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सहूलियत देने वाला ई-रिक्शा क्यों बन गया समस्या ? पढ़ें रिपोर्ट

नीतियों के अभाव में बेतरतीब बढ़े ई-रिक्शे भले सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त न हों लेकिन अपने खुलेपन के कारण आम जनता की पसंद बन गए. अब जरूरत चोट के नासूर बनने से पहले इलाज की है.

 जनता की सवारी ई-रिक्शा से छोटी दूरी का सफर बेहद आसान हो गया है
जनता की सवारी ई-रिक्शा से छोटी दूरी का सफर बेहद आसान हो गया है
अपडेटेड 18 सितंबर , 2018

साल 2010 की बात है, राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान पहली बार दिल्ली की सड़कों पर ई-रिक्शा उतरे. इनका इस्तेमाल खेलगांव में आवागमन के लिए किया गया. अपने खुलेपन के कारण उस समय विदेशी सैलानियों को लुभाने वाले ई-रिक्शे अपनी इसी खूबी के कारण आज दिल्ली समेत देश के कई राज्यों में आम जनता की जरूरत बन चुके हैं. मेट्रो स्टेशन से ऑफिस जाना हो या घर से सब्जी मंडी लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए ई-रिक्शा बेहतरीन विकल्प के रूप में उभरा है. नीतियों के अभाव में ई-रिक्शा ने सड़कों पर ऐसे जगह बनाई कि आज दिल्ली-एनसीआर समेत देश के कई राज्यों में ये समस्या बनकर दौड़ रहे हैं.

द एनर्जी ऐंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) की ट्रांस्पोर्ट ऐंड अर्बन गवर्नेंस डिविजन के रिसर्च एसोसिएट डिम्पी सुनेजा के मुताबिक, "अभी देश में करीब नौ लाख ई-रिक्शे सड़कों पर हैं. दिल्ली में इनकी तादाद सबसे ज्यादा—करीब 2 लाख है.

इसके बाद ई-रिक्शों की संख्या के आधार पर पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बिहार और त्रिपुरा बड़े राज्य हैं.'' कुछेक राज्यों के गिने-चुने शहरों में ही ई-रिक्शा चल रहे हैं. मसलन, महाराष्ट्र में नागपुर. डिम्पी यह भी कहते हैं, "देश में चल रहे 60-65 फीसदी ई-रिक्शे गैर कानूनी हैं. दिल्ली-एनसीआर में यह समस्या सबसे बड़ी है.''

2016 में टेरी की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में महज 30 से 35 फीसदी ई-रिक्शा ही रजिस्टर्ड थे, जबकि उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों जैसे लखनऊ, वाराणसी, बरेली में रजिस्टर्ड ई-रिक्शा का प्रतिशत महज 20 से 22 फीसदी ही था. रिक्शा कानूनी हो या गैर कानूनी, आम आदमी के लिए सुविधा से ज्यादा जरूरत बन गया है.

गैर कानूनी क्यों हो गए ई-रिक्शा?

2012-13 में जब सड़कों पर ई-रिक्शा अपनी पकड़ मजबूत बना रहे थे तब इन्हें पैडल रिक्शा का विकल्प समझा गया. चूंकि साधारण रिक्शे के लिए किसी रजिस्ट्रेशन या लाइसेंस की जरूरत नहीं थी इसलिए मान लिया गया कि ई-रिक्शे के लिए भी इनकी जरूरत नहीं होगी और वे बेतरतीब ढंग से बढ़े. लोकल वेल्डिंग की दुकान से लेकर फैक्ट्रियों तक धड़ल्ले से ई-रिक्शा बनने और बिकने लगे.

बिना किसी तय मानक से बने ई-रिक्शे जानलेवा हो गए. दिल्ली में बेकाबू ई-रिक्शे से हुए दर्दनाक हादसों के बाद अदालत का चाबुक चला और सरकार की भी नींद खुली. सुरक्षा के मुद्दे पर दायर एक जनहित याचिका में दिल्ली हाइकोर्ट ने 31 जुलाई, 2014 को ई-रिक्शा पर प्रतिबंध लगा दिया.

इसके बाद मार्च 2015 में संसद ने मोटर व्हीकल (संशोधन) कानून 2015 में बदलाव कर ई-रिक्शा को कानूनी बनाया. लेकिन जब तक यह कानून राज्यों में अमल में लाया जाता उससे पहले लाखों ई-रिक्शा सड़कों पर आ चुके थे.

कानून बनने के बाद सरकार ने पहले से चल रहे ई-रिक्शा को रजिस्टर्ड कराने का मौका तो दिया लेकिन रिक्शा चालकों का रवैया इसके प्रति उदासीन दिखा. बैटरी रिक्शा वेलफेयर एसोसिएशन के उपाध्यक्ष पवन कक्कड़ बताते हैं, "गैर-कानूनी रिक्शों में से दो सैंपल लेकर उसे ऑटोमोबाइल रिसर्च ऐसोसिएशन ऑफ इंडिया (एआरएआइ) और इंटरनेशनल सेंटर फॉर ऑटोमोटिव टेक्नोलॉजी (आइकैट) से अप्रूव्ड करवाया गया और बाकियों को इन्हीं मानकों के आधार पर बदलाव करने के लिए आमंत्रित किया.

इसके लिए पहले छह माह का समय तय किया गया, बाद में तारीख भी बढ़ाई गई लेकिन मालिकों ने अपने रिक्शे रजिस्टर्ड नहीं करवाए. दिल्ली में बमुश्किल 2,000 रिक्शे ही रजिस्डर्ड हुए. इसकी वजह दरअसल इस प्रोसेस में आने वाला लगभग 15,000 रुपए का खर्च था.''  

ठेकेदारों का गोरखधंधा

नंबर वाले एक रजिटर्ड रिक्शे की कीमत बाजार में औसत 1.10 से 1.50 लाख रुपए के बीच है. इसमें एक साल का इंश्योरेंस, रजिस्ट्रेशन, लाइसेंस बनवाने की लागत शामिल है. वहीं दूसरी ओर, बिना नंबर का ई-रिक्शा बाजार में 60 से 66,000 रु. में मिल जाता है. कक्कड़ कहते हैं, "गैर कानूनी रिक्शे चलने के पीछे दो बड़ी वजह हैं. पहला, ज्यादातर ई-रिक्शे ठेकेदारों के हैं और दूसरा, कानून का सख्ती से पालन नहीं होना.''

नोएडा, पूर्वी दिल्ली के इलाके में ई-रिक्शा चलाने वाले बताते हैं कि 350 रुपए रोज में ई-रिक्शा मिल जाता है. पुलिस के पकडऩे से लेकर पार्किंग और चार्जिंग तक की जिम्मेदारी उन्हीं की होती है. जो लोग अपना ई-रिक्शा चला रहे हैं उन्हें 100 से 130 रुपए पार्किंग और चार्जिंग के देने होते हैं. ठेकेदार नियमों को ताक पर रखकर सस्ते गैर-कानूनी रिक्शे चलवा रहे हैं. कक्कड़ के मुताबिक, "दिल्ली में चलने वाले ज्यादातर गैर कानूनी ई-रिक्शे ठेकेदारों के ही हैं.''

डिपार्टमेंट का दर्द    

बड़ा सवाल यह है कि पुलिस की नाक के नीचे इतनी बड़ी संख्या में गैर-कानूनी ई-रिक्शे चल रहे हैं तो इन पर कार्रवाई क्यों नहीं होती? दिल्ली परिवहन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "सड़कों से ई-रिक्शा न हटने की सबसे बड़ी वजह स्क्रैप पॉलिसी का न होना है. पुलिस डिपार्टमेंट अगर सक्चती करके ई-रिक्शे जब्त कर भी लेता है तो इन्हें रखने की कोई व्यवस्था नहीं है. स्क्रैप पर कोई नीति न होने की वजह से इन्हें नष्ट भी नहीं किया जा सकता.''

यही कारण हैं कि दिल्ली-एनसीआर में कई जगहों पर पकड़े गए ई-रिक्शों का अंबार लगा है. न तो इन्हें कोई अदालत से छुड़ाने आता है और न ही पुलिस डिपार्टमेंट इन्हें छोड़ सकता है. अधिकारी ने यह भी बताया, "दिल्ली सरकार स्क्रैप पॉलिसी पर काम कर रही है. इसके अमल में आते ही बड़ी संख्या में ई-रिक्शे सड़कों से हट जाएंगे.''

वोट बैंक पर चोट    

सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स के महानिदेशक सोहिंदर गिल कहते हैं, "शुरुआत से ही ई-रिक्शा के बाजार में बड़ी रस्साकशी रही. अदालतों ने रिक्शा बैन कर दिया लेकिन उसके बाद भी सड़कों पर रिक्शे आते रहे.

आइकैट, एआरएआइ ने सख्त नियम बना दिए तो सरकार और राजनैतिक पार्टिंयां हमेशा गरीब रिक्शेवालों की दुहाई देकर रियायतों की पैरोकारी करती रहीं. सरकार दरअसल ई-रिक्शा को ऑटोमोबाइल की तरह हैंडल नहीं कर पाई. इसी वजह से बड़ी संगठित कंपनियों ने इससे खुद को दूर रखा.''

देश में ई-रिक्शा बनाने के बिजनेस में बड़ी कंपनियों ने रुचि नहीं दिखाई. इक्का-दुक्का कंपनियां ही इस बिजनेस में आईं लेकिन ज्यादातर बाजार पर लोकल मैन्युफैक्चरर का ही दबदबा है. गिल यह भी कहते हैं, "अगर बड़ी कंपनियां इस बिजनेस में उतरेंगी तो क्वालिटी प्रोडक्ट बनाएंगी. ऐसे में वे मौजूदा बाजार की इकोनॉमिक्स से मैच नहीं खाएगी.''

बुनियादी ढांचे का अभाव

लाखों की संख्या में चलने वाले ई-रिक्शा के लिए न तो कोई अधिकृत पार्किंग है और न ही पर्याप्त चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर है. कई ठेकेदार अवैध तरीके से पार्किंग करते हैं और चार्जिंग का धंधा चला रहे हैं. दिल्ली में बाय-बाय ऑटो के संस्थापक राजीव तुली कहते हैं, "ई-रिक्शा को बढ़ावा देने के लिए पार्किंग और चार्जिंग स्टेशन जैसे बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने की जरूरत है.

मुद्रा लोन से ई-रिक्शा को जोडऩे और सरकार की ओर से सब्सिडी देने के बाद दिल्ली में ई-रिक्शा खरीदना अब आसान हो गया है लेकिन बुनियादी ढ़ांचे के अभाव में इसके परिचालन में बड़ी दिक्कतें आ रही हैं.'' अवैध रूप से चार्जिंग का आलम यह है कि दिल्ली की पावर डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी बीएसईएस ने ई-रिक्शा चार्जिंग के लिए होने वाली बिजली चोरी से रोजाना 25 लाख रुपए के नुक्सान का अनुमान लगाया था.

चीन से टक्कर

सारथी ई-रिक्शा के संस्थापक अश्विनी सहगल कहते हैं, "ई-रिक्शा में मोटर, कंट्रोलर और डिफ्रेंशिएटर तीन प्रमुख चीजें चीन से आयात हो रही हैं. भारतीय कंपनियों ने इन प्रोडक्ट पर मार्जिन काफी ज्यादा रखा है, चीन से यहां तक का भाड़ा और इम्पोर्ट ड्यूटी लगाने के बाद चीन का सामान सस्ता पड़ता है.''

सहगल यह भी कहते हैं, "दूसरी बड़ी समस्या कैपेसिटी और क्वालिटी की है. ज्यादा पैसे खर्चे करने के बाद भी चीन जैसी क्वालिटी अभी हम नहीं दे पा रहे. बड़े ऑर्डर की आपूर्ति करने में भारतीय कंपनियां आपूर्ति करने में समर्थ नहीं है.''     

कुछ भारतीय कंपनियां चाइनीज कंपनियों के साथ भारत में ही प्लांट लगा रही हैं. वहीं आइकैट की सर्टिफिकेशन बिजनेस यूनिट के डिप्टी जनरल मैनेजर प्रशांत विजय कहते हैं, "आइकैट के मानकों के आधार पर बनाए गए ई-रिक्शे सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त होते हैं.''

बैटरी से चलने वाले इन रिक्शों की अधिकतम स्पीड नियंत्रित रहती है. इसके अलावा लाइट, हॉर्न, ब्रेक आदि भी तय मानक के हिसाब से लगाए जाते हैं. ई-रिक्शा बनाने वाली करीब 700 भारतीय कंपनियां आइकैट के अंतर्गत रजिस्टर्ड हैं.

व्यवहारिक नियमों का अभाव

ट्रैफिक एक्सपर्ट शैलेश सिन्हा कहते हैं, "लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए ई-रिक्शा निश्चित तौर पर बेहतरीन विकल्प है. लेकिन बुनियादी नियमों के अभाव ने इसके परिचालन में बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. ऑटो की तरह ही ई-रिक्शा के लिए भी चालकों की ड्रेस, बैच और पार्किंग स्टैंड तैयार करने होंगे. इसके बाद ही ई-रिक्शा व्यवहारिक तौर पर सफल हो पाएंगे.''  

एक ओर ई-रिक्शे ने लाखों पैडल रिक्शा चलाने वाले लोगों की जिंदगी बदल दी, वहीं दूसरी ओर अपनी खूबियों के कारण लोगों के दिलों में जगह बना ली. जरूरत सिर्फ कानून को कायदे से अमल में लाने की है ताकि चोट के नासूर बनने से पहले इलाज किया जा सके. ठ्ठ

समस्या की जड़

-लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए ई-रिक्शा सवारियों की पहली पसंद. केवल पैडल रिक्शा का विकल्प माना जा रहा ई-रिक्शा धीरे-धीरे शेयरिंग ऑटो की भी जगह ले रहा   

-पूरे देश में करीब नौ लाख ई-रिक्शा सड़कों पर. दिल्ली एनसीआर में सबसे ज्यादा करीब दो लाख ई-रिक्शा. इसके बाद पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सबसे बड़े राज्य

-देशभर में दौड़ रहे लाखों ई-रिक्शों पर राज्य सरकारें रोक लगाने में नाकाम. वोट बैंक और लचर नीतियां इसका सबसे बड़ा कारण

-आसान कर्ज और सब्सिडी से ई-रिक्शा खरीदना आसान हुआ. लेकिन गैर कानूनी रिक्शे अभी भी आधी कीमत में बाजार में बिक रहे हैं  

-अधिकृत पार्किंग और चार्जिंग-स्वैपिंग स्टेशन जैसे बुनियादी ढांचे पर बड़े निवेश की जरूरत. बुनियादी ढांचे की कमी ही बड़े स्तर पर बिजली चोरी का कारण बन रही

क्या हैं नियम?

-ई-रिक्शा का इस्तेमाल केवल लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए किया जा सकता है

-चालक के अलावा ई-रिक्शा में अधिकतम चार सवारियां बैठ सकती हैं. सवारियों के साथ अधिकतम 40 किलोग्राम वजन का सामान ले जाने की अनुमति  

- ई-रिक्शे में अधिकतम 2000 वॉट की मोटर लगाने की अनुमति. रिक्शे में लगे हुए पार्ट्स अधिकृत कंपनियों के ही मान्य

- ई-रिक्शे की अधिकतम स्पीड 25 किलोमीटर प्रति घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. रजिस्ट्रेशन के दौरान तय नियमों के हिसाब से टेस्टिंग

-ई-रिक्शा चालक के लिए अथॉरिटी से ड्राइविंग लाइसेंस लेना जरूरी. एक लाइसेंस पर एक ही ई-रिक्शा लेने की अनुमाति

"‌कंपनियों का फोकस ‌मेक इन इंडिया ई-रिक्शा बनाने पर होना चाहिए. तय मानकों और नियमों के हिसाब से ई-रिक्शा पूरी तरह सुरक्षित है.''

प्रशांत विजय, डिप्टी जनरल मैनेजर सर्टिफिकेशन बिजनेस यूनिट, आइकैट

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