हर 2,37,269 भारतीयों में सिर्फ एक यहूदी धर्म का अनुयायी है. यहूदी समुदाय देश की आबादी का महज 0.0004 फीसदी है. इस कदर बेहद कम आबादी के बावजूद उन्हें वे फायदे नहीं मिलते जो सरकार दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को देती है. मगर दो शख्सियतों ने इन हालात को बदलने की ठान ली है. ये हैं भारतीय यहूदी संघ के मानद सचिव एजरा मोजेज और भारतीय यहूदी कांग्रेस के अध्यक्ष सोलोमन सॉफर.
अप्रैल 2016 में केंद्र में अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्लाह ने आखिरकार ऐलान किया कि सरकार 5,000 सदस्यों के इस समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने पर विचार कर रही है. उम्मीद की यह किरण उस चिट्ठी के करीब दो साल बाद दिखाई दी जो महाराष्ट्र के राज्यपाल और बीजेपी के प्रमुख नेता सी.वी. राव की सिफारिश के बाद सॉफर ने मंत्रालय को लिखी थी. आखिरी फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल को करना है और मोजेज की उम्मीदें एनडीए सरकार पर हैं.
'भारत हमारी मातृभूमि और इज्राएल हमारी पितृभूमि है'
मोजेज कहते हैं, ''यहूदी हजारों साल से भारत में रहते आ रहे हैं और हमें कभी यहां के लोगों के जुल्मों का सामना नहीं करना पड़ा. यही वजह है कि हम खुद को सबसे पहले भारतीय कहेंगे. हम भारत माता की जय के नारे भले न लगाएं, मगर हम भारत को अपनी मातृभूमि और इज्राएल को अपनी पितृभूमि मानते हैं, जिसका वादा हमारे सर्वशक्तिमान ईश्वर ने हमसे किया है. दिक्कत यह है कि भारत की आजादी के वक्त हमारे समुदाय के अगुआ मानते थे कि हम पिछड़ा वर्ग नहीं थे, सो हमें विशेष दर्जे की जरूरत नहीं थी.''
मोजेज पिछले 35 साल से ठाणे में यहूदी इबादतगाह शार हाशामैन (जन्नत का दरवाजा) के मानद सचिव हैं और यहां के 300 परिवारों वाले समुदाय की अगुआई कर रहे हैं. वे मानते हैं कि अल्पसंख्यक दर्जा अब उनके समुदाय के लिए बेहद जरूरी है. उन्होंने हाल ही में ठाणे इबादतगाह का जीर्णोद्धार करवाने का फैसला लिया है, जिसे ग्रेड 2-बी की हेरिटेज इमारत का दर्जा हासिल है. यह फैसला ठाणे नगर निगम (टीएमसी) के साथ सात साल लंबी चली लड़ाई के बाद लिया गया है, जिसने सड़क चौड़ी करने के लिए इस इबादतगाह सिनेगॉग और सदियों पुराने कब्रिस्तान के कुछ हिस्सों का बार-बार अधिग्रहण किया. वे कहते हैं, ''हमें यह वाकई लड़कर हासिल करना पड़ा.''
मोजेज बेने इज्राएली समुदाय के और सोफर बगदादी यहूदी समुदाय के नेता हैं. दोनों मानते हैं कि अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना अब बेहद जरूरी है, केवल इसलिए नहीं कि उन्हें अपनी धार्मिक इमारतों और कब्रिस्तानों के रखरखाव में मदद मिले, बल्कि इसलिए भी कि वे अपने स्कूलों के लिए सरकारी सहायता हासिल कर सकें. वे सर ऐली काडूरी, जैकब सासून और ईईई सासून स्कूल चलाते हैं. मगर आर्थिक सहायता तो इसका महज आधा हिस्सा ही है. मुंबई के कुछ ज्यादा धर्मनिष्ठ यहूदी परिवार मानते हैं कि ये स्कूल अब कुछ खास यहूदी नहीं रह गए हैं. ये तीनों स्कूल मुस्लिम बहुल इलाकों (भायखला और मझगांव) में हैं. इसका मतलब है कि करीब 90 फीसदी छात्र मुसलमान हैं. इसके अलावा एक भी शिक्षक यहूदी नहीं है और सुबह पढ़ी जाने वाली तोरा की एक प्रार्थना के अलावा यहां कोई मजहबी तालीम भी नहीं दी जाती.
यही वजह है कि शैरोन गलसूरकर और उनकी पत्नी शैरोना मासिल-गलसूरकर सरीखे लोग अपनी सबसे बड़ी बेटी को यहां से हटाकर मुंबई के चाबाड स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश में हैं. चाबाड अमेरिकी रब्बी चलाते हैं और यहां धार्मिक शिक्षा को भी उतनी ही अहमियत दी जाती है जितनी धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को.
मात्जो, पोस्टमार्टम व अन्य चुनौतियां
गलसूरकर दंपती के लिए अल्पसंख्यक दर्जे के ज्यादा मायने नहीं होंगे. इसलिए नहीं कि वे आखिरकार इज्राएल के बुलावे की उम्मीद कर रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें पक्का यकीन नहीं है कि इससे भारतीय यहूदियों की रोजमर्रा की चुनौतियों पर कोई खास असर पड़ेगा. यहूदियों के त्योहार पासओवर से एक दिन पहले भायखला के उनके तिमंजिला घर में अफरातफरी मची है, जहां कभी इज्राएल जाने वाले यहूदी बच्चों के लिए हॉस्टल हुआ करता था. पासओवर सेडर के लिए वे दोस्तों और उनके परिवारों के 53 मेहमानों के आने की उम्मीद कर रहे हैं और खाना घर का बना होना चाहिए. व्यंजनों की फेहरिस्त में चिकन ग्रैवी, आलू और मटर करी और ऐसे ही यहूदी ढंग से पकाए गए लजीज भारतीय व्यंजन शामिल हैं. एक बकरा भी हलाल (यहूदी नियमों के मुताबिक) किया गया है ताकि टांग निचली हड्डी का भोग चढ़ाया जा सके. इज्राएल के वाणिज्य दूतावास ने इस साल समुदाय के लिए खास अलोनी रोटी मोत्जा आयात नहीं करने का फैसला किया है. मगर उन्होंने बगदादी तर्ज की मात्जो का इंतजाम कर लिया है जो नजदीक की मागेन डेविड सिनेगॉग के पीछे एक तंबू में बनाई गई हैं.
इस बीच घर में पूरे दिन से एक किस्म की जबरदस्त सफाई चल रही है. तभी फोन पर अंतिम संस्कार की एक खबर घर में कुछ राहत लेकर आती है. पास के मुहल्ले में रहने वाले एक यहूदी सज्जन करीब आठ दिन पहले गुजर गए थे. पुलिस को उनका शव उनके घर में मिला, जो उसका पोस्टमॉर्टम (यहूदी कानून में जिसकी सख्त मनाही है) करवाना चाहती थी. शैरोन अफसोस के साथ कहते हैं, ''हमें पुलिस को समझाने में खासी मुश्किल पेश आई. वे आखिरकार पोस्टमॉर्टम के बगैर काम चलाने के लिए मान गए, पर उनका शव एक हफ्ते से मुर्दाघर में रखा हुआ है. यहूदी रिवाज के मुताबिक, जितनी जल्दी हो सके, शव को दफना देना चाहिए और आम तौर पर हम एक रात भी इंतजार नहीं करते.'' अब जाकर समुदाय को इस बात से कुछ राहत मिली है कि अंतिम संस्कार पासओवर के पहले कर दिया जाएगा.
''मैं ईसाइयत की बजाए इस्लाम से ज्यादा जुड़ा महसूस करता हूं''
कहा जाता है कि यहूदी लोग येरुशलम में सेकंड टेंपल के तबाह होने के बाद 2000 साल पहले भारतीय समुद्र तटों पर आ लगे थे. वे इज्राएल के उत्तरी साम्राज्य से एक जहाज में निकल भागे थे, जो महाराष्ट्र के समुद्रतटीय गांव नौगांव में आकर चूर-चूर हो गया. यहां इस घटना का एक स्मारक आज भी खड़ा है. इस समुदाय को बेने इज्राएली के तौर पर जाना गया. माना जाता है कि कोचीनी और बगदादी यहूदी बाद में आए. कोचीनी यहूदी समुदाय के पुराने से पुराने दस्तावेजों पर 1000 सीई (एक व्यापारिक घोषणापत्र) की तारीख है और यह मान लेना मुनासिब होगा कि यह समुदाय उससे पहले भी यहां मौजूद था. ये तीनों ही भारत में मान्यता-प्राप्त यहूदी समुदाय थे. मगर 2005 में इज्राएल के प्रधान रब्बी ने मिजोरम और मणिपुर में खोई हुई जनजाति ब्नेई मेनाशे की मौजूदगी को स्वीकार कर लिया और इज्राएली वापसी कानून के मुताबिक उनके आप्रवास को मंजूरी दे दी. इस दौरान आंध्र प्रदेश में तमिल बोलने वाले यहूदियों का छोटा-सा समुदाय खोई हुई जनजाति बेने एफराइम होने का दावा कर रहा है और ऐसे ही सुलूक की उम्मीद कर रहा है.
चूंकि यहूदी खुद को ईश्वर के 'चुने हुए लोग' मानते हैं, सो भारत में धर्मांतरण विरले ही होते हैं. उन्हें सिर्फ अंतरधार्मिक शादी के लिए बढ़ावा दिया जाता है. पारसियों की तरह शायद इसी वर्जना की वजह से उन्हें दूसरे स्थानीय समुदायों के साथ अमन-चैन रखने में मदद मिली है. इसका यह भी मतलब है कि ज्यादातर भारतीय यहूदी धर्म की बुनियादी बातों से नावाकिफ हैं. मुंबई में रहने वाले नथानियल झिराद कहते हैं, ''बहुत-से लोग सोचते हैं कि हम जीसस की इबादत करते हैं. वे मुझे क्रिसमस और ईस्टर पर शुभकामना देते हैं, जबकि दोनों धर्म बिल्कुल जुदा हैं. सच कहूं तो मैं ईसाइयत की बजाए इस्लाम से ज्यादा जुड़ा महसूस करता हूं. अगर करना ही हो तो मैं गिरजे में प्रार्थना की बजाए मस्जिद में नमाज अदा करना पसंद करूंगा. कभी-कभी मेरी इच्छा होती है कि मुझे अपनी पहचान और मजहब न बताना पड़े, पर मैं ऐसे सवालों का आदी हो गया हूं.''
24 वर्षीय चार्टर्ड एकाउंटेंट झिराद मानते हैं कि यह नावाकफियत खुद उनके समुदाय में भी है. उन्होंने धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन के लिए काम से एक साल की छुट्टी ली थी. हाल ही तक वे बच्चों को हिब्रू पढ़ाते और यहूदी धर्म पर प्रवचन देते थे. झिराद कहते हैं, ''पर मैं नहीं देखता कि माता-पिता अपने बच्चों के लिए इसे प्राथमिकता देते हों. वे भी दूसरे भारतीयों की तरह चूहा दौड़ में फंसे हैं.'' झिराद को लगता है कि समुदाय में ऐसे नेतृत्व की कमी है जो व्यापक संदर्भ में धर्म के आलोचनात्मक अध्ययन को बढ़ावा दे. वे कहते हैं, ''ग्रंथों के आलोचनात्मक अध्ययन की वजह से यहूदी विदेशों में अनूठे बने हुए हैं. भारत में इसकी कमी है. इसके लिए यहां आधारभूत ढांचा नहीं है.''
''मैं इज्राएल में अपने मजहब को कम अहमियत दूंगा''
अभी हाल तक समुदाय के पास इबादत की अगुआई करने के लिए कोई योग्यता प्राप्त पुरोहित या धर्माचार्य नहीं था. तभी अब्राहम बेंजामिन ठाणे के बेने इज्राएलियों के रब्बी (पहले और अकेले) बन गए. यहां तक कि अब भी समुदाय के बुजुर्ग ही शादियां, खतना और साथ ही बैट और बार मित्ज्वाह सरीखी रस्में करवाते हैं. इन रस्मों में आप सफेद बालों वाले बुजुर्गों को अपने कंधों पर सफेद शॉल ओढ़े और बाजू पर टेफिलिन की काले चमड़े की पट्टी कसकर बांधे देखेंगे. वे पांडुलिपियों से पढ़ रहे होते हैं.
ठाणे की शार हाशामैन इबादतगाह में इबादत की जुबान हिब्रू है और बातचीत मराठी में होती है. इबादतगाह सूट पहने लोगों से भरी होती है और कुछ दूसरे लोग अपनी सबसे अच्छी शेरवानी पहने होते हैं. औरतें अपनी पारंपरिक पोशाकों यानी चमकदार साड़ियों और सलमा-सितारे वाली सलवार-कमीजों में होती हैं और उनके सिर परतदार रूमालों से ढके होते हैं जिन्हें उनके बालों से पिन कर दिया जाता है.
मुल्क में यहूदी धर्म का पालन आसान नहीं है. ज्यादातर नौकरियों में यहूदियों के आराम के दिन शब्बाथ या शब्बात को भी काम पर जाना पड़ता है और योम किप्पूर, हनुक्का या पासओवर सरीखे यहूदी त्योहारों पर सरकारी छुट्टी नहीं होती. झिराद मानते हैं, ''पर भारतीय यहूदी होने से मैं समृद्ध हुआ हूं. यदि आप ऐसे मुल्क में हैं जहां हर कोई यहूदी है, हर कोई यहूदी कैलेंडर के मुताबिक काम करता है, तो फिर आप अपने को अलहदा कैसे बनाएंगे? हां, जिंदगी जरूर ज्यादा आसान होगी, पर आप इसकी कद्र भी कम करेंगे.''
''क्या यहां 25 साल बाद यहूदी होंगे? ''
महाराष्ट्र में असरदार बगदादी यहूदी सासून परिवार का योगदान इतना बेशकीमती है कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. उन्होंने डेविड सासून लाइब्रेरी, सासून गोदी, मेसिना अस्पताल, सासून अस्पताल, पुणे में एक कुष्ठ आश्रम बनवाया है. यहां तक कि बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना भी की. कई सासून, जिनमें सर जैकब और लेडी रशेल भी शामिल हैं, बेहतर रखरखाव वाले कब्रिस्तानों में से एक चिंचपोकली में इलियाहू इबादतगाह कब्रिस्तान में दफ्न हैं. जो लोग नागपाड़ा में 19वीं सदी के कब्रिस्तान में दफ्न हैं, वे इतने खुशकिस्मत नहीं थे. यह अब सार्वजनिक बगीचा बन गया है जहां 1824 की एक कब्र के अकेले पत्थर के अलावा कब्रिस्तान का कोई निशान नहीं है. शैरोन बताते हैं, ''किंवदंती है कि इसके नीचे दफ्न शख्स का भूत नगरपालिका के कारिंदों के पीछे पड़ गया और अपनी कब्र पर उन्हें सीमेंट नहीं डालने देता था.'' भारत में यहूदियों की आबादी भले ही घट रही हो, पर मोजेज जोर देते हैं कि यह समुदाय अभी भी बेहद 'जीवंत' है. बेन फ्रैंक अपनी किताब स्कैटर्ड ट्राइबः ट्रैवलिंग द डायस्पोरा फ्रॉम क्यूबा टु इंडिया टु ताहिती ऐंड बियॉन्ड में लिखते हैं, ''भारत में मैंने वह सवाल एक बार भी नहीं पूछा जो तमाम छोटे, विदेशी यहूदी समुदायों में आम तौर पर पूछता हूं: यहां 25 साल बाद भी यहूदी होंगे?''
''बेशक मैं यहूदी लड़की से शादी करूंगा''
इज्राएल के लिए आलिया या स्थायी आप्रवास पूरी तरह बंद नहीं हुआ है, पर अंधेरी की रहने वाली दो बहनों 20 साल की शाइना और 17 साल की एंजेला पेनकर सरीखे लोगों के लिए भारत ही घर है और हमेशा रहेगा. उन्हें इस बात पर नाज है कि वे अपनी यहूदी पहचान को फिर से हासिल करने के लिए नए-नए तरीके खोज लेती हैं. संयुक्त वितरण समिति (जेडीसी) युवा समूहों को सहायता देती है. ये युवा समूह पक्का करते हैं कि नौजवान नियमित तौर पर आपस में मिले-जुलें और अपने विचार बांटें. चुनी हुई युवा समिति साल भर कार्यक्रम करती रहती है, मसलन ग्रीष्म और शीतकालीन शिविर, बाइक राइड्स या क्रिकेट टूर्नामेंट. मगर इनमें सबसे धूमधाम भरा खाई फेस्ट होता है, जो हर साल मुंबई में हनुक्का मनाने के लिए आयोजित किया जाता है.
यह मेलजोल अपनेपन का जज्बा पैदा करने में मदद करता है और नौजवानों को स्वदेश में अपने मजहब के लोगों के साथ घुलने-मिलने का मौका देता है. हालांकि कुछ जोड़े मिलाने वाले भी हैं जो शादियां तय करने में मदद करते हैं, पर कई नौजवान यहूदी इन्हीं युवा कार्यक्रमों में अपना जोड़ीदार तलाशते और पाते हैं. अपने ही समुदाय में शादी करना शहरी भारतीयों के लिए भले ही प्राथमिकता न रह गया हो, पर भारतीय यहूदियों के लिए तो यह बेहद जरूरी है. झिराद कहते हैं, ''बेशक मैं यहूदी लड़की से ही शादी करूंगा. मैं इसे एक दायित्व के रूप में लेता हूं. इस परंपरा को इसके विशुद्धतम रूप में हम भला फिर कैसे जारी रख सकेंगे? खुद अपने मजहब के शख्स से शादी करने का मतलब नस्लवाद या वर्जना नहीं है. यह अपनी विरासत को जारी रखना है.''
''अब वे इनकार क्यों करेंगे?''
महाराष्ट्र के राज्यपाल और बीजेपी नेता सी.वी. राव की नवंबर 2014 की एक सिफारिश ने यहूदियों को अल्पसंख्यक दर्जा मिलने को बल दिया था. छह महीने बाद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने समुदाय को इत्तिला दी कि जनगणना में देश में यहूदी आबादी का कोई संकेत नहीं मिला है. देश के सबसे प्रमुख बगदादी यहूदियों में से एक सोलोमन सोफर कहते हैं, ''मगर इसकी कैफियत पेश करना आसान था. आखिरकार, जब जनगणना विभाग वाले हमारे घरों पर आए तब उन्हें कोई अंदाजा ही नहीं था कि यहूदी कौन हैं. उन्हें समझाने की बजाए हम फेहरिस्त में बतौर ईसाई दर्ज किए जाने पर राजी हो गए.''
देश भर में समुदाय की इबादतगाहों और विभिन्न संगठनों ने 5,000 यहूदियों की फेहरिस्त तैयार की, जिसमें ज्यादातर महाराष्ट्र, गुजरात, कोलकाता, कोच्चि, मिजोरम, मणिपुर और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों के यहूदी थे. अब वे अनुकूल जवाब का इंतजार कर रहे हैं. सोफर पूछते हैं, ''जो हमें वर्षों पहले मिल जाना चाहिए था, उसे उन्हें हमें अब देने से इनकार क्यों करना चाहिए?'' मोजेज ने अपनी उम्मीदें केंद्र सरकार पर टिका रखी हैं. उन्हें पक्का भरोसा है कि अल्पसंख्यक दर्जे का ऐलान मोदी की इज्राएल यात्रा या इज्राएली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू की भारत यात्रा के दौरान किया जाएगा.
भारतीय यहूदीः एक गुमशुदा समाज लेने बैठा जायजा
कभी नितांत जीवंत रहा भारत का यहूदी समुदाय अपने हालात पर नजर डालने को मजबूर. उनकी तादाद घट रही. उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने की बढ़ी उम्मीद.

अपडेटेड 25 मई , 2016
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