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इंडिया टुडे वार्षिकांक 2016: कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सभी को अपने हिसाब से जीने की स्वतंत्रता देना हिंदू धर्म की शक्ति रही है. कुछ शक्तियां इसकी बहुलता के विरुद्ध एकात्मता पर बल दे रही हैं, उस खतरे से इसे बचाना होगा.

कुछ शक्तियां हिंदू धर्म की बहुलता के विरुद्ध एकात्मता पर बल दे रही हैं
कुछ शक्तियां हिंदू धर्म की बहुलता के विरुद्ध एकात्मता पर बल दे रही हैं
अपडेटेड 5 दिसंबर , 2016

माफ कीजिएगा, अब मेरी स्मृति बहुत क्षीण हो गई है. आप दो-तीन दशक की साहित्यिक प्रवृत्तियों पर बात करना चाहते हैं पर मुझे तो अब दो मिनट पहले की भी बात याद नहीं रहती. 91 साल की आयु हो चली है. शरीर धीरे-धीरे साथ छोड़ रहा है. अब तो निर्वाण की वेला है. कभी अपने गुरु (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) को ही केंद्र में रखकर मैंने दूसरी परंपरा की खोज की रचना की थी. उन्होंने ही बताया कि परंपरा नहीं, परंपराएं होती हैं. अब तो लोग भूल गए उनको. उनके जन्मदिन पर भी पता नहीं, उनको कोई याद करता भी है या नहीं.
मैं तो लोक और वेद के पीछे चल रहा था. जब गुरु मिले तो फिर पीछे चलना बंद कर दिया. इतना बड़ा देश है यह. अगर यहां एक ही रास्ते पर चलने वाले, एक ही परंपरा को मानने वाले लोग होते तो फासिज्म होता. यहां वेद ने घोषणा की एकोहम बहुस्याम. हम एक से अनेक होना चाहते हैं. यहां वेद भी प्रमाण है और लोक भी प्रमाण है. यह बड़प्पन है. वेद पंडितों की परंपरा और लोक जनता की परंपरा. एक इंटेलिजेंसिया, दूसरा कॉमनमैन. तुलसीदास ने लिख ही दिया कि लोकहुं बेद न आन उपाई. इतनी भाषाएं, इतने धर्म, हर कोई अपने हिसाब से जीने को स्वतंत्र. यह जो विविधता है, यही हिंदू धर्म की शक्ति रही है और इसीलिए वह इतने लंबे काल तक सरवाइव कर सका है. जैन धर्म ने अनेकांतवाद को माना, इसलिए जैन यहां बचे रह गए. इस चीज को ध्यान में रखना चाहिए. क्रिश्चियनिटी में, इस्लाम में एक ईश्वर, एक किताब. अंग्रेज भी हमारी इस विविधता की कद्र करते थे.

खुद (जॉर्ज अब्राहम) ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के तहत देश भर की भाषाओं का सर्वे किया और बताया कि इतनी भाषाएं और बोलियां और कहीं नहीं. अकेले हिंदी में ही कितनी बोलियां हैं.

यहां हिंदुत्व भी दो प्रकार का है. एक तो आरएसएस वालों का है. अब तो वे सरकार में भी आ गए हैं, लेकिन मुख्य धारा नहीं बन सके. असली हिंदू धर्म तो हमें समुद्र की तरह विशालता प्रदान करता है. हिंदू जन्मजात होता है, हिंदू बनाया नहीं जाता. हमने किसी को हिंदू नहीं बनाया, जन्मना हिंदू. आरएसएस वालों का हिंदुत्व पॉलिटिकल हिंदुत्व है. कहते हैं ''नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" और करते क्या हैं मातृभूमि के लिए? हिंदुत्व का जो खुलापन है, स्वातंत्र्य है, उसकी रक्षा हमें करनी चाहिए. उनके प्रोपेगैंडा की काट यही है कि हम अपनी आत्मा को सुरक्षित रखें.

वर्ण व्यवस्था हिंदू धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी बनकर उभरी. बुद्ध ने इसी वर्ण व्यवस्था को तोड़ा. लेकिन सबसे बड़ी क्रांति भक्ति युग के दौरान हुई. भक्ति आंदोलन वाला दौर सबसे अच्छा दौर था. पहला विद्रोह बुद्ध ने किया था और दूसरा भक्ति आंदोलन ने किया. चाहे निर्गुण हो या सगुण. सब धारा में यह देखने को मिला. उसके बाद नवजागरण की सदी आई. गांधी जी उसी बीच से निकले.

हमारी भारतीय साहित्य परंपरा का एक लंबा इतिहास है. इसमें साहित्य और विविध कलाओं की बड़ी भूमिका रही है. वाल्मीकि, कबीर और तुलसी हमारी मुख्य धाराएं हैं. वे हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं. उथल-पुथल वाले दौर में मुख्य धारा को क्या करना चाहिए? मुख्य धारा को संवाद बंद नहीं करना चाहिए. हममें इस्लाम और ईसाइयत वाली कट्टरता नहीं होनी चाहिए. सूफियों ने भी आखिर विद्रोह किया और वह पूरी की पूरी सूफी परंपरा मौलवियों के खिलाफ जाती है. हमारे यहां वह काम भक्ति आंदोलन ने किया. फिर भारतेंदु (हरिश्चंद्र) से रेनेसां का दौर शुरू होता है.

तो एक बात तो यह रही कि हमने अपनी परंपरा को सुरक्षित रखा. जब लोग लिखना नहीं जानते थे, तो याद करने की परंपरा थी. वेद आखिर याद ही तो थे. फिर लेखन कला आई, मुद्रण आया, फिर टेप रिकॉर्डर आ गया. पूरी आवाज ही टैप. यह भी याद रखिए, परंपरा एक दिन में नहीं बनती. पुश्त दर पुश्त यह तैयार होती है. जाहिर है, हम कोई नौसिखुए देश नहीं हैं. इतना लंबा इतिहास दो ही सभ्यताओं का हैः भारत का और चीन का. अफ्रीका की किन्हीं जातियों का हो तो हो, पर वहां लेखन की चूंकि परंपरा नहीं थी, तो कुछ सामने नहीं आ पाया. हमारे यहां वेदों में वह सब सहेजकर रखा गया. हमारी विविधता पर हमें गर्व होना चाहिए. यह देश नहीं बल्कि उप-महाद्वीप कहलाता है. हमारे यहां तो वेद भी चारः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद. ईश्वर भी हमारा एक नहीं. यह विविधता हमारी बड़ी पूंजी है. इस देश का दिल और दिमाग अब भी बंद नहीं. संकट आते रहे हैं पर कहा है ना कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी.

यहां भाषा, कला, सौंदर्यशास्त्र हर स्तर पर जो विविधता है, उस पर हमें गर्व तो करना चाहिए. लेकिन गर्व के साथ-साथ उसे सुरक्षित भी रखना होगा क्योंकि उस पर खतरा मंडरा रहा है. हिटलर ने भी ऐसा ही कुछ किया था. खतरा ये है कि जो शक्तियां इस देश की बहुलता के विरुद्ध एकात्मता पर बल दे रही हैं, संयोग से उन्हीं की पार्टी पावर में है. इतिहास बताता है कि ऐसे मौके बार-बार आते हैं और फिर उन्हीं के भीतर से कोई उठ खड़ा होता है उनके कृत्यों का विरोध करने के लिए.

(बदले दौर में पुस्तकों की अहमियत पर) देखिए, कितनी भी टेक्नोलॉजी आ जाए, पुस्तकें तो हमेशा रहेंगी. उन्हें कोई खतरा नहीं. जो मजा पुस्तक को हाथ में लेकर पढऩे का है, वह और किसी तरीके से कैसे मिल सकता है! पुस्तक की एक खास तरह की गंध, एक स्वाद होता है.
(इस बीच एक अतिथि के आकर उन्हें पान देने पर) हमारे यहां बनारस में कहते हैं कि श्यूं तो हरवक्त जान हाजिर है, लेकिन फिलवक्त पान हाजिर है." और यह सिर्फ तुकबंदी कतई नहीं है. (थोड़ा ठहरकर) कभी बनारस को छोड़ आए थे, जिसके बारे में कहा गया कि ''कासी कबहुं न छाड़िए, बिस्वनाथ दरबार." पर छूट गई सो छूट गई. वहां था तो नित्य गंगा स्नान करता था. तैरकर गंगा पार किया करता था. बीच में एक रेती थी, वहां रुकता था.

मेरी तो अब चलाचली की वेला है. मेरे जितनी समृद्ध लाइब्रेरी देश में कम ही लोगों के पास होगी. ये किताबें कहां दूं, इस रूप में पहले विकल्प के तौर पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) का क्चयाल आया. लेकिन फिर लगा कि वहां देने का कोई मतलब नहीं क्योंकि वहां पहले से जो किताबें रखी हैं, उन्हीं में ले जाकर मिला देंगे. एक दूसरा विकल्प इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का आया. वहां (राम बहादुर) राय साहब आ गए हैं (अध्यक्ष के रूप में). लेकिन वहां पढऩे कितने लोग आते हैं? वहां भी ये ऐसे ही रखी रह जाएंगी. तो हमने इन्हें राजस्थान के शेखावाटी में डूंडलोद के एक शिक्षण संस्थान को देने का फैसला किया है. वहां के सचिव एक शर्मा जी आए थे. उन्होंने कहा कि हम आपकी धरोहर को पूरी तरह सुरक्षित रखेंगे. वहां नामवर संग्रहालय नाम से आपकी पुस्तकों का एक अलग खंड बनाएंगे और इन्हें पढ़कर लोग रिसर्च करेंगे. अब मैं निश्चिंत हो गया हूं. एक बड़ी चिंता दूर हो गई.

(हिंदी के शीर्ष आलोचक नामवर हिंह के साथ शिवकेश की बातचीत के आधार पर)

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