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खास रपटः महामारी में डूबी चिकनकारी

लॉकडाउन के चलते पैदा हुई विश्वव्यापी आर्थिक सुस्ती ने लखनऊ के मशहूर चिकनकारी उद्योग की कमर ही तोड़कर रख दी. शहर और आसपास के एक लाख से ज्यादा कारीगर भुखमरी की कगार पर

कहां का धंधा? लखनऊ में चौक स्थित चिकन प्रिंटिंग और एम्ब्रॉइडरी शॉप में ग्राहक न होने से आराम करता दुकानदार
कहां का धंधा? लखनऊ में चौक स्थित चिकन प्रिंटिंग और एम्ब्रॉइडरी शॉप में ग्राहक न होने से आराम करता दुकानदार
अपडेटेड 30 सितंबर , 2020

पुराने लखनऊ में चौक चौराहे पर मौजूद गोल दरवाजे से मशहूर टुंडे कबाब की दुकान को जाने वाली संकरी सड़क चिकनकारी की जीवन रेखा है. करीब एक किलोमीटर लंबी यह सड़क अपने दोनों किनारों पर लखनऊ के विश्व प्रसिद्ध चिकन उद्योग में आने वाले उतार-चढ़ाव का गवाह रही है. लखनऊ में मौजूद पांच हजार चिकन के कपड़ों की दुकानों में से आधी इसी सड़क के किनारे हैं. गोल दरवाजे से इस सड़क पर आगे बढ़ते ही यह अंदाजा लग जाता है कि कोरोना संक्रमण में चिकन उद्योग को कैसी चोट दी है.

सड़क पर आवाजाही तो है लेकिन चिकन की दुकानों पर सन्नाटा पसरा है. दुकानों में सन्नाटे के बीच इनके मालिक बीच-बीच में झपकी लेकर समय काट रहे हैं. करीब सौ मीटर चलने के बाद बाईं ओर खत्री मार्केट के बेसमेंट में चिकन के कपड़ों से सजी दुकान बनारसी दास ऐंड संस है. दुकान के मालिक आशु महेंद्रू पिछले तीस वर्षों से चिकन के व्यवसाय से जुड़े हैं. कभी ग्राहकों से खचाखच भरी रहने वाली आशु की दुकान अब बेसब्री से खरीदारों की राह तकती है. आशु रोज सुबह 11 बजे आधा दर्जन कर्मचारियों के साथ ग्राहकों का इंतजार करने दुकान में आ बैठते हैं. दिन भर में कभी पांच-छह ग्राहक आ गए, वर्ना कभी वह भी नहीं. ऐसे में समय काटना मुश्किल होता है.

आशु बताते हैं, ''चिकन वस्त्रों के सबसे बड़े खरीदार बाहर से लखनऊ आने वाले पर्यटक हैं. मार्च में कोरोना संक्रमण फैलने के बाद लॉकडाउन में व्यापार बंद रहा और अनलॉक में लखनऊ की ऐतिहासि‍क इमारतें बंद रहने से पर्यटक नहीं आए. इससे चिकन का पूरा व्यवसाय ठप हो गया है.'' चिकन के धंधे से आशु का टर्नओवर एक करोड़ रुपए सालाना था. त्योहारों और छुट्टियों के चलते हर वर्ष फरवरी से लेकर जुलाई तक का समय चिकन के व्यापार के लिए सबसे मुफीद रहता था. चिकन व्यवसायी और कारोबारी अपनी आमदनी का 70 फीसद हिस्सा इन्हीं दिनों में जुटा लेते थे. इस दफा इन छह महीनों में कोविड-19 बीमारी की वजह से लागू बंदि‍शों ने चिकन व्यवसायियों की कमर तोड़ दी. आशु की मानें तो ''इस वर्ष अब तक 10 लाख रु. का भी बिजनेस नहीं हो पाया है. पिछली बचत से दुकान और कर्मचारियों से जुड़े खर्चे किसी तरह पूरे करने पड़ रहे हैं. अगर ऐसी स्थि‍ति दो-तीन महीने और रह गई तो बड़ी संख्या में चिकन व्यवसायी कारोबार बंद कर दूसरा कोई धंधा शुरू कर देंगे.''


कोरोना संक्रमण के चलते बने माहौल में लखनऊ में चिकन कारोबार से जुड़े कुल पांच लाख व्यवसायी और कारीगर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं. कोविड-19 महामारी के अंदेशों के बीच 2,000 करोड़ रु. सालाना के चिकन वस्त्रों के व्यवसाय में खरीदारी न के बराबर होने से 'कैश फ्लो' की कमी ने पूरे कारोबार की 'ऑक्सीजन' रोक दी है. लखनऊ चिकन हैंडीक्राफ्ट एसोसिएशन के कारोबारी शालू टंडन दर्द कुछ इस तरह से बयान करते हैं, ''बिक्री न होने से चिकन व्यवसायी के पास नकदी नहीं है. इसकी वजह से कारीगर के पास पिछले ऑर्डर का जो तैयार माल पड़ा हुआ है उसका भुगतान नहीं हो पा रहा है. ऐसे में अगले वर्ष भी चिकन कारोबार की हालत सुधरने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही.''


कभी टोपियों के पल्ले से शुरू हुए चिकन के काम में आज उत्पादों की लंबी फेहरिस्त है. चिकन के साथ जरदोजी और मुकैश (तार से बनी फूल पत्तियां और छोटे छोटे सितारे) के काम ने इन उत्पादों में चार चांद लगाए हैं. असल में चिकन उत्पाद ग्राहकों तक पहुंचने से पहले कटिंग, प्रिंटिंग, सजावट और जरदोजी का काम, हाफवाश, थ्रेड कटिंग, धुलाई जैसे चरणों से गुजरता है. बारीक कपड़े पर सुई से महीन कढ़ाई कर कारीगर रंगबिरंगे चिकन के कपड़े तैयार करता है. यह कपड़े न केवल गर्मी में ठंडक का एहसास कराते हैं बल्कि‍ यह तैयार करने वाले कारीगरों के हुनर की झलक भी पेश करते हैं. इसी झलक ने लखनऊ के चिकन के वस्त्रों को देश और विदेश में पहचान दिलाई है.


कोरोना ने लखनऊ में चिकनकारी के हुनरमंद कारीगरों को कितना दर्द दिया है, इसकी मिसाल चौक के पुराने शाही यूनानी शफाखाना की ढहने के कगार पर खड़ी इमारत में रहने वाले 70 वर्षीय अनवर नवाब में देखी जा सकती है. अनवर चिकनकारी और जरदोजी का पुश्तैनी काम करते आ रहे हैं. बुढ़ापे के कारण इनके हाथ अब भले कांपते हों लेकिन इन्होंने लखनऊ के आसपास रहने वाले कितने ही गरीब युवाओं को चिकनकारी और जरदोजी का काम सिखाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाया है. सैकड़ों कारीगर पैदा करने वाली अनवर की हवेली में कोरोना के कारण सन्नाटा पसरा है. पहले हर वक्त कम से कम दर्जन भर कारीगर इसी कोठी में रहकर दिन-रात चिकनकारी और जरदोजी करते रहते थे.


अनवर बताते हैं, ''कोरोना संक्रमण के चलते चिकनकारी और जरदोजी के लिए आने वाले कपड़ों की संख्या 90 फीसद तक घट गई है. पहले जहां रोज 15 से 20 कपड़े चिकनकारी और जरदोजी के लिए आते थे, वहीं इस साल मार्च से लेकर अब तक कुल 100 कपड़े भी नहीं आए हैं. चिकन का कारोबार बेहद कमजोर रहने के कारण चिकनकारी और जरदोजी का काम करने वाले कारीगर भी परिवार का पेट भरने को दूसरे धंधे में लग गए हैं.'' अनवर के यहां चिकनकारी और जरदोजी का काम करने वाले मुनव्वर अब किराए पर ई-रिक्शा चलाने लगे हैं. मुनव्वर बताते हैं, ''चिकनकारी और जरदोजी का काम करके मैं दस हजार रुपए महीने कमा लेता था लेकिन लॉकडाउन में काम धंधा बंद होने और परिवार का पेट भरने के लिए ई-रिक्शे पर सब्जी बेचना शुरू किया. अब ई-रिक्शा से सवारियां ढो रहा हूं. इससे हर महीने 3,000 रु. की आमदनी ही होती है जिससे किसी तरह परिवार का पेट भर पाता हूं. बच्चों की पढ़ाई तो छूट ही चुकी है.'' लखनऊ और आसपास के इलाकों में करीब एक लाख से ज्यादा चिकन और जरदोजी कारीगर भुखमरी के कगार पर आ चुके हैं.

चिकनकारी में कपड़ों की छपाई एक महत्वपूर्ण अंग है. चिकनकारी से पहले कपड़ों पर शीशम के ब्लॉक के जरिए नील और गोंद से बने रंग के जरिए डि‍जाइन की छपाई की जाती है. इसके बाद इस पर चिकनकारी होती है. चौक का कप्तान कुआं मोहल्ला कपड़ों में छपाई के लिए मशहूर है. यहां करीब 50 परिवार हैं जो कपड़ों में छपाई का पुश्तैनी काम करते आ रहे हैं. इन्ही में से एक हैं 32 वर्षीय अब्दुल्ला जुबैर. कोरोना की मार कपड़ों की छपाई पर भी पड़ी है. जुबैर बताते हैं, ''इस वर्ष फरवरी तक 10 से 12 पीस रोजाना आते थे छपाई के लिए लेकिन अब एक-दो ही आते हैं. कपड़े के हिसाब से एक पीस की छपाई पर 30 से 40 रुपए मिलते हैं. इस तरह महीने भर में दस हजार रुपए की आमदनी हो जाती थी. अब मार्च से लेकर अब तक कुल मिलाकर दस हजार रुपए मुश्किल से कमाई हुई है.''


चिकनकारी किए कपड़े बिक्री के लिए दुकानों पर पहुंचने से पहले इनकी कई चरणों में धुलाई होती है. चौक निवासी और बाबूजी के नाम से मशहूर दिवंगत लालजी टंडन ने प्रदेश सरकार में आवास और नगर विकास मंत्री रहते हुए 19 अगस्त, 2001 को हाता सूरज सिंह में खासतौर पर चिकन के कपड़ों की धुलाई के लिए धोबीघाट का उद्घाटन किया था. इसके लिए यहां पर पांच हौज बनाए गए थे. इनमें पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए एक वाटर पंप भी लगाया गया था. सूरज सिंह हाता के धोबियाना मोहल्ले में डेढ़ सौ परिवार पिछले काफी समय से कपड़ों की धुलाई का काम करते आ रहे हैं. पिछले छह महीने से धोबी घाट पर कपड़ों की धुलाई बंद होने से ये सूखे पड़े हैं. हौज में काई जम चुकी है.

कपड़ों की धुलाई करने वाले राजेश कुमार बताते हैं, ''इस धोबी घाट पर रोज यही कोई 2,000 कपड़े धोए जाते थे. एक परिवार कम से कम 10 से 12 कपड़े धोता था. एक कपड़े की धुलाई में 20 से 50 रुपए मिलते थे. इस तरह कपड़े धोकर परिवार का एक सदस्य 6,000 से 10,000 रुपए महीना तक कमा लेता था. अब कारोबार बंद होने से इन घाटों पर दस कपड़े भी धुलने के लिए नहीं पहुंच रहे.'' धोबियाना मोहल्ले के रहने वाले अजय कुमार बताते हैं कि घर का खर्च चलाने को परिवार में रखे जेवर बेचने पड़ रहे हैं.


कोरोना की मार झेल रहे लखनवी चिकन को जीएसटी ने भी खूब सताया है. एक हजार की खरीदारी पर पांच फीसद और इससे अधि‍क की खरीदारी पर 12 फीसद जीएसटी का प्रावधान किया गया है. चिकन कारोबारी दीपू खत्री बताते हैं, ''चिकनकारी विशुद्ध हस्तशिल्प है. इसके बावजूद चिकन के कारोबार को जीएसटी के दायरे में रखा गया है. इससे चिकन के कपड़ों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई और कारोबार में गिरावट आई है.'' अब यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने लखनऊ की चिकनकारी को 'वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोजेक्ट' (ओडीओपी) योजना में शामिल कर कई योजनाएं शुरू की हैं (देखें बाक्स).


कोरोना संक्रमण के बीच वे सरकारी योजनाएं भी कसौटी पर आ गई हैं जिनके जरिए चिकन कारोबार को उबारने की आस लगाई गई है. अगर ये बेअसर साबित हुईं तो आने वाले दिनों में लखनऊ के नक्शे पर चिकन कारोबार का निशान धूमिल हो जाएगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'लोकल के लिए वोकल' महज एक नारा बनकर ही रह जाएगा.

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