदिवासी धर्म की मांग उठा रहे हैं. पिछली जनगणना में 41 हजार लोगों ने ही आदिवासी लिखवाया था. दरअसल बहुत से आदिवासी धर्म को जानते नहीं हैं क्योंकि यहां धर्म उस तरह से संस्थागत नहीं है.
देश में सबसे ज्यादा आदिवासी गोंड जनजाति के हैं. मुर्मू कहते हैं, ''ज्यादातर गोंड आदिवासियों का हिंदूकरण हो गया है. ये भाषा-संस्कृति भूल गए हैं तो उनकी आदिवासी की मौलिकता खत्म हो गई है. उरांव और मुंडा बहुत हद तक ईसाइयों के करीब आ गए हैं.'' उधर, मध्य प्रदेश में गोंड सबसे ज्यादा हैं, इसके बाद भील हैं. भील गोंडी धर्म को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. भूरिया कमेटी की रिपोर्ट में उल्लेख है कि सिक्किम की भूटिया जनजाति में 8 समुदाय शामिल हैं और ये इनमें ज्यादातर लामा वाले बौद्ध धर्म को मानते हैं. देश में 705 अधिसूचित जनजातियां हैं.
इन सबकी बोलियां, रीति-रिवाज, परंपराएं अलग-अलग हैं. एक कड़वा सच यह है कि देश में सिर्फ 17.3 प्रतिशत आदिवासी परिवारों के घरों में स्नानघर है. आदिवासियों की हालत बहुत खराब है और आदिवासी नेता उनके लिए बहुत कुछ नहीं कर पा रहे हैं. दो बार सांसद रह चुके मुर्मू बेबाक ढंग से कहते हैं कि ज्यादातर आदिवासी सांसद, विधायक, मंत्री-मुख्यमंत्री अपनी योग्यता, अनुभव, काबिलियत की बदौलत नहीं बल्कि आरक्षण की वजह से ऊपर पहुंच जाते हैं.
बहरहाल, आदिवासियों के सरना धर्म का प्रस्ताव भले ही केंद्र सरकार के पास पहुंच गया हो पर आगामी जनगणना में इस रूप में लागू करना बहुत मुश्किल दिखता है. अकेले झारखंड में ही 32 जनजातियां हैं और सोचिए सिर्फ यहां सरना कोड लागू हुआ तो भी खींचतान की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.