बस मुझे दो मिनट दीजिए.” हम अमूमन रोज यह बार-बार दोहराते हैं. दो मिनट. 120 सेकंड. वक्त का यह बहुत छोटा-सा टुकड़ा हमारे जानने-समझने से पहले ही गुजर जाता है. काम का दिन पूरा होने से पहले यह 150 से 300 बार अपने आपको दोहराता है. कॉफी ब्रेक, झटपट फोन कॉल, गड़बड़ हो गए प्रिंटर को दुरुस्त करना-इन सीधे-सादे कामों में से किसी एक को भी पूरा करने के लिए दो मिनट का वक्त आमतौर पर काफी नहीं है. मगर यही वे दो मिनट हैं, जो पटना हाइकोर्ट में एक सामान्य दिन एक जज को औसतन एक सुनवाई के लिए मिलते हैं. दो मिनट! यह उन ढेर सारे खौफनाक आंकड़ों में से एक है, जिन्हें दक्ष ने भारतीय न्यायपालिका के अपने अध्ययन में पाया है.
यह तो खैर जानी-मानी हकीकत है कि हिंदुस्तानी अदालतों में मुकदमों में बहुत लंबा वक्त लगता है. ऐसा क्यों है? इस समस्या को हल करने के लिए क्या किया जाए? देश में कानून की हुकूमत के नजरिए से इस देरी का क्या मतलब है? इस देरी की सियासी, सामाजिक और आर्थिक कीमत क्या है? ये उन बेहद अहम सवालों में से कुछेक हैं, जो जज, अध्येता और विभिन्न आयोगों ने पूछे तो हैं, मगर पक्के तौर पर उनका जवाब देने में नाकाम रहे हैं. विधि आयोग की पूरी की पूरी रिपोर्टें हैं, जो इसी सवाल को समर्पित हैं. तो भी इस मसले से निबटने के लिए की गई तमाम चर्चाओं, बहस-मुबाहसों और नीतिगत सुझावों के बावजूद कुछ नहीं बदला है. अगर हम इस बदलाव न होने को लेकर चिंतन-मनन करें और इसकी वजहों पर ठीक-ठीक उंगली रखें तो दो ही शब्द दिमाग में आते हैं-आंकड़े और जिम्मेदारी.यह देरी क्यों
इस मामले में प्रासंगिक आंकड़ों पर ध्यान देने की मुकम्मल कमी है. हमें यह तो पता है कि न्याय व्यवस्था में कुल मिलाकर कितने मामले लंबित हैं (तीन करोड़ का आंकड़ा मीडिया वक्त-वक्त पर दोहराता रहता है) और कुछ अवैज्ञानिक तथा काल्पनिक मियाद भी बताई जाती है कि न्यायपालिका को इन पुराने लंबित मामलों को निबटाने में कितना वक्त लगेगा. मगर देरी की इस समस्या के बारे में हमें बहुत ही कम पता है. मसलन, आखिर वे किस किस्म के मुकदमे हैं जिन्होंने पूरी व्यवस्था को जकड़ रखा है? न्यायाधीश बेइंतहा लंबे-लंबे वक्त तय करते हैं, इसके बावजूद ऐसा क्यों है कि देरी के इस विशाल पहाड़ में कोई संजीदा सेंध नहीं लगाई जा पा रही है? क्या एक सूबे के जज काम में दूसरे सूबे के जजों से ज्यादा चुस्त हैं? अलग-अलग किस्म के मामले आखिर कितने लंबे वक्त तक व्यवस्था में लंबित रहते हैं और क्यों रहते हैं? हम इंसाफ के वक्त को ज्यादा से ज्यादा कैसे बढ़ा सकते हैं? बदलाव लाने के लिए इन सवालों के जवाब बहुत जरूरी हैं. फिर भी अभी हाल तक ऐसे आंकड़े और जानकारी जुटाने की कोई व्यवस्थित कोशिश नहीं की गई, जिनसे इन सवालों के उत्तर जानने में सहायता मिल सके.
दक्ष का “रूल ऑफ लॉ प्रोजेक्ट” न्यायिक आंकड़ों की इस कमी को काफी हद तक पूरा करता है. दक्ष के डाटाबेस में फिलहाल 40 लाख से ज्यादा ऐसे मुकदमों के ब्यौरे हैं, जो देश की विभिन्न अदालतों में लंबित हैं. हमारे पास जिन 21 हाइकोर्टों का डाटा मौजूद है, उनमें किसी भी मुकदमे के लंबित होने का औसत वक्त 3 साल और 1 महीना (1,128 दिन) है. किसी भी अधीनस्थ अदालत में आपका कोई मुकदमा चल रहा है तो उस पर फैसला होने में लगने वाला संभावित औसत समय तकरीबन 6 साल (2,184 दिन) है. अगर मान लें कि एक मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में नहीं जाता (और न्याय व्यवस्था में आने वाले बहुतायत मामले नहीं जाते), तो कम से कम एक ऊंची अदालत में अपील करने वाले औसत वादी को 10 साल से ज्यादा वक्त अदालतों में गुजारना पड़ सकता है.
अगर आपका मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो यह औसत समय कम से कम 3 साल और बढ़ जाता है. यह भी जरूर याद रखें कि हम सिर्फ औसत के बारे में बात कर रहे हैं. अगर आप ज्यादा ही बदकिस्मत हैं तो आप के मुकदमे में औसत से भी ज्यादा वक्त लग सकता है. बात को और सही नजरिए से सामने रखने के लिए हमारे डाटाबेस से खुलासा हुआ कि 1940 और 1950 के दशक के मामले भी अभी अदालतों में लंबित हैं.
मुकदमा दर्ज करवाने वालों की हताशा और कुंठा को समझा जा सकता है. देरी से पैदा हुई अनिश्चितता और कुछ नहीं तो कम से कम तकलीफदेह तो है ही, क्योंकि यह अदालतों में लड़े जा रहे मुद्दों पर सवालिया निशान लगा देती है. देरी से किया गया गया समाधान आखिरकार समाधान नहीं भी हो सकता है.
हम देख सकते हैं कि अगर आप कर्नाटक के हाइकोर्ट में आज कोई मुकदमा दाखिल करें, तो आप बहुत जल्दी से जल्दी 2019 तक अदालत में बने रहने की उम्मीद कर सकते हैं. इन 2 साल और 8 महीनों (969 दिनों) में आप तकरीबन 12-13 बार अदालत का चक्कर लगाने की उम्मीद कर सकते हैं, क्योंकि कर्नाटक हाइकोर्ट में दो सुनवाइयों के बीच लगने वाला वक्त 78 दिन है. हम कुछ और भी ज्यादा तफसीलदार आंकड़ों पर नजर डाल सकते हैं. मसलन, कर्नाटक हाइकोर्ट में कुल मुकदमों में 7 फीसदी नियमित पहली अपीलें (आरएफए) हैं. ये आरएफए औसतन 4 साल और 3 महीने (1,553 दिनों) से लंबित हैं. दूसरी तरफ, कंपनी याचिकाएं औसतन 6 साल से लंबित हैं. हालांकि ये कर्नाटक हाइकोर्ट के कुल मामलों की महज 1 फीसदी ही हैं.
हमारे डाटाबेस ने अलग-अलग अदालतों की तुलनात्मक तस्वीर भी पेश की है. हैदराबाद के हाइकोर्ट में मुकदमे औसतन 2 साल 2 महीनों (779 दिनों) से लंबित हैं. इस हाइकोर्ट के न्यायक्षेत्र में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना दोनों राज्य आते हैं, जिनकी आबादी 8.5 करोड़ है. इसकी तुलना गुजरात से कीजिए, जिसकी आबादी 6 करोड़ है और जिसके हाइकोर्ट में मुकदमों के लंबित होने की औसत अवधि तीन साल और 2 महीने (1,163 दिनों) से कुछ ज्यादा है. 2.5 करोड़ लोगों के ज्यादा होते हुए भी यह कैसे मुमकिन है कि हैदराबाद का हाइकोर्ट गुजरात की हाईकोर्ट से ज्यादा दक्ष और चुस्त जान पड़ता है?
देश में जजों की गिनती वह आंकड़ा है, जिस पर बहुत ज्यादा हाय-तौबा मची है. मगर जहां यह तो जरूरी है कि न्यायपालिका में स्वीकृत जजों की नियुक्ति की जाए, वहीं जजों की गिनती बढ़ाने भर से मुकदमों के सालोसाल लंबित होने की समस्या गायब नहीं हो जाएगी. आबादी के बरअक्स जजों के अनुपात की बजाए जिस बात पर विचार किया जाना चाहिए, वह है आबादी के बरअक्स मुकदमों का अनुपात. दक्ष के डाटाबेस में मौजूद आंकड़ों के मुताबिक आबादी के बरअक्स मुकदमों के अनुपात का राष्ट्रीय औसत (683 में से 513 जिलों के मौजूद आंकड़ों के आधार पर) 1.77 फीसदी है.
अब अगर उन जिलों को देखें, जहां आबादी के बरअक्स मुकदमों का अनुपात कम है, तो इससे हमें ऐसे माहौल की पहचान करने में मदद मिलेगी जिनमें मुकदमेबाजी की दरें कम होती हैं. और ज्यादा ऊंची दरों वाले जिलों को ज्यादा जजों और बुनियादी ढांचे के साथ बेहतर ढंग से भरा जा सकता है.
बेशक मुकदमों का जल्दी निबटारा अच्छी न्याय व्यवस्था का अकेला पैमाना नहीं है. मुकदमों का निबटारा निष्पक्ष और न्यायसंगत ढंग से करना होता है. इससे हम वापस ठीक वहीं पहुंच जाते हैं, जहां से हमने शुरू किया था-न्यायपालिका में लगने वाले वक्त का सवाल. हमारा डाटाबेस हमें बताता है कि हिंदुस्तान के हाइकोर्टों में जज एक दिन में 20 से 150 के बीच किसी भी तादाद में मुकदमों को सुनते हैं. इस तरह रोज 70 सुनवाइयों का औसत आता है. इस आंकड़े में एक और पहलू को जोड़ दें और वह है काम के घंटे. जज मुकदमों की सुनवाई में रोज औसतन 5 से 5.5 घंटे का वक्त खर्च करते हैं. यानी 300 से 350 मिनट.
जब हम दोनों आंकड़ों को एक साथ रखते हैं और उनमें सरल-सा भाग देते हैं तो पाते हैं कि देश में काम के बोझ से सबसे कम दबे हुए जजों के पास उनके सामने आने वाले हरेक मुकदमे को सुनने के लिए 15-16 मिनट का वक्त होता है, जबकि पटना हाइकोर्ट के जजों सरीखे सबसे व्यस्त जजों के पास एक मुकदमे को सुनने के लिए सिर्फ 2.5 मिनट का वक्त होता है और एक मुकदमे का फैसला करने के लिए जजों के पास औसतन 5-6 मिनट का वक्त होता है.
हम यहां सिर्फ औसत की बात कर रहे हैं और हां, जज बहुत सारा समय आखिरी सुनवाई वाले मामलों या ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत वाले मामलों पर खर्च करते हैं. लेकिन जब एक इंसान से 70 मामलों से जुड़े मुद्दों पर फैसला देने के लिए कहा जाता है तो इसमें से नाइंसाफी या अनौचित्य की बात को अलग हटा पाना नामुमकिन है. यह न सिर्फ मुकदमा करने वाले लोगों और वकीलों के प्रति नाइंसाफी है (और प्रैक्टिस करने वाले वकील हमारी अदालतों में मुकदमों की खालिस तादाद से पैदा होने वाली अनिश्चितता की तस्दीक करेंगे), बल्कि यह खुद जजों के प्रति भी बेहद पूर्वाग्रह से ग्रसित करने वाला है.
कोई भी समाज अपने जजों से इस कदर तनाव की हालत में न तो काम करने के लिए कह सकता है और न ही उनसे रोजाना इंसाफ देने की उम्मीद कर सकता है. यह टी-20 मैच में 300 रनों के पहाड़ का पीछा करने की तरह है. हर कोई जानता है कि ऐसा कर पाना लगभग नामुमकिन है और यह जानते हुए काम करना फैसले लेने में किस्मत और संयोग, दोनों को दखल देने का मौका देना है. इस तरह पीछा करने में रनों की रफ्तार बनाए रखने का दबाव बल्लेबाज को बगैर सोचे-समझे अपना विकेट गंवाने को मजबूर करता है. अगर उन्हें मुनासिब रनों का पीछा करना होता तो वे लक्ष्य हासिल कर सकते थे. इसी तरह एक जज भी कुछ निश्चित मामलों को लापरवाही से निबटाने के लिए मजबूर हो जाता है और अगली तारीख देने की अर्जियों को इसलिए आसानी से मंजूर कर लेता है क्योंकि उसके सामने अभी एक लंबी फेहरिस्त पड़ी है.
मगर न्यायाधीश बेशक इस बोझ से दबी व्यवस्था के सबसे कमजोर शिकार नहीं हैं. दक्ष ने इस व्यवस्था के असली शिकार वादियों या मुकदमा करने वालों का नजरिया हासिल करने के लिए इंसाफ की सुलभता पर सर्वे किया. इस सर्वे में दूसरी बातों के साथ-साथ हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली के गहरे राज के बारे में सवाल पूछे गए-उन विचाराधीन कैदियों के बारे में जो अभियोग में मुकर्रर सजा से कहीं ज्यादा वक्त कैद में काट चुके हैं. तकरीबन 28 फीसदी आरोपियों ने बताया कि वे निर्धारित सजा से ज्यादा वक्त जेल में बिता चुके थे. जमानती अपराधों के आरोपी 34 फीसदी लोगों ने दावा किया कि वे जेल में ही रहने को मजबूर हैं क्योंकि उनके पास जमानत या गारंटी देने वाला कोई नहीं है.
अगर इनमें से गलती की गुंजाइश और गलत धारणा की संभावना को निकाल भी दें तो ये दोनों ही आंकड़े चैंकाने वाले हैं. बेशक समूची आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए न्यायपालिका ही जिम्मेदार नहीं है, लेकिन तो भी ये आंकड़े निराशाजनक तस्वीर तो बयान करते ही हैं. और यही सबसे बड़ा पहलू हैं.
लोगों को इंसाफ मांगने और अदालतों में आने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. वकीलों की फीस और कोर्ट की फीस तो भारी-भरकम हो ही सकती है, वे निजी कीमतें भी बहुत ज्यादा हो सकती हैं जो मुकदमा करने वाले व्यक्ति को चुकानी पड़ती हैं. सर्वे ने दो कीमतों की थाह लेने की कोशिश की. इनमें एक सुनवाई के लिए अदालत आने में वादियों के हाथों चुकाई जाने वाली कीमतें थीं, और दूसरी, अदालत में उनकी मौजूदगी की वजह से काम और कारोबार के नुक्सान की कीमत थी.
प्रत्येक वादी ने अदालत में मौजूद रहने पर औसतन प्रति दिन 519 रुपये खर्च किए. हरेक मुकदमे में न्यूनतम दो वादी मान लें और देश में निचली न्यायालयों की तादाद (हमने यह संख्या 16,400 ली है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के डाटा के मुताबिक देश में निचली अदालतों की तादाद कम से कम 20,000 है) और हरेक अदालत में प्रतिदिन औसत सुनवाइयों की तादाद से उसका गुणा करें, तो हम उस कुल रकम का अंदाजा लगा सकते हैं जो वादी महज अदालतों की सुनवाइयों में मौजूद रहने के लिए खर्च कर रहे हैं. इतने बंधे-बधाए हिसाब से भी यह रकम हर साल 30,000 करोड़ रु. ठहरती है! यह रकम इतनी भारी है कि हर पैमाने से चौंकाने वाली है.
इससे भी ज्यादा बदतर यह है कि सालाना 1 लाख रु. से भी कम आमदनी वाले वादियों ने अपनी कमाई का 10 फीसदी हिस्सा एक साल में सिर्फ सुनवाइयों में मौजूद रहने पर खर्च कर दिया. दूसरी कानूनी फीस चुकाईं, सो अलग. खासकर गरीब लोगों के लिए तो इतने महंगे न्याय को पाने से बेहतर बिना न्याय के ही रह जाना हो सकता है.
शायद यही वजह थी कि हमारे सर्वे में मुकदमा करने वाले जिन लोगों से बात की गई, उनमें 33 फीसदी ने अदालतों की शरण में जाने की बजाए विवादों के निबटारे के वैकल्पिक साधनों के इस्तेमाल की तस्दीक की. वे मामलों के निबटारे के लिए अदालतों में जाने से पहले परिवार के बुजुर्गों, गांव या जाति पंचायतों या पुलिस के पास गए थे. अदालतों के बाहर मसलों को सुलझाने की कोशिश में कोई बुराई नहीं है, लेकिन उनमें से कुछ ने ज्यादातर मौकों पर जिन तरीकों का इस्तेमाल किया, उन्हें गैर-कानूनी नहीं भी तो कानून से हटकर ही कहा जा सकता है. ये ऐसे तरीके थे, जिनसे इंसाफ मिलने की उस बुनियाद को ही चोट पहुंचती है, जिसकी गारंटी संविधान और कानून के शासन ने दी है.
तो भी असल धक्का पहुंचाने वाली बात काम या कारोबार का भारी नुक्सान है. यह काम के समय की बर्बादी, तनख्वाह तथा कारोबारी नुक्सानों की वजह से होता है. हमारे सर्वे के मुताबिक, उत्पादकता का यह नुक्सान प्रति वादी 873 रु. है. हर सुनवाई के लिए हरेक वादी के अदालत जाने पर खर्च की गई रकम का हिसाब लगाने के लिए हमने जिस तरीके का इस्तेमाल किया था, उसी बंधे-बंधाए तरीके का इस्तेमाल करें तो हम हर साल उत्पादकता के नुक्सान का हिसाब लगा सकते हैं. यह आंकड़ा भी बेहद चैंकाने वाला हर साल 50,387 रु. है! राष्ट्रीय कीमत के तौर पर यह देश के जीडीपी में 0.48 फीसदी का इजाफा करता है. अगर
यह मुकदमेबाजी की भारी-भरकम कीमत नहीं है तो और क्या है?
इसे कैसे करें दुरुस्त
तो इस मसले को सुलझाने वाला आखिर कौन है? बदकिस्मती से यही साफ नहीं है. न्यायपालिका और कार्यपालिका, दोनों ही मुकदमों में हो रही देरी के मुद्दे को लेकर बेहद चिंतित हैं. हाल के वर्षों में राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश और कई कैबिनेट मंत्रियों ने सार्वजनिक बयान दिए हैं कि किस तरह न्यायपालिका इस संकट से दरपेश है और किस तरह यह कानून की हुकूमत को प्रभावित कर रहा है. इसलिए असल मुद्दा चिंता या सरोकार नहीं है, कूवत, ताकत और वक्त है.
आज कोई ऐसे पहचाने हुए लोग नहीं हैं, जो न्याय प्रणाली के प्रशासन को वक्त दे रहे हों, जिसमें न सिर्फ न्यायाधीश बल्कि उससे जुड़े नौकरशाह भी आते हैं और जो ढेर सारे कामों को अंजाम देते हैं. ये काम अगर दक्षता से किए जाएं तो व्यवस्था की चुस्ती में अच्छा-खासा इजाफा किया जा सकता है. संवैधानिक योजना में हाइकोर्ट (अनिवार्यतः उसके मुख्य न्यायाधीश, जो प्रशासनिक प्रमुख होते हैं), को राज्य की पूरी न्यायपालिका की देखरेख की शक्ति दी गई है. बदकिस्मती से मुख्य न्यायाधीश न्यायिक काम भी संभालते हैं और, जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, इसमें भी वक्त की तंगी में जकड़े रहते हैं. नतीजतन कुछ प्रबुद्ध जजों को छोड़ दें तो प्रशासन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता और इसे मोटे तौर पर रजिस्ट्री के अधिकार क्षेत्र में छोड़ दिया जाता है. रजिस्ट्री का ध्यान ज्यादातर रोजमर्रा की प्रक्रियाओं पर रहता है और उसके पास ऐसे साधन नहीं होते, जिससे नीतिगत स्तर पर डाटा संग्रह, विश्लेषण या सुधारों पर ध्यान दे सके.
इस सबके नतीजे में न्यायिक प्रशासन एक तरह से अनाथ हो गया है. जब तक एक चुस्त-दुरुस्त प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने की एकजुट कोशिशें नहीं की जातीं, तब तक व्यवस्था में सुधार की किसी भी कोशिश के दूरगामी नतीजे हासिल नहीं होंगे. कोर्ट मैनेजरों की योजना को अच्छी तरह तैयार और लागू करने में या राष्ट्रीय न्यायालय प्रबंधन प्रणाली समिति की दूरदृष्टि को आगे ले जाने में नाकामी इसकी नुमायां मिसालें हैं. जरूरत इस वक्त न्यायिक और राजनैतिक इच्छाशक्ति की है.
हरीश नरसप्पा वकील हैं और साथ ही डाटा-संचालित शोध के आधार पर राजकाज की संस्थाओं में क्षमता और जवाबदेही में
सुधार के लिए कार्य कर रहे संगठन दक्ष के सह-संस्थापक हैं. दक्ष की राम्या तिरुमलाई और काव्या मूर्ति ने इस लेख के लिए शोध के इनपुट दिए हैं.
बेहद लंबी, थकाऊ और खर्चीली डगर इंसाफ की
इंडिया टुडे के पास खास तौर पर उपलब्ध शोध एजेंसी दक्ष के एक सर्वेक्षण के नतीजे हिंदुस्तान में इंसाफ की अदायगी में लगने वाली बेहिसाब और गैरजरूरी देरी की वजहों का खुलासा करते हैं.

अपडेटेड 3 मई , 2016
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