इन शब्दों के साथ अकड़ते और हवा में मुट्ठियां लहराते हुए डोनाल्ड जॉन ट्रंप ने जून 2015 में दुनिया की सबसे ताकतवर कुर्सी को हासिल करने के लिए जब अपना चुनाव प्रचार शुरू किया तो शायद ही किसी ने उन्हें गंभीरता से लिया था. उस समय वे सिर्फ ट्रंप ऑर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष थे, एक प्रॉपर्टी कुबेर, जिसने मध्यवर्गीय मकान, बड़े-बड़े रिसॉर्ट और गोल्फ कोर्स बनाए थे. और उन्होंने जो कुछ बनवाया, उस पर अपना उपनाम बड़े और सुनहरे अक्षरों में अंकित करवा दिया.
ट्रंप को एक बुढ़ाता रियलिटी टीवी स्टार समझकर खारिज कर दिया गया था, जो बेढंगेपन से धनकुबेर की अपनी हैसियत पर खुलकर इठलाता रहता था (''मैं वाकई, वाकई अमीर हूं''), और कारोबार में अपनी उपलब्धियों के बड़े-बड़े दावे करता रहता था. लेकिन जब उससे उसके टैक्स रिटर्न के बारे में पूछा जाता तो वह दाएं-बाएं झांकने लगता था. ट्रंप जिस तरह महिलाओं के बारे में बोलते थे और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा समेत अपने सभी विरोधियों पर अपमानजनक आरोप लगाते थे, उससे यही लगता है कि उनका अपनी जबान पर कोई नियंत्रण नहीं है. वे ओबामा के बारे में कह गए कि उनका जन्म अमेरिका में नहीं हुआ था और वे एक गुपचुप-मुसलमान हैं.
यहां तक कि ट्रंप ने जब रिपब्लिकन पार्टी की ओर से उम्मीदवारी जीती तो सभी लोग चकित रह गए थे. उनकी अपनी पार्टी को ही उम्मीद नहीं थी कि वे राष्ट्रपति का चुनाव जीत जाएंगे. उधर, उनकी डेमोक्रेटिक विरोधी हिलेरी क्लिंटन शानदार शख्सियत की मिसाल हैं. उनकी उपलब्धियों को देखा जाए तो वे अपने देश में पोस्ट-ग्रेजुएट डिग्री रखने वाली पहली प्रथम महिला रह चुकी थीं, पहली ऐसी प्रथम महिला थीं, जो एक चुने हुए पद पर आसीन रह चुकी थीं और विदेश मंत्री रही थीं और एक बड़ी राजनैतिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की पहली महिला उम्मीदवार थीं. अगर वे राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत जातीं तो वे अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति बनतीं और इस तरह अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा की सही उत्तराधिकारी होतीं.
मतदान के ऐन पहले तक ज्यादातर चुनाव पंडितों ने ट्रंप के हारने की भविष्यवाणी की थी. इससे पहले अमेरिका के 150 से भी ज्यादा प्रमुख अखबारों ने हिलेरी क्लिंटन की ही जीत का अनुमान लगाया था. फिर भी ट्रंप यह कहते हुए डटे रहे कि ''मैं हर एक को गलत साबित कर दूंगा, हर एक को.'' अपनी चुनावी रैलियों में उन्होंने लोगों से कहा, ''अमेरिका को अब श्सिर्फ लफ्फाजी और काम कुछ नहीं'' करने वाले नेताओं की जरूरत नहीं है. उसे कुशलता से काम करने वाले लोगों की जरूरत है, जो समझते हैं कि काम कैसे किया जाता है. हमें राजनैतिक जुमलों की जरूरत नहीं है—हमें सामान्य समझदारी की जरूरत है. अमेरिका डूब चुका है. हमें इस बारे में बात बंद कर देनी चाहिए और इस समस्या को दूर करना चाहिए. मैं जानता हूं कि यह कैसे हो जा सकता है.''
जब 9 नवंबर की सुबह अमेरिकी चुनावों के नतीजे घोषित हुए तो ट्रंप ने न सिर्फ हिलेरी क्लिंटन को हरा दिया, बल्कि बहुमत से हराकर अपने आलोचकों का भी मुंह बंद कर दिया. अब वे 20 जनवरी, 2017 को अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने जा रहे हैं.
डोनाल्ड ट्रंप काम करने वाले निराश मध्यवर्गीय अमेरीकियों—मुख्य रूप से गोरे और ईसाई—का दिल जीतने में कामयाब रहे और उनका समर्थन पाकर यहां तक जा पहुंचे. उनका समर्थन करने वाले मध्यवर्गीय अमेरिकियों का मानना था कि साल दर साल वे आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हो गए हैं और सत्ता-तंत्र—वाशिंगटन डीसी, के राजनीतिकों का कुलीन समूह, जिसमें हिलेरी क्लिंटन भी शामिल हैं, इस हालत के लिए जिम्मेदार है.
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और इस समय अमेरिकी थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन में प्रतिष्ठित फेलो शिवशंकर मेनन ट्रंप की जीत को दुनिया भर में अभिजात्य वर्ग की पकड़ ढीली होते जाने और दुनिया के पुराने प्रतिष्ठानों व उनकी विचारधाराओं के पतन के हिस्से के रूप में देखते हैं. इनमें उदारवाद का पतन भी शामिल है. उनका मानना है कि दिनोदिन अधिकतर देश ''निरंकुशतावाद, रूढ़िवाद, कौमपरस्ती और एक मजबूत नेतृत्व'' की तरफ मुड़ रहे हैं. उनकी राय है कि ब्रिटेन सहित कई देशों में आप्रवासियों के खिलाफ नाराजगी के कारण कौमपरस्ती बढ़ी है. यही वजह है कि ब्रिटेन के लोगों ने इस साल यूरोप से अलग होने के लिए ब्रेक्सिट का समर्थन किया.
जनवरी में जब ट्रंप ओवल ऑफिस में बैठेंगे तो उन्हें बुरी तरह बंटे अमेरिका का सामना करना पड़ेगा—जिसके लिए कुछ हद तक वे खुद भी जिम्मेदार हैं. लिंग, नस्ल, धर्म और वर्ग के आधार पर इस विभाजन को उन्होंने अपने जहरीले और बेलगाम चुनावी प्रचार से और गहरा कर दिया है. इस चुनाव में हिलेरी क्लिंटन के कुल मिलाकर पॉपुलर वोट जीतने से साफ है कि अब अमेरिका दो हिस्सों में बंट गया है. ट्रंप का अमेरिका प्रचंड राष्ट्रवाद से भरा हुआ है, वह वैश्विकतावाद का विरोधी है और उसके मन में विदेशियों के प्रति आशंका का भाव है. उसका मानना है कि अमेरिका को संपन्न और ज्यादा अमेरिकी होना चाहिए. दूसरी तरफ हिलेरी का अमेरिका ज्यादा समावेशी और बहु-सांस्कृतिक है, क्योंकि उनका मानना है कि अमेरिका की भलमनसाहत ने ही उसे महान बनाया है.
फिर, राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप का काम और उनकी कार्यशैली क्या होगी? हाल के इतिहास में ट्रंप ऐसे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जो इससे पहले किसी भी सरकारी पद पर नहीं रहे हैं. न ही वे ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं, जिसकी बड़े मुद्दों पर अपनी कोई गहरी राय हो. वाशिंगटन स्थित एक थिंकटैंक स्टिमसन सेंटर के संस्थापक अध्यक्ष माइकल क्रेपन राष्ट्रपति ट्रंप की संभावनाओं के बारे में अपनी आशंका को छिपाते नहीं हैं. वे कहते हैं, ''उनके बारे में हम जो पहली चीज जानते हैं वह यह है कि वे खुद को प्यार करते हैं. दूसरी चीज यह है कि उन्हें बिल्कुल भी पता नहीं है कि दुनिया कैसे काम करती है और उनके इर्दगिर्द ऐसे लोग जमा हैं, जिनके पास भी इस बारे में सीमित जानकारी है.''
ट्रंप के सीमित शब्दकोश में राष्ट्र या लोग या तो अच्छे और सुंदर होते हैं या बुरे और दुष्ट होते हैं (उन्होंने हिलेरी के लिए कहा था, ''कितनी बदमिजाज औरत है.'') और घटनाएं और स्थितियां 'महान' या 'बदहाल' होती हैं. अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप लगातार अपनी राय बदलते रहे और प्रमुख मुद्दों पर दोनों तरफ खड़े होते दिखाई दिए (वैसे हिलेरी ने भी ऐसा ही किया). ट्रंप शुरू में तो गर्भपात के पक्ष में थे और बाद में 'जीवन के लिए' हो गए. उन्होंने पहले आप्रवासियों पर रोक लगाने की बात की और बाद में अपना रुख नरम कर लिया. इसी तरह वे व्यापार के पक्षधर और विरोधी होने के बीच अटके रहे.
अपनी पुस्तक क्रिपल्ड अमेरिका में राजकाज के बारे में अपनी राय का इजहार करते हुए ट्रंप लिखते हैं, ''हमें एक ऐसे नेता की जरूरत है जो हमारी परेशानियों को दूर कर सके और समस्याओं का व्यावहारिक समाधान निकालना शुरू करे.'' वे आगे लिखते हैः ''मेरा लक्ष्य दूसरों की तरह सरकारी कानूनों के हजारों पन्ने तैयार करना नहीं है. हमें व्यावहारिक बुद्धि वाली नीतियों की जरूरत है और जरूरत पड़े तो सख्ती से उन्हें लागू करना चाहिए.''
उनके चुनावी भाषणों से यह साफ हो जाता है कि उनके शासन का मुख्य सिद्धांत राष्ट्रवाद, संरक्षणवाद और अलगाववाद पर आधारित होगा. कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के सीनियर एसोसिएट एश्ले जे. टेलिस, जो रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों ही सरकारों में काम कर चुके हैं, मानते हैं कि पहले दिन से ही ट्रंप ''मूल अमेरिकियों का हित्य्य देखना शुरू करेंगे, क्योंकि जिन लोगों ने उन्हें वोट दिया है, उनका मानना है कि पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के कारण उनका अहित हुआ है. इसलिए ट्रंप जिन मुद्दों पर सबसे पहले ध्यान देंगे, वे हैं घरेलू आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताएं, जैसे नौकरियों के ज्यादा अवसर तैयार करना, आय बढ़ाना, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराना, बुनियादी सुविधाएं बेहतर करना और शहरों में अपराध को कम करना.
अपना लक्ष्य हासिल करने के प्रयास में ट्रंप अकेले ही सब कुछ दुरुस्त करने वाले दस्ते की तरह काम करना चाह रहे हैं. पद पर बैठने के पहले दिन ही उनकी योजना 'एफोर्डेबल केयर ऐक्ट' को रद्द करने की है. इस कानून को 'ओबामाकेयर' के नाम से ज्यादा जाना जाता है. इस कानून को मौजूदा राष्ट्रपति की ओर से स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता बढ़ाने और उसे वहन योग्य बनाने का एक प्रमुख काम माना जाता है. लोगों की जेब में ज्यादा पैसे डालने के लिए टैक्स में कटौती करने के अलावा ट्रंप यह भी वादा कर रहे हैं कि वे अमेरिका के चरमराते बुनियादी ढांचे को फिर से मजबूत करना चाहते हैं, जिनमें एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन शामिल हैं.
ट्रंप के दूसरे मुद्दे ये होंगे कि अमेरिका में बड़े सत्ता केंद्रों को कैसे नियंत्रित किया जाए, क्योंकि वे राष्ट्रपति के अधिकारों—जिनमें सीनेट और सुप्रीम कोर्ट भी शामिल हैं—पर अंकुश लगाने और उन्हें संतुलित करने के तौर पर काम करते हैं. ट्रंप की किस्मत अच्छी है कि चुनावों के मौजूदा चक्रमें सीनेट में रिपब्लिकन बहुमत में हैं और हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स में भी उन्हें बहुमत मिला हुआ है. इससे उन्हें टकराव का सामना नहीं करना पड़ेगा, जैसा कि ओबामा को अपने कार्यकाल में कांग्रेस के दोनों सदनों में करना पड़ा था.
इसलिए ट्रंप एक लाभदायक स्थिति के साथ दफ्तर में कदम रख रहे हैं. वे पार्टी के निर्देशों से भी बंधे नहीं हैं क्योंकि उन्होंने ऐसे समय चौंकाने वाली जीत हासिल की है जब यह लगा कि रिपब्लिकन पार्टी बंटी हुई थी और कमजोर होती जा रही थी. आशंका बस एक ही है कि ट्रंप के अपने शब्दों में वे 'अकेले सिपाही' हैं. इसलिए नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अगर अपने क्रांतिकारी एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो उन्हें दोनों दिशाओं को जोडऩे के लिए पुल बनाने का गुर सीखना होगा.
अब तक यह आलोचना होती रही है कि ट्रंप के पास प्रतिभाशाली लोगों की कमी है और उनकी टीम के ज्यादातर सलाहकारों के पास अनुभव की बहुत कमी है, खासकर जब शासन चलाने और विदेश नीति का मामला हो. अपने आलोचकों को जवाब देते हुए ट्रंप ने कहा, ''इस समय दुनिया की हालत को देखो. वह बहुत खराब स्थिति में है. इससे ज्यादा खतरनाक समय पहले कभी नहीं आया था. वाशिंगटन के सत्ताधारी वर्ग के भीतर तथाकथित अंदरूनी लोग वे हैं, जिन्होंने हमें मुसीबत में डाल दिया है. तो हम उनकी तरफ क्यों ध्यान दें.''
अब जिस बात पर गहराई से नजर होगी, वह यह है कि वे विदेश, रक्षा, ट्रेजरी, गृह सुरक्षा और सीआइए जैसे महत्वपूर्ण पदों पर किसे रखते हैं.
चुनावों के दौरान उनके क्रांतिकारी और कभी-कभी भड़काऊ भाषणों को देखें तो ट्रंप की विदेश नीति देखने वाली होगी, जिस पर हर कहीं विशेषज्ञों और सरकारों की बारीकी से नजर होगी. उनके चुनावी वादों की कुछ बानगीः आप्रवास पर (अमेरिका की दक्षिणी सीमा पर ऊंची दीवारें बना दो और दूसरे देशों के उत्पादकों पर भारी जुर्माना लगाओ), विदेश व्यापार (नाफटा पर फिर से बात करो और चीन के लिए शुल्क बढ़ाओ), डब्ल्यूटीओ (हम कड़ा मोलभाव करेंगे), अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ों (नाटो के सदस्यों को सुरक्षा के लिए अपनी देनदारियां भरनी होंगी), रूस (पुतिन एक तेज व्यक्ति हैं), ईरान (राष्ट्रपति बनते ही मैं न्यूक्लियर सौदा रद्द कर दूंगा), जलवायु परिवर्तन संधि (ग्लोबल वार्मिंग सिर्फ एक हौवा है) और इस्लामिक आतंकवाद (हम आइएसआइएस पर इतना जोरदार और तेजी से हमला करेंगे कि किसी के लिए भी खतरा नहीं रहेगा). अमेरिका में पूर्व भारतीय राजदूत मीरा शंकर कहती हैं, ''ट्रंप दुनिया के लिए खतरा साबित होंगे या नहीं, हमें इसका इंतजार करना होगा. लेकिन उनके रवैये से पूरी दुनिया में अनिश्चय की स्थिति है.''
विदेश नीति के मामले में 'ट्रंप का सिद्धांत' उनके चुनाव प्रचार के शुरू में ही बड़ी सूझबूझ से तैयार कर लिया गया थाः ''हम ताकत से काम करेंगे. इसका मतलब है कि हमें दुनिया में अब तक की सबसे मजबूत सेना बनाए रखनी होगी. हमें दिखाना होगा कि जो देश हमारे साथ मिलकर काम करें, उन्हें अपनी आर्थिक ताकत से पुरस्कृत करना होगा और जो लोग साथ न हों, उन्हें दंडित करना होगा. हमें अपने सहयोगियों के साथ ऐसा गठजोड़ बनाना होगा, जिनसे आपसी फायदा हो. हम पूरी दुनिया के लिए पहरुए बने रहेंगे तो हमें इसकी कीमत मिलनी चाहिए.''
आप्रवास पर ट्रंप के कट्टर विचारों का असर अमेरिका के पड़ोसी देशों और संकट से घिरे पश्चिम एशिया पर पड़ सकता है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अवैध घुसपैठ पर जमकर हमला बोला और उनके शब्द बहुत जोशीले थेः ''हमारे दक्षिण के देश अपने बेहतरीन लोगों को नहीं भेज रहे हैं. सिर्फ मेक्सिको से ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों से भी बुरे लोग हमारे देश में घुसे आ रहे हैं. मैं एक ऊंची दीवार बनवाऊंगा और मुझसे अच्छी दीवार और कोई नहीं बना सकता है. और मेरे शब्दों को ध्यान में रखो, मेक्सिको को इस दीवार के लिए पैसे देने होंगे.'' और सीरिया पररू ''सीरिया के लोगों को हजारों की संख्या में शरण देने से निश्चित रूप से बहुत-सी समस्याएं खड़ी होंगी. हम नहीं जानते कि वे कितनी विकट होंगी, क्योंकि हमारे पास कोई सुरक्षा नहीं है और न ही हमारे पास वैसी योग्यता है. इसे रोकना होगा और जल्दी रोकना होगा.''
विदेश नीति के मामले में असली चिंता है वैश्विक व्यापार, सुरक्षा गठजोड़ और आर्थिक गुटबाजी के प्रति ट्रंप का रवैया. टेलिस कहते हैं कि राष्ट्रपति के तौर पर ट्रंप के पास अधिकार होगा कि अमेरिका ने जिन संधियों पर दस्तखत किए हैं, उन्हें वे रद्द कर सकते हैं. लेकिन इन सवालों पर अमेरिकी बिजनेस की ओर से उन्हें कड़ी राय का सामना करना पड़ेगा. वे संधियों को अंधाधुंध तरीके से रद्द करने और सुरक्षा के लिए पैसों की खातिर नाटो के सदस्यों को धमकाने को लेकर चेतावनी देते हैं, ''अमेरिका पश्चिम यूरेशिया में नीति को बदलने पर अपने फायदों को गंवा सकता है. पूरी यूरोपीय व्यवस्था उस वादे पर निर्भर करती है कि बाह्य सुरक्षा चुनौतियों की जिम्मेदारी अमेरिका के नेतृत्व वाले गठजोड़ पर होगी. अगर आप उसे खत्म कर देंगे तो आप रूसियों और किसी को भी यह छूट दे देंगे कि वह यूरोप को प्याज की परतों की तरह छीलकर रख दे. यह विश्वयुद्ध के 65 वर्षों बाद अमेरिका की पूरी उस नीति को बिगाडऩा होगा, जो हमारे हित में रही है.''
मेनन का अनुमान है कि ट्रंप शायद अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों की तरह उतना ज्यादा दखल देने वाले राष्ट्रपति नहीं होंगे. अमेरिका की दखलअंदाजी कम होने से रूस, चीन और भारत जैसे मझोले ताकत वाले देशों की ओर से अंतरराष्ट्रीय मामलों में दखल देने की संभावना बढ़ जाएगी.
अगर ट्रंप अपने वादे के मुताबिक विश्व व्यवस्था को झकझोर देते हैं, तो भारत को चौकस रहना होगा. भारत और भारतीयों को लेकर अपने बयानों में वे मितभाषी और रूखे (कभी-कभी हंसोड़) रहे हैं. ऐसा उन्होंने चाहे इरादतन किया हो या नादानी में, मगर अपने चुनाव अभियान की एक सभा में वे सिर्फ हिंदुओं के साथ ही जुड़ते दिखाई दिए थे और उन्होंने कुछ खानापूर्ति करने वाली बातें कही थीं कि किस तरह 'हिंदू समुदाय ने विश्व सजायता और अमेरिकी संस्कृति को शानदार योगदान दिया है. और हम स्वतंत्र उद्यमशीलता, कड़ी मेहनत, पारिवारिक मूल्यों और एक मजबूत अमेरिकी विदेश नीति के हमारे साझा मूल्यों का जश्न मनाने की उम्मीद करते है.''
हालांकि हिंदुस्तान के साथ रिश्ते उनकी प्राथमिकताओं में ऊपर दिखाई नहीं देते. मगर उन्होंने अमेरिकियों के लिए ज्यादा नौकरियां मुहैया करवाने की खातिर हुनरमंदों को दिए जाने वाले स्किल्ड वीजा की तादाद घटाने की मांग की थी और अमेरिकी कंपनियों से कहा था कि वे खुली नौकरियों के लिए अमेरिकी कामगारों को तवज्जो दें, इसने भारतीय आइटी कंपनियों और प्रवासियों को चिंता में डाल दिया है.
फिर भी कुल मिलाकर विशेषज्ञों को लगता है कि भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते पिछले दशक में एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं जहां सरकार बदलने से उनकी पक्की रफ्तार पर कोई असर पड़ने की संभावना नहीं है. विदेश मंत्रालय के एक बड़े अफसर कहते हैं, ''चुनाव कौन जीतेगा यह सोचकर हम रातों की नींद खराब नहीं करते. पिछले दशक के दौरान हमने इतने साधन तो जुटा ही लिए हैं कि जिनके दम पर हम किसी के भी पास पहुंच सकते हैं. और अमेरिका से हमारा रिश्ता इतना पक्का हो चुका है कि किसी भी देश में नेतृत्व बदलने से धक्का नहीं लगता.''
मगर इस बात को लेकर जरूर चिंताएं हैं कि वे चीन के साथ कैसे निबटेंगे. ओबामा प्रशासन ने चीन को घेरने के मकसद से एक एशियाई धुरी के लिए जोर लगाया था और इस इलाके में अमेरिका के रणनीतिक गुणा-भाग में भारत एक बड़ा खिलाड़ी था. चीन को लेकर ट्रंप की नीति अस्पष्ट है, सिवा इसके कि कारोबारी रिश्तों को लेकर वे कड़ाई से पेश आ सकते हैं. लेकिन दखलअंदाजी की अमेरिकी नीति पर उनके संदेहों और एतराजों को देखते हुए दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक विस्तारवादी इरादों को लेकर उनका प्रशासन बनिस्बतन कम सख्त हो सकता है. न ही इस बात की कोई संभावना है कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत के दाखिले में रुकावट पैदा करने से रोकने के लिए वे चीन पर दबाव डालेंगे. यह भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है.
जहां तक पाकिस्तान की बात है, इस बात की संभावना नहीं है कि ट्रंप उसके प्रति अमेरिकी नीति में कोई आमूलचूल बदलाव करेंगे. यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ पीस के एशिया सेंटर के एसोसिएट वाइस प्रेसिडेंट और पाकिस्तान के साथ अमेरिकी रिश्तों के विशेषज्ञ मोईद यूसुफ मानते हैं कि ट्रंप इस्लामाबाद के साथ रिश्ते तोड़े बगैर उस पर लगाम कसने की व्यापक सर्वानुमति जारी रखेंगे. वे मानते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को भारत के साथ जोड़कर नहीं देखने की सावधानी बरतेगा और आतंक के मुद्दे से कड़ाई से निपटेगा. ऐसी कोई संभावना नहीं है कि ट्रंप पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग करने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंसूबों का साथ देंगे. पाकिस्तान का संतुलन शायद ही बिगडऩे दें.
यूसुफ यह भी कहते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान से उसकी अफगान नीति को लेकर ज्यादा नाखुश है. ट्रंप ने अफगानिस्तान को लेकर अपने इरादों का अभी तक कोई खुलासा नहीं किया है. एक विशेषज्ञ ने मजाक किया कि उनकी नजरों का दायरा चीन तक जाकर ठहर जाता है. मगर आइएसआइएस का सफाया करने के उनके घोषित इरादे को देखते हुए वे यह गवारा नहीं कर सकते कि अफगानिस्तान से अलग हो जाएं और उसे फिर से इस्लामी उग्रवादी हाथों में जाने दें.
उनका असली इम्तिहान तब होगा, जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ जाए और एक बड़े हमले के बाद दोनों पक्ष सीमित जंग में उलझ जाएं. ऐसे में ट्रंप भारत की तरफदारी करेंगे या नहीं, खासकर तब जब दोनों पक्ष परमाणु हथियारों से लैस हैं? यह अहम सवाल है क्योंकि परमाणु हथियारों को लेकर ट्रंप का रवैया लापरवाह रहा है. उन्होंने जापान और दक्षिण कोरिया को परमाणु हथियार बनाने देने की बात कही है, ताकि अमेरिका को और ज्यादा परमाणु हथियार बनाने की जरूरत न रहे.
दूसरे लोग दलील देते हैं कि ट्रंप जब तक अमेरिका का कोई सीधा फायदा नहीं देखते, तब तक फौजी ताकत का इस्तेमाल करने के अनिच्छुक होंगे. ऐसे में वे टकराव के क्षेत्रों और रिश्तों में और ज्यादा सुलह-सफाई पर जोर देंगे. अगर ऐसा होता है, तो उनके श्विनाश पुरुष्य होने को लेकर फैली आशंकाएं और संदेह दूर हो जाएंगे और उनकी जगह आशाएं जगेंगी. ट्रंप के लिए जिंदगी में जीतना सबसे अहम चीज है. यह बात न सिर्फ अमेरिकी बल्कि दुनिया भर के लोगों से निबटते समय उन्हें और भी ज्यादा दिमाग में रखनी होगी.
अमेरिकी चुनाव 2016: महा विध्वंसक
सियासी तकल्लुफों से शालीनता की हद लांघने तक बेपरवाह ट्रंप से बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति दुनिया में हलचल की आशंका.

अपडेटेड 23 नवंबर , 2016
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