आज से करीब छह सौ वर्ष पहले संत कबीरदास के समकालीन थे, संत रविदास/रैदास. अपनी रचनाओं के जरिए जाति और वर्ण व्यवस्था पर चोट करने वाले संत रविदास का प्रचलित दोहा हैः जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात. रैदास मनुष न जुड़ सके, जब तक जाति न जात. अब जरा इसी समाज की विडंबना देखिए. यूपी की राजनीति ने जैसे ही चुनावी वर्ष में प्रवेश किया, काशी के एक दलित परिवार में पैदा हुए इन्हीं संत रविदास की जाति प्रासंगिक हो गई. इस बार 22 फरवरी को 639वीं जयंती पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पीछे सीर गोवर्धनपुर में संत रविदास मंदिर का नजारा अभूतपूर्व था. सुबह दस बजकर दस मिनट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे. मत्था टेका, लंगर खाया और अपने दलित एजेंडे को पुख्ता करने की कोशिश की.
मोदी के संत रविदास मंदिर से जाने के ठीक ढाई घंटे बाद आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पहुंचे. संत की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया और प्रसाद के रूप में चाय पी. मंदिर के पुजारी संत निरंजन दास ने उन्हें अंग वस्त्र और मंदिर का स्मृति चिन्ह भेंट किया.
बात दलितों की थी तो बीएसपी भी कहां चूकने वाली थी. पार्टी ने उनकी जयंती के ही दिन गंगा के दूसरे छोर पर चंदौली के कटरिया गांव में एक रैली कर अपनी ताकत दिखाई. शाम को बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने दिल्ली से ही एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर संत रविदास के नाम पर किए गए काम गिना दिए. वे बोलीं, “बीएसपी सरकार के शासनकाल में ही संत रविदास के नाम पर भदोही जिले का नामकरण हुआ. वाराणसी में संत रविदास पार्क और घाट की स्थापना, फैजाबाद में महाविद्यालय का निर्माण और संत रविदास सम्मान पुरस्कार जैसे कार्य बीएसपी शासनकाल में हुए थे.”
जाहिर है, जाति, पंथ और क्षेत्र में जकड़ी यूपी की राजनीति में दलित वोट भी दांव पर लग गए हैं. राजनीतिक पार्टियों के बीच प्रदेश की कुल जनसंख्या में 20.7 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले दलित समाज को अपने पाले में करने की जंग का आगाज हो चुका है. 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद यूपी में एक दर्जन से अधिक सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने दलित वोटों में बिखराव की ओर इशारा किया है. इसी बिखराव के बीच इन वोटों पर अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए तकरीबन सभी पार्टियों के सूरमा चुनावी मैदान में कूद पड़े हैं.हाथी को कड़ी चुनौती
जेएनयू प्रकरण के बाद हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला जैसे ही कमजोर पड़ा, मायावती ने संसद में मोर्चा संभाल लिया. बीएसपी सदस्यों ने वेल में आकर सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी. केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से तीखी नोक-झोंक कर मायावती ने संकेत दे दिया कि वे दलित छात्र की आत्महत्या के मसले को हाथ से जाने नहीं देंगी. दलित जनाधार वाली बीएसपी को पहली बार इन्हीं वोटों की चिंता सता रही है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सोशल साइंसेज विभाग में प्रोफेसर बद्रीनारायण कहते हैं, “बीएसपी अपने दलित जनाधार को एकजुट करने में जुट गई है. मायावती की ताकत रहे दलित अब उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती भी हैं.”
मायावती अगले विधानसभा चुनाव में 2007 सरीखा प्रदर्शन दोहराना चाहती हैं. तब उनकी पार्टी ने यूपी में 62 आरक्षित सीटें जीतकर इतिहास रच दिया था.
यूपी की दलित आबादी में आधी से ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाले जाटव बीएसपी का कोर वोट बैंक माने जाते हैं. लोकसभा चुनाव के बाद नए सिरे से संगठन की संरचना कर मायावती ने जाटव बिरादरी से आने वाले 60 प्रतिशत से अधिक युवा नेताओं को को-ऑर्डिनेटर की जिम्मेदारी सौंपी है. इन नेताओं को ग्रामीण दलित बस्तियों में रात बिताकर बीएसपी का प्रचार करने के साथ गांवों में दलितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ कानूनी और आर्थिक मदद दिलाने को कहा गया है.
प्रमोशन में आरक्षण, दलित योजनाओं में भेदभाव जैसे मुद्दों पर समर्थन बटोरने का जिम्मा पार्टी के शिक्षित युवा नेताओं पर है. कभी बीएसपी में कद्दावर दलित चेहरे रहे जुगल किशोर, दद्दू प्रसाद जैसे नेताओं के पार्टी से बाहर जाने के बाद मायावती स्वयं हर महीने बीएसपी में जिम्मेदारी संभालने वाले दलित नेताओं के कार्यों की जोनवार समीक्षा कर रही हैं.यात्राओं की रणनीति
बाबा साहेब का सपना पूरा हुआ कांग्रेस पार्टी में. दलितों के बेटे एमपी, एमएलए मंत्री बन गइल रहिन, डीएम, कमिशनर, एसपी, बन गइल रहिन, मंत्रिमंडल में दलितों को अधिकार मिला कांग्रेस पार्टी में. कांग्रेस की भीम ज्योति यात्रा के साथ चल रही लोक गायकों की टोली ने ऐसे गीतों के जरिए दलितों के बीच पार्टी के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पिछले वर्ष 20 अगस्त को शुरू हुई ये यात्राएं अब तक पूर्वी यूपी के 34 जिलों का सफर पूरा कर चुकी हैं. लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद यूपी में अपना जनाधार बढ़ाने में जुटी कांग्रेस ने अपने पुराने दलित वोट बैंक पर फोकस किया है.
डॉ. भीमराव आंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष में कांग्रेस भीम ज्योति यात्राओं, पंचायत और संवाद के जरिए खुद को दलितों का हितैषी साबित करने की कोशिश कर रही है. राजस्थान, मध्य प्रदेश की भांति यूपी में भी कांग्रेस ने 85 आरक्षित सीटों पर 400 दलित नेताओं का एक नेटवर्क तैयार किया है. “लीडरशिप डेवलपमेंट मिशन इन रिजर्वड कांस्टिटुएंसीज” (एलडीएमआरसी) कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और अखिल भारतीय कांग्रेस के एससी विभाग के चेयरमैन के. राजू के दिमाग की उपज है.
नेताओं के इस समूह में सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी डॉ. ओमप्रकाश भी हैं जो यूपी में दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर नजर रख रहे हैं. दलित अत्याचार की घटनाओं पर ध्यान दिलाकर कांग्रेस दलितों के बीच सपा और बीएसपी की पोल खोल रही है. 18 फरवरी को प्रदेश मुख्यालय में आयोजित दलित कॉन्क्लेव में मौजूद राहुल गांधी ने उस वक्त सबको चौंका दिया, जब वे बोले, “मैं दावे के साथ कहता हूं कि यूपी में अगली सरकार कांग्रेस की ही बनेगी.” यह कहकर राहुल ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत सत्ता में भागीदारी की आस में बीएसपी की तरफ जाने वाले दलितों की तरफ अपना दांव चला.
बड़े नेताओं का सहारा
लोकसभा चुनाव में यूपी की सभी सुरक्षित सीटें जीतने वाली बीजेपी अभी तक प्रदेश में कोई सर्वमान्य दलित चेहरा नहीं तलाश पाई है. यही वजह है कि दलित वोटों की जंग में बीजेपी को पिछड़ता देख प्रधानमंत्री और बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कमान संभाल ली है.
रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजे असंतोष के बीच नरेंद्र मोदी ने 22 जनवरी को लखनऊ में आंबेडकर महासभा परिसर पहुंचकर डॉ. भीमराव आंबेडकर की अस्थि कलश पर फूल चढ़ाए. अगले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने गैर जाटव दलित जातियों पर ध्यान लगाया है. जाटव के बाद दूसरी सबसे प्रभावी जाति पासी वोटों पर पकड़ मजबूत करने के लिए ही बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने 24 फरवरी को बहराइच के गुल्लाबीर मंदिर में सुहेलदेव की प्रतिमा का लोकार्पण किया.
बीजेपी ने यूपी के उन जिलों पर ध्यान केंद्रित किया है, जहां दलित आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा है. इसमें ज्यादातर जिले मध्य और पूर्वी यूपी के हैं. बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चे के प्रदेश अध्यक्ष गौतम चौधरी कहते हैं, “बीजेपी उन दलित उप-जातियों को भी साथ ले रही है, जिन्हें पिछली किसी भी सरकार में प्रतिनिधित्व नहीं मिला था.” इसी क्रम में पार्टी ने पासी, कोरी, वाल्मीकि, धोबी जातियों के महापुरुषों के जन्मदिवस पर बूथ स्तर पर कार्यक्रम करने की रूपरेखा तैयार की है. जाटव बिरादरी में सेंध लगाने के लिए बीजेपी ने मायावती के जन्मदिन 15 जनवरी को कभी इनके सबसे करीबी रहे जुगल किशोर को पार्टी में शामिल कर लिया. 26 जनवरी से पार्टी ने इलाहाबाद से “सबके लिए आंबेडकर” अभियान की भी शुरुआत की, जिसमें दलित बस्तियों में गोष्ठियों का आयोजन कर बीजेपी नीत केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को गिनाया जा रहा है.
प्रमोशन में आरक्षण की जंग
सुप्रीम कोर्ट ने जब बीएसपी शासनकाल में लागू प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था को रद्द किया, सपा सरकार ने इसका लाभ पाए दलित अधिकारियों को “रिवर्ट” करने में देरी नहीं की. विधानसभा चुनाव के नजदीक आते ही प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे ने फिर गरमाहट पकड़ ली है.
आंबेडकर महासभा परिसर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने महासभा के अध्यक्ष डॉ. लालजी निर्मल ने दलितों की समस्याओं का पुलिंदा खोलकर रख दिया. निर्मल मोदी से बोले, “प्रमोशन में आरक्षण की बाधाएं दूर कर दीजिए, न्यायपालिका और निजी क्षेत्र में आरक्षण दिला दीजिए, आप दलितों के राम बन जाएंगे.” बीजेपी भले इस मुद्दे पर अपना रुख साफ न कर पाई हो, लेकिन कांग्रेस ने इसके सहारे अगले विधानसभा चुनाव में भगवा दल को घेरने की तैयारी शुरू कर दी है.
प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर रही सपा ने भी दलितों के बीच पैठ बनाने की कोशिशें शुरू की हैं. पार्टी एक बुकलेट तैयार करवा रही है जिसमें पिछली और वर्तमान सपा सरकार के कार्यकाल में दलितों के लिए शुरू की गई योजनाओं का जिक्र है. गैर जाटव बिरादरी के नेताओं को आगे बढ़ाने की रणनीति के तहत सपा ने जुगल किशोर वाल्मीकि को पार्टी के एससी-एसटी मोर्चे का महासचिव बनाया है.
इस राजनैतिक रस्साकशी के बीच नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े यूपी में दलित अत्याचार के लगातार बढ़ते जाने की तस्वीर पेश कर रहे हैं. दलितों को सुरक्षा और हक की आस है लेकिन राजनैतिक पार्टियां सब्जबाग ही दिखा रही हैं. इसी द्वंद्व के बीच 18 फरवरी को लखनऊ में आयोजित कांग्रेस दलित कॉन्क्लेव में एक नेता का दर्द कुछ यूं छलक पड़ा “हमें अपना दुख बताना नहीं आता, तो आपको भी तो अंदाजा लगाना नहीं आता.”
उत्तर प्रदेशः दलित वोटों के लिए फिर से वही दांव-पेच
यूपी में विधानसभा चुनावों से पहले अचानक सब पार्टियों को आई दलित महापुरुषों की याद. हर इशारा चुनावी गणित का है. जाहिर है, जाति, पंथ और क्षेत्र में जकड़ी यूपी की राजनीति में दलित वोट भी दांव पर लग गए हैं.

अपडेटेड 4 मार्च , 2016
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