लगातार दो सत्रों में संसद में वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) विधेयक को पेश न कर पाने की लाचारी से हताश होकर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनवरी में कहा कि कांग्रेस के आला नेताओं को रुकावट में “परपीड़ा सुख” हासिल हो रहा है. सुख की बात पर भले दो राय हों मगर देश की सबसे पुरानी पार्टी जीएसटी, भूमि अधिग्रहण संशोधन जैसे कई महत्वपूर्ण विधेयकों को रोकने में कामयाब रही है. सो, इस विधायी गतिरोध के लिए जेटली के दोषारोपण को गलत नहीं कहा जा सकता. लेकिन वित्त मंत्री विधायी पहल लेने के मामले में अपनी सरकार की नाकामियों के लिए कांग्रेस को दोष नहीं दे सकते.
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के एक अध्ययन के मुताबिक, 26 मई, 2014 को केंद्र में शपथ ग्रहण के बाद नरेंद्र मोदी सरकार कुल 74 नए विधेयक यानी हर साल औसतन 37 विधेयक लेकर आई है. लेकिन संसद के सत्रों के हिसाब से देखें तो पिछले चार सत्रों में पेश किए गए विधेयक आधे से भी कम हो गए हैं. मसलन, 2014 के शीतकालीन सत्र में 16 विधेयक पेश किए गए तो 2015 के शीत सत्र में आठ विधेयक ही पेश किए गए. दरअसल, मौजूदा बजट सत्र में सरकार ने संसद में एक भी विधेयक पेश नहीं किया. पिछले दो साल में सरकार ने सिर्फ 23 नए विधेयकों का मजमून तैयार किया. इंडिया टुडे ने इस आंकड़े को जेटली के सामने रखा तो वित्त मंत्री के पास बचाव में सिर्फ इतना भर कहने को था, “देश का राजकाज सिर्फ विधायी कामकाज से ही नहीं चलता.”उनके सहयोगी, केंद्रीय शहरी विकास, आवास तथा शहरी गरीबी उन्मूलन और संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडु का कहना था कि सरकार का जोर “मात्रा बढ़ाने पर नहीं, बल्कि गुणवत्ता” पर है. वे कहते हैं, “सवाल सिर्फ विधेयकों की संख्या का ही नहीं है, बल्कि राजनैतिक इच्छाशक्ति और कार्यक्रमों को जमीनी स्तर पर उतारना विधायी प्रक्रिया का ही हिस्सा है...हमारा अंतिम लक्ष्य विकास और सुशासन है.”
नायडु के मुताबिक, सरकार “न्यूनतम सरकार और अधिकतम सुशासन” के अपने मकसद से पुराने पड़ चुके कानूनों की समीक्षा और संशोधन में लगी हुई है. वे कहते हैं, “महत्व की बात यह है कि लंबे समय से लंबित मुद्दों को निबटाया जा रहा है और बेहद जरूरी होने पर ही नए विधेयक लाए जा रहे हैं. हमने बांग्लादेश भूमि हस्तांतरण विधेयक को पारित करवाया जो 1970 के दशक से लटका पड़ा था. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक और रीयल एस्टेट विधेयक भी इसी श्रेणी में आते हैं.” लेकिन आंकड़े नायडु की इस दलील की गवाही नहीं देते क्योंकि पूर्व लोकसभा के 60 विधेयकों में से सिर्फ आठ विधेयक ही 16वीं लोकसभा में पारित हो पाए हैं. 14वीं लोकसभा में 30 लंबित विधेयकों में से छह और 15वीं लोकसभा में 37 लंबित विधेयकों में से आठ पारित हुए थे.
उनके कनिष्ठ, संसदीय कार्य राज्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी इसका दोष विपक्ष पर भी मढ़ते हैं. वे कहते हैं, “संसद की कार्य मंत्रणा समिति में सभी दलों के सदस्य हैं. जब इतने सारे विधेयक लंबित हों तो समिति के सदस्य पुराने विधोयकों को ही तरजीह देते हैं. नए विधेयकों पर विचार नहीं किया जाता.” हालांकि वे यह स्वीकार करते हैं कि सरकार विधायी कार्य में कुछ सुस्त है लेकिन यह भी कहते हैं कि सरकार नए विधेयक राज्यसभा में विपक्ष की “गतिरोध की राजनीति” की वजह से पेश नहीं कर रही है. वे कहते हैं, “हम लोकसभा में तो विधेयकों को पास कर सकते हैं लेकिन ये उच्च सदन में जाकर रुक जाते हैं.”
“परपीड़क रवैए” के दोषारोपण की काट के लिए कांग्रेस इन आंकड़ों के जरिए भगवा पार्टी पर हमले का मौका जाया नहीं जाने देती. कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य अहमद पटेल कहते हैं, “ये आंकड़े ही बता देते हैं कि मोदी सरकार के पास किसी नए विचार और कानून बनाने की इच्छाशक्ति का अभाव है. वे कांग्रेस को दोष दे सकते हैं लेकिन हमने हर नए और जनोन्मुखी विधेयक का सदन में समर्थन किया है.”
उन्होंने फौरन यूपीए सरकार के विधायी कामकाज के पीआरएस के आंकड़ों की ओर ध्यान दिलाया. यूपीए-1 के दौरान 14वीं लोकसभा में 245 नए विधेयक यानी औसतन सालाना 49 विधेयक पेश किए गए. यूपीए-2 के दौर में 15वीं लोकसभा में 228 नए विधेयक यानी सालाना 46 विधेयक पेश किए गए. यूपीए-2 में विधायी कामकाज में कमी के लिए मुख्य तौर पर 2010 में लोकसभा के शीत सत्र में कोई कामकाज न हो पाना है. उस समय विपक्षी दल बीजेपी ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग के साथ दोनों सदनों में भारी गतिरोध पैदा कर दिया था (लोकसभा का 94 प्रतिशत समय बर्बाद हुआ तो राज्यसभा का 98 प्रतिशत).
यूपीए-2 के दौर में 15वीं लोकसभा में कामकाज पिछले पांच दशकों में सबसे कम हो पाया था. विपक्ष 2जी घोटाले, कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितता, खुदरा बाजार में एफडीआइ को मंजूरी और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति जैसे सवालों पर संसद में गतिरोध बनाए हुए था. पीआरएस के मुताबिक, लोकसभा में 61 प्रतिशत और राज्यसभा में 66 प्रतिशत ही कामकाज हो सका.
तब जेटली ने अपनी पार्टी के रवैए को यह कहकर जायज ठहराया था कि संसद में रुकावट पैदा करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है. लेकिन अब लोकसभा में 282 सीटों के भारी बहुमत के साथ उनकी पार्टी खुद को पीड़ित बता रही है और कांग्रेस पर राज्यसभा में अपने संख्याबल से विधायी कामकाज में अड़ंगा लगाने का आरोप लगा रही है. लेकिन एनडीए-2 के सत्ता में आने के बाद संसदीय कामकाज की समीक्षा से कुछ और ही कहानी खुलती है.
मोदी सरकार के तहत पहले पांच सत्र में लोकसभा में 711 घंटे के समय में से 704 घंटे कामकाज हुआ. अब इसकी तुलना जरा यूपीए-2 के पहले पांच सत्रों से कीजिए. तब कुल 768 घंटे में से 549 घंटे काम हुआ. अगर हम बजट सत्र को हटा दें तो पिछले चार सत्रों में लोकसभा में राज्यसभा के मुकाबले ज्यादा कामकाज हुआ, जो क्रमशः 97 प्रतिशत और 62 प्रतिशत रहा. 2015 के बजट सत्र में कामकाज सबसे अधिक हुआ है. लोकसभा में 122 प्रतिशत और राज्यसभा में 101 प्रतिशत कामकाज हुआ, जो संसद के पिछले 20 सत्रों में सबसे अधिक रहा है. कांग्रेस ने राज्यसभा में अपनी ताकत जरूर दिखाई और करीब 40 प्रतिशत कामकाज के घंटे स्वाहा हो गए, फिर भी सदन में छह विधेयक बिना बहस के पारित हुए.
हालांकि 16वीं लोकसभा में कुछ सत्रों में अच्छा कामकाज हुआ है. 2015 के शीत सत्र में 71 प्रतिशत विधेयक पेश हुए और उसी सत्र में पास हुए, जो पिछले 10 साल में सबसे अधिक है. फिर भी चाहे जो भी सरकार रहे, संसद के विधायी कामकाज में लगातार गिरावट आई है.
असलियत यह है कि यूपीए-2 के पहले आठ संसदीय सत्रों के समय 38 प्रतिशत समय गतिरोध में जाया हो गया. कांग्रेस के मुख्य सचेतक ज्योतिरादित्य सिंधिया एनडीए-1 की तुलना में एनडीए-2 की सुस्ती और यूपीए के दौर में संसदीय कामकाज में कमी में फर्क करते हैं. वे कहते हैं, “यह सरकार बस लुभावने नारे उछालने में उस्ताद है. विधायी कामकाज के लिए ठोस सोच और दूरदृष्टि की जरूरत होती है लेकिन यह सरकार तो अहंकार में ही मस्त है.” पूर्व केंद्रीय मंत्री सिंधिया मौजूदा वित्त मंत्री की इस बात से तो सहमत हैं कि देश सिर्फ विधायी कामकाज से नहीं चलता है लेकिन वे सरकार को चुनौती देते हैं कि वह अपनी “बहुप्रचारित” योजनाओं मेक इन इंडिया, जन धन योजना और स्वच्छ भारत पर अमल की असलियत तो बताए. वे कहते हैं, “ये सभी योजनाएं महज प्रचार के लिए हैं, जमीन पर उनका असर बेहद कम है.”
उत्तराखंड प्रकरण से राजनैतिक टकराव सबसे तीखा हो गया है इसलिए राज्यसभा में जीएसटी जैसे विधेयकों पर गतिरोध कायम रहने की ही संभावना ज्यादा है. फिर 2019 तक उच्च सदन में बीजेपी के हक में गणित बदलने की संभावना कम ही है. ऐसे में भगवा पार्टी में एक वर्ग “समय काटने” की रणनीति पर चलने का हिमायती है. बीजेपी के एक सांसद कहते हैं, “राज्यसभा अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोक नहीं सकती. अगर कोई विधेयक न खारिज किया जाए, न पारित किया जाए और विपक्ष लगातार रोड़ा अटकाता रहे तो सरकार को संसद को संयुक्त अधिवेशन बुलाना चाहिए, जिसके लिए हमारे पास संख्याबल है. इससे हमारा विधायी कामकाज बेहतर हो जाएगा.” बहरहाल, कांग्रेस का “परपीड़क” विरोध हो या मोदी सरकार की विपक्ष को साथ लेकर चलने की नाकामी, संसद कानून बनाने के अपने मूल काम से भटक गई है.
विधायी कामकाज में फिसड्डी मोदी सरकार
एनडीए सरकार विकास के लंबे-चौड़े दावे करती है लेकिन विधायी कामकाज में पूर्व यूपीए सरकार के प्रदर्शन से काफी पीछे. आखिर सरकार की संसद के मोर्चे पर इस सुस्ती की क्या वजहें हैं?

अपडेटेड 6 मई , 2016
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