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उच्च शिक्षा: दिमाग की सफाई भी तो हो

नई शैक्षणिक नीति ही नहीं, कोर्स में भी सामाजिक विषमता को शामिल करने की जरूरत.

अपडेटेड 22 जनवरी , 2016

वर्तमान में केंद्र सरकार नई शैक्षणिक नीति बनाने की कोशिश कर रही है. यह अच्छी बात है, इससे एजुकेशन एक कदम आगे बढ़ेगी. लेकिन यह करते समय यह ध्यान में रखना जरूरी है कि इससे पहले शिक्षा को लेकर जो कदम उठाए गए थे, उनको बिल्डअप करने की जरूरत है. इसकी वजह यह है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2006 से लेकर 2011 तक उच्च शिक्षा की समस्या का अध्ययन किया गया था. उससे यह मालूम हुआ कि उच्च शिक्षा में क्या-क्या समस्याएं हैं. उनके उपाय पर भी अध्ययन हुआ और उसके आधार पर ह्युमन प्लान की नीति बनाई गई.

इसलिए पहले जो नीति तैयार हुई थी, उनमें से कुछ चीजों को आधार मानकर नई नीति बनाई जानी चाहिए. मेरी समझ में उच्च शिक्षा की जो समस्याएं हैं, वे चार तरह की हैं. पहली समस्या जो है वह है उच्च शिक्षा की दर यानी कि एनरॉलमेंट नंबर बहुत कम है, जिसे बढ़ाया जाना चाहिए. दूसरी समस्या दर्जा यानी की गुणवत्ता की है, जिसको बढ़ाया जाना चाहिए. तीसरी समस्या शिक्षा संधि की है. चौथी समस्या उपयोगी शिक्षा यानी रेलवेंट एजुकेशन की है, जिससे कि छात्र-छात्राएं आज के दौर में रोजगार के लिए उन्मुख हों.

हमारी उच्च शिक्षा की दर अभी 25 तक है, जिसे 50-60 तक लाया जाना बेहद जरूरी है. इसके लिए मौजूदा विश्वविद्यालयों को क्षमता बढ़ानी पड़ेगी और जहां-जहां जरूरी है कि वहां विश्वविद्यालय और कॉलेजों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए. यह मुख्य तौर पर पैसे का मसला है. सरकार को विश्वविद्यालयों की मदद करनी है और कॉलेजों की संख्या बढ़ानी है. जहां तक क्वालिटी का सवाल है, यह तीन बातों से तय होती हैः एक तो शिक्षक, दूसरा इन्फ्रास्ट्रक्चर और तीसरा पाठ्यक्रम यानी शिक्षा क्रम और पढ़ाने की पद्धति. हमारे यहां शिक्षकों को लेकर समस्याएं रही हैं. हमारे यहां शिक्षकों की काफी कमी है और इसको दूर करने के लिए हमें बड़ी संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति करनी पड़ेगी. पिछली पंचवर्षीय योजना में शिक्षकों का वेतन बढ़ाया गया था. इससे अच्छे लोगों की इस पेशे में आने की संभावना बनी थी. लेकिन इसके लिए ज्यादा से ज्यादा पीएचडी छात्र-छात्राओं की जरूरत है और उनकी संख्या हमें बढ़ानी होगी. इसके लिए उनकी आर्थिक सिक्योरिटी बढ़ाने की जरूरत है&संख्या और राशि दोनों मामले में. इससे उच्च शिक्षा में सप्लाई बढ़ती है. इनफ्रास्ट्रक्चर की बात तो सामान्य-सी बात है कि शैक्षणिक संस्थानों और अन्य शैक्षणिक मामलों में बुनियादी चीजों को दुरुस्त करने के साथ उन्हें और बढ़ाना होगा.

पाठ्यक्रम में जो शैक्षणिक सुधार हैं, क्रेडिट और ग्रेडिंग सिस्टम, सेमेस्टर सिस्टम आदि, ये सभी तो पहले ही शुरू किए जा चुके हैं. वर्तमान सरकार भी इस पर जोर दे रही है, तो यह अच्छे से होना चाहिए. इससे शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ जाएगी. तीसरा मसला है कि शिक्षा तक सबकी समान पहुंच होनी चाहिए. अभी उच्च शिक्षा में महिलाओं, दलित, आदिवासियों, हिंदू और ईसाई के मुकाबले मुस्लिम छात्र-छात्राओं की संख्या काफी कम है. इसी तरह शहरों की तुलना में गांवों का प्रतिनिधित्व कम है. उच्च शिक्षा में दाखिले की जो यह विषमता है, इसको हमें दूर करना होगा. इसके लिए एक नीति बनाई जानी चाहिए. शिक्षा सबको मिलनी चाहिए, सबको अपनी उत्पादकता बढ़ाने का अधिकार है. सो यह एक अहम मसला है. इसी तरह उपयोगी शिक्षा  के मामले में स्किल एजुकेशन बढ़ाई जानी चाहिए. अच्छी बात है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने स्किल डेवलपमेंट को लेकर एक अलग नीति बनाई है.

प्रासंगिक शिक्षा का दूसरा पहलू यह है कि हमें ऐसी शिक्षा देने की जरूरत है जिससे छात्र-छात्राओं में नागरिक प्रदत्त अधिकारों की समझ बढ़ाई जा सके. हैदराबाद विश्वविद्यालय का मामला भी इसी से जुड़ा लग रहा है. विश्वविद्यालयों में विभिन्न जाति, समुदाय, और धर्म के बच्चे पढऩे आते हैं. वे अपने पुराने विचारों के साथ आते हैं और उसकी वजह से उनके बीच अलगाव पैदा होता है. इसकी वजह से उनके बीच विवाद होते हैं. इसमें समानता, भेदभाव की बात भी आती है और आरक्षण की वजह से दलित-आदिवासी छात्र-छात्राओं के प्रति अन्य की सही भावना नहीं होती है. सो हमें उन्हें एक कोर्स बनाकर उनमें समानता और न्याय की मूल भावनाएं, हर किसी के धर्म एवं संस्कृति को आदर करने की शिक्षा देनी होगी. हैदराबाद विश्वविद्यालय में हालिया विवाद की एक वजह छात्र-छात्राओं के बीच पैदा हुआ अलगाव है. यह अलगाव जाति, विचार आदि के आधार पर हुआ क्योंकि उन्हें हम वैसी शिक्षा दे ही नहीं पा रहे हैं, जिससे उनमें समान भाव पैदा हो. अमेरिका में तो बाकायदा कोर्स बनाकर विषमता, गरीबी, जाति, धर्म और जेंडर जैसी समस्याओं पर पढ़ाई होती है. इस तरह हम कैंपसों में भेद और दीवारें खत्म करने की कोशिश कर सकते हैं. अभी हमारी उच्च शिक्षा में ऐसा कुछ नहीं है. कभी-कभी मानव अधिकार विषय पर जरूर बात होती रहती है पर यह सही तरीके से हम नहीं दे पा रहे हैं. एम्स में इसी तरह के जातिगत भेदभाव की जांच समिति का मैं अध्यक्ष था तो समिति ने भी वहां प्रशासनिक भेदभाव पाया और यह भेदभाव अधिकतर शैक्षणिक संस्थानों में होता है. इस तरह छात्र-छात्राओं के बीच अलगाव दूर करने वाली शिक्षा की जरूरत और बढ़ जाती है.

सुखदेव थोराट(लेखक यूजीसी के पूर्व चेयरमैन हैं)

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