जनवरी की 7 तारीख झारखंड के कोडरमा जिले की 12 वर्षीया मधु कुमारी के लिए काल बनकर आई. मरकच्चो पंचायत के भगवतीडीह गांव की मासूम बच्ची तड़के अपने घर के बाहर खेत में शौच के लिए गई थी. इसी दौरान आवारा कुत्तों ने उस पर हमला कर दिया. कुछ बच्चों ने कुत्तों को भगाने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. आवारा कुत्तों ने उस मासूम को मार डाला था.
यह दर्दनाक वाकया महज एक हादसा भर नहीं है बल्कि यह केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी स्वच्छ भारत मिशन और प्रशासनिक कार्यप्रणाली के दावों के फरेब का भी खुलासा कर देता है. झारखंड के कोडरमा जिले को पिछले साल सितंबर में ही खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया जा चुका है.
फिर मधु को घर से बाहर शौच के लिए क्यों जाना पड़ा? जाहिर है, इस मासूम की मौत ओडीएफ घोषित करने के तौर-तरीकों पर सवालिया निशान लगा देती है.
केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के मुताबिक, ओडीएफ की अनिवार्य शर्त शौचालय का इस्तेमाल है. यानी जब तक किसी गांव के सभी घरों के सभी सदस्य शौचालय का इस्तेमाल नहीं करते, तब तक उस गांव को ओडीएफ घोषित नहीं किया जा सकता.
सरकार के मुताबिक, ओडीएफ गांवों की संख्या में लगातार जबरदस्त इजाफा हो रहा है. पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के तहत स्वच्छ भारत अभियान (ग्रामीण) के आंकड़ों के मुताबिक, 2 अक्तूबर, 2014 से शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान के तहत गांवों में 5 फरवरी, 2018 तक करीब 6 करोड़ 13 लाख घरेलू शौचालय बनाए जा चुके हैं.
गांवों को ओडीएफ घोषित करने में भी जबरदस्त तेजी है. 2015-16 में जहां 47,105 गांव ओडीएफ घोषित किए गए थे, वहीं 2017-18 में अब तक 3,16,670 गांवों को ओडीएफ घोषित किया जा चुका है.
यानी पिछले दो साल में ही ओडीएफ गांवों की संख्या में 2,69,565 यानी 572 फीसदी (करीब 6.7 गुनी) वृद्धि हुई (देखें ग्राफिक्स). इन आंकड़ों पर भरोसा करें तो 2015 के बाद से तीन साल में रोजाना करीब 51,000 शौचालय बन रहे हैं और पिछले 2016 से प्रति दिन करीब 370 गांव ओडीएफ घोषित किए जा रहे हैं.
जमीनी हकीकत: ढूंढते रह जाओगे
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में पौड़ी शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर डोबल ग्राम पंचायत है. इसी पंचायत में है केशरपुर गांव. हरे-भरे पहाड़ और नदी की घाटी के पास इस गांव में करीब ढाई सौ की आबादी है.
गांव में सबके पास मोबाइल फोन और आधार कार्ड है लेकिन लोग अब भी खुले में शौच जाने को मजबूर हैं.
विडंबना देखिए कि पिछले साल 22 जून को ही सरकार उत्तराखंड के सभी ग्रामीण इलाकों को ओडीएफ घोषित कर चुकी है.
सरकार का दावा है कि ग्रामीण उत्तराखंड में 100 फीसदी घरों में शौचालय निर्माण कर दिया गया है.
इंडिया टुडे की टीम केशवपुर पहुंची तो बटाई पर खेती करने वाले देवीलाल अपनी बेटी के साथ खेत में सरसों का साग तोड़ रहे थे.
ओडीएफ की बात पर वे कहते हैं, ''हल्ला तो बहुत है लेकिन हमसे तो कोई शौचालय के बारे में पूछने तक नहीं आया.’’
उनकी बेटी कमला भी टका-सा जवाब देती है, ''मैं यहीं पैदा हुई, यहीं शादी हुई, बच्चे भी हो गए, लेकिन अभी तक गांव में शौचालय की कोई सुविधा मिलती नहीं देखी. महिलाओं को शौच के लिए अंधेरे का इंतजार करना पड़ता है.
या तो सुबह उजाले से पहले जंगल की तरफ निकल जाओ या फिर रात होने का इंतजार करो.’’ फिर, खतरों का अंदेशा हमेशा बना रहता है.
मोबाइल फोन पर अगले दिन की दिहाड़ी की बात करते हुए गांव के कोमल सिंह बताते हैं, ''गांव में बिजली और शौचालय की कोई सुविधा नहीं है, जबकि इस इलाके में गुलदार (तेंदुआ) का खतरा बहुत ज्यादा रहता है.’’ जाहिर है, इस गांव का हाल उत्तराखंड के ओडीएफ के दावे को मुंह चिढ़ा रहा है.
झारखंड में ओडीएफ घोषित पंचायत में मधु की मौत को लेकर अधिकारियों का बयान था कि मधु के परिवार का नाम ओडीएफ के बेसलाइन सर्वे में था ही नहीं इसलिए उसके यहां शौचालय नहीं बन पाया (केंद्र सरकार ने 2011-12 में देश में शौचालयों की स्थिति जानने के लिए एक सर्वेक्षण कराया था, जो 2012-13 में जारी किया गया. इसे बेसलाइन सर्वे कहा जाता है). उत्तराखंड में भी जिस बेसलाइन सर्वे के तहत शौचालय बनाए गए हैं, उसमें कई लोगों के नाम शामिल ही नहीं हैं.
प्रदेश के वित्त और स्वजल मंत्री प्रकाश पंत इस बात को स्वीकार करते हैं, ''प्रदेश के ग्रामीण इलाकों को 2011-12 के बेसलाइन लाइन सर्वे के आधार पर ओडीएफ घोषित किया गया है. इसके मुताबिक, राज्य में 5,90,000 शौचालय बनाने का लक्ष्य रखा गया था, जिसे पूरा कर लिया गया है.’’ ऐसे में सवाल उठता है कि गांवों को वाकई खुले में शौच से मुक्त करना है या महज कागजों की खानापूर्ति करनी है?
कमोबेश यही हाल दूसरे राज्यों का भी है. छत्तीसगढ़ के सूरपुर जिले की ग्राम पंचायत सोनगरा में 10 फरवरी को खुले में शौच करने गई 40 वर्षीया मुन्नी बाई को हाथियों ने कुचलकर मार डाला.
लेकिन सरकारी कागजों में तो न सिर्फ यह पंचायत बल्कि छत्तीसगढ़ के पूरे ग्रामीण इलाके को ओडीएफ घोषित किया जा चुका है.
करीब 92 फीसदी ओडीएफ घोषित राजस्थान में भी कुछ ऐसा ही हाल है.
प्रदेश के सरहदी जिले जैसलमेर को 2017 के अक्तूबर में ओडीएफ घोषित और सत्यापित भी किया जा चुका है.
लेकिन इंडिया टुडे ने जिले के कुछ गांवों का दौरा किया तो कई जगहों पर कागजों में शौचालय बने दिखाए गए हैं, मगर मौके पर शौचालय नदारद मिले.
ऐसा ही एक गांव दो सौ आबादी वाले हमीरों की बस्ती है. गांव के मोयब खान बताते हैं, ''शौचालय क्यों नहीं बने, इस बारे में सरपंच ही बता सकते हैं.
हमें शौचालय बनाने के लिए पैसे नहीं मिले. न ही हमारे पासे इतने पैसे हैं कि हम खुद बनवा लेते. पैसा मिलेगा तो हम बनवा भी लेंगे.’’
इसी तरह 400 घरों वाले राहो के पार गांव में करीब 50 घरों में ही शौचालय बन पाए हैं.
ग्रामीणों की शिकायत है, जिन लोगों ने शौचालय बना लिए हैं, उन्हें उसका भुगतान नहीं मिला है. ऐसे में बाकी ग्रामीणों ने शौचालय बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
जैसलमेर के कलेक्टर के.सी. मीणा का कहना है, ''जैसलमेर में 2012 के सर्वे के मुताबिक, 1,04,812 परिवार हैं. 38,208 शौचालय पहले से बने हैं और बाकी 66,594 बीते छह साल में बना लिए गए हैं.
अब तक बने शौचालय पर 29 करोड़, 17 लाख रु. खर्च किए गए हैं. 8 करोड़, 87 लाख रु. का भुगतान बाकी है, जिसका जल्द भुगतान करने का प्रयास किया जाएगा.’’ कलेक्टर मीणा की मानें तो पूरे जिले में महज 10 परिवार बचे हैं जिनके पास शौचालय नहीं है. जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है.
क्या हैं ओडीएफः केंद्रीय पेयजल औऱ स्वच्छता मंत्रालय के मुताबिक खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) का पैमाना आवश्यक रूप से शौचालय का इस्तेमाल है. यानी जिस ग्राम पंचायत, जिला या राज्य (सभी ग्रामीण) के सभी परिवारों के सभी लोग शौचालय इस्तेमाल करते हों, वही ओडीएफ है.
सत्यापानः ओडीएफ को चार स्तरीय सत्यापन से गुजरना पड़ता है. पहले ब्लॉक स्तर, फिर जिला, फिर राज्य स्तर के अधिकारी और आखिर में केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के अधिकारी सत्यापन करते हैं.
शौचालय निर्माणः 1-बेसलाइन सर्वे में जिसका नाम हो वह व्यक्ति स्वच्छता अधिकारी के पास नाम दर्ज कराता है. 2- अधिकारी निर्माण शुरू करने की मंजूरी की रसीद देता है.3-45-50 दिन में निर्माण पूरा करना होता है. 4-बने शौचालय में पानी की टंकी, रोशनी की व्यवस्था, दरवाजा होना जरूरी है. 5-काम पूरा होने की सूचना के बाद अधिकारी रसीद लेकर 12,000 की प्रोत्साहन राशि जारी करता है.
और जो बन गए, किस काम के?
जैसलमेर जिले के दबड़ी गांव में दूसरी समस्या नजर आती है. यहां मेघवालों की बस्ती में करीब 175 परिवार हैं, जिनमें करीब आधे परिवारों के पास शौचालय हैं. लेकिन पानी की कमी की वजह से लोग इन्हें भी इस्तेमाल नहीं करते.
गांव के लक्ष्मण राम बताते हैं, ‘‘मेरे घर में शौचालय बना हुआ है पर पानी की कमी के कारण हम कभी-कभार ही इसका इस्तेमाल करते हैं.’’ वे बताते हैं कि पहले उनके घरों से पानी की पाइपलाइन गुजरती थी, लेकिन यह लाइन बंद है और उन्हें काफी दूर से पानी लाना पड़ता है.
इसी तरह जिले में खुईयाला, बांधा, कुचड़ी, तनोट, गमनेवाला, रणाउ, कुरियाबेरी, पांचे का ताला, अवाय जैसे कई गांव हैं, जहां बहुत ही कम संख्या में शौचालय बने हैं. तिस पर आलम यह कि पानी की किल्लत की वजह से लोग उनका इस्तेमाल ही नहीं करते.
हालांकि जिले के कलेक्टर मीणा आंकड़ों पर पूरी तरह कायम हैं, ‘‘जिला पूरी तरह ओडीएफ है. यह लक्ष्य 2011 के बेसलाइन सर्वे के आधार पर हासिल किया गया है. अधिकतर लोग शौचालय का इस्तेमाल करते हैं और जो नहीं कर रहे हैं, उनके बीच लगातार जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है.’’
घोटाले खा गए शौचालय
लेकिन जिला परिषद प्रमुख अंजना मेघवाल कलेक्टर की बात से सहमत नहीं हैं. उनके मुताबिक, ‘‘ग्रामीण अंचलों में एक फीसदी लोग भी बने हुए शौचालय का इस्तेमाल नहीं करते. अधिकतर आबादी आज भी खुले में शौच करने जाती है. एक तो जागरूकता की कमी है, पानी की समस्या इसे और बढ़ाती है. रेगिस्तानी इलाकों में ओडीएफ के लिए विशेष योजना नहीं बनाई गई है.’’
इसी तरह आत्मविश्वास से भरे बाड़मेर के कलेक्टर शिवप्रसाद नकाते भी दावा करते हैं कि इस जिले में भी 31 मार्च, 2018 तक 88,000 बाकी बचे सभी शौचालय बना लिए जाएंगे. लेकिन यहां भी जैसलमेर जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं.
थार रेगिस्तान में आबाद जैसलमेर जिले से करीब 2,000 किमी दूर बंगाल की खाड़ी से लगे ओडिशा के पुरी जिले के खांडाहोता ग्राम पंचायत को जल्द ही ओडीएफ घोषित किया जा सकता है क्योंकि यहां शौचालय बनाने का लक्ष्य हासिल किया जा चुका है.
लेकिन लोग इन शौचालयों का इस्तेमाल शौच के लिए नहीं बल्कि मवेशियों का चारा रखने के लिए कर रहे हैं.
ग्रामीणों का कहना है कि इन शौचालयों का निर्माण इतने बेकार तरीके से किया गया है कि ये इस्तेमाल नहीं किए जा सकते.
हालांकि शौचालयों के निर्माण के लिए ठेकेदारों को नियुक्त करने वाले सरपंच धवलेश्वर नायक का मानना है, ‘‘यहां पानी की मांग टैंकरों से पूरी होती है.
पीने के लिए पानी नहीं है तो लोग शौचालय के लिए पानी कहां से लाएं.’’ राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 2015 के मुताबिक, देश के ग्रामीण इलाकों में करीब 60 फीसदी शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं है. जाहिर है, ऐसे में लोग उनका इस्तेमाल अन्य कामों के लिए कर रहे हैं.
शौचालयों के निर्माण में गड़बड़ी की परतें उत्तर प्रदेश में भी खुलती हैं. प्रदेश के ललितपुर जिले में ओडीएफ घोषित हो चुके बम्हौरी सर गांव के प्रसन्न राजपूत के यहां 2017 के सितंबर में शौचालय बनाया गया है.
लेकिन प्रसन्न की मां राजकुंवर कहती हैं, ''गांव के सचिव ने शौचालय के गड्ढों को अधूरा छोड़ दिया है. जो पाइप लगाई गई, वह भी चटक कर खराब हो गई है.
कई बार कहने पर भी शौचालय का काम पूरा नहीं करवाया गया. ऐसे में हमारा परिवार बाहर ही शौच जाने को मजबूर है.’’
इसी गांव के रामलाल के यहां 2016-17 में ही शौचालय बन गया था लेकिन घर की बहू प्रार्थना कहती हैं, ‘‘बनने के दो दिन बाद ही शौचालय की सीट जमीन में धंस गई. सीट टूट जाने के कारण शौच के लिए बाहर जाने को मजबूर हैं.’’ गांव के कहर सिंह की कहानी भी ठीक ऐसी ही है.
कागजी है पैरहन: आंकड़ों की बाजीगरी
उत्तराखंड सरकार राज्य के ओडीएफ घोषित होने के लिए कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. ग्रामीण उत्तराखंड के ओडीएफ घोषित होते ही मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा था, ‘‘सामूहिक और सामुदायिक प्रयास से ही उत्तराखंड ओडीएफ हो गया है. इस विशेष उपलब्धि के पीछे प्रधानमंत्री की अपील का असर है. इसके लिए मैं राज्य के सभी ग्राम प्रधानों की तारीफ करना चांहूगा.’’ लेकिन अब वही ग्राम प्रधान इस योजना के तहत सिर्फ आधी रकम मिलने से हलकान हैं.
धारकोट के ग्राम प्रधान भूपेंद्र सिंह कहते हैं, ‘‘अभी तो योजना में आधी रकम ही मिली है. काम अभी पूरा नहीं हुआ है.ओडीएफ की रिपोर्ट हमने नहीं भेजी है. रिपोर्ट भेजते ही हमें पूरी रकम देने का वादा अधिकारियों ने किया है.’’ अगर प्रधानों ने ओडीएफ की रिपोर्ट भेजी ही नहीं तो पंचायतों को किस आधार पर ओडीएफ घोषित कर दिया गया?
पौड़ी गढ़वाल जिले की कांडा पंचायत के ग्राम प्रधान सुरेंद्र मोहन बताते हैं, ‘‘ऊपर-ऊपर घोषणा कर दी गई लेकिन गांव स्तर पर आकर किसी ने देखा तक नहीं.’’ उत्तराखंड में जो गांव छूट गए हैं, उसके लिए बेसलाइन सर्वे को वजह माना जाता है. पौड़ी में स्वजल परियोजना अधिकारी एस.एस. शर्मा कहते हैं, ‘‘मिशन के तहत जो शौचालय बने हैं उनका बेसलाइन सर्वे 2011-12 है. जो इस सर्वे में शामिल नहीं हो पाए हैं, उनके यहां मनरेगा के तहत शौचालय बनाए जाएंगे.
स्वच्छता मिशन के पहले शौचालय के लिए महज 1,100 रु. (1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत) और 51,00 रु. (2005 की निर्मल ग्राम योजना केतहत) अनुदान में मिलते थे, पर इतनी रकम में शौचालय बनाना मुश्किल था.
उन लाभार्थियों के नाम भी रिकॉर्ड में आ गए. अगले मार्च 2018 तक हम ओडीएफ प्लस के तहत उन सबको भी शामिल कर लेंगे.’’ जाहिर है, प्रदेश को कागजों पर ही पूरी तरह ओडीएफ घोषित किया जा रहा है.
राष्ट्रीय स्तर पर भी शौचालयों और ओडीएफ के आंकड़ों में काफी खामियां नजर आती हैं. ओडीएफ का ऐलान होने के 90 दिन के भीतर सत्यापन का प्रावधान है लेकिन उत्तराखंड में करीब ढाई हजार गांवों का सत्यापन छह महीने के बाद हुआ. 2017-18 में करीब एक लाख ओडीएफ घोषित गांव सत्यापित नहीं हैं.
दूसरी तरफ, इस मिशन के पहले जो शौचालय बने पर खराब रहे, उन्हें भी शौचालय के रिकॉर्ड में दर्ज कर लिया गया, जबकि वे इस्तेमाल में हैं ही नहीं. संयुक्त राष्ट्र की 2014 की रिपोर्ट में ही देश में 79 लाख शौचालय निष्क्रिय हैं. सुलभ शौचालय के संस्थापक बिंदेश्वरी पाठक भी इस बात को स्वीकार करते हैं.
'सारा काम आंकड़ों में चल रहा, पर जमीनी हकीकत कुछ और है’
स्वच्छ भारत अभियान में खामियां नजर आ रही हैं?
प्रधानमंत्री की पहल से स्वच्छता की प्रेरणा घर-घर तक पहुंची है. लेकिन सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की नहीं है. यह मशीनरी का भी काम है. हमने प्रधानमंत्री से कहा है कि टॉयलेट के लिए 12,000 रु. पर्याप्त नहीं है. बनेगा तो उसकी गुणवत्ता कुछ खास नहीं रहेगी.
एक औसत शौचालय की क्या लागत होती है?
सामान्य शौचालय 20-25,000 रु. में बनता है, पर हमने 15-20 ऐसे डिजाइन बनाए हैं जिनकी लागत 12,000 से 5,000 रु. तक भी है. पर इसका काम किसी ऐजेंसी को दे दिया जाए तो वह अपनी कट तो लेगी ही. तब गुणवत्ता पर फर्क पड़ जाएगा.
देश के 11 राज्य ओडीएफ घोषित हो गए लेकिन...
इसका जवाब मैं आपको नहीं दूंगा (हंसते हैं)
लेकिन कई जगहों पर शौचालय बने नहीं हैं लेकिन गांव ओडीएफ घोषित हैं. बेसलाइन सर्वे में सैकड़ों लोग छूट गए?
आप ठीक कह रहे हैं. लेकिन बेसलाइन सर्वे पर मैं कोई जवाब नहीं दे सकता. वैसे, शौचालय का बनना और आंकडों की रिपोर्टिंग का खेल 1986 से चल रहा है. इसको बदलने का एक ही उपाय है, गांव के लड़के को ट्रेंड करके यह काम सौंप दीजिए. आवंटन भी बढ़ाना होगा. 12,000 रु. के साथ अतिरिक्त रकम लोन के रूप में देनी होगी. इससे अच्छे शौचालय बनेंगे. हमने जिन 25 सौ गांवों को ओडीएफ बनाया है, वहां शिकायत नहीं मिलेगी.
ओडिशा जैसे राज्यों में तो लोग शौचालय में रह रहे हैं?
सरकार तय करे कि भले ही हर घर में शौचालय न बने पर जितने भी बनें इस्तेमाल के लायक बने.
यानी आपको लगता है कि सरकारी मॉडल में खामी है?
बिल्कुल खामी है.
और घोटाले भी सामने आ रहे हैं?
मैं भी 1974 से 26 राज्यों में काम कर रहा हूं. 1,600 शहरों में घोटाला कहीं तो नहीं हुआ. लेकिन जब लेने-देने वाले सभी मिले हैं आपस में तो क्या कह सकते हैं. सरकार में जो लोग हैं और नेता हैं उनका तो कुछ बिगड़ता ही नहीं.
कई जगहों पर पानी की समस्या भी है शौचालयों में?
हमारे डिजाइन के लिहाज से तो एक लोटा पानी ही काफी है फ्लश के लिए. लेकिन हमसे किसी ने पूछा नहीं इन तकनीकों के बारे में.
ट्रीटमेंट की भी समस्या है?
सरकार के नोटिफाइड टाउन 4,041 हैं और सीवर सिर्फ 732 शहरों में हैं. दिल्ली में ही ट्रीटमेंट महज 69 फीसद है. दिल्ली में भी 31 फीसद मल बिना ट्रीटमेंट के यमुना में जा रहा है.
मिशन के आंकड़ों का पेच
बेसलाइन सर्वे स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालयों के निर्माण में 2012-13 के बेसलाइन सर्वे को आधार बनाया गया है. यानी उसके बाद की आबादी को लेकर कोई योजना नहीं
खराब शौचालय इस मिशन के पहले जो शौचालय बने पर खराब रहे, उन्हें भी शौचालय होने के रिकॉर्ड में दर्ज कर लिया गया जबकि वे इस्तेमाल में ही नहीं. संयुक्त राष्ट्र की 2014 की रिपोर्ट में ही देश में 79 लाख शौचालय बिना इस्तेमाल के पड़े हैं
शौचालय इस्तेमाल ही नहीं जैसलमेर से लेकर बुंदेलखंड के कुछ गांव ओडीएफ घोषित, लेकिन वहां या तो शौचालय खराब बने या फिर पानी की कमी की वजह से उनका इस्तेमाल ही नहीं, और आंकड़ों में शौचालय बने हुए हैं
घोटाला ही घोटाला कई जगहों पर कागज के आंकड़ों में शौचालय बना दिखाकर पैसे हड़प लिए गए (देखें घोटाले का बॉक्स), जबकि असल में वे बने ही नहीं
कागज पर ओडीएफ उत्तराखंड में कई प्रधानों का आरोप कि शौचालय पूरे बनाए बिना ही ओडीएफ घोषित कर दिया गया
ये भी राह की अड़चनें
ओडीएफ सत्यापन में देरी ओडीएफ घोषित जगहों को तीन माह के भीतर सत्यापित करना होता है, लेकिन कई जगह इसके बाद भी सत्यापन नहीं. करीब 2017-18 में करीब एक लाख ओडीएफ घोषित गांव सत्यापित नहीं हैं (13 फरवरी, 2018 तक)
लंबित आवेदन देशभर में दस लाख से अधिक आवेदन
मंजूरी की बाट देख रहे हैं, इनमें 97% आवेदन छह महीने
से ज्यादा वन्न्त से अटके हुए हैं
भुगतान में देरी कई जगहों पर भुगतान में देरी की शिकायतें
पानी की कमी नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की 2015-16 के एक सर्वे के मुताबिक, करीब 60% ग्रामीण शौचालयों में पानी की सुविधा ही नहीं है, और 40% में ड्रेनेज की सुविधा नहीं
पिछड़े राज्य बिहार में सिर्फ 41.28% ओडिशा में 48.41% तो यूपी में 58.22% ही घरों में अब तक शौचालय, फिर भी दावा कि 2019 तक मिशन का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा
जागरूकता पर खर्च नहीं एसबीएम (ग्रामीण) में कुल आवंटन का 8% जागरूकता के लिए आवंटित करने का प्रावधान पर इनमें 2017-18 में महज 2.65% खर्च किए गए. 2016-17 में सिर्फ 0.89%
स्रोत: पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय, भारत सरकार, मार्च 2010
के आंकड़े, एसबीएम (आर) डैशबोर्ड. रिपोर्ट: टुवार्ड्स निर्मल
भारत: द टोटल सैनिटेशन कैंपेन
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