नारा-ए-तकबीर, अल्लाहो अकबर, नारा-ए-रिसालत, या रसूलुल्लाह, नारा-ए-हैदरी, या अली. जब भी कोई सूफी नेता मंच पर चढ़ता, तो रामलीला मैदान में इकट्ठा भीड़ में पूरे भरे गलों से ये नारें हवा में गूंजने लगते. चार दिनों तक चले अपनी तरह के इस पहले आयोजन विश्व सूफी फोरम के समापन समारोह में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद राजधानी में मुसलमानों की सबसे विशाल भीड़ इकट्ठा हुई.
चार दिनों के इस फोरम को सूफी संतों की दरगाहों और मकबरों की शीर्ष संस्था अखिल भारतीय उलेमा और मशाइख बोर्ड (एआइयूएमबी) ने आयोजित किया था और इसे मोदी सरकार का समर्थन हासिल था. अनुदार मुसलमान सूफी संतों को गैर-इस्लामिक ठहराते हैं और उनसे दूर ही रहते हैं. इस फोरम के वक्ताओं में दुनिया के सबसे असरदार सूफी उपदेशकों में से एक ताहिर-उल-कादरी भी शामिल थे, जो पाकिस्तानी मौलवी हैं और कनाडा में रहते हैं (देखें बातचीत). केंद्र सरकार ने यह साफ कर दिया था कि वह उपमहाद्वीप की समन्वय करने वाली संस्कृति से निकले इस्लाम के कहीं ज्यादा उदार और सहिष्णु तरीके को मानने वाले भारतीय सूफियों को कट्टरपंथियों की काट के तौर पर देखती है.
नई दिल्ली के विज्ञान भवन में 17 मार्च को अपने उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने सूफीवाद की जमकर प्रशंसा की और उसे इस्लाम का सबसे बेशकीमती तोहफा करार दिया. मोदी ने कहा, ''जब हम अल्लाह के 99 नामों के बारे में सोचते हैं, तो उनमें से एक का भी मतलब शक्ति और हिंसा नहीं है.'' उन्होंने अपने भाषण में कहा, ''इस वक्त जब हिंसा की काली परछाइयां ज्यादा लंबी होती जा रही हैं, आप नूर या उम्मीद की रोशनी हैं. जब नौजवानों के ठहाकों को सड़कों पर बंदूक के बल पर खामोश कर दिया जाता है, आप घावों पर मरहम लगाने वाली आवाज हैं.''
मोदी ने जिन काली परछाइयों का जिक्र किया, वे बेशक दिलों और दिमागों पर कब्जे की वह लड़ाई है जिसे इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक और सीरिया (आइएसआइएस) ने छेड़ रखा है. यह पश्चिम के खिलाफ उनकी वह लड़ाई भी थी, जिसे वे सीरिया-इराक के जंग के मैदानों से पेरिस की और अब ब्रसेल्स की भी सड़कों पर लड़ रहे हैं.
दिल्ली के विश्व सूफी फोरम के संचालन में आयोजित इस समारोह में मुख्य जोर लोगों को उग्र विचारों के फेर में पडऩे से रोकना, कट्टरपंथी विचारधाराओं का खात्मा और हाशिये के उग्रवादी तत्वों तथा धार्मिक-फासीवादी मतों पर काबू पाना था, जो हिंसा और सहिष्णुता को जायज ठहराने के लिए मजहबी बातों का गलत अर्थ निकालने की कवायद में लगे हैं. इसने देश और दुनिया से आए 200 से ज्यादा नुमाइंदों के सामने भारत की बहुलता को भी पेश किया. समागम में भाग लेने वालों में 20 मुल्कों के सूफी उपदेशक शामिल थे. इनमें से कई इराक और सीरिया सरीखे गृह युद्ध से जर्जर मुल्कों से आए थे. तो कई तुर्की, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका और रूस सरीखे दूसरे देशों से भी आए थे, जो अपने को दुनिया के सबसे बर्बर इस्लामी समूहों की आलोचना के निशाने पर पाते हैं.
हिंदुस्तान में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी है और इसने अब तक इन कट्टरपंथी धड़ों की जहरीली विचारधारा से अपने को बचाकर रखा है. आइएसआइएस में भर्ती होने वाले महज 25 हिंदुस्तानी मुसलमान अभी तक सामने आए हैं. इसके बिल्कुल विपरीत, माना जाता है कि अब तक 1,600 फ्रांसीसी नागरिक पाला बदलकर आइएसआइएस के कब्जे वाले इलाकों में चले गए हैं.
मोदी का मंसूबा
हिंदुस्तान में सुन्नी मुसलमानों की 14.5 करोड़ आबादी में से आधे से ज्यादा लोग दरगाहों पर इबादत करते हैं और ऐसी मजहबी प्रथाओं को मानते हैं जिनकी बदौलत उन्हें सूफी कहा जा सकता है. माना जाता है कि हिंदुस्तान की मेलजोल की यही तहजीब उन ढेरों वजहों में से एक है जिन्होंने हिंदुस्तानियों को आइएसआइएस के भुलावे में पडऩे से रोक रखा है. अमेरिकी विदेश विभाग के पूर्व आतंक-विरोधी समन्वयक डेनियल बेंजामिन भारत को ''मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के साझा वजूद की सबसे हैरतअंगेज और सबसे हौसला बढ़ाने वाली कहानियों में से एक्य्य बताते हैं.
फोरम में सूफी उपदेशकों की खास मंडली जुटी, जिसमें मिस्र के ग्रैंड मुफ्ती शौकी इब्राहिम अब्देल करीम अल्लाम, बगदाद के शेख हसीमुद्दीन अल-गयलानी, पाकिस्तान के दीवान अहमद मसूद चिश्ती और बांग्लादेश के सईद मिनहाज उर रहमान थे. यह आयोजन ऐसे वक्त में हुआ, जब काहिरा, इस्तांबुल और बगदाद में अरब दुनिया के महान मजहबी केंद्र आइएसआइएस के उग्र-वहाबी हमले झेल रहे हैं. सरकार के शीर्ष अफसर कहते हैं कि मोदी का मंसूबा दिल्ली को विश्व सूफी आंदोलन की राजधानी बनाने का है और सम्मेलन ने इसी बात पर जोर दिया है. मोरक्को के प्राचीन सूफी केंद्र फेज की सूफी मस्जिद के इमाम शेख मोहम्मद इदरिस कहते हैं, ''यह कॉन्फ्रेंस बिखरे हुए सूफियों को दहशतगर्दी के खिलाफ एक मंच पर साथ ले आई और इसके जानिब हिंदुस्तान ने एक अहम हैसियत अख्तियार कर ली है.''
उत्तर प्रदेश में अयोध्या के नजदीक किछोछा शरीफ दरगाह के सईद मोहम्मद अशरफ एआइयूएमबी के मुखिया हैं. बोर्ड पहले भी बड़े सम्मेलन आयोजित कर चुका है, जिन्हें 'मुस्लिम महापंचायत' कहा गया था. इनमें उन्होंने जेहाद की विचारधारा और उग्रपंथी वहाबी पंथ पर जमकर हमले किए थे. कुछ मुस्लिम धड़ों के इन्हें शक की नजर से देखने के लिए यही वजह काफी है. जमीअत उलेमा-ए-हिंद के मौलाना अरशद मदनी इल्जाम लगाते हैं, ''मोदी सरकार मुसलमानों को बांटने और उनके भीतर दुश्मनी पैदा करने की कोशिश कर रही है.''
अशरफ इस आलोचना को साफ खारिज कर देते हैं. वे इस सम्मेलन को न सिर्फ दुनिया का सबसे बड़ा सूफी जमावड़ा बल्कि आजाद हिंदुस्तान में इस किस्म का पहला सम्मलेन भी करार देते हैं. वे कहते हैं, ''आजादी के 70 साल में जो लोग हुकूमत में रहे, उन्होंने हमें कभी बढ़ावा नहीं दिया, क्योंकि हम वोटों की शक्ल में फौरी फायदों का वादा नहीं करते.''
हिंदुस्तान के सूफी मुसलमानों की तादाद देवबंदी स्कूल के गरमपंथी वहाबियों और उनकी मिशनरी शाखा तबलीगी जमात और साथ ही कहीं ज्यादा जहरीली वहाबी धारा अहले हदीस के लगातार दबाव में है. अलबत्ता पाकिस्तान के विपरीत, जहां तालिबान के फिदायीन हमलावरों ने सूफी धर्मस्थलों पर हमले किए हैं, हिंदुस्तान के सूफियों को पंथ बदलने के लिए वहाबियों के बहलाने-फुसलाने का मुकाबला करना पड़ता है. हिंदुस्तान की सुरक्षा जमात भी उनके साथ ज्यादा अच्छे से पेश आती है. कट्टरपंथी विचार उनकी आस्था के उदार झुकावों से मेल नहीं खाते. काहिरा की प्रतिष्ठित अल अजहर यूनिवर्सिटी के इस्लामिक न्यायशास्त्र पढ़ाने वाले शेख अब्देल नईम याहया अल-खातमी कहते हैं, ''दहशतगर्दी का कोई मजहब नहीं होता. आतंक के खिलाफ लड़ाई इनसानियत के तकाजों और गैर-इनसानियत की ताकतों के बीच लड़ाई है. सूफी मत इनसानियत के तकाजों की नुमाइंदगी करता है.''
कट्टरपंथियों से निपटना
सम्मेलन में जो सेमिनार हुए, उनमें सूफी मत को मजबूत करने और उग्रपंथी इस्लाम के हमले के आगे उसे कमजोर करने वाली ताकतों से निपटने के लिए नए-नए विचारों और रणनीतियों को जमा किया गया. बाबरी मस्जिद विध्वंस और 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुई घटनाओं ने हिंदुस्तान में वहाबीवाद की बढ़ोतरी में योगदान दिया है. मौलवियों ने सूफी नौजवानों को इस्लाम के मजबूत और आक्रामक ब्रांड की तरफ खींचने की गरज से इन टकरावों में मुसलमानों को लगी चोटों को सहलाकर खूब फायदा उठाया.
फोरम में शिरकत करने वाले 1,200 लोगों में से दो-तिहाई युवा और मध्यम उम्र के मुसलमान थे. इसी उम्र के सूफी मुसलमानों को वहाबी बनाया जा रहा है. सम्मेलन के दौरान हुए आठ सेमिनारों में सूफीवाद में नई जान फूंकने, सहिष्णुता और साझा वजूद को बढ़ावा देने उसकी भूमिका और आतंकवाद के इतिहास और वजहों पर चर्चा की गई.
एआइयूएमबी के अध्यक्ष अशरफ ने प्रधानमंत्री मोदी से हिंदुस्तान के लगातार बेचैन मुस्लिम समुदाय के भीतर हिफाजत की भावना जगाने की गुजारिश की. उन्होंने कहा, ''चुनावों के पहले जो प्रोपगैंडा फैलाया जाता था कि अगर बीजेपी या मोदी सत्ता में आए तो मुसलमानों को परेशान किया जाएगा, वह चुनाव के बाद भी जारी है.'' सूफी तंजीम ईमान (इंडियम मुस्लिम एसोसिएशन—नूरी) के अध्यक्ष मोहम्मद हबीब ने इस कॉन्फ्रेंस को हिंदुस्तान के सूफियों को एक करने और उदार इस्लाम को बढ़ावा देने की दिशा में अपूर्व कदम करार दिया. ताहिर-उल कादरी ने तालीम में अमन और आतंकवाद से मुकाबले पर अलग पाठ्यक्रम जोडऩे की मांग की. पाकिस्तान के पंजाब में बाबा फरीद की मशहूर दरगाह से जुड़े दीवान अहमद मसूद चिश्ती कहते हैं, ''इस सम्मेलन ने दुनिया के सूफियों को ढेर सारी ताकत दी है. सूफी एकता का संदेश उग्र-वहाबीवाद के खिलाफ एक महान संदेश है.'' यह वह संदेश भी है जिसे मोदी सरकार सबको जोर-शोर से सुनाना चाहेगी.
(—साथ में, शादाब नज्मी)
सूफी मत: दहशतगर्दी का सूफियाना जवाब
कट्टरपंथी इस्लाम के असर में जब दहशतगर्दी दुनिया को दहला रही है, मोदी सरकार इस्लाम के ज्यादा उदार, ज्यादा सौम्य सूफी पंथ की हिमायत में खुलकर आई.

अपडेटेड 30 मार्च , 2016
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